सामाजिक वानिकी की समस्या
वनों से मूल्यवान इमारती लकड़ियाँ, यथा-शीशम, सागवन, अर्जुन, चीड़ आदि प्रचुर
मात्रा में मिलती है, जिनका उपयोग फर्नीचर, रेल, भवन, निर्माण, कागज,
दियासलाई से सम्बद्ध उद्योगों में किया जाता है। लाह, गोंद, तेंदू पत्ता,
तेल, रबर, ट्यूब, टायर इत्यादि उद्योगों का विकास वन सम्पदा पर ही निर्भर
है। लेकिन वन केवल पशु-पक्षियों एवं इमारती लकड़ी उत्पाद तक ही सीमित नहीं
रहा बल्कि अनेक पौधे आयुर्वेद औषधियों से भी सम्बद्ध हैं, यथा-कुनैन,
सर्पेन्टीन, सिनकोना, क्यूपिस-ताता, अगरलोप इत्यादि।
वनों के कटाव से उत्पन्न पर्यावरण प्रदूषण जीव-प्राणियों के लिये खतरनाक
साबित हो गया है। पिछले डेढ़ दशक में वातावरण में कार्बन डाई ऑक्साइड का
संचय 1.5 (भाग प्रति लाख) प्रतिवर्ष था, जो वर्ष 1989 से 18 महीनों के
दौरान बढ़कर 2.4 (भाग प्रति लाख) प्रतिवर्ष हो गया। वर्तमान समय में ग्लोब
ऊष्मा में कार्बन डाई आॅक्साइड का भाग 50 प्रतिशत है। दूसरे 50 प्रतिशत में
अन्य गैसें-मिथेन, नाइट्रस तथा क्लोरोफ्लोरो कार्बन आदि हैं। प्रतिवर्ष
कार्बन डाई आॅक्साइड को सोखने के लिये कम-से-कम 4 लाख वर्ग किलोमीटर
क्षेत्र में फेले नए वनों की आवश्यकता पड़ेगी। शायद इसीलिए भारत जैसे कृषि
प्रधान देश के लिये वनों की उपयोगिता प्राचीन काल से ही महसूस की जाती रही
है। इस देश में बाग-बगीचे लगाना, जलाशयों का निर्माण करना गौ माँ की सेवा
करना पुण्य कार्य माना जाता था। घर के आंगन में तुलसी का पौधा लगाना, पीपल
के पेड़ में प्रतिदिन सुबह जल डालने की परम्परा थी और इसका सम्बन्ध धर्म के
साथ भी जुड़ा हुआ माना जाता था। लेकिन धर्म के साथ-साथ इसमें वैज्ञानिकता भी
स्पष्ट रूप से झलकती है। तुलसी का पौधा मलेरिया मच्छरों को नष्ट करने की
अद्भुत क्षमता रखता है और अन्य पत्तों की तुलना में इसमें खनिज सर्वाधिक
पाया जाता है। अन्य वनस्पति से हमें आॅक्सीजन तो मिलता ही है लेकिन पीपल एक
ऐसा वृक्ष है जो रात और दिन दोनों समय कार्बन डाई ऑक्साइड ग्रहण करता है
तथा प्रचुर-मात्रा में आॅक्सीजन देता है। पहले के अशिक्षित लोगों को इन
सारी बातों की जानकारी देना एक दिक्कत भरा काम था इसलिए हमारे ऋषि-मुनि इसे
धर्म से जोड़ कर मानव का कल्याण करते रहे।
जीव-जन्तु और पेड़-पौधों के साथ-साथ मानव मात्र की जीवन नैया पृथ्वी, जल,
अग्नि, पवन और आकाश इन्हीं संसाधनों पर निर्भर है और इन पाँचों घटकों को
सम्बन्ध निश्चित ही वनों से है। यदि वन समाप्त तो ये तत्व समाप्त।
जैसे-जैसे आधुनिकता की हवा बहती गयी वैसे-वैसे मानव स्वार्थ का पुतला बनता
गया और बिना भविष्य का ख्याल किये अंधाधुंध वनों को काटता गया तथा वनों के
जीव-जन्तुओं की निर्मम हत्या करता रहा। परिणामतः एक ओर पर्यावरण प्रदूषण की
समस्या उत्पन्न हुई तो दूसरी ओर अनावृष्टि एवं अतिवृष्टि से सूखा और बाढ़
प्रकोप बढ़ता गया। इमारती लकड़ियों का अभाव होता गया, ईंधन की लकड़ी की कमी
होती गई। मवेशियों के लिये चारे का अभाव होता गया और इनका मूल्य बढ़ता गया।
परिणामतः पौष्टिक तत्वों का अभाव हो गया। पर्यावरण में असंतुलन के चलते
भूमि की उर्वरा शक्ति में ह्रास, जलापूर्ति में कमी, नई-नई व्याधियों की
उत्पत्ति एवं ग्रामीण बेरोजगारी में बेतहाशा वृद्धि होती गयी।
अतः सरकार द्वारा ग्रामीण इलाकों में वृक्षारोपण को प्रोत्साहित करने, वन
सम्पदा को पुनः प्रतिष्ठित करने, वन सम्पदा एवं पर्यावरण के रक्षार्थ एवं
कल्याणार्थ अनेक ठोस कदम उठाये गये, यथा-वन संरक्षण अधिनियम 1930 जंगली
जीवन सुरक्षा अधिनियम, 1972 जल प्रदूषण नियंत्रण तथा निवारण अधिनियम, 1981
वायु प्रदूषण नियंत्रण तथा निवारण अधिनियम 1981 पर्यावरण सुरक्षा अधिनियम,
1986 एवं राष्ट्रीय परती भूमि विकास बोर्ड 1985 के अतिरिक्त अन्य केन्द्रीय
प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड व अन्य 23 राज्य बोर्डों की भी स्थापना की गई तथा
1988 में नयी राष्ट्रीय वन नीति की घोषणा की जिसमें वनों की रक्षा और उसके
विकास में जन साधारण को भागीदार बनाने में संकल्प लिया गया।
इन तमाम अधिनियमों के क्रियान्वयन के बावजूद हमारे देश में एक तिहाई भू-भाग
को जंगलों से आच्छादित करने का लक्ष्य पूरा नहीं हुआ। ‘नेशनल रिमोट
सेन्सिंग ऐजन्सी’ द्वारा उपलब्ध आँकड़ों से ज्ञात हुआ कि हमारे देश के कुल
भौगोलिक क्षेत्र का मात्र 11 प्रतिशत भू-भाग ही वनों से आच्छादित है जबकि
1979 के ‘नेशनल कमीशन आॅन एग्रीकल्चर’ की रिपोर्ट के अनुसार भारत के कुल
भौगोलिक क्षेत्रफल का 33 प्रतिशत हिस्सा वनों से ढका होना चाहिए। यानि देश
के लगभग 1000 लाख हेक्टेयर भू-भाग में वन होने चाहिए। इस प्रकार वनों का
अनवरत कटाव हमारे पर्यावरण के लिये गम्भीर चुनौती बन गया है।
यद्यपि सामाजिक वानिकी योजना में सरकार द्वारा विभिन्न प्रकार की सुविधाएँ
दी जाती रही हैं, जैसे- वृक्षारोपण के लिये आर्थिक सहायता, निःशुल्क पौधा
वितरण, विपणन सुविधा, भूमि पट्टे पर देना आदि, अतः यह जन सहयोग से बंजर
भूमि, सामुदायिक भूमि, सड़क व रेल मार्ग के किनारे, शहरों व नहरों के किनारे
और कृषि अयोग्य भूमि पर वृक्ष लगाने की योजना है। इससे एक तरफ पर्यावरण
प्रदूषण पर नियंत्रण होगा तो दूसरी तरफ मिट्टी के कटाव, बाढ़ व सूखे पर
नियंत्रण होगा, महामारी पर रोक लगेगी और बेरोजगारी में कमी आएगी।
हमारी सरकार सामाजिक वानिकी से सम्बन्धित समस्याओं के समाधान के लिये कृत
संकल्प है। वर्ष 1985-90 में सामाजिक वानिकी पर भारत सरकार ने 212 करोड़ 42
लाख रुपये खर्च कर 88 लाख हेक्टेयर भूमि में 161 करोड़ 37 लाख वृक्ष लगवाए।
राष्ट्रीय बंजर भूमि विकास बोर्ड ने वर्ष 1990-91 में 80 करोड़, 1991-92 में
121 करोड़ विभिन्न स्वयं सेवी संगठनों को बंजर भूमि पर वृक्ष लगाने के लिये
सहायता प्रदान की। चालू वित्तीय वर्ष में बोर्ड का परिव्यय 115 करोड़ रुपये
रखा गया है।
सरकार के वानिकी नीति के कार्यान्वयन के फलस्वरूप जो उपलब्धि होती दिख रही
है वह बहुत उत्साहवर्द्धक नहीं है। अतः इसे सामाजिक कार्यक्रमों के रूप में
लागू कर सामाजिक दायित्व के रूप में लेना होगा। सामाजिक शिक्षा एवं
सामाजिक धर्म से इसे जोड़कर इसकी अनिवार्यता पर बल देना होगा। सामाजिक
वानिकी के लिये देश के हर व्यक्ति को यह संकल्प लेना होगा कि हर वर्ष कम से
कम एक वृक्ष अवश्य लगाये और उसे पाल-पोस कर बड़ा करें।
चूँकि पर्यावरण प्रदूषण का आक्रमण प्रत्यक्ष रूप से सबसे गरीब तबके के
लोगों पर होता है इसलिए सतर्कता रखते हुए विद्यार्थियों, अभियन्ताओं,
ग्रामीण गरीबों को पर्यावरण सम्बन्धी प्रशिक्षण देकर वृक्षारोपण के लिये
जगाना होगा।
बेरोजगार युवकों को अपनी पौध वाटिका (नर्सरी) लगानी चाहिए। इसके लिये सरकार को भरपूर वित्तीय सहायता उपलब्ध करानी चाहिए।
ग्रामीण क्षेत्र विद्यालयों के पाठ्यक्रमों में वानिकी को अनिवार्य रूप से
जोड़ा जाए तथा विद्यालय, चिकित्सालय, कार्यालय, कारखानों के परिसर एवं
प्रत्येक गाँव के सरकारी भूमि में विद्यार्थियों द्वारा वानिकी कार्यक्रम
चलाया जाए।
वृक्षारोपण के साथ-साथ वृक्ष-संरक्षण पर विशेष जोर देने की आवश्यकता है जो
ग्रामीणों को इसमें भागीदार बनाकर ही किया जा सकता है, साथ ही इसके लिये एक
सख्त कानून की आवश्यकता है।
वानिकी के लिये ग्रामीण क्षेत्र के लोगों में आम सहमति के साथ-साथ वानिकी
से सम्बद्ध साहित्य की जानकारी देनी चाहिए ताकि यह अपनी पूर्ण सफलता को
प्राप्त कर पाये।
सामाजिक वानिकी कार्यक्रम में स्वयं सेवी संस्थाओं, शैक्षणिक संस्थाओं,
निजी संस्थाओं, सहकारी समितियों को विशेष योगदान देने की आवश्यकता है,
क्योंकि यह समय की मांग है और इसी में कल्याण है।
ग्रामीण क्षेत्र के लोगों को, जो विशेषकर अशिक्षित हैं, वानिकी के आर्थिक
लाभ से अवगत कराना होगा कि यह पर्यावरण प्रदूषण दूर करने का ही उपाय मात्र
नहीं है बल्कि आय का एक अच्छा स्रोत भी है।
सामाजिक वानिकी से सम्बद्ध उद्योग के प्रबन्धकों को वानिकी कार्यक्रम पर
विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है क्योंकि उनकी सफलता इसी पर निर्भर है।
वानिकी के अन्तर्गत ‘यूकेलिप्टस’ वृक्ष का उत्पादन अधिक आर्थिक लाभ के लिये
किया गया, लेकिन यह सामाजिक वानिकी के उद्देश्यों को पूरा नहीं करता साथ
ही देश की जलवायु भी इस वृक्ष के अनुकूल नहीं है। अतः वानिकी ऐसी होनी
चाहिए जिससे पर्यावरण सुधार के साथ-साथ चारा, ईंधन, इमारती लकड़ी व उत्तम
खाद भी उपलब्ध हो सके।
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