सामाजिक विकास का अर्थ (Meaning of social development) : जब किसी बच्चे का जन्म होता है तब उस समय बालक इतना असहाय होता है कि वह समाज के सहयोग के बिना मानव प्राणी के रूप में विकसित हो ही नहीं सकता। शिशु का पालन-पोषण प्रत्येक समाज अपनी विशेषताओं के अनुरूप करता है और बालक इसे अपने विभिन्न कार्यों में प्रकट करता है। इसे बालक का सामाजिक विकास (social development in india) कहते हैं।
आपकी बेहतर जानकारी के लिए बता दे की सामाजिक व्यवहारों का विकास यद्यपि शैशवावस्था से ही आरंभ हो जाता है परन्तु बाल्यावस्था में, सामाजिक विकास के संरूपों में गुणात्मक तथा मात्रात्मक परिवर्तन तीव्रतर गति से परिलक्षित होने लगते हैं। पूर्व बाल्यावस्था तथा उत्तर बाल्यावस्था में होने वाले सामाजिक विकास (social development theory) के संरूपों का विवेचन आगे किया जा रहा है।
सामाजिक विकास का महत्व :
बच्चों के सामाजिक की बुनियादी परिवार से पड़ती है। सामाजिक की इस प्रक्रिया में माता-पिता, परिवार के अन्य सदस्य, रिश्तेदार प्रमुख अभिकर्ता के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है। तत्पश्चात बाल्यावस्था में आस-पड़ोस, मित्रमंडली एवं विद्यालय की भूमिका भी सामाजिक विकास प्रक्रम में महत्वपूर्ण हो जाती है।
और जैसे-जैसे बालक परिवार के दायरे से निकलकर बाहरी लोगों से सम्पर्क बनाता है वैसे-वैसे उसकी सामाजिक
(social development psychology) दुनिया विस्तृत होती जाती है। माता-पिता पर बच्चे की निर्भरता कम होने लगती है तथा उसके स्थान पर परिवार के बाहरी व्यक्तियों से सम्बन्ध बनते जाते हैं।
हिथर्स (1957) का मानना है कि घर के बाहर की आरंभिक सामाजिक अनुभव संवेगों की दृष्टि से बालक के लिए प्रायः समस्या उत्पन्न करने वाले होते है, विशेषतः तब जब वह अपने से बड़े बालकों के सम्पर्क में आता है। बाहरी लोगों से समायोजन करने में उसकी सफलता बहुत कुछ इस बात से प्रभावित होती है कि घर के अन्दर उसे किस प्रकार के अनुभव प्राप्त हुए हैं। यथा-जनतान्त्रिक ढंग से पले-बढ़े बच्चों का समायोजन घर के बाहर सामाजिक समायोजन तथा पालन-पोषण की शैली से भी निर्धारित होता है।
ये बच्चे सत्तावादी, घरेलू परिवेश वाले बालकों की तुलना में अधिक समायोजनशील होते हैं। इसी प्रकार परिवार में बालक की संस्थिति ( यथा-बच्चा अपने माता-पिता की एकलौती संतान है या उसके सहोदर है, इत्यादि) भी उसके घर के बाहर के सामाजिक
(social development in sociology) समायोजन को प्रभावित करती है (बोसार्ड, 1953)।
यदि ये अनुभव धनात्मक हैं तो बाहरी लोगों से उसका समायोजन ठीक होगा। इसके विपरीत आरंभिक नकारात्मक अनुभव, बाहरी परिवेश के सारे बच्चों के समायोजन की क्षमता को घटाते हैं। प्रारंभिक बाल्यावस्था सामाजिक विकास की “ टोली पूर्व’ अवस्था यदि किसी कारणवश पूर्व बाल्यावस्था में बच्चे को अन्य बालकों के सम्पर्क में रहने का अवसर नहीं मिलता तो वह उन अनुभवों से बंचित रह जाता है जो तात्कालिक एवं भविष्य में सामाजिक समायोजन के लिए आवश्यक होते हैं।
छोटे बालकों के सामाजिक विकास में सामाजिक व्यवहारों की संख्या के अतिरिक्त उनके प्रकारों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। यदि उसे दूसरों के सम्पर्क से आनंद आता है, तो चाहे ये सम्पर्क कभी-कभी क्यों न हों, बावजूद इसके अग्रिम सामाजिक सम्पर्कों के प्रति उनमें धनात्मक अभिवृति विकसित करते हैं।
शिशु जहाँ वयस्कों के साथ अधिक संतुष्टि रहते हैं, वहीँ उसके लिए छोटे बच्चों का सम्पर्क सन्तोषप्रद
(types of social development) नहीं होता, परन्तु तीन वर्ष की आयु के बालक अन्य बालकों अन्य बालकों की ओर देखने में रूचि लेते हैं और यह उनसे सम्पर्क बनाने की प्रथम कोशिश होती है। इस अवस्था में बालक समानांतर खेल खेलता है जिसको दो बालक साथ होते हुए भी स्वतंत्र रूप से स्वांत: सुखाय, खेलते हैं।
इसके बाद ‘सहचारी खेल’ का चरण आता है जिसमें बालक अन्य बालकों के साथ खेलता है तथा एक जैसी क्रियाएँ करता है। अंततः ‘सहयोगी खेल’ का चरण आता है जिसमें बालक समूह का एक अंग बन जाता है।
मार्शल (1961) के अनुसार 3-4 वर्ष की अवस्था में बालक में समूह के प्रति लगाव विकसित होता है जो आयु में वृद्धि के साथ-साथ बढ़ता जाता है। इस उम्र का बालक प्रायः तटस्थ दृष्टा की तरह होता है जो अन्य बालकों को मात्र खेलते हुए देखता है, अन्य बालकों से बातें करता है, लेकिन समूह के खेल में प्रत्यक्ष रूप से शामिल नहीं होता। 4 वर्ष की आयु तक बालक में ‘संगठित खेल’ का आरंभिक रूप परिलक्षित होने लगता है। वह दूसरों के प्रति सचेत हो जाता है और आत्म प्रदर्शन द्वारा दूसरों का ध्यान आकर्षित करने की कोशिश करता है।
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