वेदांत (Vedant) = Vedanta
वेदांत संज्ञा पुं॰ [सं॰वेदान्त]
१. उपनिषद् और आरण्यक आदि वेद के अंतिम भाग जिनमें आत्मा, परमात्मा, जगत् आदि के संबंध में निरुपण है । ब्रह्माविद्या । अध्यात्म विद्या । अध्यात्म शास्त्र । ज्ञानकांड । उ॰—यद्यपि उपनिषदों को 'वेदांत' (वेद + अंत) संज्ञा दी गई है । —संत॰ दरिया (भू॰), पृ॰ ५६ ।
२. छह दर्शनों में से प्रधान दर्शन जिसमें चैतन्य या बहुत ही एक मात्र पारमार्थिक सत्ता स्वीकार किया गया है; जड़ जगत् और जीव कोई अतिरिक्त या अन्य पदार्थ नहीं माने गए । उत्तार मीमांसा । अद्वैतवाद । विशष—यद्यपि इस सिद्धांत का आभास वेद के मंत्रभाग में कहीं कहीं पाया जाता है, पर आगे चलकर ब्राह्मणों, आरण्यकों में अधिक से अधिकतर होता गया है । तथापि सर्वधिक इसका आधार उपनिषद् ही है जिनमें जीव, जगत् और ब्रह्मा आदि का निरुपण है । उपनिषदों में मख्य वे दस कठ, केन, प्रश्न आदि उपनिषद् हैं जिनपर आद्य शंकराचार्य का भाष्य मिलता है । उनमें जिस प्रकार 'अहं' ब्रह्मांस्मि, 'तत्वमसि' आदि जीवात्मा और परमात्मा की एकता प्रतिपादित करनेवाले महावाक्य हैं, उसी प्रकार पंचमहाभूतों में से पृथ्वी, जल और अग्नि ब्रह्म के मूर्त रुप तथा वायु और आकाश अमूर्त रुप कहे गए हैं । इस पक्रार उनमें जीवात्मा और जड़जगत् दोनों का समावेश बहुत के भीतर मिलता है जो अद्वेतवाद का आधार है । आगे चलकर उपनिषद् की इस बहुअविद्या का दार्शनिक ढंग से निरुपण महर्षि वादरायणँ क 'ब्रह्मसूत्रा' में हुआ है, जिनपर कई भाष्य भिन्न भिन्न आचार्यों ने अपने अपने मत के अनुसार रचे । इनमें अनेक भाष्य अत्यंत प्रसिद्ध हैं,—शंकताचार्य (शारीरीक), रामानुज वल्लभ आदि अनेक आचतार्यों ने इसपर भाष्य लिखे इनमें से शंकर का भाष्य ही सबसे प्रसिद्ध और चिंतनपद्धांति में बहुत आगे बढ़ा हुआ है । अतः'वेदात' शब्द से साधारणतः शकर का अद्वतवाद ही समझा जाता है । शेष भाष्य अनेक विद्वानों के मत से सांप्रदायिक मान जाते हैं । जगत् जीव और ब्रह्म या परमात्मा इन तीनों वस्तुओं के स्वरुप तथा इनके पारस्परिक संबंध का निर्णय ही वेदांत शास्त्र का विषय है । न्याय और वेशेषिक ने ईश्वर, जाव और जगत् (या जगत् के मूलद्रव्य परामाणु) ये तीन तत्व मानकर ईश्वर को जगत् का कर्ता ठहराया है, जो सर्वसाधारण की स्थूल भावना के अनुकूल है । वैशेषिक के अनुसार जगत् का मूल रुल परमाणु है जो नित्य है और जिस
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