अ (A) = a
अ संस्कृत और हिंदी वर्णमाला का पहला अक्षर । इसका उच्चारण कंठ से होता है इससे यह कंठय वर्ण कहलाता है । व्यंजनों का उच्चारण इस अक्षर की सहायता के बिना अलग नहीं हो सकता इसी से वर्णमाला में क, ख, ग आदि वर्ण अकार- संयुक्त लिखे और बोले जाते हैं । विशेष—अक्षरों में यह सबसे श्रेष्ठ माना जाता हैं । उपनिषदों में इसकी बडी महिमा लिखी है । गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है—'अक्षराणामकारोस्मि' । वास्तव में कठे खुलते ही बच्चों के मुख से यह अक्षर निकलता है । इसी से प्रायः सब वर्णमालाओं में इसे पहला स्थान दिया गया है । वैयावरणों ने मात्राभेद से तीन प्रकार का माना है, ह्रस्व जैसे— अ; दीर्घ जैसे—आ;प्लत जैसे — अ३ । इन तीनो में से प्रत्येक के दोदो भेद माने गए हैं; सानुनासिक और नीरनुनासिक । सान्- नासिक का चिह्न चंद्रबिदुँ है, । तंत्रशास्त्र के अनुसार यह वर्णमाला का पहाला आक्षर इसलिये है कि यह सृष्टि उत्पन्न करने के पहले सृष्टिवर्त की आकुल अवस्था की सूचित करता है । अ ^१ उप॰ संज्ञा और विशेषण शब्दों के पहले लगकर यह उनके अर्थों में फेरफार करता है । जिस शब्द के पहले यह लगाया जाता है उस शब्द के अर्थ का प्रायः अभाव सूचित करता है; जैसे, अकर्म, अन्याय, अचल । कहीं कहीं यह अक्षर शब्द के अर्थ को दूषित भी करता है जै॰—अभागा, अकाल, अदिन । स्वर से आरंभ होनेवाले शब्दों के पहले जब इस अक्षर को लगाना होता है तब उसे 'अन्' कर देते है; जैसे, अनंत, अनेक अनीश्वर । पर हिंदी में कभी व्यंजन के पहले भी 'अन्' के 'न्' को सस्वर 'न' करके 'अन' लगा देते हैं; जैसे, अनबन, अनरीति, अनहोनी आदि । संस्कृत वैयाकरणों ने इस निषेधसूचक उपसर्ग का प्रयोग इन छह अर्थों में माना हैः (१) सादृश्य; यथा—अब्राह्मण = ब्राह्मण के समान आचर रखनेवाला अन्य वर्ण का मनुष्य । (२) अभाव; यथा—अफल = फलरहित; अगुण = गुणरहित । (३) अन्यत्व; यथा— अघट = घट से भिन्न, पट आदि । (४) अल्पता; यथा—अनुदरी कन्या = कृशोदरी कन्या । (५) अप्राशस्त्य । बुरा; यथा—अभाग । अधन = बुरा धन । (६) विरोध; यथा—अधर्म = धर्म के विरुद्ध आचरण । अन्याय, आदि । हिंदी में इसका प्रयोग कुछ लोग स्वार्थिक रूप में भी मानते है, जैसे अलोप = लोप । अ ^२ संज्ञा पुं॰ [सं॰]
१. विष्णु ।
२. शिव (को॰) ।
३. ब्रह्मा ।
४. विराट ।
५. इंद्र ।
६. वायु ।
७. कुबेर ।
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