Nijamuddin Auliya Shayari निजामुद्दीन औलिया शायरी

निजामुद्दीन औलिया शायरी



GkExams on 18-12-2018


निज़ामुद्दीन औलिया कहते थे - ‘इबादत से ज़्यादा सवाब(पुण्य) ज़रूरतमंदों की मदद से मिलता है’. इसे उन्होंने कुछ इस तरह से समझाया है; ‘ख़ुदा की इबादत के दो तरीके हैं - ‘लाज़िमी’ और ‘मुत्ताद्दी’. पहले में ख़ुदा का सजदा, हज और रोज़े रखना. इसका सवाब सिर्फ उसको है जो ये करता है. ‘मुताद्दी’ है दूसरों की मदद, लोगों से मोहब्बत, ख़ुलूस और ईमानदारी से काम करने वाला. मुताद्दी के सवाब कभी ख़त्म नहीं होते.


‘फ़वैद अल फुआद’ में उन्होंने बयान किया है कि पैगंबर इब्राहिम ने एक बार किसी काफ़िर के साथ खाना बांटने में परहेज़ किया तब अल्लाह की आवाज़ आई- ‘मुझे इसे ज़िंदगी देने में गुरेज़ नहीं था, तुम्हें खाना बांटने में क्यूं है.’


वे अक्सर बग़दाद के शेख़ जुनैद का बयान लोगों के बीच रखते थे, जिन्होंने कहा था - ‘मदीना की गलियों में मुझे ख़ुदा ग़रीबों के बीच ही मिला है.’


एक बार किसी ने उनसे पुछा कि ख़ुदा तक जाने का रास्ता कौन सा है. तो उन्होंने शेख अबू सैद अबुल-खैर की बात दोहरा दी - ‘ जितने रेशों से ये जिस्म बना है, ख़ुदा तक जाने के उतने रास्ते हैं. पर सबसे छोटा रास्ता वो है जो इंसान के दिलों को ख़ुशी देता है. मैंने अब तक यही किया है और मेरी सलाह है तुम भी ऐसा करो.’

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एक बड़ा दिलचस्प किस्सा है जो उनके ख़यालातों की गवाही देता है; एक बार जब वो अपने खानकाह (निवास स्थान) की छत पर अमीर ख़ुसरो के साथ टहल रहे थे. उसी समय कुछ नागा साधुओं वहां से गाते-बजाते हुए यमुना नदी की तरफ जा रहे थे. उन्हें देखकर औलिया इतने अभिभूत हुए कि तुरंत ही एक शेर पढ़ दिया:


हर कौम रास्त राहे, दीन-औ क़िबला गाहे


(हर मज़हब का अपने-अपने मक्का जाने का रास्ता साफ़ है)


अमीर ख़ुसरो ने उस शेर को कुछ इस तरह पूरा किया:


मन क़िबला रास्त करदम बार सिम्त कजकुलाहे


(मैं तो अपना सारा ध्यान उस तिरछी टोपीवाले (निज़ामुद्दीन औलिया) में ही लगाता हूं.


अल बरानी ने लिखा है कि निज़ामुद्दीन औलिया का समाज पर इतना असर था कि उनके कहने से दिल्ली में अपराध कम हो गए थे. उन्होंने हमेशा माना कि क़यामत के दिन यह हिसाब ज़रूर होगा कि तुमने अपनी रोज़ी कैसे कमाई. अगरचे ग़लत रास्ते का इख्तियार किया है, तो ख़ुदा सज़ा ज़रूर देगा.


हज़रत निज़ामुद्दीन को अमीर ख़ुसरो से बेहद लगाव था और उन दोनों का मिलना भी एक कमाल का किस्सा है. यूं हुआ कि जब ख़ुसरो औलिया की खानकाह पर आये तो अंदर आने से पहले एक शेर लिखकर उन्होंने औलिया तक भिजवाया:

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‘तो या आन शाहे के एवान-ए- क़सरत कबूतर गर नशीनद बाज़ गरदद ग़रीब –ए-मुस्तमंदे-बुर दर आमद बेयायद अंदरुन या बाज़ गरदद.’


(हे! शाह तेरे घर की छत पर बैठते ही कबूतर भी बाज़ बन जाते हैं. मैं गरीब आया हूं. भीतर आने की इज़ाज़त है कि चला जाऊं?)


इस पर औलिया ने तुरंत लिखकर भेजा:


‘बेयायद अंदरुन मर्द-ए-हकीक़त के बा मा याक नफस हमराज़ गरदद अगर अबलय बुवाद आन मर्द-ए-नादां अज़ान राहे के आमद बाज़ गरदद.’


(अंदर तभी आना जब हम एक दुसरे के हमराज बन जाएं. अगर तुम गंवार हो तो भीतर न आना.)


इसके बाद दोनों का मिलन इतिहास में मिसाल बन गया. उन्होंने ने एक बार कहा भी था कि ‘मैं कभी-कभी सबसे उकता जाता हूं, यहां तक कि ख़ुद से भी. पर इस तुर्क (अमीर ख़ुसरो) से कभी नहीं.’ ख़ुसरो को उन्होंने ‘तुर्कुल्लाह’ की पदवी से नवाज़ा था.


निज़ामुद्दीन औलिया गयाथपुर में बसने से पहले कुछ समय के लिए ख़ुसरो के नाना इमादअल-मुल्क रावत की हवेली में रहे और एक समय पर वे पटियाला में भी इसलिए बसना चाहते थे कि वहां ख़ुसरो की हवेली भी थी. यहीं से ख़ुसरो का काव्यात्मक जीवन शुरू हुआ. वे कुछ भी लिखते पहले औलिया से दुरुस्त करवाते. ख़ुसरो ने अपने तीन संकलन; ‘घुररत अल-कमाल’ , ‘वसत अल-हयात’ और ‘निहायत अल-कमाल’ औलिया की नज़र किये और इन सबमें उन्होंने ख़ुदा और पैगंबर के बाद औलिया की शान में कसीदे पढे हैं. ख़ुसरो ने अपनी क़िताब ‘लैला मजनू’ में उनकी शान में लिखा है - ‘...औलिया अपने खानकाह में किसी राजा से कम हसियत नहीं रखते. वे इस ज़मीं पर मोहब्बत का आस्मां हैं. एक ऐसा सुल्तान जिसके सर पर न ताज है, न कोई राज पर सुलतान भी जिसके पैरों की धूल अपने ज़बीं (माथे) पर लगाते हैं. ख़ुदा करे कि उन्हें जन्नत में सबसे ऊंची जगह मिले और ख़ुसरो उनका नौकर बना रहे.



Comments Rohit on 18-12-2021

Nizamuddin ayliya ka sjra kya hai





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