कभी किसी जल स्रोत के किनारे खड़े होकर आस-पास नज़र दौड़ाइए। सम्भव है अनुकूल परिवेश के कारण बहुत-से हरे-भरे पेड़-पौधों के दीदार हो जाएँ। एक नज़र पानी के भीतर भी डाल लीजिए। यहाँ भी आपको छोटे-बड़े पौधे मिल जाएँगे। कुछ हरे-पीले छितरे हुए पत्तों वाले पौधे जल के नीचे उगते हैं जैसे हाइड्रा। कुछ फूले हुए तनों और डण्ठलों वाले पौधे जल की सतह पर तैरते हुए मिलेंगे जैसे जलकुम्भी। इसके अलावा आपके परिचित कमल, कुमुदिनी और सिंघाड़े के पौधे भी मिलेंगे जिनका आधा भाग पानी में डूबा हुआ और आधा सतह से ऊपर उठा हुआ रहता है।
यद्यपि जल के अभाव में पेड़-पौधों का फलना-फूलना सम्भव नहीं होता है, जल की अधिकता भी इनके जीवन में कई तरह की बाधाएँ खड़ी करती है। उदाहरण के लिए जल के अन्दर की दलदली सतह पर जड़ों को मज़बूती से टिकाए रखने की समस्या होती है। जल के प्रवाह से पौधे के बह जाने का खतरा होता है। जल के सम्पर्क में तने व पत्तों के सड़ने-गलने की सम्भावना होती है। श्वसन के लिए ऑक्सीजन प्राप्त करने की समस्या तो होती ही है, इसके अतिरिक्त जलनिमग्न पौधे में वंश वृद्धि के लिए परागण सम्पन्न कराने की भी समस्या होती है।
इन बाधाओं से पार पाने के लिए जलोदभिद् पौधों में कैसी-कैसी युक्तियाँ विकसित हुई हैं इसका जायज़ा लेने के लिए हमें कुछ ऐसे ही कुछ पौधों का निरीक्षण करना होगा।
पत्तियों का आकार
उथले जलाशय में उगनेवाला सिंघाड़े का पौधा आपने देखा होगा। पौधे के ऊपरी भाग की पत्तियाँ चौड़ी, गहरे हरे रंग की और जल की सतह पर फैली होती हैं। चौड़ी और हरी पत्तियाँ अधिक सूर्य प्रकाश ग्रहण करती हैं और पौधे के लिए अधिक भोजन का उत्पादन करती हैं, साथ ही पर्याप्त मात्रा में श्वसन भी करती हैं। पत्तियों के डण्ठल फूले हुए गुब्बारों जैसे होते हैं जो पौधे के ऊपरी भाग को जल की सतह पर तैराए रखते हैं। बहाव वाले पानी के भीतर चौड़ी पत्तियों की वजह से पौधे के पैर उखड़ने का खतरा बना रहता है। इससे बचने के लिए कई पौधों में दो तरह की पत्तियाँ विकसित हुई हैं। तने का जो भाग पानी में डूबा रहता है वहाँ आप देखेंगे कि पत्तियाँ हल्के रंग की, छितरी हुई और रेशेनुमा या रिबिननुमा होती हैं। ये पत्तियाँ जल के प्रवाह में रुकावट नहीं डालतीं और पौधे को एक स्थान पर बनाए रखने में सहायक होती हैं। इसका एक अच्छा उदाहरण साजेटेरिया यानी बाणपत्र है, जिसमें पानी के भीतर रिबिननुमा पत्तियाँ होती हैं और पानी के बाहर तीर के शीर्षभाग (एरोहेड) की तरह पत्तियाँ होती हैं।
श्वसन के लिए जुगाड़
जलीय वनस्पतियों को एक और समस्या से पार पाना होता है, वह है - श्वसन के लिए जड़ों तक ऑक्सीजन को पहुँचाना। ज़मीन पर उगने वाले पेड़-पौधों की जड़ें मिट्टी के कणों के बीच खाली स्थान में फँसी हुई हवा का उपयोग श्वसन के लिए कर लेती हैं परन्तु जलमग्न अथवा दलदली इलाकों में वनस्पतियाँ इस सुविधा से वंचित रहती हैं। क्योंकि यहाँ मिट्टी के कणों के बीच के स्थान में भी जल के अणुओं का कब्ज़ा रहता है।
इस समस्या से निपटने के लिए वॉटर लिली परिवार के कमल के पौधे में खोखली नलिकाओं से युक्त डण्ठल और कमलनाल विकसित हुए हैं। इनके ज़रिए पानी की सतह से वायु की आवाजाही पौधे की जड़ों तक सम्भव होती है। इसी समस्या को हल करने के लिए दलदली प्रदेश की मेन्ग्रोव वनस्पतियों में साँस लेेने वाली विशिष्ट प्रकार की जड़ों का तंत्र विकसित हुआ है। इन जड़ों को तकनीकी भाषा में ‘न्यूमेटोफोअर्स’ कहते हैं।
भोजन निर्माण
जलीय वनस्पति की एक और मुसीबत भोजन उत्पादन के सम्बन्ध में होती है। पानी में भोजन उत्पादन के लिए कार्बन डाईऑक्साइड उपलब्ध नहीं होती है और यदि जल में गन्दलापन हो तो प्रकाश किरणों का वहाँ पहुँचना भी मुश्किल होता है। ऐसी स्थिति में भोजन का उत्पादन करने वाली हरी पत्तियों का जलमग्न भाग पर उपस्थित होना पौधे के लिए फायदेमन्द नहीं होता है। इसी कारण से कमल तथा वॉटर लिली परिवार के अन्य पौधों में पत्तियाँ उन्हीं हिस्सों में पाई जाती हैं जो जल के बाहर होते हैं। पत्तियाँ संख्या में कम किन्तु आकार में बड़ी होती हैं। पत्तियों का बड़ा आकार अधिक सूर्य प्रकाश ग्रहण करने और अधिक भोजन उत्पादन में सहायक होता है। दक्षिण अमेरिका में पाई जाने वाली अमेज़न लिली के पत्तों का फैलाव लगभग सात-आठ फीट तक होता है। पत्ते को सहारा देने के लिए मज़बूत डण्ठल (पर्ण-वृन्त) विकसित हुआ है। पत्ती को जलमग्न होने से बचाने के लिए इसके किनारे थाली के समान ऊपर उठे हुए रहते हैं। ऐसा माना जाता है कि शिरातंत्र और डण्ठल इतना मज़बूत होता है कि पत्ता एक नवजात शिशु का भार आसानी से सम्भाल लेता है।
परागण क्रिया
प्रतिकूल परिवेश के साथ तालमेल बिठाकर जीवित रहने की कला को पारिस्थितिक अनुकूलन (Ecological Adaptation) कहते हैं। शैवाल वेलिसनेरिया स्पाइरालिस एक जलनिमग्न पौधा है और पारिस्थितिक अनुकूलन का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत करता है। इस पौधे में जल के प्रवाह का उपयोग करके परागण सम्पन्न कराने की एक रोचक विधि विकसित हुई है। पौधे में नर और मादा पुष्प अलग-अलग विकसित होते हैं। नर पुष्प का डण्ठल तेज़ी से बढ़ता है और पुष्प को जल की सतह पर ले आता है। तत्पश्चात नर पुष्प स्वतंत्र होकर जल की सतह पर तैरता रहता है। उधर मादा पुष्प का डण्ठल धीरे-धीरे बढ़ता है और पुष्प को जल की सतह तक पहुँचाता है, परन्तु इसे अलग नहीं करता है। मादा पुष्प के हवा में हिलने-डुलने से जल में छोटी-छोटी तरंगें उत्पन्न होती हैं। आस-पास तैरता हुआ कोई नर पुष्प इन तरंगों पर सवार होकर मादा पुष्प के सम्पर्क में आता है और परागण क्रिया सम्पन्न होती है। इस क्रिया के पश्चात डण्ठल सर्पाकार कुण्डली के रूप में मुड़ता जाता है और मादा पुष्प को जल के अन्दर खींच लेता है। बीज जल के अन्दर विकसित होता है और नए पौधे को जन्म देता है।
ऐसा नहीं है कि प्रकृति की विविधताओं या विशेषताओं को देखने-समझने के लिए दूर-दराज़ की यात्राओं पर ही जाना होता है। यदि अपने आस-पास के परिवेश का हम बारीकी से अवलोकन करें तो वनस्पति और जीव-जन्तुओं के बारे में ऐसे कई रोचक तथ्य उजागर हो सकते हैं। ज़रूरत होती है थोड़े धैर्य की। बहुत-सी जानकारियों के लिए पुस्तकों के पन्ने पलटने की अपेक्षा प्रकृति का अध्ययन अधिक रोमांचकारी हो सकता है। यदि आप चाहें तो अपनी रोमांचक यात्रा का आगाज़ कैक्टस के अवलोकन से भी कर सकते हैं।
यदि हमारे पाठक इस तरह के अध्ययन करते हैं तो अपने अनुभवों और निष्कर्षों से हमें ज़रूर अवगत कराएँ।
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