Alauddin Khilji Ka राजत्व Sidhhant अलाउद्दीन खिलजी का राजत्व सिद्धांत

अलाउद्दीन खिलजी का राजत्व सिद्धांत



GkExams on 14-11-2018


तुर्क-अफ़ग़ान शासकों द्वारा दिल्ली को इस्लामी राज्य की संज्ञा दी गई है। वे अपने साथ शासन की धार्मिक व्यवस्था भी लाए थे। इस शासन व्यवस्था में राजा कोई धार्मिक नेता माना जाता था। इस्लामिक धर्मशास्त्रियों ने अपने द्वारा अपनाई गई अथवा विकसित की गई संस्थाओं को तर्क संगत औचित्य प्रदान करने के लिए यूनानी राजनीतिक दर्शन का आधार ग्रहण किया था। दिल्ली सल्तनत एक इस्लामिक राज्य था, जिसके शासक अभिजात वर्ग एवं उच्चतर प्रशासनिक पदों के क्रमानुसार इस्लाम धर्म के थे। सैद्धान्तिक रूप से दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों ने भारतमें इस्लामी क़ानून लागू करने एवं अपने अधिकार पत्र में दारूल हर्ब को, दारूल इस्लाम परिवर्तित करने का प्रयास किया।

शासन सिद्धांत

सल्तनत काल के सभी शासक (ख़िलजी वंश को छोड़कर) अन्य सभी सुल्तानों ने अपने को ख़लीफ़ा का प्रतिनिधि माना। सल्तनत कालीन सुल्तानों का शासन अत्यंत केन्द्रीकृत निरंकुश सिद्धान्तों पर आधारित था। इस समय की शासन व्यवस्था में सुल्तान ही मुख्य प्रशासक, सर्वोच्च न्यायधीश, सर्वाच्च नियामक और सर्वोच्च सेनापति होता था। सल्तनत काल में जिन सुल्तानों ने 'राजस्व के सिद्धान्त' को अपनी दृष्टि से व्याख्यायित किया, और उसी पर अमल किया, उसमें प्रमुख हैं - ग़यासुद्दीन बलबन, अलाउद्दीन ख़िलजी और क़ुतुबुद्दीन मुबारक ख़िलजी।

बलबन का राजत्व सिद्धान्त

बलबन ने सुल्तान के पद को दैवीय कृपा माना है। उसका राजत्व सिद्धान्त निरंकुशता पर आधारित था। वह अपने आपको तुर्की 'अफ़रासियाब' का वंशज मानता था। बलबन पहला ऐसा भारतीय मुसलमान था, जिसने 'जिल्ल-ए-इलाही' की उपाधि धारण की। शासक की दैवी उत्पत्ति को सिद्ध करने के लिए बलबन ने अपने दरबार में 'सिजदा' (ज़मीन पर सिर रखना) और 'पैबोस' की प्रथा प्रारम्भ की। बलबन ने अपने दरबार में ईरानी त्यौहार 'नौरोज' मनाने की प्रथा की शुरुआत किया। वह उच्च वर्ग और निम्न वर्ग में भेद करता था। वह ग़ैर तुर्की को कभी उच्च पद पर नहीं रखता था।

अलाउद्दीन का राजत्व सिद्धान्त

अलाउद्दीन ख़िलजी एक सुन्नी मुसलमान था। उसे इस्लाम में पूर्ण विश्वास था। उसने राजत्व के लिए दैवी सदगुणों का दावा किया। वह राजा को देश के क़ानून से ऊपर मानता था। अपने शासन काल में अलाउद्दीन ने पहले 'शमशीर' (अभिजात वर्ग) तथा 'अहले कलम' (उलेमा वर्ग) के प्रशासनिक प्रभाव को कम किया। उसने शासक के पद को स्वेच्छाकारी तथा निरंकुश बनाया तथा स्वयं 'यामिन-उल-ख़िलाफ़त' तथा 'नासिरी-अमी-उल-मौमनीन' की उपाधि धारण की। उसने अपने शासन की स्वीकृति के लिए ख़लीफ़ा की मंजूरी को आवश्यक नहीं समझा। अपने पूरे शासन काल में उसने इस्लाम धर्म के संबंध में विचार विमर्श करने के लिए दो धार्मिक नेताओं 'अला-उल-मुल्क' और 'मुगीसुद्दीन' से चर्चा की।


अलाउद्दीन ख़िलजी के बाद मुबारकशाह ख़िलजी ने ख़लीफ़ा के प्रभुत्व को स्वीकार नहीं किया। उसने 'अल-इमाम', 'उल-इमाम' एवं 'ख़िलाफ़त-उल्लाह' की उपाधि धारण की। उसने 'अलबसिक विल्लाह' की धर्म प्रधान उपाधि भी धारण की। इसके बाद शेष सभी सुल्तानों ने शासन के लिए राजत्व के पारम्परिक इस्लामिक सिद्धान्तों का पालन किया।




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Comments Sahin on 14-11-2023

Firijshah tuglak ke pashsnik tatha dharmik nitiyon ka vivaran parastut kare

नेहा on 03-01-2023

हाँ

Noor Fatima on 14-09-2022

Khilji k rajattaw sidhant ki alochna


Monu yogi on 01-08-2022

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Md sadab on 08-10-2021

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