Operin Ka Sidhhant ओपेरिन का सिद्धांत

ओपेरिन का सिद्धांत



Pradeep Chawla on 12-05-2019

विज्ञान के अब तक के सभी प्रयासों के बावजूद पृथ्वी के बाहर किसी स्थान पर जीवन होने की पुष्टि अभी तक नहीं हो पाई है। पृथ्वी पर एक कोशिकीय, बहुकोशिकीय, कवक, पादप, जंतु आदि लाखों प्रकार के जीव पाए जाते हैं मगर वैज्ञानिक इस बात पर सहमत हैं कि इन सब का प्रथम पूर्वज एक ही था। आज भी इस प्रश्न का उत्तर जानना शेष है कि सभी जीवों का प्रथम पूर्वज पृथ्वी पर ही जन्मा था या किसी अन्य खगोलीय पिण्ड से पृथ्वी पर आया? प्रथम जीव उत्पत्ति में ईश्वर जैसी किसी शक्ति की कोई भूमिका रही है या यह मात्र प्राकृतिक संयोग की देन है? प्रथम जीव के अजीवातजनन को समझाने वाले ओपेरिन व हाल्डेन के विचारों को भी जोरदार चुनौती दी जा रही है।



लगभग सभी धर्मों में विशिष्ट सृजन की बात कही गई है। इस मान्यता के अनुसार पृथ्वी पर पाए जाने वाले सभी जीवों को ईश्वर ने ठीक वैसा ही बनाया जैसे वे वर्तमान में पाए जाते हैं। मनुष्य को सबसे बाद में बनाया गया। इस मान्यता में विश्वास करने वाले इसाई धर्म गुरु आर्चबिसप उसर ने सन 1650 में अपनी गणना के आधार पर बताया था कि ईश्वर ने विश्व सृजन का कार्य एक अक्टूबर 4004 ईसापूर्व को प्रारंभ कर 23 अक्टूबर 4004 ईसापूर्व को पूरा किया। इस मान्यता के पक्ष में किसी प्रकार के प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं। अपने अवलोकनों के आधार पर अरस्तू जैसे दार्शनिकों ने निर्जीव पदार्थों से जीवों की उत्पत्ति को समझाने का प्रयास किया।



इस मान्यता के अनुसार प्रकृति में निर्जीव पदार्थों जैसे कीचड़ से मेढ़क, सड़ते माँस से मक्खियाँ आदि सजीवों की उत्पत्ति होती रहती है। वान हेल्मोन्ट जैसे वैज्ञानिक ने प्रयोग द्वारा पुराने कपड़ों व अनाज द्वारा चूहे जैसे जीव पैदा होने की बात प्रयोग द्वारा सिद्ध करने का प्रयास भी किया था। निर्जीव पदार्थों से सजीव उत्पन्न होने की मान्यता उन्नीसवीं शताब्दी तक चलती रही जब तक लुई पाश्चर ने अपने प्रयोगों के बल पर निर्विवाद रूप से इसका अंत नहीं कर दिया। आज सभी यह जानते हैं कि कोई भी जीव पहले से उपस्थित अपने जैसे जीव से ही उत्पन्न हो सकता है मगर यह प्रश्न अभी भी महत्त्वपूर्ण है कि सबसे पहला जीव कहाँ से आया?



प्रथम जीव का अजैविक जनन



जीव की उत्पत्ति में ईश्वर की भूमिका को नकारकर प्राकृतिक नियमों के अनुरूप जीव की उत्पत्ति की सर्वप्रथम विवेचना करने का श्रेय चार्ल्स डार्विन को जाता है। अपनी पुस्तक ओरिजन आॅफ स्पेसीज में पृथ्वी पर पाए जाने वाले विभिन्न जीवों की उत्पत्ति को जैव विकास के सिद्धांत से समझाते हुए चार्ल्स डार्विन को यह कहना पड़ा कि ईश्वर ने सभी जीवों को अलग-अलग नहीं बनाकर एक सरल जीव बनाया तथा वर्तमान सभी जीवों की उत्पत्ति उस एक पूर्वज से, जैव विकास की विधि द्वारा हुई है। अपने मित्रों तथा अन्य जिज्ञासुओं से डार्विन ने अपने विचार की असलियत को नहीं छुपाया। डार्विन ने जीव की उत्पत्ति में ईश्वर की भूमिका को नकारते हुए कहा था कि प्रथम जीव की उत्पत्ति निर्जीव पदार्थों से हुई। एक फरवरी 1871 को जोसेफ डाल्टन हूकर को लिखे पत्र में चार्ल्स डार्विन ने संभावना प्रकट की कि अमोनिया, फास्फोरस आदि लवण घुले गर्म पानी के किसी गड्ढे में, प्रकाश, ऊष्मा, विद्युत आदि के प्रभाव से, निर्जीव पदार्थों से पहले जीव की उत्पत्ति हुई होगी।



रूसी वैज्ञानिक अलेक्जेंडर इवानोविच ओपेरिन ने 1924 में जीव की उत्पत्ति नाम से निर्जीव पदार्थों से जीवन की उत्पत्ति का सर्व प्रथम सिद्धांत प्रतिपादित किया था। ओपेरिन ने कहा कि लुई पाश्चर का यह कथन सच है कि जीव की उत्पत्ति जीव से ही होती है मगर प्रथम जीव पर यह सिद्धांत लागू नहीं होता। प्रथम जीव की उत्पत्ति तो निर्जीव पदार्थों से ही हुई होगी। ओपेरिन ने कहा कि सजीव व निर्जीव में कोई मूलभूत अंतर नहीं होता। रासायनिक पदार्थों के जटिल संयोजन से ही जीवन का विकास हुआ है। विभिन्न खगोलीय पिंडों पर मीथेन की उपस्थिति इस बात का संकेत है कि पृथ्वी का प्रारंभिक वायुमंडल मीथेन, अमोनिया, हाइड्रोजन तथा जलवाष्प से बना होने के कारण अत्यंत अपचायक रहा होगा। इन तत्वों के संयोग से बने यौगिकों ने आगे संयोग कर और जटिल यौगिकों का निर्माण किया होगा। इन जटिल यौगिकों के विभिन्न विन्यासों के फलस्वरूप उत्पन्न नए गुणों ने जीवन की नियमितता की नींव रखी होगी। एक बार प्रारंभ हुए जैविक लक्षण ने स्पर्धा व संघर्ष पर चलकर वर्तमान सजीव सृष्टि का निर्माण किया होगा।



अपने सिद्धांत के पक्ष में ओपेरिन ने कुछ कार्बनिक पदार्थों के व्यवस्थित होकर कोशिका के सूक्ष्म तंत्रों में बदलने के उदाहरण दिए। बाद में डच वैज्ञानिक जोंग के द्वारा किए गए प्रयोगों में बहुत से कार्बनिक अणुओं के आपस में जुड़कर विलयन से भरे पात्र जैसी सूक्ष्म रचनाओं के बनने से ओपेरिन के सिद्धांत को बल मिला। कार्बनिक अणुओं की पर्त से बने सूक्ष्म पात्रों को ही डी जुंग ने कोअसरवेट नाम दिया था। कोअसरवेट द्वारा परासरण जैसी क्रियाओं के प्रदर्शन के कारण इन्हें उपापचयी क्रियाओं का आधार मानते हुए जीवन के प्रथम घटक के रूप में देखा गया। ओपेरिन का मानना था कि खाद्य समुद्र में अनेकानेक कोअसरवेट बने होंगे तथा उनके जटिल संयोजन से ही अचानक प्रथम जीव की उत्पत्ति हुई होगी।



सन 1929 में जेबीएस हाल्डेन ने ओपेरिन के विचारों को और विस्तार दिया। हाल्डेन ने पृथ्वी की उत्पत्ति से लेकर सुकेंद्रकीय कोशिका की उत्पत्ति तक की घटनाओं को आठ चरणों में बाँटकर समझाया। हाल्डेन ने कहा कि सूर्य से अलग होकर पृथ्वी धीरे-धीरे ठंडी हुई तो उस पर कई प्रकार के तत्व बन गए। भारी तत्व पृथ्वी के केंद्र की ओर गए तथा हाइड्रोजन, नाइट्रोजन, ऑक्सीजन, आर्गन से प्रारंभिक वायुमंडल बना। वायुमंडल के इन तत्वों के आपसी संयोग से अमोनिया व जलवाष्प बने। इस क्रिया में पूरी ऑक्सीजन काम आ जाने के कारण वायुमंडल अपचायक हो गया था। सूर्य के प्रकाश व विद्युत विसर्जन के प्रभाव से रासायनिक क्रियाओं का दौरा चलता रहा और कालांतर में अमीनो अम्ल, शर्करा, ग्लिसरोल आदि अनेकानेक प्रकार के यौगिक बनते गए। इन यौगिकों के जल में विलेय होने से पृथ्वी पर पूर्वजीवी गर्म सूप बना।



सूप का घनत्व बढ़ता गया तथा उसमें कोलायडी कण बनने लगे। जल की सतह पर तैरते इन कणों ने आपस में जुड़कर झिल्ली का रूप लिया होगा। इस झिल्ली ने बाद में सूक्ष्म पात्रों का निर्माण कर लिया जिन्हें कोअसरवेट नाम दिया था। इस प्रकार जीवनपूर्व रचनाओं का उदय हुआ होगा। एन्जाइम जैसे उत्प्रेरकों के प्रभाव के कारण कोअसरवेट में भरे रसायनों में संश्लेषण विश्लेषण जैसी क्रियाएँ होने लगी होंगी। धीरे-धीरे अवायु श्वसन होने लगा। कोअसरवेट में कोई रसायन कम होता तो बाह्य वातावरण से अवशोषण कर उसकी पूर्ति कर ली जाती। चिपचिपेपन के कारण कोअसरवेट का आकार बढ़ता रहता तथा अधिकतम आकार हो जाने पर वह स्वत: विभाजित हो जाता था। बाद में नाभिकीय अम्लों के रूप में कार्बनिक नियंत्रक-तंत्र विकसित हुए जो वृद्धि व जनन जैसी जैविक क्रियाओं को नियंत्रित करने लगे। प्रारंभिक कोशिका परपोषी प्रकार की रही होगी। बाद में पर्णहरित यौगिक तथा हरितलवक कोशिकांग के कोशिका में प्रवेश करने से पहली स्वपोषित कोशिका बनी होगी। प्रकाश संश्लेषण की क्रिया के प्रारंभ होने पर जल का विघटन होने लगा जिससे ऑक्सीजन उत्पन्न होने लगी। वायुमंडल में ऑक्सीजन की मात्रा साम्य स्थापित होने तक बढ़ती रही होगी।



स्टेनले मिलर का प्रयोग



ओपेरिन तथा हाल्डेन की कल्पनाओं का कोई प्रायोगिक आधार नहीं था। 1953 में स्टेनले मिलर ने ‘‘प्रारंभिक पृथ्वी अवस्था में अमीनों अम्लों का उत्पादन संभव’’ लेख प्रकाशित कर ओपेरिन व हाल्डेन के विचारों का समर्थन किया। स्टेनले मिलर ने अपने गुरु हारोल्ड यूरे के निर्देशन में एक बहुत ही अच्छे प्रयोग की योजना तैयार कर उसे क्रियान्वित किया था। मिलर ने पृथ्वी के प्रारंभिक वायुमंडल जैसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कर यह देखना चाहता था कि क्या ओपेरिन ने जो कहा वैसा होना संभव है? मिलर ने प्रयोग करने के लिये एक विद्युत विसर्जन उपकरण बनाया। उपकरण में एक गोल पेंदे का फ्लास्क, एक विद्युत विसर्जन बल्ब तथा एक संघनक लगा था। गोल पेंदे के फ्लास्क में पानी भरने के बाद उपकरण में हवा निकाल कर उसमें मिथेन, अमोनिया व हाइड्रोजन को 2:1:2 अनुपात में भर दिया गया। विद्युत विसर्जन के साथ-साथ पानी को उबलने दिया जाता तो उत्पन्न भाप के प्रभाव के कारण गैसें निरंतर वृत्त में घूमती रहती। विद्युत विसर्जन बल्ब से निकलने वाली जलवाष्प के संघनित होने पर उसे विश्लेषण हेतु बाहर निकाला जा सकता था। मिलर ने निरंतर एक सप्ताह विद्युत विसर्जन होने के बाद संघनित द्रव का विश्लेषण किया। विश्लेषण करने पर उस द्रव में अमीनों अम्ल, एसिटिक अम्ल आदि कई प्रकार के कार्बनिक पदार्थ पाए गए।



मिलर के प्रयोग द्वारा ओपेरिन के रासायनिक विकास की परिकल्पना की पुष्टि होने से इस सिद्धांत की प्रतिष्ठा बहुत बढ़ गई। मिलर के प्रयोग के महत्त्व को इस बात से समझा जा सकता है कि शनि के उपग्रह टाइटन के वायुमंडल में जीव की उत्पत्ति की संभावना की पड़ताल के संदर्भ में इस प्रयोग को पुन: दोहराया गया है। प्रयोग से प्राप्त आंकड़ों के आधार पर कहा जाने लगा है कि जल की अनुपस्थिति में भी वायुमंडल में जीवन के घटकों का संश्लेषण संभव है। मिलर के प्रयोग से पृथ्वी के प्रारंभिक वातावरण में कार्बनिक अणुओं के बनने की बात तो समझ में आ गई थी मगर अब प्रश्न यह था कि इन एकल अणुओं ने आपस में जुड़कर बहुलक अणुओं का निर्माण किस प्रकार किया होगा? सन 1950 से 1960 के मध्य सिडनी फोक्स ने कुछ प्रयोग किए जिनमें यह पाया गया कि पृथ्वी के प्रारंभिक समय में अमीनो अम्ल स्वत: ही पेप्टाइड बंधों से जुड़कर पॉलीपेप्टाइड बनाने में सफल रहे होंगे। ये अमीनों अम्ल तथा पॉलीपेप्टाइड जुड़कर गोलाकार झिल्ली व प्रोटीनॉइड माइक्रोस्फेयर में व्यवस्थित हो सकते थे जैसा कि प्रारंभिक जीवन रहा होगा।



मात्र अणुओं का समूह ही नहीं है जीवन



जीवन मात्र अणुओं का समूह ही नहीं है। जीवन के विषय में ज्यों-ज्यों जानकारियाँ बढ़ती जा रही हैं, प्रथम जीव की उत्पत्ति को समझाना उतना ही कठिन होता जा रहा है। जीवन की संरचना व उसकी कार्य प्रणाली को सन 1992 में हारोल्ड होरोविट्ज ने निम्न बिंदुओं में समझाया -



1. जीव कोशिका से बना होता है।



2. प्रत्येक कोशिका का 50 से 90 प्रतिशत भाग जल होता है। जल ही प्रकाश संश्लेषण की क्रिया में हाइड्रोजन, प्रोटान तथा ऑक्सीजन की आपूर्ति करता है तथा जैव अणुओं के लिये विलायक की भूमिका निभाता है।



3. जीवन के निर्माण में प्रयुक्त अधिकांश सहसंयोजक जैव-अणु कार्बन, हाइड्रोजन, नाइट्रोजन, ऑक्सीजन, फास्फोरस तथा गंधक से बने होते हैं।



4. जैव-अणुओं जैसे शर्करा, अमीनोअम्ल, न्यूक्लियोटाइड, वसीय अम्ल, फोस्फोलिपिड, विटामिन तथा सहएन्जाइम आदि से बना एक छोटा समूह ही संपूर्ण सजीव सृष्टि का निर्माता है।



5. प्रत्येक जीव के गठन में प्रमुख भाग बड़े अणुओं प्रोटीन, लिपिड, कार्बोहाइड्रेट व नाभिकीय अम्ल का होता है।



6. सभी जीवों की कोशिकाओं में एक ही प्रकार की दोहरी लिपिड झिल्ली पाई जाती है।



7. सभी जीवों में ऊर्जा का प्रवाह फास्फेट बंध (एटीपी) के जल अपघटन के माध्यम से होता है।



8. संपूर्ण सजीव जगत में उपापचय क्रियाएं एक छोटे समूह ग्लाइकोलिसिस, क्रेब्स चक्र, इलेक्ट्रॉन स्थानांतरण शृंखला के माध्यम से संपन्न होती है।



9. विभाजित होने वाली प्रत्येक कोशिका में डीएनए का एक सेट जीनोम के रूप में होता है। यह आरएनए के रूप में निर्देश भेजता है जिसका अनुवाद प्रोटीन के रूप में होता है।



10. वृद्धि करती प्रत्येक कोशिका में राइबोसोम पाए जाते हैं जो प्रोटीन संश्लेषण करते हैं।



11. प्रत्येक जीन सूचनाओं का अनुवाद न्यूक्लियोटाइड भाषा से विशिष्ट एन्जाइम के सक्रियण व ट्रांसफर आरएनए के रूप में करता है।



12. जनन करने वाला प्रत्येक जीव, उसके जीनोटाइप में उत्परिवर्तन के कारण, स्वयं से कुछ भिन्न संतानें उत्पन्न करता है।



13. सभी जीवित कोशिकाओं में पर्याप्त तीव्र गति से होने वाली रासायनिक क्रियाएँ एन्जाइमों से उत्प्रेरित होती हैं।



जीवन की उपरोक्त विशेषताओं से स्पष्ट है कि जीवन कार्बनिक अणुओं या उनके बहुलकों का विशिष्ट समूह मात्र नहीं है। जीवन में कोशिका झिल्ली, उपापचय क्रियाएँ, जिनोम, एन्जाइम आदि अनेक तंत्र अद्भुत संतुलन के साथ क्रियाशील रहते हैं। किसी की भी अनुपस्थिति में जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। जीवन के विकास की बात करने पर यह तो संभव नहीं है कि प्रकृति में ये सभी तंत्र एक साथ विकसित होकर साथ काम करने लगे होंगे। यदि इनका विकास अलग-अलग हुआ तो कौन पहले और कौन बाद में बना। यह प्रश्न भी महत्त्वपूर्ण है कि किसी तंत्र विशेष के बनने तक शेष तंत्रों का कार्य कैसे चला होगा? यह कोई एक प्रश्न नहीं अपितु प्रश्नों का समुच्चय है जिनका जवाब खोजना चुनौती भरा कार्य है। वैज्ञानिक इस अनबूझ पहेली से घबराए नहीं हैं। हजारों वैज्ञानिक अनवर्त रूप से इन प्रश्नों के हल तलाशने में लगे हैं। यहाँ हम कुछ प्रमुख प्रयासों की चर्चा करेंगे।



उष्णजलीय रंध्र (हाइड्रोथर्मल वेंट) सिद्धांत



लंबे समय से चले आ रहे ओपेरिन व हाल्डेन के विचार को उस समय गहरा धक्का लगा जब कई युवा वैज्ञानिकों ने इस बात से असहमति जताई कि आद्यसूप में जन्मे प्रथम जीव ने अपनी ऊर्जीय आवश्यकताओं की पूर्ति अवायु श्वसन द्वारा की होगी। उनका कहना है कि ओपेरिन व हाल्डेन के विचार जैव-और्जिकी व उष्मागतिक सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है। प्रोफेसर विलियम मार्टिन के निर्देशन में भूरसायनज्ञ माइकल रुस्सेल ने जीव की प्रथम उत्पत्ति का वैकल्पिक सिद्धांत प्रस्तुत किया। उष्णजलीय रंध्र सिद्धांत नाम के इस सिद्धांत में कहा गया कि जीव की उत्पत्ति आद्यसूप में नहीं होकर समुद्र के पेंदे पर धात्विक लवणों से निर्मित चट्टानों पर बने सूक्ष्म उष्णजलीय रंध्रों में हुई होगी। जल में विलेय हाइड्रोजन, कार्बन डाइआक्साइड, नाइट्रोजन व हाइड्रोजन सल्फाइड गैसों ने इन रंध्रों में प्रवेश कर विभिन्न प्रकार के कार्बनिक यौगिकों को जन्म दिया होगा। सूक्ष्म दूरी पर स्थित इन रंध्रों के मध्य ठीक वैसी ही रासायनिक प्रवणता स्थापित हुई होगी जैसी वर्तमान कोशिका में उत्पन्न होती है।



प्रारंभिक जीव ने रासायनिक परासरण के माध्यम से रासायनिक प्रवणता का उपयोग कर ऊर्जा की वैश्विक मुद्रा एटीपी या उसके समकक्ष किसी अन्य का उपयोग किया होगा। इस प्रकार प्रारंभिक जीवन अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु धरती माँ पर निर्भर रहा होगा। कालांतर में जीवन ने अपना स्वयं का प्रोटान प्रवणता तंत्र विकसित कर इलेक्ट्रॉन का स्थानांतरण करना सीखा होगा। इस सिद्धांत के प्रतिपादकों का मानना है कि हाइड्रोजन ने प्रथम इलेक्ट्रॉन दाता तथा कार्बनडाइऑक्साइड ने प्रथम ग्राहाता की भूमिका निभाई होगी। अपना ऊर्जा उत्पादन तंत्र विकसित करने के बाद जीवन सूक्ष्म उष्णजलीय रंध्रों से बाहर स्वतंत्र जीवन जीने लगा होगा। आज सभी जीव रासायनिक परासरणी हैं, प्रथम जीव भी ऐसा ही रहा होगा।



आरएनए विश्व



वर्तमान जीवन पूर्णत: डीएनए आधारित है। डीएनए में संग्रहित सूचना को केंद्रक के बाहर कोशिका द्रव्य में आरएनए ले जाता है। कोशिका द्रव्य में उपस्थित राइबोसोम डीएनए से प्राप्त सूचना के अनुरूप प्रोटीन (एन्जाइम) का संश्लेषण करते हैं। प्रोटीन के उत्प्रेरण से ही जीवन की सभी क्रियाएँ निर्देशित होती हैं। कोशिका में सभी प्रकार के निर्माण होते हैं। डीएनए के संश्लेषण में कई प्रकार के प्रोटीन (एन्जाइम) की भूमिका होती है। अत: यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जीवन विकास के क्रम में पहले डीएनए आया या प्रोटीन? बहुत संभव है कि जीवन की प्रारंभिक अवस्था में डीएनए नहीं था। आरएनए अपनी भूमिका के साथ डीएनए व प्रोटीन की भूमिका भी अभिनीत किया करता होगा। सन 1983 में थोमस केच तथा सिडनी अल्टान ने स्वतंत्र रूप से कार्य करते हुए राइबोजाइम की खोज की। इन वैज्ञानिकों ने पता लगाया कि आरएनए को अपनी निर्माण व परिवर्तन में किसी प्रोटीन की आवश्यकता नहीं होती। प्रोटीन की तरह कार्य कर सकने वाले आरएनए को ही राबोजाइम नाम दिया गया। इस परिकल्पना के अनुसार एक समय ऐसा था जब अणु जगत का सुप्रिमों आरएनए ही था। उस काल को आरएनए विश्व के नाम से जाना जाता है। आरएनए विश्व की अवधारणा विकसित करने पर थोमस केच तथा सिडनी अल्टान को नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया। वैज्ञानिकों का मानना है कि बाद में डीएनए ने आरएनए की कई भूमिकाओं को उससे छीन लिया। आरएनए के द्विगुणन तथा स्पालसिंग में राइबोजाइम आज भी सक्रिय है।



यह प्रश्न विचारणीय है कि आरएनए संश्लेषण की क्रिया प्रणाली भी इतनी सरल तो नहीं कि जीवन के प्रारंभ से ही इसकी भूमिका को स्वीकार लिया जाय? सन 2009 में जोहन सुथरलैण्ड ने जीवन पूर्व परिस्थितियों में आकस्मिक रूप से पायरीमीडीन न्यूक्लियोटाइड एकलक शृंखला का संश्लेषण संभव बताकर आरएनए विश्व की संभावना को बल प्रदान किया है। प्यूरीन न्यूक्लियोटाइड एकलक शृंखला का संश्लेषण की संभावना का प्रतिपादन अभी नहीं हुआ है।



समहस्तता का विकास



अमीनो अम्ल, शर्कराएं आदि असमित कार्बन यौगिक होते हैं और प्रकाश समावयता का गुण प्रदर्षित करते हैं। इनके अणु प्रतिबिम्ब आकृति लिये दो रूप के होते हैं। एक रूप समध्रुवी प्रकाश को बांई ओर तो दूसरा रूप समध्रुवी प्रकाश को दांई रूप घूमाने का गुण रखता है। पहले प्रकार के अणुओं को वामहस्त तथा दूसरे को दक्षिणहस्त रूप अणु कहते हैं। प्रयोगशाला में इनका निर्माण करने पर दोनों रूप साथ-साथ व समान मात्रा में बनते हैं। एक अनुपात एक के इस रैसेमिक मिश्रण का समध्रुवित प्रकाश पर कोई असर नहीं होता। आश्चर्य की बात है कि जीवन की संरचना में लगे असममित अणु जैसे अमीनों अम्ल, शर्कराएं आदि समहस्ताता का प्रदर्शन करते हैं। केवल वामहस्ती अमीनो अम्ल ही प्रोटीन बनाने व दक्षिणहस्ती शर्करा नाभिकीय अम्लों के निर्माण में उपयोगी होती है। अध्ययन से पता चलता है कि समहस्तता जीवन की अनिवार्यता है। कई दशकों से अनुसंधानकर्ता इस चमत्कार का जवाब खोजते रहे हैं कि समहस्तता व जीवन का साथ कम से व किस कारण से हुआ?



कहाँ जन्मा था पहला जीव अभी हाल ही में हुए कुछ अध्ययनों से इस बात का पता चला है कि जीवन के साथ समहस्तता का जुड़ाव कोई चमत्कार नहीं होकर एक प्राकृतिक घटना है। इस विषय में पहला प्रमाण मुरकीशन उल्का के अध्ययन से प्राप्त हुआ है। मुरकीशन उल्का का नामकरण ऑस्ट्रेलिया के उस स्थान के नाम पर किया गया है जहाँ 28 सितंबर 1969 को यह उल्कापात हुआ था। इस उल्का का रासायनिक विश्लेषण करने पर अन्य पदार्थों के साथ इसमें कई प्रकार के अमीनों अम्ल भी पाए गए। इनमें कुछ अमीनो अम्ल वे थे जो पृथ्वी के जीवों के प्रोटीन में पाए जाते हैं, तो कई ऐसे अमीनो अम्ल भी थे जो प्रोटीन बनाने में काम नहीं आते हैं। हमारी रुचि कि बात यह है कि मुरकीशन उल्का में पाए गए गई अमीनो अम्लों के वाम व दक्षिण हस्त रूप बराबर अनुपात में नहीं थे।



ग्लेविन तथा डोरकिन ने एक अध्ययन में वामहस्ती आइसोवेलीन की मात्रा उसके दक्षिणहस्ती रूप से 18 प्रतिशत अधिक पाई। इससे इस बात का संकेत मिलता है कि समहस्तता के गुण का विकास किसी उत्प्रेरक क्रिया के कारण प्रकृति में उत्पन्न हुआ है। बाद के अध्ययनों में पाया गया कि कई प्रकार के धात्विक क्रिस्टल के प्रभाव से या अन्य किसी रसायन के प्रभाव से वामहस्त या दक्षिण रूप अणुओं का अनुपात बढ़ जाता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि अमीनों अम्लों में समहस्तता जीवन पूर्व काल में स्थापित हो गई होगी तथा बाद में एन्जाइम के रूप में इसका प्रभाव शर्करा पर हुआ होगा। आगे के अनुसंधान इस बात को और स्पष्ट कर सकेंगे।



पहले विकसित हुए उपापचय तंत्र



जीवन की जटिलता को देखते हुए कई वैज्ञानिकों का मानना है कि जीवन की उत्पत्ति से पूर्व कई उपापचय चक्रों का स्वतंत्र रूप से विकास हो चुका होगा तथा बाद में जीवन ने उनका उपयोग कर अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु किया होगा। वर्तमान में उपापचय तंत्रों का नयंत्रण-निर्देशन एन्जाइमों के माध्यम से आनुवंशिक अणुओं द्वारा होता है। हम पूर्व में भी चर्चा कर चुके हैं कि आनुवंशिक पदार्थ डीएनए तथा आरएनए के संश्लेषण में उपापचय-तंत्रों की भूमिका होती है। उपापचय तंत्र के पहले विकसित होने की परिकल्पना में कहा गया है कि आरएनए विश्व के विकास से पूर्व न्यूक्लियोटाइडों, ओलिगोन्यूक्लियोटाइडों आदि का संश्लेषण संभव हुआ होगा। उष्णजल रंध्रों में जीवन की उत्पत्ति के समय समुद्र के तली में चट्टानों की सतह पर उपापचय चक्रों का विकास हुआ होगा। कार्बन डाइऑक्साइड व जल के अणुओं के आकस्मिक संयोग से एसीटेट जैसा दो कार्बन परमाणुयुक्त बना होगा।



इसके बाद खनिज लवणों व चट्टान सतह पर उपस्थित रंध्रों के उत्प्रेरकीय प्रभाव के कारण सरल कार्बनिक अणुओं के संश्लेषण के विभिन्न परिपथों का सूत्रपात हुआ होगा। प्रारंभ में सरल अमीनों अम्ल व लिपिड अणुओं का संश्लेषण हुआ होगा व कालांतर में सरल कार्बनिक यौगिकों के उत्प्रेरण प्रभाव से जटिल कार्बनिक अणु बनने लगे होंगे। इनमें कुछ सरल पेप्टाइड भी रहे होंगे। पेप्टाइडों के बनने से उत्प्रेरण की क्रिया और तेज हुई होगी जिसके परिणाम स्वरूप जटिल अमीनो अम्ल तथा न्यूक्लियोटाइड अणु अस्तित्व में आए होंगे। समहस्तता व आरएनए विश्व के विकास में इन उपापचय परिपथों की भूमिका रही होगी। जैम्स ट्रेफिल, हारोल्ड मारोविट्ज तथा इरिक स्मिथ ने अपने प्रयोगों के माध्यम से बताया कि अपचायक साइट्रिक अम्ल चक्र वर्तमान कोशिका में पाए जाने वाले सभी कार्बनिक अणुओं के संश्लेषण में समर्थ है। साइट्रिक अम्ल चक्र को अभी तक ऊर्जा उत्पादक परिपथ में रूप में ही देखा जाता रहा है। कोशिका की संरचना में इसकी भूमिका को पहली बार स्वीकार किया गया है।



सूर्य से पुराना है पृथ्वी पर जीवन



प्रथम जीव पृथ्वी पर नहीं जन्मा अपितु सूक्ष्म बीजाणुओं के रूप में अंतरिक्ष के किसी जीवधारी पिंड से आया है। यह परिकल्पना जीव विज्ञान के इतिहास में बहुत पुरानी है। लार्ड केल्विन, वोन होल्महोल्ट्ज आदि ने उन्नीसवीं शताब्दी में इस बात को प्रतिपादित किया था। फ्रेड हॉयल, विक्रमसिंघे, जयंत विष्णु नार्लीकर आदि ने बीसवीं शताब्दी में इसी बात को नए तथ्यों के साथ प्रस्तुत किया। फिर भी आद्यसूप-परिकल्पना के मुकाबले यह विचार अधिक वजन ग्रहण नहीं कर पाया। अब स्थितियाँ बदलने लगी हैं। अनुसंधान के नए उपकरणों के विकास के बाद अब ऐसे तथ्य जुटने लगे हैं जिनके आधार पर वैज्ञानिक अब मजबूती के साथ कह रहे हैं कि प्रथम जीव की उत्पत्ति पृथ्वी पर नहीं हुई थी। पृथ्वी पर पहला जीव बाहर से आया था।



पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति के पक्ष में अब तक जुटाए सभी तथ्यों को नकारते हुए इन वैज्ञानिकों का कहना है कि रासायनिक पदार्थों के आकस्मिक संयोग से पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति की बात करना ठीक वैसा ही है जैसा मंगल ग्रह पर कम्प्यूटर मिलने पर कोई यह दावा करे कि इस कम्प्यूटर का रेण्डम संयोजन मिथेन कुण्ड में हुआ है। विभिन्न वैज्ञानिक अनुसंधानों से अब तक जुटाए गये तथ्यों का गहन अध्ययन करने के बाद डॉक्टर रहावन जोसेफ ने प्रतिपादित किया है कि पृथ्वी पर पाया जाने वाला जीवन सूर्य तथा उसके सौरमंडल से भी पुराना है। जोसेफ की बात सुनने में अविश्वसनीय लगती है मगर अपनी बात के पक्ष में उन्होंने जो तथ्य जुटाए हैं उन्हें झुठलाना मुश्किल है।



वैज्ञानिक अनुमानों के अनुसार पृथ्वी की उम्र 4 अरब 54 करोड़ वर्ष है। पृथ्वी की उत्पत्ति से लेकर 3 अरब 80 करोड़ वर्ष पूर्व तक के काल को वैज्ञानिक हैडीएन काल कहते हैं। यह पृथ्वी के जीवन का सर्वाधिक कठिन काल माना जाता है। इस काल में पृथ्वी पर निरंतर उल्कापात होता रहा था। ज्वालामुखियों की सक्रियता के कारण तापक्रम इतना बढ़ गया था कि पृथ्वी पिघल गई थी। इसका परिणाम यह हुआ कि सतह पर उपस्थित भारी धातुओं ने पृथ्वी के केंद्र की ओर खिसक कर केंद्रीय सघन भाग का निर्माण किया। उस काल बनी चट्टानों से प्राप्त सूक्ष्म जीवाश्मों का अध्ययन करने से पता चलता है कि लगभग 4 अरब वर्ष पूर्व पृथ्वी पर प्रकाशसंश्लेषी जीवन उपस्थित था। यदि यह तथ्य सही है तो मात्र 58 करोड़ वर्ष में रासायनिक प्रक्रियाओं द्वारा पृथ्वी पर जीवन के उत्पत्ति की बात को सही नहीं माना जा सकता। ऐसे में पृथ्वी के बाहर से जीव के आने का विकल्प ही रहता है।



वैज्ञानिकों का मानना है कि हेडीएन काल में जीवन सूक्ष्म बीजाणुओं के रूप में पृथ्वी पर बरसा होगा। मंगल पर भी लगभग उसी समय जीवन पहुँचा होगा। आज इस बात के पक्ष में प्रबल प्रमाण मिल रहे हैं कि सूक्ष्म बीजाणु किसी एक ग्रह के वायुमंडल से निकलकर अंतरिक्ष की लंबी व कठिन यात्रा सफलता पूर्वक पूरी कर, किसी अन्य ग्रह पर उतर सकते हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि जीवन की उत्पत्ति एक बार नहीं होकर, कई बार कई स्थानों पर हुई तथा वहाँ से जीवन हर दिशा में फैलता गया।



डॉक्टर राहव्न जोसेफ के अनुसार हमारे सूर्य व पृथ्वी की उत्पत्ति एक नष्ट हुए तारे के मलवे से हुई होगी। उस तारे के किसी ग्रह पर जीवन उपस्थित था। तारे के नष्ट होने की प्रक्रिया में जब उस तारे की गुरुत्वाकर्षण शक्ति कम हुई तो वह ग्रह उससे छिटककर अलग हो गया। किसी कारणवश उस ग्रह का विघटन अणु स्तर तक नहीं हुआ। अणु स्तर तक विघटित होने से बचे उस ग्रह के मलबे का उपयोग पृथ्वी के निर्माण में हुआ होगा। स्पष्ट है कि पृथ्वी की उत्पत्ति के साथ ही उस पर जीवन उपस्थित रहा होगा या पृथ्वी के बनने के कुछ करोड़ वर्ष में ही जीवन पृथ्वी पर आ गया होगा।



उल्काओं में जैवघटकों की तलाश



जीवन के घटक बाहर अंतरिक्ष से आने की बात की पुष्टि करने के लिये वैज्ञानिक आज कल पृथ्वी पर गिरी उल्काओं को एकत्रित कर उनका आधुनिक तकनीकों से विश्लेषण कर रहे हैं। उल्काओं का उपयोग पूर्व में भी किया जाता रहा है मगर उनके पृथ्वी के पदार्थों से संक्रमित होने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता था। वर्तमान अनुसंधान में ऐसे नाभिकीय क्षारक व उनसे मिलते-जुलते अन्य अणु मिले हैं जो पृथ्वी के रसायन नहीं हैं। इससे इस बात का सहज अनुमान किया जा सकता है अंतरिक्ष में जीवन के घटक प्रचुर मात्रा में उपस्थित हैं। कार्बन धनी अन्य उल्काओं का अध्ययन करने पर कोशिका के उपापचय चक्रों जैसे साइट्रिक अम्ल आदि के घटक भी पाए गए हैं। इस अनुसंधान से इस बात का भी संकेत मिलता है कि साइट्रिक अम्ल चक्र जीवन उत्पत्ति के प्रारंभिक इतिहास में भी उपस्थित थे।



ऑक्सीकारी था पृथ्वी का प्रारम्भिक वायुमण्डल?



नए अनुसंधानों से प्रथम जीव की उत्पत्ति के इतिहास की खोज में एक रणनीतिक बदलाव आया है। न्यूयार्क के खगोलजैविकी (एस्ट्रोबायोलॉजी) केंद्र के वैज्ञानिकों ने प्राप्त प्राचीनतम खनिजों के आधार पर पृथ्वी के प्रांभिक वायुमंडल का जो संघटनात्मक चित्र तैयार किया है वह प्रचलित धारणाओं से मेल नहीं खाता। अब तक यह माना जाता रहा है कि पृथ्वी के प्रारंभिक वायुमंडल में मीथेन, कार्बन मोनोऑक्साइड, हाइड्रोजन सल्फाइड, अमोनिया जैसी जीवन विरोधी गैसों का प्रभुत्व था। ऑक्सीजन की कमी के कारण पृथ्वी का प्रारंभिक वायुमंडल घोर अपचायक था। जिर्कोन्स के अध्ययन से प्राप्त जानकारी के आधार पर वैज्ञानिकों का कहना है कि पृथ्वी की उत्पत्ति के बाद मात्र 50 करोड़ वर्ष की अवधि में ही वर्तमान वायुमंडल बन गया था। कुछ वैज्ञानिक इस सीमा तक तो आगे नहीं बढ़ते हैं मगर वे भी मानते हैं कि वायुमंडल में ऑक्सीजनयुक्त गैसों जैसे कार्बन डाइऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड, जलवाष्प आदि का प्रभुत्व अवश्य था। यदि इस बात को स्वीकार किया जाता है तो जीव की प्रथम उत्पत्ति के विषय में अब तक दिए गए सिद्धांतों को छोड़ना होगा क्योंकि वे अपचायक वायुमंडल को ध्यान में रखकर दिए गए हैं।



पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति को लेकर विभिन्न प्रकार के विचार प्रकट किए जाते रहे हैं मगर अभी किसी एक के पक्ष में आम सहमति नहीं बन पाई है। अभी तक ‘‘जितने मुँह उतनी बातें’’ जैसी स्थिति बनी हुई है। कुछ वैज्ञानिक जीव की उत्पत्ति को विशुद्ध प्राकृतिक संयोग मानते हैं तो ऐसे वैज्ञानिकों की भी कमी नहीं है जो जीवन की उत्पत्ति में ईश्वरीय योगदान की संभावना को नकारने के लिये तैयार नहीं हैं। अनुसंधानों का दौर अभी जारी है। बहुत संभव है कि जल्दी ही हमें किसी नए सिद्धांत के प्रतिपादन की सूचना मिले।



Comments Rahul kumar rai on 19-01-2024

Ai oparian ne kis shiddart par pratipadan kiya tha

सुमन on 24-11-2023

जीवन की उत्पत्ति संबंधित ओपेरिन के सिद्धांत को समझाइये

Anant Narayan maurya on 04-11-2023

ओपरिन का छठा चरण


Naziya saifi on 15-11-2021

ओपेरिन सिद्धान्त के अनुसार जीवन की उत्पत्ति कैसे हुई

Gautam on 02-11-2020

Kosika theory

Mona on 12-08-2020

आपेरिन की खोज किसने की

Operin ke niyam on 13-03-2020

Operin ke niyam


Brijesh kumar on 02-03-2020

Jiwan ke utpatti sambandit operon ka sindhant



Murari on 15-02-2020

First cell ki utpati operin ke theory keeps kid charan main hua



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