Samudayik Vikash Karyakram 1952 सामुदायिक विकास कार्यक्रम 1952

सामुदायिक विकास कार्यक्रम 1952



Pradeep Chawla on 12-05-2019

सामुदायिक विकास कार्यक्रम

Posted by Bandey November 20, 2017

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सामुदायिक विकास की अवधारणा

सामुदायिक विकास योजना के उद्देश्य

योजना का संगठन

सामुदायिक विकास योजना की उपलब्धियाँ

योजना की प्रगति का मूल्यांकन

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सामुदायिक विकास सम्पूर्ण समुदाय के चतुर्दिक विकास की एक ऐसी पद्धति है जिसमें जन-सहभाग के द्वारा समुदाय के जीवन स्तर को ऊँचा उठाने का प्रयत्न किया जाता है। भारत में शताब्दियों लम्बी राजनीतिक पराधीनता ने यहाँ के ग्रामीण जीवन को पूर्णतया जर्जरित कर दिया था। इस अवधि में न केवल पारस्परिक सहयोग तथा सहभागिता की भावना का पूर्णतया लोप हो चुका था बल्कि सरकार और जनता के बीच भी सन्देह की एक दृढ़ दीवार खड़ी हो गयी थी। स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय भारतीय समाज में जो विशम परिस्थियॉ विद्यमान थी उनका उल्लेख करते हुए टेलर ने स्पष्ट किया कि इस समय ‘‘भारत मे व्यापक निर्धनता के कारण प्रति व्यक्ति आय दूसरे देशों की तुलना में इतनी कम थी कि भोजन के अभाव में लाखों लोगों की मृत्यु हो रही थी, कुल जनसंख्या का प्रतिशत भाग प्राकृतिक तथा सामाजिक रूप से एक-दूसरे से बिल्कुल अलग-अलग था, ग्रामीण उद्योग नष्ट हो चुके थे, जातियों का कठोर विभाजन सामाजिक संरचना को विशाक्त कर चुका था, लगभग 800 भाषाओं के कारण विभिन्न समूहों के बीच की दूरी निरन्तर बढ़ती जा रही थी, यातायात और संचार की व्यवस्था अत्यधिक बिगड़ी हुर्इ थी तथा अंग्रेजी शासन पर आधारित राजनीतिक नेतृत्व कोर्इ भी उपयोगी परिवर्तन लाने में पूर्णतया असमर्थ था।’’ स्वाभाविक है कि ऐसी दशा में भारत के ग्रामीण जीवन को पुनर्सगठित किये बिना सामाजिक पुनर्निर्माण की कल्पना करना पूर्णतया व्यर्थ था।



भारत की लगभग 74 प्रतिशत जनसंख्या आज ग्रामों में रहती है। जनसंख्या के इतने बडे़ भाग की सामाजिक-आर्थिक समस्याओं का प्रभावपूर्ण समाधान किये बिना हम कल्याणकारी राज्य के लक्ष्य को किसी प्रकार भी पूरा नहीं कर सकते। यही कारण है कि भारत में स्वतन्त्रता प्राप्ति के तुरन्त बाद से ही एक ऐसी वृहत योजना की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी जिसके द्वारा ग्रामीण समुदाय में व्याप्त अशिक्षा, निर्धनता, बेरोजगारी, कृषि के पिछडे़पन, गन्दगी तथा रूढ़िवादिता जैसी समस्याओं का समाधान किया जा सके। भारत में ग्रामीण विकास के लिए यह आवश्यक था कि कृषि की दशाओं में सुधार किया जाये, सामाजिक तथा आर्थिक संरचना को बदला जाये, आवास की दशाओं में सुधार किया जाये, किसानों को कृषि योग्य भूमि प्रदान की जाये, जन-स्वास्थ्य तथा शिक्षा के स्तर को ऊँचा उठाया जाये तथा दुर्बल वगोर्ं को विशेष संरक्षण प्रदान किया जाये। इस बडे़ लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सर्वप्रथम सन् 1948 में उत्तर प्रदेश के इटावा तथा गोरखपुर जिलों में एक प्रायोगिक योजना क्रियान्वित की गयी। इसकी सफलता से प्रेरित होकर जनवरी 1952 में भारत और अमरिका के बीच एक समझौता हुआ जिसके अन्तर्गत भारत में ग्रामीण विकास के चतुर्दिक तथा व्यापक विकास के लिए अमरीका के फोर्ड फाउण्डेशन द्वारा आर्थिक सहायता देना स्वीकार किया गया। ग्रामीण विकास की इस योजना का नाम ‘सामुदायिक विकास योजना’ रखा गया तथा 1952 में ही महात्मा गॉधी के जन्म दिवस 2 अक्टूबर से 55 विकास खण्डों की स्थापना करके इस योजना पर कार्य आरम्भ कर दिया गया।



सामुदायिक विकास की अवधारणा

ग्रामीण विकास के अध्ययन में रूचि लेने वाले सभी अर्थशास्त्रियों दृष्टिकोण से ‘सामुदायिक विकास’ के अर्थ को समझे बिना इस योजना के कार्यक्षेत्र तथा सार्थकता को समुचित ढंग से नहीं समझा जा सकता है। समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से सामुदायिक विकास एक योजना मात्र नहीं समझा जा सकता है। समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से सामुदायिक विकास एक योजना मात्र नही है बल्कि यह स्वयं में एक विचारधारा तथा संरचना है। इसका तात्पर्य है कि एक विचारधारा के रूप में यह एक ऐसा कार्यक्रम है जो व्यक्तियों को उनके उत्तरदायित्वों का बोध कराना है तथा एक संरचना के रूप में यह विभिन्न क्षेत्रों के पारस्परिक सम्बन्धों और उनके पारस्परिक प्रभावों को स्पष्ट करता है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि भारतीय सन्दर्भ में, सामुदायिक विकास का तात्पर्य एक ऐसी पद्धति से है जिसके द्वारा ग्रामीण समाज की संरचना, आर्थिक साधनों, नेतृत्व के स्वरूप तथा जन-सहभाग के बीच सामंजस्य स्थापित करते हुए समाज का चतुर्दिक विकास करने का प्रयत्न किया जाता है।



शाब्दिक रूप से सामुदायिक विकास का अर्थ- समुदाय का विकास या प्रगति। इसके पश्चात भी सामुदायिक विकास की अवधारणा इतनी व्यापक और जटिल है कि इसे केवल परिभाषा द्वारा ही स्पष्ट कर सकना बहुत कठिन है। जो परिभाषाएॅ दी गयी है, उनमें किसी के द्वारा एक पहलू पर अधिक जोर दिया गया है और किसी में दूसरे पहलु पर। इसके पश्चात भी कैम्ब्रिज में हुए एक सम्मेलन में सामुदायिक विकास को स्पष्ट करते हुए कहा गया था कि ‘‘सामुदायिक विकास एक ऐसा आन्दोलन है जिसका उद्देश्य सम्पूर्ण समुदाय के लिए एक उच्चतर जीवन स्तर की व्यवस्था करना है। इस कार्य में प्रेरणा-शाक्ति समुदाय की ओर से आनी चाहिए तथा प्रत्येक समय इसमें जनता का सहयोग होना चाहिए।’’ इस परिभाषा से स्पष्ट होता है कि सामुदायिक विकास ऐसा कार्यक्रम है जिसमें लक्ष्य प्राप्ति के लिए समुदाय द्वारा पहल करना तथा जन-सहयोग प्राप्त होना आधारभूत दशाएॅ है। इस आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य किसी वर्ग विशेष के हितों तक ही सीमित न रहकर सम्पूर्ण समुदाय के जीवन-स्तर को ऊँचा उठाना है।



योजना आयोग (Planning Commission) के प्रतिवेदन में सामुदायिक विकास के अर्थ को स्पष्ट करते हुए कहा गया कि ‘‘सामुदायिक विकास एक ऐसी योजना है जिसके द्वारा नवीन साधनों की खोज करके ग्रामीण समाज के सामाजिक एवं आर्धिक जीवन में परिवर्तन लाया जा सकता है।



प्रो.ए.आर.देसार्इ के अनुसार ‘‘सामुदायिक विकास योजना एक ऐसी पद्धति है जिसके द्वारा पंचवश्र्ाीय योजनाओं में निर्धारित ग्रामों के सामाजिक तथा आर्थिक जीवन में रूपान्तरण की प्रक्रिया प्रारम्भ करने का प्रयत्न किया जाता है।’’ इनका तात्पर्य है कि सामुदायिक विकास एक माध्यम है जिसके द्वारा पंचवश्र्ाीय योजनाओं द्वारा निर्धारित ग्रामीण प्रगति के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है।



रैना (R.N. Raina) का कथन है कि ‘‘सामुदायिक विकास एक ऐसा समन्वित कार्यक्रम है जो ग्रामीण जीवन से सभी पहलुओं से सम्बन्’िधत है तथा धर्म, जाति सामाजिक अथवा आर्थिक असमानताओं को बिना कोर्इ महत्व दिये, यक सम्पूर्ण ग्रामीण समुदाय पर लागू होता है। उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि सामुदायिक विकास एक समन्वित प्रणाली है जिसके द्वारा ग्रामीण जीवन के सर्वागीण विकास के लिए प्रयत्न किया जाता है। इस योजना का आधार जन-सहभाग तथा स्थानीय साधन है। एक समन्वित कार्यक्रम के रूप में इस योजना में जहॉ एक ओर शिक्षा, प्रशिक्षण, स्वास्थ्य, कुटीर उद्योगों के विकास, कृषि संचार तथा समाज सुधार पर बल दिया जाता है, वहीं यह ग्रामीणों के विचारों, दृष्टिकोण तथा रूचियों में भी इस तरह परिवर्तन लाने का प्रयत्न करती है जिससे ग्रामीण अपना विकास स्वयं करने के योग्य बन सकें। इस दृष्टिकोण से सामुदायिक विकास योजना को सामाजिक-आर्थिक पुनर्निमाण तथा आत्म-निर्भरता में वृद्धि करने वाली एक ऐसी पद्धति कहा जा सकता है जिसमें सामाजिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक विशेषताओं का समावेश होता है।



सामुदायिक विकास योजना के उद्देश्य

सामुदायिक विकास योजना का मुख्य उद्देश्य ग्रामीण जीवन का सर्वागीण विकास करना तथा ग्रामीण समुदाय की प्रगति एवं श्रेश्ठतर जीवन-स्तर के लिए पथ प्रदर्शन करना है। इस रूप में सामुदायिक विकास कार्यक्रम के उद्देश्य इतने व्यापक है कि इनकी कोर्इ निश्चित सूची बना सकना एक कठिन कार्य है। इसके पश्चात भी विभिन्न विद्वानों ने प्राथमिकता के आधार पर सामुदायिक विकास कार्यक्रम के अनेक उद्देश्यों का उल्लेख किया है।



प्रो.ए.आर. देसार्इ ने इस योजना के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए बताया है कि सामुदायिक विकास योजना का उद्देश्य ग्रामीणों में एक मनोवैज्ञानिक परिवर्तन उत्पन्न करना है। साथ ही इसका उद्देश्य ग्रामीणों की नवीन आकांक्षाओं, प्रेरणाओं, प्रविधियों एवं विश्वासों को ध्यान में रखते हुए मानव शक्ति के विशाल भण्डार को देश के आर्थिक विकास में लगाना है। लगभग उसी उद्देश्य को प्राथमिकता देते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रतिवेदन मे डंग हैमरशोल्ड ने स्पष्ट किया है कि ‘‘सामुदायिक विकास योजना का उद्देश्य ग्रामीणों के लिए केवल भोजन वस्त्र, आवास, स्वास्थ्य और सफार्इ की सुविधाएँ देना मात्र नहीं है बल्कि भौतिक साधनों के विकास से अधिक महत्वपूर्ण इसका उद्देश ग्रामीणों के दृष्टिकोण तथा विचारों में परिर्वतन उत्पन्न करना है’’ वास्तविकता यह है कि ग्रामवासियों में जब तक यह विश्वास पैदा न हो कि वे अपनी प्रगति स्वयं कर सकते हैं तथा अपनी समस्याओं को स्वयं सुलझा सकते हैं, तब तक ग्रामों का चतुर्दिक विकास किसी प्रकार भी सम्भव नहीं है। इस दृष्टिकोण से ग्रामीण समु दाय की विचारधारा एवं मनोवृत्ति में परिर्वतन लाना निश्चित ही इस कार्यक्रम का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य है।



डॉ. दुबे ने (S.C. Dube) सामुदायिक विकास योजना के उद्देश्य को भागों में विभाजित करके स्पष्ट किया है: (1) देश का कृषि उत्पादक प्रचुर मात्रा में बढ़ाने का प्रयत्न करना, संचार की सुविधाओं में वृद्धि करना, शिक्षा का प्रसार करना तथा ग्रामीण स्वास्थ्य और सफार्इ की दशा में सुधार करना। (2) गाँवों में सामाजिक तथा आर्थिक जीवन को बदलने के लिए सुव्यवस्थित रूप से सांस्कृतिक परिवर्तन की प्रक्रिया का आरम्भ करना। इससे स्पष्ट होता है कि डॉ. श्यामाचरण सामुदायिक विकास योजना के प्रमुख उद्देश्य के रूप में कृषि के विकास को सर्वोच्च प्राथमिकता देने के पक्ष में है। आपकी यह धारणा है कि कृषि के समुचित विकास के अभाव में ग्रामीण समुदाय का विकास सम्भव नहीं है क्योंकि ग्रामिण समुदाय का सम्पूर्ण जीवन किसी न किसी रूप में कृषि से ही प्रभावित है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि कृषि के विकास की अपेक्षा ‘दृष्टिकोण में परिवर्तन’ का उद्देश्य गौण है। यदि कृषि के विकास से ग्रामीणों की आर्थिक स्थिति में सुधार हो जाये तो उनके दृष्टिकोण में तो स्वत: ही परिवर्तन हो जायेगा। भारत सरकार के सामुदायिक विकास मंत्रालय द्वारा इस योजना के 8 उद्देश्यों को स्पष्ट किया गया है। ये उद्देश्य इस प्रकार हैं: -



ग्रामीण जनता के मानसिक दृष्टिकोण में परिवर्तन लाना।

गाँवों में उत्तरदायी तथा कुशल नेतृत्व का विकास करना।

सम्पूर्ण ग्रामीण जनता को आत्मनिर्भर एवं प्रगतिशील बनाना।

ग्रामीण जनता के आर्थिक स्तर को ऊँचा उठाने के लिए एक ओर कृषि का आधुनिकीकरण करना तथा दूसरी ओर ग्रामीण उद्योगों को विकसित करना।

इन सुधारों को व्यावहारिक रूप देने के लिए ग्रामीण स्त्रियों एवं परिवारों की दशा में सुधार करना।

राष्ट्र के भावी नागरिकों के रूप में युवकों के समुचित व्यक्तित्व का विकास करना।

ग्रामीण शिक्षकों के हितों को सुरक्षित रखना।

ग्रामीण समुदाय के स्वास्थ्य की रक्षा करना।



इन प्रमुख उद्देश्य के अतिरिक्त इस योजना में अन्य कुछ उद्देश्यों का भी उल्लेख किया गया है। उदाहरण के लिए, (क) ग्रामीण जनता का आत्मविश्वास तथा उत्तरदायित्व बढ़ाकर उन्हें अच्छा नागरिक बनाना, (ख) ग्रामीणों को श्रेश्ठकर सामाजिक एवं आर्थिक जीवन प्रदान करना, तथा (ग) ग्रामीण युवकों में संकीर्ण दायरे के बाहर निकलकर सोचने और कार्य करने की शक्ति विकसित करना आदि भी इस योजना के कुछ सहयोगी उद्देश्य हैं। इस सभी उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए यदि व्यापक दृष्टिकोण अपनाया जाय तो यह कहा जा सकता है कि सामुदायिक विकास कार्यक्रम का उद्देश्य ग्रामीण समुदाय के अन्दर सोर्इ हुर्इ क्रान्तिकारी शक्ति को जाग्रत करना है जिसमें ग्रामीण समुदाय अपने विचार करने और काय्र करने के तरीकों को बदलकर अपनी सहायता स्वयं करने की शक्ति को विकसित कर सकें।



सामुदायिक विकास योजना के सभी उद्देश्य कुछ विशेष मान्यताओं पर आधारित हैं। सर्वप्रमुख मान्यता यह है कि सामुदायिक विकास योजनाएँ स्थानीय आवश्यकताओं पर आधारित होनी चाहिए। दूसरे,, उद्देश्य-प्राप्ति के लिए योजना में जन-सहभाग केवल प्रेरणा और समर्थन द्वारा प्राप्त किया जा सकता है, शक्ति के प्रयोग द्वारा नहीं। इसके लिए सामुदायिक विकास कार्यकर्ताओं के चयन और प्रशिक्षण में विशेष सावधानी रखना आवश्यक है। अन्तिम मान्यता यह है कि वह पूर्णतया नौकरशाही व्यवस्था द्वारा संचालित न होकर अन्तत: ग्रामीण समुदाय द्वारा संचालित होना चाहिए जिसके लिए योजना के आरम्भ से अन्त तक इसमें ग्रामीणों का सक्रिय सहयोग आवश्यक है।



योजना का संगठन

अपने प्रारम्भिक काल में सामुदायिक विकास कार्यक्रम भारत सरकार के योजना मंन्त्रालय से सम्बद्ध था परन्तु बाद में इसके महत्व तथा व्यापक कार्य-क्षेत्र को देखते हुए इसे एक नव-निर्मित मंन्त्रालय ‘सामुदायिक विकास मंन्त्रालय’ से सम्बद्ध कर दिया गया। वर्तमान समय में यह योजना ‘कृषि तथा ग्रामीण विकास मंन्त्रालय’ के अधीन है। वास्तव में सामुदायिक विकास योजना का संगठन तथा संचालन केन्द्र स्तर से लेकर ग्राम स्तर तक में विभाजित है। इस दृष्टिकोण में सामुदायिक विकास कार्यक्रम के संगठन को प्रत्येक स्तर पर अलग-अलग समझना आवश्यक है:



(1) केन्द्र स्तर - केन्द्रीय स्तर पर इस समय सामुदायिक विकास कार्यक्रम ‘कृषि एवं ग्रामीण विकास मंन्त्रालय’ से सम्बद्ध है। इस कार्यक्रम की प्रगति तथा नीति-निर्धारण के लिए एक विशेष सलाहकार समिति का गठन किया गया है जिसके अध्यक्ष स्वयं हमारे प्रधानमंत्री है। कृषि मंत्री तथा योजना आयोग के सदस्य इस समिति के सदस्य होते है। इसके अतिरिक्त केन्द्र स्तर पर अनौपचारिक रूप से गटित एक परामर्शदात्री समिति भी होती है जिसके सदस्य लोक सभा के कुछ मनोनीत सदस्य होते हैं। यह सलाहकार समिति योजना की नीति एवं प्रगति के विषय में इस औपचारिक समिति से परामर्श करती रहती है।



(2) राज्य स्तर- सामुदायिक विकास कार्यक्रम को संचालित करने का वास्तविक दायित्व राज्य सरकारों का है। राज्य स्तर पर प्रत्येक राज्य में एक समिति होती है जिसका अध्यक्ष उस राज्य का मुख्यमन्त्री तथा समस्त विकास विभागों के मन्त्री इसके सदस्य होते है। इस समिति का सचिव एक विकास आयुक्त होता है जो ग्रामीण विकास से सम्बन्धित सभी विभागों के कार्यक्रमों तथा नीतियों के बीच समन्व स्थापित करता है। सन् 1969 के पश्चात् से सामुदायिक विकास योजना के लिए वित्तीय साधनों का प्रबन्ध राज्य के अधीन हो जाने के कारण विकास आयुक्त का कार्य पहले की अपेक्षा कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। विकास आयुक्त को परामर्श देने के लिए राज्यों में विधान-सभा तथा विधान परिशद् के कुद मनोनीत सदस्यों की एक अनौपचारिक सलाहकार समिति होती है।



(3) जिला स्तर - जिला स्तर पर योजना के समन्वय और क्रियान्वयन का सम्पूर्ण दायित्व जिला परिशद् का है। जिला परिशद् में जनता के चुने हुए प्रतिनिधि होते हैं जिसमें खण्ड़ पंचायत समितियों के सभी अध्यक्ष तथा उस जिले के लोकसभा के सदस्य एवं विधान सभा के सदस्य सम्मिलित हैं। इसके प्श्चात् भी जिला परिशद् की नीतियों के आधार पर सामुदायिक विकास कार्यक्रम को संचालित करने का कार्य ‘जिला नियोजन समिति’ का है जिसका अध्यक्ष जिलाधीश होता है। कार्यक्रम की प्रगति के लिए जिलाधीश अथवा उसके स्थान पर उप-विकास आयुक्त ही उत्तरदायी होता है।



(4) खण्ड स्तर - आरम्भ मेंं लगभग 300 गाँव तथा 1,300 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र के ऊपर एक विकास खण्ड स्थापित किया जाता था लेकिन अब एक विकास खण्ड की स्थापना 100 से लेकर 120 गाँवों अथवा 1 लाख 20 हजार ग्रामीण जनसंख्या को लेकर की जाती है। विकास खण्ड के प्रशासन के लिए प्रत्येक खण्ड में एक खण्ड विकास अधिकारी नियुक्त किया जाता है तथा इसकी सहायता के लिए कृषि, प्शुपालन, सहकारिता, पंचायत, ग्रामीण उद्योग, सामाजिक शिक्षा, महिला तथा शिशु-कल्याण आदि विषयों से सम्बन्धित आठ प्रसार अधिकारी नियुक्त होते है। खण्ड स्तर पर नीतियों के निर्धारण तथा योजना के संचालन का दायित्व क्षेत्र पंचायत का होता हैं। सरपच, गाँव पंचायतों के अध्यक्ष, स्त्रियों, अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों का प्रतिनिधित्व करने वाले कुछ व्यक्ति इस समिति के सदस्य होते हैं। प्रत्येक खण्ड में विकास योजना को कार्यान्वित करने के लिए 5-5 वर्श के दो मुख्य चरण निर्धारित किये जाते है।



(5) ग्राम स्तर - यद्यपि गाँव स्तर पर योजना के क्रियान्वयन का दायित्व गाँव पंचायत पर होता है लेकिन इस स्तर पर सबसे महत्वपूर्ण भूमिका ग्राम सेवक की होती है। ग्राम सेवक को सामुदायिक विकास योजना के सभी कार्यक्रमों की जानकारी होती है। वह किसी क्षेत्र में विशेषज्ञ नहीं होता लेकिन सरकारी अधिकारीयों तथा ग्रामीण समुदाय के बीच सबसे महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में कार्य करता है। साधारणतया 10 गाँव के ऊपर एक ग्राम सेवक को नियुक्त किया जाता है। यह व्यक्ति कार्यक्रम के सभी नवाचारों का ग्रामीण समुदाय में प्रचार करता है। ग्रामीण की प्रतिक्रिया से अधिकारियों को परिचित कराता है तथा विकास के विभिन्न कार्यक्रमों के बीच समन्वय बनाये रखने का प्रयत्न करता है। ग्राम सेवक के अतिरिक्त गाँव स्तर पर प्रशिक्षित दाइयाँ तथा ग्राम सेविकाएँ भी महिला तथा शिशु-कल्याण के लिए कार्य करती है।



इससे स्पष्ट होता है कि सामुदायिक विकास योजना का सम्पूर्ण संगटन पाँच प्रमुख स्तरों में विभाजित है। डॉ0 देसार्इ का कथन है कि इस पाँच स्तरीय संगठन की सम्पूर्ण शक्ति एवं नियन्त्रण का प्रवाह श्रेणीबद्ध नौकरशाही संगठन के द्वारा ऊपर से नीचे की ओर हाता है। इसके पश्चात् भी विभिन्न समितियों के सुझावों को ध्यान में रखते हुए सामुदायिक विकास कार्यक्रमों में नौकरशाही व्यवस्था के प्रभावों को कम करने के प्रयत्न किये जाते रहे हैं। सम्भवत: इसलिए बलवन्तराय मेहता समिति की सिफारिशों के आधार पर सामुदायिक विकास को स्वायत्तषासी संस्थाओं तथा पंचायती राज संस्थाओं से जोड़ने का प्रयत्न किया गया। आज जिला स्तर पर जिला पंचायत, खण्ड स्तर पर क्षेत्र पंचायत तथा ग्राम स्तर पर गाँव पंचायतों का इस योजना के क्रियान्वयन में विशेष महत्व है। यह कार्यक्रम क्योंकि जनता के लिए तथा जनता के द्वारा था, इसलिए नौकरशाही के दोषों से इसे बचाने के लिए विभिन्न स्तरो पर जन-सहयोग को सर्वोच्च महत्व दिया गया।



सामुदायिक विकास योजना की उपलब्धियाँ

भारत में सामुदायिक विकास कार्यक्रम को ग्रामीण जीवन के चतुर्दिक विकास के लिए अब एक आवश्यक शर्त के रूप में देखा जाने लगा है। यद्यपि विगत कुछ वर्शों से योजना की सफलता के बारे में तरह-तरह की आशंकाएँ की जाने लगी थीं लेकिन इस योजना की उपलब्धियों को देखते हुए धीरे-धीरे ऐसी आशंकाओं का समाधान होता जा रहा है। इस कथन की सत्यता इसी तथ्य से आँकी जा सकती है कि सन् 1952 में इस समय सम्पूर्ण भारत में इन विकास खण्ड़ों की संख्या 5,304 है तथा इनके द्वारा आज देश की लगभग सम्पूर्ण ग्रामीण जनसंख्या को विभिन्न सुविधाएँ सुविधाएँ प्रदान की जा रही है।



सामुदायिक विकास कार्यक्रम के वर्तमान स्वरूप में आज महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ है। प्रथम पंचवश्र्ाीय योजना से लेकर पाँचवीं योजना के काल तक (1951 से 1979) इस कार्यक्रम को ग्रामीण विकास के एक पृथक और स्वतन्त्र कार्यक्रम के रूप में ही क्रियान्वित किया गया था। इसके बाद ग्रामीण विकास के लिए समय-समय पर इतने अधिक कार्यक्रम लागू कर दिये गये कि उन्हें समुचित रूप से लागू करने और उनके बीच समन्वय स्थापित करने में कटिनार्इ महसूस की जाने लगी। इस स्थिति में यह महसूस किया जाने लगा कि सामुदायिक विकास खण्ड़ों के माध्यम से ही विभिन्न ग्रामीण विकास कार्यक्रमों को लागू करके इनका अधिक लाभ प्राप्त किया जा सकता है। इसके फलस्वरूप आज न केवल सामुदायिक विकास खण्ड़ों के स्वरूप में कुछ परिवर्तन हो गया है बल्कि सामुदायिक विकास कार्यक्रम के अन्तर्गत ग्रामीण विकास की उन सभी योजनाओं का समावेश हो गया है जिन्हे आज बहुत अधिक महत्वपूर्ण समझा जा रहा है। इस प्रकार ग्रामीण विकास के क्षेत्र में सामुदायिक विकास कार्यक्रम के वर्तमान दायित्वों तथा उपलब्धियों को समझना आवश्यक हो जाता है।



(1) समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम - समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम सामुदायिक विकास खण्डों द्वारा पूरा किया जाने वाला सबसे अधिक महत्चपूर्ण कार्यक्रम है। इसी को अक्सर समन्वित सामुदायिक विकास कार्यक्रम’ भी कह दिया जाता है। यद्यपि कुछ समय पहले तक सामुदायिक विकास कार्यक्रम के अन्तर्गत ‘लघु किसान विकास एजेन्सी’ तथा ‘सूखाग्रस्त क्षेत्र कार्यक्रम’ का स्थान प्रमुख था लेकिन बाद में यह अनुभव किया गया कि इन कार्यक्रमों से ग्रामीण जनता के जीवन-स्तर में कोर्इ महत्वपूर्ण सुधार नहीं हो सका है। इस स्थिति में सन् 1978-79 से ग्रामीण विकास का एक व्यापक कार्यक्रम आरम्भ किया गया जिसे हम ‘समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम’ कहते है। इसका उद्देश्य ग्रामीण बेरोगारी को कम करना तथा ग्रामीणों के जीवन-स्तर में इस तरह सुधार करना है कि वे गरीबी की सीमा-रेखा से ऊपर उठ सके। भारत में आज ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले 25 करोड़ लोग गरीबी की सीमा रेखा के नीचे है। इन लोगों को आवश्यक सुविधा देने के लिए यह निष्चय किया गया है कि प्रत्येक सामुदायिक विकास खण्ड के द्वारा प्रति वर्श अपने क्षेत्र में से 600 निर्धनतम परिवारों का चयन करके उन्हें लाभ प्रदान किया जायें। इनमें से 400 परिवारों का कृषि से सम्बन्धित सुविधाओं द्वारा, 100 परिवारों को कुटीर-उद्योग धन्धों द्वारा शेष 100 को अन्य सेवाओं द्वारा लाभ दिया जायेगा। यह एक बड़ा लक्ष्य है, इसलिए 5 वर्श की अवधि में 3,000 परिवारों को लाभ प्रदान करने के लिए प्रत्येक विकास खण्ड के लिए 35 लाख रूपयें की राशि निर्धारित की गयी। आरम्भ में यह योजना देश के सभी विकास खण्डों में लागू कर दिया गया है। इस योजना का सम्पूर्ण व्यय केन्द्र और राज्य सरकार द्वारा आधा-आधा वहन किया जाता है। व्यय के दृष्टिकोण से सातवीं तथा आठवीं पंचवश्र्ाीय योजना के अन्तर्गत यह देश का सबसे बड़ा कार्यक्रम रहा जिस पर इन दो योजनाओं के अन्तर्गत ही 19,000 करोड़ से भी अधिका रूप्या व्यय किया गया तथा इसके द्वारा 3.15 करोड़ ग्रामीण परिवारों के जीवन-स्तर को गरीबी की सीमा-रेखा से ऊपर उठाया जा सका। केवल सन् 1995 से 1997 के बीच ही इसके द्वारा 39.85 लाख निर्धन परिवारों को लाभ दिया गयो।



(2) राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम- गाँवों में बेरोजगारी की समस्या का मुख्य सम्बन्ध मौसमी तथा अर्द्ध-बेरोजगारीसे है। इसके लिए किसानों को एक ओर कृषि के अतिरिक्त साधन उपलब्ध कराने की आवश्यकता है तो दूसरी ओर अधिक निर्धन किसानों को खाली समय में रोजगार के नये अवसर देना आवश्यक है। आरम्भ में ‘काम के बदले अनाज’ योजना के द्वारा इस आवश्यकता को पूरा करने का प्रयत्न किया गया था लेकिन सन् 1981 से इसके स्थान पर ‘राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम’ आरम्भ किया गया। इस कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य खाली समय में कृशकों को रोजगार के अतिरिक्त अवसर देना उन्हें कृषि के उन्नत उपकरण उपलब्ध कराना तथा ग्रामीणों की आर्थिक दशा में सुधान करना है। छठी पंचवश्र्ाीय योजना में सामुदायिक विकास खण्डों के माध्यम से इस योजना को लागू करके इस पर लगभग 1,620 करोड़ रूपये व्यय किया गया। सातवीं योजना के अन्तर्गत सन् 1989 से इसके स्थान पर एक नयी रोजगार योजना आरम्भ की गयी जिसे ‘जवाहर रोजगार योजना’ कहा जाता है। इस योजना का मुख्य उद्देश्य अत्यधिक निर्धन तथा गाँवों के भूमिहीन किसानों के परिवार में किसी एक सदस्य को वर्श में कम से कम 100 दिन का रोजगार देना है। सन् 1989 से 1998 तक इस योजना पर केन्द्र और राज्य सरकारों ने लगभग 30 हजार करोड़ रूपये से भी अधिक के विनियोजन द्वारा बहुत बड़ी संख्या के निर्धन परिवारों को रोजगार के अवसर प्रदान किये।



(3) सूखा-ग्रस्त क्षेत्रों के लिए कार्यक्रम- हमारे देश में अनेक हिस्से ऐसे हैं जहॉ अक्सर सूखे की समस्या उत्पन्न होती रहती है। ऐसे क्षेत्रों के लिए उपर्युक्त कार्यक्रम इस उद्देष्य से आरम्भ किया गया है कि किसानों को कम पानी में भी उत्पन्न होने वाली फसलों की जानकारी दी जा सके, जल स्त्रोतों का अधिकाधिक उपयोग किया जा सके, वृक्षारोपण में वृद्धि की जा सके तथा पशुओं की अच्छी नस्ल को विकसित करके ग्रामीण निर्धनता को कम किया जा सके। इस समय 74 जिलों के 557 विकास किया जा रहा है।



(4) मरूस्थल विकास कार्यक्रम - भारत में सामुदायिक विकास खण्डों के माध्यम से यह कार्यक्रम सन् 1977-78 से आरम्भ किया गया। इसका उद्देष्य रेगिस्तानी, बंजर तथा बीहड़ क्षेत्रों की भूमि पर अधिक से अधिक हरियाली लगाना, जल-स्त्रोतों को ढूॅढकर उनका उपयोग करना, ग्रामों में बिजली देकर ट्यूब-वैल को प्रोत्साहन देना तथा पशु-धन और बागवानी का विकास करना है। इस योजना के आरम्भिक वर्श से सन् 1997 तक सामुदायिक विकास खण्डों के द्वारा इस पर कुल 982 करोड़ रूपया व्यय किया जा चुका है।



(5) जनजातीय विकास की अग्रगामी योजना - इस योजना के अन्तर्गत आन्ध्र प्रद्रेश, मध्य प्रद्रेश,बिहार तथा उड़ीसा के कुछ आदिवासी बहुल क्षेत्रों में जनजातीय विकास के प्रयत्न किये गये हैं। इसके द्वारा आर्थिक विकास, संचार, प्रशासन, कृषि तथा सम्बन्धित क्षेत्रों में जनजातीय समस्याओं का गहन अध्ययन करके कल्याण कार्यक्रमों को लागू किया जा रहा है। विकास खण्डों के द्वारा लोगों को पशु खरीदने, भूमि-सुधार करने, बैलगाड़ियों की मरम्मत करने और दस्तकारी से सम्बन्धित कार्यों के लिए ऋण दिलवाने में भी सहायता की जाती है।



(6) पर्वतीय विकास की अग्रगामी योजना - पर्वतीय क्षेत्र के किसानों का सर्वांगीण विकास करने तथा उनके रहन-सहन के स्तर में सुधार करने के लिए हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश तथा तमिलनाडु में यह कार्यक्रम आरम्भ किया गया। आरम्भ में इसे केवल पॉचवी पंचवश्र्ाीय योजना की अवधि तक ही चालू रखने का प्रावधान था लेकिन बाद में इस कार्यक्रम पर छठी योजना की अवधि में भी कार्य किया गया।



(7) पौश्टिक आहार कार्यक्रम - यह कार्यक्रम विश्व स्वास्थ्य संगठन तथा यूनीसेफ की सहायता से केन्द्र सरकार द्वारा संचालित किया जाता है। इसका उद्देश्य पौश्टिक आहार के उन्नत तरीकों से ग्रामीणों को परिचित कराना तथा प्राथमिक स्तर पर स्कूली बच्चों के लिए दिन में एक बार पौश्टिक आहार की व्यवस्था करना है। पौश्टिक आहार की समुचित जानकारी देने के लिए गॉव पंचायतों युवक तथा महिला मण्डलों की भी सहायता ली जाती है। भारत में अब तक लगभग 2556 विकास खण्ड ग्रामीण समुदाय के लिए यह सुविधा प्रदार कर रहे है तथा भविश्य में इस कार्यक्रम का प्रसार औश्र अधिक खण्डों में करने के प्रयत्न किये जा रहे है।



(8) पशु पालन - पशुओं की नस्लों में सुधार करने तथा ग्रामीणों के लिए अच्छी नस्ल के पशुओं की आपूर्ति करने में भी विकास खण्डों का योगदान निरन्तर बढ़ता जा रहा है। अब प्रत्येक विकास खण्ड द्वारा औसतन एक वर्श में उन्नत किसत के 20 पशुओं तथा लगभग 400 मुर्गियों की सप्लार्इ की जाती है तथा वर्श में औसतन 530 पशुओं का उन्नत तरीकों से गर्भाधान कराया जाता है। इससे ग्रामीण क्षेत्रों में पशुओं की नस्ल में निरन्तर सुधार हो रहा है।



(9) ऐच्छिक संगठनों को प्रोत्साहन - सामुदायिक विकास कार्यक्रम की सफलता का मुख्य आधार इस योजना में ऐच्छिक संगठनों का अधिकाधिक सहभाग प्राप्त होना है। इस दृष्टिकोण से विकास खण्डों द्वारा अब मण्उल तथा युवक मगल जैसे ऐच्छिक संगठनों के विकास पर विशेष बल दिया जा रहा है। इस कार्य के लिए ऐच्छिक संगठनों के पंजीकरण के नियमों को सरल बनाना, कार्यकारिणी के सदस्यों को प्रशिक्षण देना, विशेष कार्यक्रमों के निर्धारण में सहायता देना, रख-रखाव के लिए अनुदान देना, उनकी कार्यप्रणाली का अवलोकन करना, महिला मण्डलों को प्रेरणा पुरस्कार देना तथा कुछ चुनी हुर्इ ग्रामीण महिलाओं को नेतृत्व का प्रशिक्षण देना आदि वे सुविधाऐं हैं जिससे ऐच्छिक संगठन ग्रामीण विकास के लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।



(10) स्वास्थ्य तथा परिवार नियोजन - ग्रामीणों में छोटे आकार के परिवारों के प्रति जागरूकता उत्पन्न करने तथा उनके स्वास्थ्य के स्तर में सुधार करने के लिए सामुदायिक विकास खण्डों ने विशेष सफलता प्राप्त की है। जून 1997 तक हमारे देश में 22,000 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों तथा 1.36 लाख से भी अधिक उपकेन्द्रों के द्वारा ग्रामीण जनसख्या के स्वास्थ्य में सुधार करने का प्रयत्न किया गया था। अब विकास खण्डों द्वारा ग्रामीण विस्तार सेवाओं के अन्तर्गत ग्रामीणों को जनसंख्या सम्बन्धी शिक्षा देने का कार्य भी किया जाने लगा है।



(11) शिक्षा तथा प्रशिक्षण- सामुदायिक विकास योजना के द्वारा ग्रामीण शिक्षा के व्यापक प्रयत्न किये गये इसके लिए गांवों में महिला मण्डल, कृशक दल तथा युवक मंगल दल स्थापित किये गये। समय-समय पर प्रदर्शनियों, उत्सवों तथा ग्रामीण नेताओं के लिए प्रशिक्षण शिविरों का आयोजन करके उन्हें कृषि और दस्तकारी की व्यावहारिक शिक्षा दी जाती है। वर्तमान में सामुदायिक विकास खण्ड प्रौढ़ शिक्षा का विस्तार करके भी ग्रामीण साक्षरता में वृद्धि करने का प्रत्यन कर रहे हैं। ग्रामीणों के अतिरिक्त विद्यालय के शिक्षकों, पंचायत के सदस्यों तथा ग्रामीण युवकों के लिए भी विशेष गोश्ठियों ओर शिविरों का आयोजन किया जाता है। जिससे लोगों में शिक्षा के प्रति चेतना उत्पन्न करके विभिन्न योजनाओं से लोगों को परिचित कराया जा सके। इन सभी तथ्यों से स्पष्ट होता है कि विभिन्न पंचवश्र्ाीय योजनाओं में सामुदायिक विकास कार्य्क्रम की उपलब्धियां न केवल सन्तोषप्रद है बल्कि अनेक क्षेत्रों में निर्धारण लक्ष्य से भी अधिक सफलता प्राप्त की गर्इ है।



योजना की प्रगति का मूल्यांकन

भारत में सामुदायिक विकास कार्यक्रम के सभी पक्षों को देखते हुए अक्सर एक प्रश्न यह भी उत्पन्न होता है कि क्या भारत में सामुदायिक विकास कार्यक्रम असफल रहा है? और यदि हाँ तो इसके प्रमुख कारण क्या हैं? इस प्रश्न की वास्तविकता को समझने के लिए हमें योजना के प्रत्येक पहलू को ध्यान में रखकर इसका निश्पक्ष मूल्यांकन करना होगा। वास्तव में सामुदायिक विकास योजना में सम्बन्धित विभिन्न कार्यक्रमों का समय-समय पर अनेक विद्धानों ने मूल्यांकन किया है। इन अध्ययनों से एक बात यह निश्चित हो जाती है कि इस कार्यक्रम ने हीनता की ग्रन्थि से मस्त करोड़ों ग्रामीणों के मन में विकास के प्रति जागरूकता का संचार किया है। इस दृष्टिकोण से इस कार्यक्रम को पूर्णतया असफल कह देना न्यायपूर्ण नहीं होगा। इसके पश्चात भी इस योजना पर जितना धन व्यय किया गया तथा जो लक्ष्य निर्धारित किये गये उसके अनुपात से हमारी सफलताएं बहुत कम है योजना के प्रारम्भ में ही यह स्पष्ट किया गया था कि इस कार्यक्रम में प्रत्येक स्तर पर जन-सहभाग को विशेष महत्व दिया जायेगा परन्तु व्यावहारिक रूप से योजना के आरम्भ से अब तक इसमें जन सहभाग का नितान्त अभाव रहा है।



स्वतन्त्रता के पश्चात् प्रथम बार सामुदायिक विकास कार्यक्रम के माध्यम से सभी वर्गो तथा स्तरों को विकास की समान सुविधाएं देते हुए सांस्कृतिक आधुनिकीकरण का दर्शन सामने रखा गया। इस दर्शन का आधार यह था कि आर्थिक विकास तथा सामाजिक न्याय स के क्षेत्र में किसी प्रकार का विभेदीकरण नहीं होना चाहिए परन्तु वास्तविकता यह है कि इस योजना के अधीन जिन ग्रामीणों को लाभ प्राप्त हुआ भी है उनमें 60 प्रतिशत से भी अधिक ग्रामीण अभिजात वर्ग के हैं। इसका तात्पर्य है कि यह कार्यक्रम जिन मूलभूत सिद्धान्तों को लेकर आरम्भ किया गया था उन्हें व्यावहारिक रूप देने में यह सफल नहीं हो सका। कार्यक्रम में यह निर्धारित किया गया था कि ग्रामीण समुदाय में कृषि के विकास को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जायेगी क्योंकि इसके बिना उसके जीवन स्तर में कोर्इ भी वांछित सुधार नही लाया जा सकता। इसके पष्वात् भी विभिन्न कार्यक्रमों के अन्तर्गत की सफलता के लिए सबसे अधिक आवश्यक था। इसका कारण सम्भवत: ग्राम सेवकों तथा अधिकारियों की सामान्य किसानों के प्रति घोर उदासीनता का होना है। इसके अतिरिक्त इस कार्यक्रम की असफलता के पीछे कार्यक्रम से सम्बद्ध अधिकारियों तथा कर्मचारियों में ग्रामीण अनुभव तथा दूर-दृष्टि का अभाव होना भी एक महत्वपूर्ण कारक सिद्ध हुआ। विभिन्न विद्वानों तथा मूल्यांकन समितियों ने जिन दशाओंं के आधार पर इस योजना की समीक्षा की है। उनहें प्रोदेसार्इ के आठ प्रमुख परिस्थतियों के आधार पर स्पष्ट किया है-



इस योजना की प्रकृति नौकरशाही विशेषताओं के युक्त है।

प्रशासकीय आदेशों के समान ही सभी निर्णय उच्च स्तर से निम्न स्तर के लिए सम्पे्रशित किये जाते है।

संगठन के किसी भी स्तर पर आधारभूत सिद्धान्तों के क्रियान्वयन का अभाव रहा है।

अन्य सरकारी विभागों की भॉति ही इस योजना के प्रशासन के प्रति भी जनसाधारण के मन में अधिक विश्वास नही है।

विभिन्न विभागों के कर्मचारियों के अधिकारों और कार्यो को उनके स्तर और प्रतिश्ठा से जोड़ना एक बड़ी भ्रान्ति रही है।

प्रशासकीय कार्यकर्ताओं के विभाग में अनेक कार्यो का इतना दोहरीकरण है कि इसके कारण न केवल कार्यो का बोझ बढ़ गया है बल्कि विभिन्न कार्यो के प्रति कार्यकर्ताओं में दायित्व का विभाजन भी समुचित रूप से नही हो पाता।

कार्यकर्ताओं में सेवा-मनोवृत्ति का अत्यधिक अभाव है।

कर्मचारियों में सामाजिक सेवा की निपुणता कम होने के साथ उनके साधन भी बहुत सीमित है।



ये दोष योजना के प्रारूप से अधिक सम्बन्धित हैं, अधिकारियों की कार्यकुशलता अथवा निश्ठा से बहुत कम। वास्तविकता यह है कि सामुदायिक विकास कार्यक्रम का सम्पूर्ण प्रारूप मुख्य रूप से जनता के सहभाग से घनिश्ठ रूप में सम्बन्धित है। इसके विपरीत शिक्षा की कमी तथा जनसामान्य की उदासीनता के कारण सरकारी तन्त्र को ग्रामीण समुदाय से कोर्इ महत्वपूर्ण सहयोग प्राप्त नही हो पाता। इस दृष्टिकोण से डॉ. दुबे ने सामुदायिक विकास योजना का वैज्ञानिक मूल्यांकन करते हुए इतनी संरचना से सम्बद्ध चार मुख्य दोषों का उल्लेख किया है-



ग्रामीण जनसंख्या के अधिकांश भाग की सामान्य उदासीनता।

योजना के क्रियान्वयन में अधिकारियों तथा बाहरी व्यक्तियों प्रति सन्देह तथ्ज्ञा अविश्वास।

संचार के साधनों की विफलता।

परम्पराओं तथा सांस्कृतिक कारकों का प्रभाव।



इस प्रकार भारत में सामुदायिक विकास कार्यक्रम की असफलता अथवा धीमी प्रगति के लिए जो उत्तरदायी कारण बताये गये है, उन्हें संक्षेप में निम्नांकित रूप से स्पष्ट किया जा सकता हैं



1. जन सहयोग का अभाव - सामुदायिक विकास कार्यक्रम के प्रत्येक स्तर पर जनसहयोग की सबसे अधिक आवश्यकता थी लेकिन व्यवहारिक रूप से प्रत्येक स्तर पर इसका नितान्त अभाव है। इस कार्यक्रम में श्रमदान आन्दोलन को अत्यधिक महत्व दिया गया है लेकिन आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से टुकड़ों में विभाजित ग्रामीण समुदाय से ऐसा कोर्इ सहयोग नहीं मिल सका। डॉ. दुबे ने स्वयं अनेक श्रमदान आन्दोलनों का निरीक्षण करके अनेक तथ्य प्रस्तुत किये है। आपके अनुसार ग्रामों में ऊँची सामाजिक और आर्थिक स्थिति वाले लोगों ने श्रमदान के द्वारा सड़कों के निर्माण और मरम्मत की योजना में काफी रूचि ली लेकिन स्वयं इस वर्ग ने कोर्इ योगदान नही किया। गॉवों के केवल निम्न सामाजिक-आर्थिक स्थिति वाले व्यक्तियों ने ही शारीरिक श्रम के कार्य में कुछ योगदान दिया। फलस्वरूप श्रमदान की अवधि में यह वर्ग उतने समय की मजदूरी से भी वंचित रह गया जबकि योजना से इस वर्ग को कोर्इ प्रत्यक्ष लाभ नही पहुॅच सका। इस कारण कुछ व्यक्ति तो श्रमदान को बेगार-प्रथा की ही पुनरावृत्ति मानने लगे। इसके विपरीत श्रमदान में कोर्इ योगदान न देने वाला गॉव का उच्च वर्ग सड़कों के निर्माण से अर्थिक रूप से अधिक लाभान्वित हुआ। साथ ही उसे अपनी प्रतिश्ठा स्थापित करने तथा नेतृत्व दिखाने का अवसर भी मिला। इससे स्पष्ट होता है कि विभिन्न विकास कार्यक्रमों द्वारा जब तक निम्न सामाजिक आर्थिक स्थिति वाले वगोर्ं को वास्तविक लाभ नहीं पहुॅचता, यह योजना अधिक प्रभावपूर्ण नही बन सकेगी।



2. कार्यक्रम क क्रियान्वयन में अतिशीघ्रता-सामुदायिक विकास कार्यक्रम के सफलता बहुत बड़ी सीमा तक उसके संगठनात्मक पहलु से सम्बन्धित थी। देश में इस योजना के सम्पूर्ण जाल को फैलाने में इतनी अधिक शीघ्रता और उत्साह दिखाया गया कि योग्य तथा कुशल कार्यकर्ताओं के अभाव में सामान्य कार्यकर्ताओं के हाथों में ही योजना के क्रियान्वयन की बागडोर सौप दी गयी। कार्यक्रम का प्रसार उच्च से निम्न अधिकारियों के लिए होता था, इसलिए उच्च स्तर के अधिकारी जनसामान्य की भावनाओं तथा आवश्यकताओं से अनभिज्ञ ही बने रहे। इसके फलस्वरूप नीतियों का निर्माण ही दोषपूर्ण हो गया। सम्पूर्ण योजना फाइलों और कागजों में सिमटकर रह गयी। जनसाधारण को इसका न कोर्इ लाभ मिला और न ही उन्होंने इसमें कोर्इ सहयोग देना लाभप्रद समझा।



3. कार्यक्रम में नौकरशाही का बोलबाला - सामुदायिक विकास योजना के प्रत्येक स्तर पर नौकरशाही प्रवृति का बोलबाला रहा है। योजना के उच्च पदस्थ अधिकारी निम्न अधिकारियों को आदेश तो देते रहे लेकिन अपने नीचे ग्रामीण स्तर के अधिकारियों की अनुभवसिद्ध तथा विश्वस्त बात सुनने के लिए तैयार नही हो सके। इसके फलस्वरूप ग्राम सेवक, जिस पर इस योजना की सफलता आधारित थी, गॉव के प्रभावशाली व्यक्तियों की चाटुकारी करने में लग गया। इसके अतिरिक्त ब्रिटिष प्रशासन के अभ्यास अधिकारी ग्रामीण समुदाय से किसी प्रकार का सम्पर्क रखना अथवा प्राथमिक रूप से उनकी समस्याओं को समझना अपनी प्रतिश्ठा के विरूद्ध समझते है।



4. प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं का अभाव - इस योजना के आरम्भिक काल से ही इनमें प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं का नितान्त अभाव रहा है। यद्यपि सरकार ने कुछ कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण के लिए प्रशिक्षण केन्द्रों तथा विशेष शिविरों का आयोजन किया लेकिन वह व्यवस्था इतनी अपर्याप्त थी कि जिस तेजी से विकास खण्ड़ों की संख्या में वृद्धि हो रही थी, उतनी तेजी से कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित नहीं किया जा सका। इसके फलस्वरूप विभिन्न स्तरों पर नियुक्त अधिकारी, कार्यकर्ता तथा कर्मचारी अपने दायित्व को समुचित रूप से निर्वाह नहीं कर सके।



5. स्थानीय नेतृत्व का अभाव - कार्यक्रम का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य स्थानीय नेतृत्व का विकास करना था लेकिन आरम्भ से ही इस ओर अधिक ध्यान नही दिया गया। वास्तव में ग्रामीण समुदाय में व्याप्त अशिक्षा, अज्ञानता, सामाजिक आर्थिक असमानता, भाषागत भिन्नताओं तथा उच्च जातियों के शोषण के कारण नियोजित प्रयास किये बिना स्वस्थ नेतृत्व को विकसित करना सम्भव नही था। जब ग्रामों में स्वस्थ नेतृत्व ही विकसित नही हुआ तो जन-सहभाग प्राप्त होने कोर्इ प्रश्न ही नही था। सहभाग की अनुपस्थिति में थोड़े से प्रशिक्षित और कुशल कार्यकर्ता भी विभिन्न कार्यक्रमों को अधिक प्रभावपूर्ण रूप से लागू नही कर सके।



6. सांस्कृतिक कारक - भारतीय ग्रामों में कुछ ऐसी सांस्कृतिक परिस्थितयॉ भी विद्यमान रही है जिनके कारण सामुदायिक विकास कार्यक्रम की प्रगति बहुत सीमित हो गयी। उदाहरण के लिए उदासीन तथा भाग्य प्रधान स्वभाव, कार्य करने के परम्परागत तरीके, धार्मिक विश्वास तरह तरह के कर्मकाण्ड और सरकारी अधिकारियों के प्रति अविश्वास आदि ऐसे कारक रहे है जो जन सहभाग को दुर्बल बनाते रहे है। डॉ. दुबे ने अपने अध्ययन के आधार पर इन कारकों के प्रभाव का व्यापक विश्लेषण करके सामुदायिक विकास योजना की धीमी प्रगति में इनके प्रभाव को स्पष्ट किया है।



7. प्रभावशाली संचार का अभाव - सामुदायिक विकास योजना के अन्तर्गत सचार के परम्परागत तथा आधुनिक दोनों तरीकों का साथ-साथ उपयोग किया गया लेकिन कार्यक्रम को सफल बनाने में ये अधिक प्रभावपूर्ण सिद्ध नही हो सके। इसका कारण संचार के तरीकों का दोषपूर्ण उपयोग था। डॉ. दुबे ने कृषि, पशुपालन एवं स्वास्थ्य के क्षेत्र में 16 नवाचारों के प्रभाव का अध्ययन करने के लिए 270 उत्तरदाताओं से सम्पर्क किया। इस अध्ययन से यह ज्ञात हुआ कि 84 प्रतिशत उत्तरदाता केवल 2 नवाचारों से अवगत थे, 14 प्रतिशत उत्तरदाता किसी भी नवाचार के बारे में कुछ नही जानते थे तथा केवल 2 प्रतिशत ग्रामीण ही ऐसे थे जो सभी नवाचारों से परिचित थे। इस अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि ग्रामीण समुदाय को जब नवीन योजनओं तथा कार्यक्रमों की जानकारी ही नहीं है तो किस प्रकार वे इनके प्रति जागरूक होकर इनमें अपना योगदान कर सकते है। इसी स्थिति को ध्यान में रखते हुए कृश्णमाचारी ने कहा था ‘‘मैं कार्यक्रम मे ग्रामीण स्तर के अप्रशिक्षित कार्यकर्ताओं को लेने की अपेक्षा यह अधिक पसन्द करूॅगा कि इस आन्दोलन का प्रसार धीरे-धीरे हो।




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