Kumar Sambhav Mahakavya कुमार संभव महाकाव्य

कुमार संभव महाकाव्य



GkExams on 12-05-2019



GkExams on 12-05-2019

कुमार-सम्भव
प्रथम सर्ग : उमा- उत्पत्ति

उत्तर दिशा की देवभूमि में
पर्वताधिराज हिमालय है।
पूर्व एवं पश्चिम के सागरों को चूमता,
किए स्थापित भू पर मानदण्ड है।१।

जिसको सब शैल वत्स समझते, मेरु
पृथ्वी रूपी गो का दुग्ध-दोहन में सक्षम।
पुरा-समय के पृथु के आदेश से ये सब करते
हिमालय को रत्न-औषधि से आभूषित।२।

अपरिमित रत्नों से सुसज्जित, एक हिम
नहीं सकती उसका सौभाग्य ही हर।
एक दोष गुणों में छिप जाता है जैसे
किरणों में इंदु पर दाग एक।३।

शिखरों पर बहुमूल्य धातु धारण
करे, संध्या सी हो जगमग।
मेघ-खण्डों में जिसके वर्ण रंजित, व
विलासिनी अप्सरा-गृह ओर ले जाए कदम।४।

पर्वत समीप मैदानों में शिखरों की
घन-छाया का लेकर आनंद जब।
वर्षा-बौछारों से पीड़ित होते,सूर्य से चमकती
उसकी चोटियों पर करते आराम सिद्ध।५।

जहाँ किरात गज-हन्ता सिंहों के
नख-रंध्र से गिरते मुक्ता खोजते।
यद्यपि उनके रक्त-रंजित पद-चिन्ह नहीं देख पाते,
जो हिम पिघलने से बनी नालियों में लुप्त हैं हो जाते।६।

भोज-पत्रों पर धातु-स्याही से लिखित अक्षर,
जहाँ कुञ्जर* रक्त-वर्ण से मेल खाते हैं।
विद्याधर-सुंदरियों के लिए ये लेख,
कामुक सम्पर्क-साधन काम आते हैं।७।

कुञ्जर* : हस्ती

हर गुहा-मुख से आती समीर से,
वह हिमालय कीचक* से गान सुनाता।
किन्नर सुंदरियाँ उच्च-स्वरों में गाती
और देती संगीत को फैला।८।

कीचक* : बाँस

जहाँ भीषण हाथी सुवासित देवदार द्रुमों को
अपने पीड़ित कर्णों को सुख देने हेतु रगड़ते
अभूतपूर्व गंध फैलती पवित्र पर्वत पर
सुगन्धित रिसते उनके गोंद से।९।

जहाँ रात्रि में कंदरा दीप्त करती चमकती औषधियाँ
प्रकाश हेतु तैल की आवश्यकता न होती।
वनवासी अपनी सुंदर रमणियों संग
जब करते हैं कामक्रीड़ा।१०।

अश्वमुखी कामिनियाँ झुकीं कटि-भरपूर उरोज-भार से
गृह-लक्षित अपने क़दमों की न छोड़ती चाल।
यद्यपि शिला सी बनी हिम पर चलने से जहाँ उनकी
एड़ियाँ एवं उँगली पोर शीत से कट से जात।११।

जो आदित्य प्रकाश से भीत निशाचर
उलूकों की गुहाओं में है रक्षा करता।
शरण में पड़े क्षुद्र को भी, सज्जन
कवच देते हैं अपनी ममता का।१२।

चन्द्र-मरिचियों सी शुभ्र पुच्छल-चँवर हिलाकर
जहाँ याक उसका गिरिराज होना करते हैं सिद्ध।
वीजन गति से उनकी शोभा
सब ओर है विस्तरित।१३।

जहाँ जलद* विभिन्न आकृतियों में अकस्मात
गुहा गृह -द्वार पर लटक जाते और बन जाते।
विलज्जित किन्नर वनिताओं हेतु चिलमन*,
जिनके अंशुक पुरुषों द्वारा उतारे जा रहे।१४।

जलद* : मेघ; चिलमन* : परदा

जहाँ भागीरथी नदी की जलाच्छादित फुहारें
बारम्बार देवदार तरुओं को करती कम्पित।
और कटि-बंध मयूर-पंख घर्षण से पीड़ित
मृगया छूटने से क्लांत किरीटों को देती आनंद।१५।

उच्च शिखरों की ताल-कमलों को
जिसके नभ-सप्तर्षि नीचे उतर चुगते।
बचे अरविन्द भास्कर किरणों से
पुनः ऊर्ध्व-वृद्धि करते।१६।

जिसकी यज्ञ-साधन व धरित्री-धारण सक्षमता
देखकर प्रजापति स्वयं कल्पित यज्ञ-भाग से,
घोषित करते हिमालय को शैलाधिपति।१७।

इसके पश्चात कथा प्रस्तुत है :

उस मेरु-सखा ने अपनी कुल-निरंतरता हेतु
अनुरूप माननीय एवं मुनिजन सम्मानित।
पितरों द्वारा मानसी* कन्या से विधि-पूर्वक
स्थिति जानकर विवाह किया।१८।

मानसी* : मन से उपजी

कालान्तर में जैसे कि वे हुए अपने
स्वरूप योग्य काम-प्रसंगों में प्रवृत।
मनोरम यौवन धारण किए भवत
भूधरराज पत्नी ने गर्भ किया धारण।१९।

उस मेना ने मैनाक को जन्म दिया जिसने एक नागकन्या से
विवाह किया, अपने को छिपाने हेतु उसने समुद्र से मित्रता की।
यद्यपि क्रुद्ध शत्रु इंद्र के वज्र-प्रहार से सर्व पर्वत छेदित हो जाते हैं
पर मैनाक ने कभी भी न अनुभव की वज्र-प्रहार पीड़ा ही। २०।

पूर्वजन्म में दक्ष-कन्या एवं शिव की पूर्व-पत्नी
तब पवित्र सती ने पुनः शैल-वधू से लिया जन्म।
जिसने पिता द्वारा नाथ का अपनाम करने पर
योग से अपनी देह त्याग दी थी कर।२१।

वह सौभाग्यवती मेना से जन्मी उमा सदा
समर्पित थी पर्वतराज द्वारा पवित्र कर्मों में।
क्योंकि समृद्धि पनपती है उत्साह
और सुनिर्देशित कर्मों के निर्वाह से।२२।

उस पार्वती के जन्मदिवस पर
सब दिशाऐं रज-रहित पवन।
शंख-ध्वनि व पुष्प-वृष्टि से प्रमुदित जो सब
जंगम-स्थावर शरीरों में सुख हेतु संचारित।२३।

नव-मेघ स्वर से रत्न-जड़ित पर्वतिकाओं से सटे
जैसे भूभाग भी रत्न-किरण से चमकते हैं।
वैसे ही माता भी कान्तिमान होती है
पुत्री के प्रभा-मण्डल से।२४।

बालचंद्र नव-कला प्रस्तुत करता,
जैसे बढ़ता जाता प्रतिदिन।
वैसे ही उस उमा में कालांतर में
विशेष लावण्य हुआ संचारित।२५।

बन्धुजन, अभिजन उसे पार्वती नाम से पुकारते
पर तप द्वारा माता अत्यंत सावधानी से रही पाल।
उसे उ (हे पुत्री ) मा (मत कर) निषिद्ध वाक्यों से
पुकारती, अतः उसे मिला उमा नया नाम।२६।

यद्यपि पुत्र होते हुए महीभृत* की नजरें
अपनी इस बाला को देखते नहीं होती तृप्त।
जैसे कि वसंत में अनेक प्रकार के पुष्प होते भी भ्रमरमाला
आम्र-अंकुर ओर ही सम्पूर्ण प्रेम से होती आकर्षित।२७।

महीभृत* : हिमाद्र

उसको पाकर पर्वतराज को अपर* महत्ता व कीर्ति
मिली, जैसे दीप को मिले अति प्रभायुक्त शिखा।
या त्रिमार्गी गंगा से स्वर्ग-पथ या जैसे
शुद्ध वाणी से विभूषित होता मनीषी।२८।

अपर* : अतिरिक्त

बालपन में वह पार्वती
क्रीड़ारस प्रवेशित सखियों से घिरी।
प्रायः गेंद व खिलौनों से खेलती और
मंदाकिनी तीर रेत पर वेदिका बनाती।२९।

पूर्वजन्म के उसके संस्कार विद्या-ग्रहण समय
प्रकट हो जाते, जैसे पूर्व के स्थिर प्रभाव होते चिरस्थायी।
जैसे शरद काल में हंस-पंक्तियाँ गंगा की तरफ़ लौट आती
और रात्रि में अपनी रोशनी जगमग से करती महौषधि।३०।

वह बालपन पार कर उस आयु में पहुँच गई
अब जो स्वयं में एक अकृतिम शरीर-सौंदर्य है।
मदिरा से भी अधिक मधुर आनंद का कारण व
काम भी कुसुम-बाण का शस्त्र लिए हुए है।३१।

जैसे चित्रकार-तूलिका से चित्र शनै-२ बढ़ता जाता है
या अरविन्द सूर्य-किरण प्रभाव से खिलता जाता है।
वैसे ही उसकी शोभित सुडौल काया
नूतन यौवन से खिलती जाती है।३२।

गतिमान उसके चरण पृथ्वी को सदा-चलायमान
स्थल-राजीवों की सौजन्यता प्रदान करते।
क्योंकि वे अति-उन्नत अंगुष्ठ और
बढ़े नख के रक्त-वर्ण से चमक रहे।३३।

उरोज-भार से झुकी हुई सी, कदम चालों द्वारा दर्शित,
और मोहक चंचल अदाओं द्वारा विभूषित वह।
चलने के विषय में राजहंसों द्वारा शिक्षित की जाती जो
बाद में स्वयं ही उसकी नूपुर-संगीत शिक्षा को हैं उत्सुक।३४।

उसकी अति-सुंदर, न अति लम्बी, गोल,
मांसल व सुडौल जंघा ली बना विधाता ने जब।
उनको अनन्य लावण्यमयी शेष अंग-निर्माण में
बहुत ही प्रयास करना पड़ा तब।३५।

ऐरावत हस्ती की सख़्त त्वचा की सूँड और
अत्यंत शीत जलवायु की विशेष कदलीफल।
जो हालाँकि सुडौल व गोलाकार हैं, पर उसकी
जंघाओं की उपमा के मानदंड में अयोग्य।३६।

अतिशोभित सम्पूर्ण काञ्ची गुण यानि नितम्ब आदि
स्थलों की सुंदरता इस तथ्य से जानी जा सकती।
कि कौमार्य पश्चात् वह गिरीश-गोद बैठने को सक्षम हुई
जो अन्य किसी नारी हेतु सम्भव न था किंचित भी।३७।

उसकी कटि-वस्त्र ग्रन्थि नवल में प्रवेश करके
मेखला-मध्य एक सूक्ष्म सुंदर नीली लेखा बना लेती है।
जो एक नीलम रत्न से निकलती
चमक सी सुंदर दिखती है।३८।

वेदी के मध्य कुश भाँति उस पार्वती की सुंदर
तनु कटि चारु माँस की तीन वलियाँ सी बना लेती।
जो नवयौवन में काम-सोपान सी प्रयुक्त होती।३९।

उस कुमुदिनी सी अँखियों वाली के
परस्पर पीड़ित करते के गौरांग स्तन।
हैं इतने गोल-सुडौल व प्रवृद्ध कि एक कमल-पत्र
भी कष्ट से ही स्थान पा सकता उनके मध्य।४०।

उसकी बाहु कोमल है
शिरीष-पुष्पों से भी अधिक।
पूर्व से ही पराजित मकरध्वज* द्वारा
जो पहनाए गए हैं हर* के कण्ठ।४१।

मकरध्वज* : कामदेव; हर* : शिवजी

उसके स्तन-बंधु ऊपर कंठ में
मोती-माला है सुशोभित।
इस स्थिति में भूषण एवं भूष्य* हैं
शोभा प्रदान करते परस्पर अभिन्न।४२।

भूषण एवं भूष्य* : सजाया गया व सजाने वाला

सौंदर्य-देवी जब शशि को देखती तो कमल-चारुता में आनंद न
जब वह अरविन्द को देखती तो चन्द्र में नहीं दिखता रस।
लेकिन वह उमा-आनन को निहारती तो तब
दोनों का लालित्य मिल जाता एक स्थल पर।४३।

चाहे एक अति सुंदर पुष्प अति-शुभ्र शैवाल पर क्यों न खिला हो,
चाहे अभी अति समृद्ध शैल से ही मोती क्यों न निकला हो?
वे मात्र उस उमा के गुलाबी ओष्टों से निकली
मोहक मुस्कान जैसी रमणीय दिखते हैं।४४।

जिसकी संगीतमयी वाणी है,
स्वर से हो रही जैसे अमृत-वर्षा।
अन्य कोयलादि के गीत भी श्रोताओं को न हैं सुहाते,
ऐसा प्रतीत कि जब बाजा बजाया तो सुर से है चला गया।४५।

उसकी चकित भीत नजरें अति-तीव्र पवन
में अस्थिर नीलकमलों से नहीं हैं भिन्न।
मृगिणियाँ भी ऐसे लोचन
उमा से माँग सकती हैं उधार।४६।

अञ्जन से श्लाका - चित्रित सी
भौहों की कान्ति देखकर।
लज्जित हो लीला-चतुर मनोज त्याग देता है
अपने प्रेम-धनुष की भव्यता का गर्व।४७।

पर्वतराज पुत्री उमा के भव्य केश देखकर मादा याक को
भी अपने लम्बे केशों के विषय में सोचना पड़ेगा।
यदि पशुओं के चित्त में कुछ लज्जा है तो
सुंदरता के विषय में वह शिथिल पड़ जाएगी।४८।

संक्षेप में विश्व-सृजा ने सर्व उपमाओं का
समुच्चय करके, उनको उचित स्थान पर रखा।
और उस उमा को बड़े यत्न से बनाया जैसे इच्छा
एक ढाँचे में ही सर्व- सौंदर्य को देखने की हो।४९।

इच्छागामी नारद ने पार्वती को
तात समीप देखकर उद्घोषणा की।
यह कन्या शिव-वधु भवानी बनेगी
और प्रेम से उसकी अर्धांगिनी बनेगी।५०।

यह सुनकर पिता भी अपनी युवती
पुत्री हेतु वर-अभिलाषा से निवृत हुए।
जब आहुति मंत्रों द्वारा पवित्र की गई हो तो अग्नि के अलावा
किसी अन्य चमकती वस्तु के विषय में नहीं सोचा जाता।५१।

स्वयं से दुहिता का देवाधिदेव महादेव संग
पाणिग्रह करने का साहस अक्षम थे हिमाद्र।
ऐसे विषयों में प्रार्थना अस्वीकार के भय से
मध्यस्थ का सहारा लेते हैं सज्जन।५२।

जबसे इस सुदंती* ने पूर्वजन्म में तात
दक्ष विरोध में किया था स्व-देह विसर्जन।
पशुपतिनाथ* ने सब आकर्षण-संग त्याग
दिए, और एकाकी रहते हैं अपत्नीक।५३।

सुदंती* : सुंदर दंतों वाली, पार्वती; पशुपतिनाथ* : शिव

शम्भु मृगछाला पहनकर तपस्वी, जितात्मा, ध्यान-मग्न,
ऐसे हिमालय के किसी शिखर पर निवास करते हैं वह।
देवदार तरु गंगा के जल-प्रवाह से सिंचित होते, कस्तूरी-गंध
जहाँ सुवासित करती व किन्नर करते हैं मधुर गायन।५४।

नमेरु वृक्ष के पुष्पों के कर्ण-बालियाँ पहने, भोजवृक्ष छाल के
सुखदायक वस्त्र पहने, गण योगिराज इच्छा का करते हैं निर्वाह।
वे शिला-कंदराओं में रहते जहाँ शिलाजित धातु
प्राप्त होती और निकलती है एक विशेष गंध।५५।

उसका वाहक नंदी वृषभ गर्व में मधुर-ध्वनि निकालता
हुआ, अपने खुरों से संघनित हिम-शिला को उखाड़ता है।
पर्वत में सिंह-दहाड़ सुनकर वह उच्च नाद करता
जिसको मृग बड़े भय से देखते हैं।५६।

वहाँ अष्टमूर्ति, जो स्वयं तपस्या फलदायक हैं
और अग्नि जिसका अपना एक रूप है।
यज्ञाग्नि में समस्त समिधाओं की आहुति देते,
किसी अज्ञात कामना संग करते तप हैं।५७।

अद्रिनाथ* ने उस शिव की अमूल्य सामग्रियों से की पूजा,
जिसका स्वर्ग-देवता करते हैं सम्मान एवं अर्चना।
और निज सुता उमा को उसकी दो सखियों* संग
ईश्वर की आराधना हेतु दी आज्ञा ५८।

अद्रिनाथ* : हिमवान; सखियाँ* : जया व विजया

गिरीश ने पार्वती को उसकी इच्छानुसार शुश्रूषा करने की
अनुमति प्रदान कर दी, यद्यपि यह उसकी समाधि में एक बाधा है।
पर वे ही धीर हैं जिनके चित्त प्रतिभूतों की उपस्थिति में भी
विकार-रहित रहते हैं।५९।

पूजा हेतु पुष्प चुगकर, वेदी-सुचिता में दक्ष,
पवित्र मंत्रोच्चार हेतु नियमित जल और कुश लाती।
अतएव वह सुकेशी* गिरीश की नियमित सेवा करती और जब
परिखेद होती तो शिव के भाल-चन्द्र किरणों से पुनः तरोताजा हो जाती।६०।

सुकेशी* : सुंदर केशों वाली, पार्वती; परिखेद* : थकी

। इति उमा-उत्पत्ति।



Comments Soma biswas on 07-12-2021

Chaturdash sargo ka nam kya ha

Pradeep kumar kesharwani on 11-01-2021

Kumar sambhav ke prati nayak kaun hai

Arun Pathak on 08-04-2020

Kumar sambhav ashtam sarg Hindi mein bhejen


GkExams on 12-05-2019

कुमार-संभव
द्वितीय सर्ग : ब्रह्म-साक्षात्कार
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उस पार्वती के सुश्रुषा काल में
तारकासुर की विप्रकृति से।
त्वरित विजेता इंद्र के नेतृत्व में स्वर्ग-
निवासी स्वयंभू ब्रह्म के धाम गए।१।
विप्रकृति : उत्पीड़न स्वयंभू अपने से ही जन्मे
उन देवों के मलिन मुख देखकर
ब्रह्म ने स्वयं को किया प्रकट।
तालों के सुप्त-कमलों हेतु दिवाकर
जैसे प्रातः होता है आविर्भूत।२।
तब उन देवताओं ने उस ब्रह्म को नमन
करके उपयुक्त वचनों से किया प्रसन्न।
जो है चतुर्मुखी, वाणी-स्वामी वागीश,
वाचस्पति एवं सृष्टि-जनक।३।
हे त्रिमूर्ति, तुम्हारा वंदन है
सृष्टि जन्म से पूर्व केवल था तुम्हारा रूप।
तदुपरांत सत्व, रज व तमस गुणों में विभाजित
कर लिया और विभिन्न रूपों में किया प्रदर्शित।४।
हे अजन्मे तूने निज हाथों से अमोघ बीज
तीव्र जलधारा में निक्षेपण किए, पश्चात उसके।
तेरे प्रभाव से ही इस स्थावर-जंगम विश्व का निर्माण,
इसीलिए जल के स्रोत से ही तुम्हारी कीर्ति है।५।
निक्षेपण : बोए स्थावर-जंगम : चराचर
अपनी शक्ति को तीन गुण-अवस्थाओं
कर्ता, पालक एवं संहारक में करके सर्जन।
तुम ही इस ब्रह्माण्ड का हो कारण।६।
स्त्री एवं पुरुष तुम्हारी ही भिन्न मूर्तियाँ हैं,
जो सृष्टि-इच्छा करने से किए गए अलग।
ये सृष्टि-उत्पत्ति जनक रूप में पुकारे जाते हैं व
आत्म-नवीन फलदायिनी प्रकृति हुई उत्पन्न।७।
अपने ही माप से तुमने काल को अपने
दिवस एवं रात्रि में किया विभक्त।
तुम्हारा जागना-सोना ही हैं
प्राणियों की सृष्टि व प्रलय।८।
सृष्टि : जीवन
हे भगवन, तुम ही जगत की आदि-योनि
एवं अयोनि हो, जग-संहर्ता स्वयं ही।
और नित्य हो, तुम प्रारम्भ रहित हो,
ब्रह्माण्ड आदि हो व हो इसके स्वामी।९।
आदि-योनि : कारण अयोनि : अनादि
तुम स्वयं को अपने से ही जानते,
स्वयं को अपने से सृजन करते हो।
और स्वयं से अपने बलशाली आत्म को
आत्म-समाहित कर लेते हो।१०।
तुम द्रव तुल्य तनु हो व कण घनीभूत होने कारण ठोस हो,
स्थूल हो पर सूक्ष्म हो, हल्के भी हो और भारी भी हो।
तुम व्यक्त भी हो और अव्यक्त भी, और
तुम्हारी इच्छा पराक्रम में विभूषित है।११।
तुम ही उन वाणियों के स्रोत्र हो
जिससे प्रारम्भ होता है प्रणव (ॐ)।
जिसका उच्चारण तीन ध्वनियों में प्रकट है
और तुम्हारी वाणी के कारण कर्मफल है स्वर्ग।१२।
प्रकृति चलन देखकर कूटस्थ जन
तुम मात्र को ही पुरुष जानते हैं
वे तुम्हे ही पुरुषार्थ प्रवृत्ति में
प्रकृति कहते हैं।१३।
कूटस्थ : उदासीन पुरुषार्थ : आत्म-कल्याण हेतु
तुम्हीं पिताओं के भी पितृ हों,
देवताओं के देव हों, सबसे ऊँचे हो।
तुम्हीं व्रत सुनने वाले हो और
विधाता के भी कर्ता हो। १४।
तुम्हीं यज्ञ हो, तुम्हीं पुरोहित,
तुम्हीं भोजन, तुम्हीं भोक्ता व शाश्वत।
तुम्हीं ज्ञान हो, तुम्हीं ज्ञाता,
तुम्हीं परम ध्यान हो, तुम्हीं ध्याता।१५।
उन देवताओं द्वारा सत्य-स्तुति
सुनकर जो हैं हृदयंगम।
प्रसन्नमुख से ब्रह्म ने कृपादृष्टि
करके सुरों को दिया उत्तर।१६।
पुराण कथित चतुर्विध अर्थात
द्रव, गुण, क्रिया, जाति भेद।
प्रवाह से उस पुरातन कवि ने निज चतुर्मुख से,
यूँ कहा, जो संवेदना सहेजने में था सफल।१७।
प्रवाह : शब्द
ओ प्रबल पराक्रमी-अजानबाहु
यहाँ आऐ देवों, तुम्हारा स्वागत है।
तुमने अपना अधिकार स्व-सामर्थ्य
आलंबन से किया प्राप्त है।१८।
यह क्या है, तुम्हारी पूर्व जैसी
आत्मीय प्रभा नहीं दिखाई देती।
तुम्हारे मुख की सितारों सी ज्योति
तुषार से क्लिष्ट हुई है लगती।१९।
वृत्रासुर संहार कर्ता इंद्र का वज्र
कुंठित सा हो रहा है लक्षित।
इसका विचित्र इंद्रधनुषी आलोक शमित होने से
ऐसा लगता है इसकी धारहो गई है मंद।२०।
रिपु को असहनीय वरुण का फन्दा-हस्त एक
हतोत्साहित, अपराक्रमी फणी सम विवश।
दीन हो गया है, जैसे उसकी शक्ति को
मंत्र द्वारा दिया गया है कुचल।२१।
कुबेर-बाहु से उसकी गर्वित गदा त्यक्त है,
वृक्ष की भग्न शाखा की भाँति प्रतीत है।
ऐसा लगता है यह पराभव में
हृदय-शूल सम चुभ रही है।२२।
यम भी कभी भूमि कुरेद रहा है अमोघ
दण्ड से, जिसकी चमक पूर्णतया है त्यक्त।
भूमि लेखन में कभी अमोघ अस्त्र लघु
होकर शांत, हो गया है हीन-अर्थ।२३।
और ये आदित्य शक्ति
क्षीण होने से कैसे शांत हैं ?
अत्यंत आलोक देखने वाले अब
ये चित्र भाँति स्थित हो गए हैं।२४।
मरुत का वेग-भंग उसकी
दुर्बल गति से जाना सकता है।
अतएव प्रवाह रोधित है
सागर-जल उतराव से।२५।
केशों में जटा, भाल पर बाल-चन्द्र लिए
रुद्र शीर्ष भय, लज्जा से नीचे हैं नमन।
वे उनकी क्षत हुँकार भरने वाले
शस्त्रों की स्थिति करते बखान।२६।
क्या तुमने पूर्व में प्राप्त की प्रतिष्ठा को
अधिक बलवान शत्रुओं से भीत होकर।
उत्सर्ग कर दिया, जैसे सामान्य नियम
विशेष नियमों द्वारा दिए जाते हैं हटा।२७।
तब हे वत्सों, बोलो, तुम किस
प्रयोजन हेतु यहाँ हुए हों एकत्र ?
मुझमें अवस्थित है सृष्टि रचना
और तुममें लोकों की रक्षा।२८।
तब इंद्र, सहस्र नेत्र जिसके,
शोभित मंद अनिल उद्वेलित कमल-गुच्छ जैसे,
ने गुरु बृहस्पति को प्रार्थना की।२९।
बृहस्पति : ब्रह्मा
तब उस इंद्र ने अपने
सहस्र-नयनों से भी उपयोगी अधिक।
द्विनेत्र कमलासन-स्थित वाचस्पति को
करबद्ध सहृदयता से कहा यह।३०।
हे भगवन, जो तुमने पूछा है उसका उत्तर है
कि हमारी उच्च पद-प्रतिष्ठा शत्रु ने है हर ली।
जब तुम प्रत्येक आत्मा में नियुक्त हो तो इसे
कैसे नहीं जानते हो, ओ प्रभु शक्तिशाली ?३१।
तारक नामक एक महासुर
जो तुम्हारे दत्त वरदान से।
लोकों में धूमकेतु सम
मचाए हुए उत्पात है।३२।
उसके प्रासाद में रवि मात्र उतनी ही ऊष्मा देता है
जिससे उसकी विलास-तालों के अरविन्द खिल सकें।
अर्थात सूर्य स्व-प्रतिष्ठा अनुसार
चमकने में असमर्थ है।३३।
उसके हेतु चन्द्र सदा अपनी सोलह
कलाओं सहित प्रतीक्षा करता है।
जबकि केवल चूड़ामणी शिव की बालचंद्र लेखा को
छोड़कर इंदु अपनी कलाऐं धारण करता रहता है।३४।
उसके उद्यानों में पवन, दण्ड-भय से
कुसुम-सुगंध चुरा नहीं सकता।
अनिल उसके निकट एक पंखे से
अधिक वेग से नहीं बह सकता।३५।
और सदा-सम्भारण हेतु तत्पर ऋतुऐं
उस तारक की प्रतीक्षा करती हैं।
जैसे वे सामान्य उद्यानपालों से अधिक नहीं और
उसकी सेवा में इस समय सब काम छोड़ दिए हैं।३६।
सरितापति समुद्र उस तारक को उपहार योग्य
बहुमूल्य रत्नों की जल-गर्भ में निर्माण की
उत्सुकता से प्रतीक्षा करता है।३७।
शीर्षों पर ज्वलंत मणि लेकर,
अपने प्रमुख वासुकि संग भुजंग।
स्थिर प्रदीप से उसकी उपासना करते,
जिसको कोई बाधा न कर सकती मंद।३८।
प्रदीप : प्रकाश
स्वर्ग-देवता इंद्र भी दूतों द्वारा
बारम्बार कल्प-तरु के विभूषित पुष्प।
उस तारक को भेजता है, जिससे उसका
अनुकूल अनुग्रह वह प्राप्त सके कर।३९।
इस प्रकार से आराधना करके
भी उससे त्रिलोक पीड़ित है।
दुर्जन उपकार से कभी शांत न होते, उनका
मात्र प्रतिकार से ही शमन सक्षम है।४०।
त्रिलोक : स्वर्ग, नरक, पृथ्वी
उसके नन्दन वन के तरु नव-पल्ल्व,
पुष्प अमर-देवों की वधुऐं चुगती हैं।
और उनको हस्त-पाद छेदन एवं गिरने का
कटु अनुभव होता है।४१।
उसकी सुप्त अवस्था में देवों की
बन्दी योषिताऐं डुलाती हैं चँवर।
बड़े अश्रु-वाष्प बरसाते हुए और
पवन को उठाते हुए श्वास सम।४२।
कभी सूर्य की भयंकर किरण-खुरों
द्वारा क्षुण्ण मेरु-शृंगों को उखाड़कर।
उसने अपने प्रासादों में कल्पित
बना लिए हैं आनंद-पर्वत।४३।
मन्दाकिनियों में अब मात्र दिग्गज
कामोत्तेजना दूषित जल ही शेष है।
जबकि उस तारक की विलास-तालों में
सदा स्वर्ण-कमल खिले रहते हैं।४४।
अब स्वर्ग-देवताओं को विभिन्न
लोक देखने में न कोई प्रीति है।
क्योंकि उनके विमान पथ उस
तारक भय से निर्जन हो गए हैं।४५।
मायावी विद्या कुशल वह
यजमान-दत्त यज्ञ-बलियाँ।
हड़प लेता है, और असहाय से
हम देखते रह जाते हैं।४७।
उस क्रूर के विरुद्ध हमारे
समस्त विफल हो गए हैं उपाय।
जैसे सन्निपात के जोड़-विकार में
वीर्यवन्ती औषधि भी कार्य में अक्षम।४८।
सन्निपात : ज्वर वीर्यवन्ती : अचूक
विष्णु का सुदर्शन चक्र भी,
जिसमें हमारी जय आशा थी स्थित।
अब मात्र उसका कण्ठ सुवर्ण-आभूषण बन रह गया है
जिससे उसके वक्ष से टकराकर मात्र चमक ही गोचर-दृष्टि।४९।
अब उसके गज,
जिन्होंने ऐरावत को भी हरा दिया है।
पुष्करावर्तक आदि मेघों के विरुद्ध
भिड़ने का अभ्यास कर रहे हैं।५०।
हे सर्व-शक्तिमान प्रभु, हम उस तारक-विनाश
हेतु एक सेनानायक-सृष्टि की इच्छा करते हैं।
जैसे मुमुक्षु धर्म गुण वृद्धि हेतु
कर्म-बंधन काटना चाहते हैं।५१।
उस सुर-नायक को पुरोधा
बनाकर पर्वत-छेदन कर्ता इंद्र।
शत्रुओं द्वारा बंदी बना ली जयश्री
को प्राप्त कर लेंगे पुनः।५२।
पर्वत-छेदन कर्ता : गोत्रभित जयश्री : विजय
जब यह उवाच समाप्त हो चुका,
स्वयंभू ने ऐसी वाणी बोली।
जो मेघ-गर्जना पश्चात वसुधा पर पड़ती
वृष्टि से भी अधिक सौभाग्यशाली थी।५३।
कुछ प्रतीक्षा करो, तुम्हारी यह कामना पूरी होगी परन्तु
इसकी पूर्ति हेतु मैं स्वयं सेनानायक नहीं करूँगा सृजन।
क्योंकि एक समय में उसने
मेरा वरदान किया है प्राप्त।५४।
इस दैत्य ने यहाँ से श्री प्राप्त की,
यहीं से उसका विनाश न होना चाहिए।
जैसे अपने द्वारा लगे विषवृक्ष को भी
स्वयं काटना अनुचित है।५५।
पूर्व में उस तारक ने मुझसे देवों के हाथों
अमृत्यु स्वतंत्रता का वर प्राप्त किया।
और इससे उसने घोर तप करके लोकों को
अग्नि-दग्ध कर्तुम स्वयं को सक्षम बना लिया।५६।
जब युद्ध में आक्रमण वह उद्यत हो
तो भला कौन सह सकता है ?
मात्र नीलकण्ठ अंश ही उसका
मुकाबला कर सकता है।५७।
वही देव तमस-व्यवस्था से
पार-गमन सक्षम ज्योति है।
उसके प्रभाव को न तो मैं,
न विष्णु जानने में सक्षम हैं।५८।
देव : शिव
अतः अपने मनोरथ-इच्छुक तुम,
संयम से अडिग उस ध्यान-मग्न।
उमा के असाधारण रूप से विवाह हेतु, एक
चुंबक सम करो शिव मन का आकर्षण-यत्न।५९।
केवल ये दो ही हम दोनों का
बीज निरूपण में सक्षम हैं।
वह उमा उस शिव का और
उसकी जलमयी मूर्ति मेरा।६०।
निरूपण : ग्रहण
उस नीलकण्ठ का निज ही रूप बालक
तुम मेजबानों का सेनानायक बनकर वह।
स्व पराक्रम-विभूति से दुखित बन्दी स्वर्ग-
अप्सराओं की केश-वेणी करेगा शिथिल।६१।
केश-वेणी : बंधन
ऐसा उवाच कर वह
विश्वयोनि ब्रह्म हुआ अंतर्ध्यान।
और देवता भी स्व-मन व्यक्तव्य
स्थापित कर स्वर्ग-लोक किए प्रस्थान।६२।
परन्तु वहाँ पाक शासक इस ब्रह्म-इच्छा सिद्धि
हेतु कन्दर्प को निश्चित कर उसके पास गया।
उत्सुकता से उसकी
कार्य गति हो गई दुगुनी।६३।
पाक शासक : इंद्र कन्दर्प : कामदेव
तत्पश्चात कामदेव चारु योषिता भोंह सम चापाकार
पुष्प-धनुष कण्ठ लटका, रति कंगनों के चिन्ह हैं जहाँ।
अपने चिर सखा वसंत का चूतांकुर धनुष लिए,
शतयज्ञ कर्ता इंद्र के समक्ष प्रस्तुत हुआ।६४।
चूतांकुर : आम्र-बौर
इति ब्रह्म-साक्षात्कार सर्गः।






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