Jeevan Parichay Pandit Pratap Narayann Mishra जीवन परिचय पंडित प्रताप नारायण मिश्र

जीवन परिचय पंडित प्रताप नारायण मिश्र



GkExams on 10-02-2019

मिश्र जी उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के अंतर्गत बैजे गाँव निवासी, कात्यायन गोत्रीय, कान्यकुब्ज ब्राह्मण पं॰ संकठा प्रसाद मिश्र के पुत्र थे। बड़े होने पर वह पिता के साथ कानपुर में रहने लगे और अक्षरारंभ के पश्चात् उनसे ही ज्योतिष पढ़ने लगे। किंतु उधर रुचि न होने से पिता ने उन्हें अंग्रेजी मदरसे में भरती करा दिया। तब से कई स्कूलों का चक्कर लगाने पर भी वह पिता की लालसा के विपरीत पढ़ाई लिखाई से विरत ही रहे और पिता की मृत्यु के पश्चात् 18-19 वर्ष की अवस्था में उन्होंने स्कूली शिक्षा से अपना पिंड छुड़ा लिया।


इस प्रकार मिश्र जी की शिक्षा अधूरी ही रह गई। किंतु उन्होंने प्रतिभा और स्वाध्याय के बल से अपनी योग्यता पर्याप्त बढ़ा ली थी। वह हिंदी, उर्दू और बँगला तो अच्छी जानते ही थे, फारसी, अँगरेजी और संस्कृत में भी उनकी अच्छी गति थी।


मिश्र जी छात्रावस्था से ही "कविवचनसुधा" के गद्य-पद्य-मय लेखों का नियमित पाठ करते थे जिससे हिंदी के प्रति उनका अनुराग उत्पन्न हुआ। लावनौ गायकों की टोली में आशु रचना करने तथा ललित जी की रामलीला में अभिनय करते हुए उनसे काव्यरचना की शिक्षा ग्रहण करने से वह स्वयं मौलिक रचना का अभ्यास करने लगे। इसी बीच वह भारतेंदु के संपर्क में आए। उनका आशीर्वाद तथा प्रोत्साहन पाकर वह हिंदी गद्य तथा पद्य रचना करने लगे। 1882 के आसपास "प्रेमपुष्पावली" प्रकाशित हुआ और भारतेंदु जी ने उसकी प्रशंसा की तो उनका उत्साह बहुत बढ़ गया।


15 मार्च 1883 को, ठीक होली के दिन, अपने कई मित्रों के सहयोग से मिश्र जी ने "ब्राह्मण" नामक मासिक पत्र निकाला। यह अपने रूप रंग में ही नहीं, विषय और भाषाशैली की दृष्टि से भी भारतेंदु युग का विलक्षण पत्र था। सजीवता, सादगी बाँकपन और फक्कड़पन के कारण भारतेंदुकालीन साहित्यकारों में जो स्थान मिश्र जी का था, वही तत्कालीन हिंदी पत्रकारिता में इस पत्र का था किंतु यह कभी नियत समय पर नहीं निकलता था। दो-तीन बार तो इसके बंद होने तक की नौबत आ गई थी। इसका कारण मिश्र जी का व्याधिमंदिर शरीर ओर अर्थाभाव था। किंतु रामदीन सिंह आदि की सहायता से यह येन-केन प्रकारेण संपादक के जीवनकाल तक निकलता रहा। उनकी मृत्यु के बाद भी रामदीन सिंह के संपादकत्व में कई वर्षो तक निकला, परंतु पहले जैसा आकर्षण वे उसमें न ला सके।


1889 में मिश्र जी 25 रू. मासिक पर "हिंदोस्थान" के सहायक संपादक होकर कालाकाँकर आए। उन दिनों पं॰ मदनमोहन मालवीय उसके संपादक थे। यहाँ बालमुकुंद गुप्त ने मिर जी से हिंदी सीखी1 मालवीय जी के हटने पर मिश्र जी अपनी स्वच्छंद प्रवृत्ति के कारण वहाँ न टिक सके। कालाकाँकर से लौटने के बाद वह प्राय: रुग्ण रहने लगे। फिर भी समाजिक, राजनीतिक, धार्मिक कार्यो में पूर्ववत् रुचि लेते और "ब्राह्मण" के लिये लेख आदि प्रस्तुत करते रहे। 1891 में उन्होंने कानपुर में "रसिक समाज" की स्थापना की। कांग्रेस के कार्यक्रमों के अतिरिक्त भारतधर्ममंडल, धर्मसभा, गोरक्षिणी सभा और अन्य सभा समितियों के सक्रिय कार्यकर्ता और सहायक बने रहे। कानपुर की कई नाट्य सभाओं और गोरक्षिणी समितियों की स्थापना उन्हीं के प्रयत्नों से हुई थी।


मिश्र जी जितने परिहासप्रिय और जिंदादिल व्यक्ति थे उतने ही अनियमित, अनियंत्रित, लापरवाह और काहिल थे। रोग के कारण उनका शरीर युवावस्था में ही जर्जर हो गया था। तो भी स्वास्थ्यरक्षा के नियमों का वह सदा उल्लंघन करते रहे। इससे उनका स्वास्थ्य दिनों दिन गिरता गया। 1892 के अंत में वह गंभीर रूप से बीमार पड़े और लगातार डेढ़ वर्षो तक बीमार ही रहे। अंत में 38 वर्ष की अवस्था में 6 जुलाई 1894 को दस बजे रात में भारतेंदुमंडल के इस नक्षत्र का अवसान हो गया।


हिन्दी गद्य साहित्य के सुप्रसिद्ध साहित्यकार प्रतापनारायण मिश्र का जन्म 1856 ई0 में उत्तर प्रदेश के बैज (उन्नाव) में हुआ। वे भारतेन्दु युग के प्रमुख साहित्यकार थे। उनके पिता सँकठा प्रसाद एक प्रसिद्ध ज्योतिषी थे और अपने पुत्र को भी ज्योतिषी बनाना चाहते थे, किंतु मिश्र जी को ज्योतिष की शिक्षा रुचिकर नहीं लगी, पिता ने अंग्रेजी पढ़ने के लिए स्कूल भेजा किंतु वहाँ भी उनका मन नहीं रमा। लाचार होकर उनके पिता जी ने उनकी शिक्षा का प्रबंध घर पर ही किया। धीरे-धीरे उन्होंने हिंदी संस्कृत के अतिरिक्त उर्दू, फारसी, बंगला आदि भाषाओं की भी योग्यता प्राप्त कर ली थी। मिश्र जी को लावनियों के प्रति बड़ा लगाव था। लावनी वालों की संगीत से उन्हें कविता करने का शौक लगा। बाद में वे निबंध भी लिखने लगे और साहित्य सेवा में पूरी तरह जुट गए। मिश्र जी ने 'ब्राह्मण' नामक मासिक पत्र निकाला और उसका संपादन किया। मिश्र जी बड़े मनमौजी जीव थे। वे आधुनिक सभ्यता और शिष्टता की कम परवाह करते थे। कभी लावनी वालों में सम्मिलित हो जाते थे तो कभी मेले-तमाशों में बंद इक्के पर बैठे जाते दिखाई देते थे। सादा जीवन उनके जीवन का महत्वपूर्ण सिद्धांत था।


इनकी मृत्यु 1894 ई0 में हुई।






सम्बन्धित प्रश्न



Comments Adarsh on 03-09-2022

Pandit Pratap Narayan jivan Parichay short form mein

Sumit kumar rathaur on 16-01-2020

Pandit pratapnarayd kis yug ke lakhak thage

saleem khan on 24-11-2019

Note bandi kab hoe ?


कृष्णा प्रजापति on 20-09-2019

पंडित प्रतापनारायण मिश्र जी के पिता का नाम संकताप्रसाद है परन्तु इनकी माता जी का क्या नाम हैं ?

Ayushi singh on 12-06-2019

Pratap narayan mis ke mother ka kya naam tha

Mohit Chauhan on 20-08-2018

Pandit Narayan ka birth kab hua





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