Samajik Andolan Ki Visheshta सामाजिक आंदोलन की विशेषता

सामाजिक आंदोलन की विशेषता



Pradeep Chawla on 13-09-2018

सामाजिक आन्दोलन एक प्रकार का सामूहिक क्रिया है। सामाजिक आन्दोलन व्यक्तियों और/या संगठनों के विशाल अनौपचारिक समूह होते हैं जिनका ध्येय किसी विशिष्ट सामाजिक मुद्दे पर केंद्रित होता है। दूसरे शब्दों में ये ये कोई सामाजिक परिवर्तन करना चाहते हैं, उसका विरोध करते हैं या किसी सामाजिक परिवर्तन को समाप्त कर पूर्वस्थिति में लाना चाहते हैं



आधुनिक पाश्चात्य जगत में सामाजिक आन्दोलन शिक्षा के प्रसार के द्वारा तथा उन्नीसवीं शदी में औद्योगीकरण व नगरीकरण के कारण श्रमिकों के आवागमन में वृद्धि के कारण सम्भव हुए।



आधुनिक आन्दोलन संसार भर में लोगों को जागृत करने के लिये प्रौद्योगिकी तथा अन्तरजाल का सहारा लेते हैं।



भारत के सामाजिक आन्दोलन के सबसे बड़े महानायक डॉ॰ बाबासाहेब आंबेडकर है। डॉ॰ बाबासाहेब आंबेडकर का शक्तिशाली सामाजिक आंदोलन विश्व के सबसे प्रभावशाली आन्दोलनों में से एक है तथा भारत का सबसे प्रभावशाली सामाजिक आंदोलन है। बाबासाहेब का आन्दोलन भारत देश के पिछडे, गरीब, शोषित, दलित लोगों को उनके सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, राजनैतिक विशेषत: मानव अधिकार देने के लिये था, यह भारत की सबसे बडी सामाजिक क्रांति भी थी। डॉ॰ बाबासाहेब आंबेडकर संविधान निर्माता थे, इसलिए उन्होंने देश शोषित लोगों उनके अधिकारों के संघर्ष किया और उसमें सफलता पाई। डॉ॰ बाबासाहेब आंबेडकर जी के महाड़ सत्याग्रह या चवदार तालाब आंदोलन, नाशिक का कालाराम मन्दिर आंदोलन और दलित बौद्ध आंदोलन प्रसिद्ध है। विश्व के सबसे महान मानवाधिकारी आंदोलनकारीयों में डॉ॰ बाबासाहेब आंबेडकर जी का स्थान शिर्ष पर स्थान है।



अनुक्रम



1 परिचय

2 सन्दर्भ

3 इन्हें भी देखें

4 बाहरी कड़ियाँ

5 बाहरी कड़ियाँ



परिचय



राजनीतिक भागीदारी के संस्थागत दायरों के बाहर परिवर्तनकामी राजनीति करने वाले आंदोलनों को सामाजिक आंदोलनों की संज्ञा दी जाती है। लम्बे समय तक सामूहिक राजनीतिक कार्रवाई करने वाली ये आंदोलनकारी संरचनाएँ नागर समाज और राजनीतिक तंत्र के बीच अनौपचारिक सूत्र का काम भी करती हैं। हालाँकि ज़्यादातर सामाजिक आंदोलन सरकारी नीति या आचरण के ख़िलाफ़ कार्यरत रहते हैं, लेकिन स्वतःस्पूर्त या असंगठित प्रतिरोध या कार्रवाई को सामाजिक आंदोलन नहीं माना जाता। इसके लिए किसी स्पष्ट नेतृत्व और एक निर्णयकारी ढाँचे का होना ज़रूरी है। आंदोलन में भाग लेने वालों के लिए किसी साझा मकसद और विचारधारा का होना भी आवश्यक है। क्या ये ख़ूबियाँ राजनीति के औपचारिक दायरों में काम करने वाले किसी राजनीतिक दल या दबाव समूह में नहीं होतीं? दरअसल, सामाजिक आंदोलन अपने बुनियादी चरित्र में अनौपचारिक नेटवर्कों की अन्योन्यक्रिया से बनते हैं। वे ऐसे मुद्दे चुनते हैं जिन्हें औपचारिक राजनीति अपनाने से इनकार कर देती है। साथ ही वे प्रतिरोध और गोलबंदी के ग़ैर-परम्परागत रूपों का इस्तेमाल करते हैं। सामाजिक आंदोलनों ने अल्पसंख्यकों, हाशियाग्रस्त समूहों और अधिकार-वंचित तबकों की राजनीति को बढ़ावा दिया है। इसी कारण से यह भी माना जाता है कि समकालीन लोकतंत्र अपने विस्तार और गहराई के लिए सामाजिक आंदोलनों का ऋणी है।



द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद ग्लोबल और राष्ट्रीय राजनीतिक प्रणालियों में इस परिघटना का उदय हुआ। इनके पीछे ऐसी शख्सियतें, नेटवर्क, समूह और संगठन थे जिनका उद्देश्य औपचारिक राजनीति के दायरों के बाहर समाज, राज्य, सार्वजनिक नीतियों को जन-हित के लिहाज़ से प्रभावित करना था। पिछले साठ वर्षों में सामाजिक आंदोलनों ने राजनीतिक प्रणालियों और लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया पर उल्लेखनीय असर डाला है। सारी दुनिया में पर्यावरण का आंदोलन, युद्ध विरोधी आंदोलन, असंगठित मज़दूरों के आंदोलन, स्त्री-अधिकारों के आंदोलन, वैकल्पिक यौनिकताओं के आंदोलन इस परिघटना की सफलता के प्रमाण हैं। वित्तीय पूँजी के भूमण्डलीकरण से उपजी जन-विरोधी प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ चल रहे आंदोलन भी इसी श्रेणी में आते हैं। सामाजिक आंदोलनों की एक ख़ूबी यह भी है कि भले ही उनकी राजनीतिक कार्रवाई में स्थानीयता या ज़मीन से जुड़े होने या ग्रासरूट्स के संबंध को अहमियत दी जाए, लेकिन वे समस्याओं और मुद्दों को उत्तरोत्तर ग्लोबल सन्दर्भों में देखते और परिभाषित करते हैं। इसी कारण से वे स्थानीय स्तर पर चलाई जा रही प्रतिरोध की कार्रवाइयों को ग्लोबल नेटवॄकग के ज़रिये टिकाने में समर्थ हो पाते हैं। उनका नारा होता है ‘थिंक ग्लोबली, एक्ट लोकली’। इंटरनेट की परिघटना के उभार के बाद सामाजिक आंदोलनों के लिए प्रसार, समन्वय और नेटवर्किंग की सुविधा में और बढ़ोतरी हो गयी है।



द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पश्चिमी देशों में उभरे मध्य वर्ग ने स्वयं को पुराने वर्ग आधारित आंदोलनों के मुकाबले राजनीतिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक रूप से विशिष्ट महसूस करते हुए सामूहिक राजनीतिक कार्रवाई के ऐसे रूपों को अपनाना पसंद किया जिनके दायरे में कहीं व्यापक किस्म के नैतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक मुद्दे आते थे। इस ज़माने में चले कई सामाजिक आंदोलन नागरिक अधिकारों, स्त्री-अधिकारों, युद्ध का विरोध करने और पर्यावरण की हिफ़ाज़त करने के आग्रहों के इर्द-गिर्द गोलबंद हुए। साठ का दशक आते-आते इन आंदोलनों की गतिविधियाँ युरोप और उत्तरी अमेरिका में काफ़ी बढ़ गयीं। इन्हें राजनीतिक कामयाबी भी मिलने लगी। यह देख कर समाज-वैज्ञानिकों ने इस परिघटना का अध्ययन शुरू किया। सामाजिक आंदोलनों को समझने के लिए सबसे पहले मनोविज्ञान का प्रयोग किया गया। इससे आंदोलनरत लोगों, समूहों और नेटवर्कों के सामूहिक व्यवहार पर रोशनी पड़ी। दूसरी तरीका संरचनागत-प्रकार्यवादी किस्म का था। उसने यह देखने की कोशिश की कि इन आंदोलनों का सामाजिक स्थिरता पर क्या असर पड़ रहा है। मास सोसाइटी का अध्ययन करने वाले मनोवैज्ञानिकों को लगा कि सामाजिक आंदोलन निजी तनाव से जूझ रहे व्यक्तियों की अभिव्यक्तियाँ हैं। दूसरी तरफ़ संरचनागत-प्रकार्यवादी विद्वानों का ख़याल था कि ये आंदोलन सामाजिक प्रणाली में आये तनावों का फलितार्थ हैं।



सत्तर के दशक में इस अनुसंधान ने नयी करवट बदली। इस परिवर्तन के पीछे नये छात्र आंदोलनों और उनसे निकली प्रतिरोध की कार्रवाइयों का प्रभाव था। एक नये सिद्धांत ने जन्म लिया जिसे ‘रिसोर्स मोबिलाइज़ेशन’ थियरी (संसाधनों की लामबंदी का सिद्धांत)  के नाम से जाना जाता है। इस सिद्धांत ने सामाजिक आंदोलनों को एक ऐसी सामाजिक प्रक्रिया के रूप में देखा जिसके तहत राजनीतिक उद्यमी किसी इच्छित सामाजिक परिवर्तन की ख़ातिर पहले तो संसाधनों का तर्कसंगत संचय करते हैं और फिर लक्ष्यों को वेधने के लिए संसाधनों का प्रयोग करते हैं। इस सिद्धांत के पैरोकार मानते हैं कि सामाजिक आंदोलन पूरी तरह से अपनी संसाधन उपलब्ध कर पाने की क्षमता पर ही निर्भर करते हैं। ये संसाधन आर्थिक और मानवीय सहयोग जुटाने पर भी आधारित हो सकते हैं और इनका उद्गम नैतिक सरोकारों और प्राधिकार वग़ैरह में भी हो सकता है।



सामाजिक आंदोलनों की समझ बनाने की प्रक्रिया में एक थियरी सांगठनिक व्यवहार के अध्ययन के रूप में भी विकसित हुई। उसने सामाजिक आंदोलन को किसी भी अन्य संगठित समूह की तरह समझने की चेष्टा की। आगे चल कर कई विद्वानों ने सामाजिक आंदोलनों और संस्थागत राजनीति के बीच अन्योन्यक्रिया पर विशेष ध्यान दिया जिससे राजनीति को प्रक्रियाओं के रूप में समझने के परिप्रेक्ष्य का विकास हुआ। अस्सी के दशक में हुए कुछ अनुसंधानों ने वामपंथी रुझान वाले कई आंदोलनों पर ध्यान दिया। ये वामपंथी जत्थेबंदियाँ पदानुक्रम पर आधारित संगठन के बजाय क्षैतिज बनावट वाले संगठन और बारी-बारी से नेतृत्व करने या अनौपचारिक किस्म के नेतृत्व में यकीन करने वाली थीं। युरोप की ज़मीन और वहीं के परिप्रेक्ष्य के आधार पर हुए इस शोध ने संस्कृति और अस्मिता संबंधी आंदोलनों को अपनी विषय-वस्तु बनाया।  उन्होंने देखा कि पर्यावरण संबधी आंदोलन और स्त्री-अधिकारों के लिए होने वाले आंदोलन किस प्रकार प्रतिरोध के नये-अनूठे तौर-तरीके इस्तेमाल कर रहे हैं। इस विमर्श से नव-सामाजिक आंदोलनों की थीसिस निकली। दरअसल, अस्सी और नब्बे के दौरान प्रकाश में आयी यह थीसिस वामपंथ की स्थापित समझ को चुनौती देने वाली साबित हुई। इससे पहले वामपंथी राजनीतिक कार्रवाई का मतलब वर्ग-आधारित गतिविधि के अलावा कुछ और नहीं समझा जाता था। लेकिन, जब अमेरिका में अफ़्रो- अमेरिकनों ने अपने अधिकारों के समर्थन में ब्लैक पॉवर और ब्लैक पेंथर जैसे रैडिकल और जुझारू आंदोलन चलाये जब वियतनाम युद्ध के ख़िलाफ़ साम्राज्यवाद विरोधी मुहिमें संगठित की गयीं जब आणुविक निःशस्त्रीकरण के पक्ष में शांति आंदोलन चला जब रैडिकल फ़ेमिनिज़म ने अपनी दावेदारियाँ पेश कीं और जब हवा और पानी के प्रदूषण के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद की गयी, तो वर्ग संघर्ष को ही केंद्रीय सामाजिक अंतर्विरोध मानने वाली दृष्टि को प्रश्नांकित होना पड़ा।



इन आंदोलनों में एक विचारधारात्मक विविधता थी। इनकी ज़मीन भी एक-दूसरे से भिन्न दिख रही थी। पारम्परिक मार्क्सवादी समझ को ठुकराते हुए आंद्रे ग्रोज़, रुडोल्फ़ बाहरो, एलाँ तूरेन और युरगन हैबरमास ने अपने- अपने तरीके से दावा किया कि सामाजिक-राजनीतिक अस्मिता और राजनीतिक कार्रवाई की ख़ातिर की जाने वाली गोलबंदी के लिए वर्ग अब एक कारगर प्रत्यय नहीं रह गया है। इन विद्वानों ने नव-सामाजिक आंदोलनों को उत्तर- औद्योगिक सामाजिक संरचनाओं की पैदाइश करार दिया। उनका कहना था कि लोकोपकारी राज्य ने शोषण के पुराने रूपों को काफ़ी-कुछ निष्प्रभावी कर दिया है। नयी परिस्थितियों में आधुनिक समाज परायेपन के नये रूपों को जन्म दे रहा है। इससे पैदा होने वाले विक्षोभ को नव- सामाजिक आंदोलन अपना केंद्र बना रहे हैं। फ़्रांसीसी समाजशास्त्री एलाँ तूरेन ने द रिटर्न ऑफ़ द एक्टर की रचना की। तूरेन ने रैडिकल रवैया अख्तियार करते हुए अपील की कि समाजशास्त्रियों को सामाजिक आंदोलनों की केवल व्याख्या तक ही सीमित न रह कर उनमें भागीदारी करते हुए उनकी गहरी पड़ताल करनी चाहिए। भूमण्डलीकरण के उभार ने सामाजिक आंदोलन संबंधी युरोपीय और अमेरिकी परिप्रेक्ष्यों के बीच मेल-मिलाप की परिस्थितियाँ बनायी हैं। अब विद्वानगण सामाजिक आंदोलन में नेटवर्कों की भूमिका पर विशेष ध्यान दे रहे हैं। इस परिघटना और भूमण्डलीकरण-विरोधी आंदोलन के सहयोजन पर भी ख़ास ज़ोर दिया जा रहा है




सम्बन्धित प्रश्न



Comments .pinky on 12-05-2019

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Ritika on 12-05-2019

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