Veer Durgadas Rathore Ki Jeevani वीर दुर्गादास राठौड़ की जीवनी

वीर दुर्गादास राठौड़ की जीवनी



GkExams on 18-11-2018

वीर दुर्गादास राठौर मारवाड़ के इतिहास में एक उज्वल नाम है. ठाकुर आसकरण जी राठौर के पुत्र दुर्गादास का जन्म 13 अगस्त 1968 (श्रावण शुक्ल 14 , संवत 1695)को सलवा कलन नमक गांव में हुआ था. उनकी निर्भीकता से प्रभावित होकर एक बार महाराजा जसवंत सिंह ने कहा था “ यह बालक भविष्य में मारवाड राज्य का संरक्षक बनेगा“. 17वि शताब्दी में महाराजा जसवंत सिंह की मृत्यु के बाद राठौर वंश की संरक्षा का श्रेय वीर दुर्गादास को ही जाता है.
प्रारंभिक जीवन :
वीर दुर्गादास राठौर, सूर्यवंशी राजपूत (राठौर) वंश के करनोत शाखा से थे. वे आसकरण राठौर के पुत्र थे , जो मारवाड़ में राठौर वंश के शासक महाराजा जसवंत सिंह की सेना में सेनापति थे.
दुर्गादास का लालन पालन उनकी माता के द्वारा ही एक छोटे से गाँव में हुआ क्योकि उनकी माता उनके पिता से अलग रहती थी.
जब दुर्गादास छोटे थे, एक दिन एक चरवाहा, जो महाराज का ऊट चरा रहा था, ऊट लेकर उनके खेतो में घुस गया. ऊटों ने पूरा फसल बर्बाद कर दिया. दुर्गादास ने चरवाहे से अपने जानवर बाहर ले जाने और उनका फसल बर्बाद न करने को कहा. चरवाहे ने उनकी बात को अनसुना कर दिया. इस पर दुर्गादास ने क्रोधित होकर अपना तलवार निकला और चरवाहे को वही मौत के घाट उतार दिया. यह बात जब महाराज को पता चली तो उन्होंने दुर्गादास को अपने दरबार में बुलाया और उनसे पुछा की क्यों उसने चरवाहे को मार डाला. इस पर दुर्गादास ने कहा " महाराज ! राज चरवाहा आम लोगो का फसल बर्बाद कर के आपके नाम पर कलंक लगा रहा था." महाराज इस उत्तर से बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने दुर्गादास को अपनी सेना में खास स्थान दिया.
महाराज अजीत सिंह की सुरक्षा :
1679 में जब महाराज जसवंत सिंह की मृत्यु हुई तब उनका कोई उत्तराधिकारी नहीं था. परन्तु उनकी दो रानिया गर्भवती थी. तत्कालीन मुग़ल शासक औरंगजेब ने इस परिस्थिति का लाभ लेकर एक मुस्लिम को मारवाड़ पर शाषण के लिए नियुक्त कर दिया. इस घटना ने पुरे राठौर वंश को बहुत प्रभावित और क्रोधित कर दिया. इसी बीच दोनों महारानियो में से एक ने पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम अजीत सिंह रखा गया. एक वैधानिक उत्तराधिकारी के जन्म के बाद, बालक अजीत सिंह को शाषण के कुछ खास मंत्रियो (जिनमे दुर्गादास भी थे) के साथ दिल्ली में औरंगजेब के सामने प्रस्तुत किया गया. औरंगजेब से कहा गया कि वो अजीत सिंह को उसके पिता का राज्य और उपाधि दे दे. औरंगजेब ने पूरी तरह मन नहीं किया परन्तु उसने शर्त रखी कि अजीत सिंह का पालन उसके सामने ही अर्थात दिल्ली में ही मुस्लिम महल में हो. राठौर वंश के महाराजा का पालन एक मुस्लिम के यहाँ हो ये बात राठौर वंश को स्वीकार नहीं था. उससे कहा गया कि राजकुमार अजीत सिंह महारानी के साथ 'भूली भटियारी' नमक एक जगह (जो कि अभी आधुनिक दिल्ली में झंडेवाला के पास है) में रुक रहे हैं .
दुर्गादास और समूह के अन्य राजपूतो ने तय कर लिया की राजकुमार अजीत सिंह को गुप्त तरीके से दिल्ली से बहार निकालेंगे. वीर दुर्गादास और उनके 300 राजपूत योध्हा जिनमे ठाकुर मोकम सिंह बलुन्दा और मुकुंददास खिची भी थे, सभी ने मिलकर एक योजना बनायीं. योजना के अनुसार मोकम सिंह बलुन्दा की पत्नी बघेली रानी ने अपनी नवजात पुत्री को अजीत सिंह के स्थान पर रख दिया. राजपूतो के अविस्मरनीय बलिदानों में एक माँ का ये बलिदान महान है . जैसे ही दुर्गादास शहर की बाहरी सीमा पर पहुचे मुग़ल सैनिको को इस बात की भनक लग गयी और उन्होंने हमला बोल दिया . दुर्गादास और उनके समूह को अब मुग़ल सेना से लड़ना था जो संख्या में उनसे कही ज्यादा थे. परन्तु वे लड़े और अजीत सिंह को सीमा से बहार ले जाने में सफल हो गये. किसी भी मुग़ल हमले को असफल करने के लिए प्रत्येक निश्चित दुरी पर 15 20 राजपूत योध्हा रुकते गए और वीरगति को प्राप्त करते भी गये. इस युध्ह में मोकम सिंह बलुन्दा और उनके पुत्र हरिसिंह बुरी तरह घायल हो गए परन्तु किसी तरह वो दुर्गादास और मुगल सैनिको में दुरी बनाये रखने में सफल रहे. मोकम सिंह की पत्नी ने संध्या तक युध्ह जारी रखा. अंत में दुर्गादास केवल 7 राजपूतो के साथ रह गए परन्तु वे राजकुमार को बलुन्दा नगर की सुरक्षा में पहुचने में सफल हो चुके थे. राजकुमार अजीत सिंह लगभग 1 वर्ष तक बगेली रानी की सुरक्षा में बलुन्दा में ही रहे. बाद में उनको मारवाड़ की सुदूर दक्षिणी सीमा से लगे, अरावली की पहाडियों में एक गाँव आबू सिरोही में भेज दिया गया जहा वे बड़े हुए .
इस घटना के बीस साल बाद तक मारवाड़ मुग़ल शाषण के अधीन रहा. इस दौरान दुर्गादास ने मुग़ल सेना खिलाफ अथक संघर्ष किया. राज्य से गुजरने वाले व्यापारिक रास्तो पर लगातार गुर्रिल्ला लुटेरो के हमलों से मुग़ल साम्राज्य को बहुत आर्थिक नुकसान का सामना करना पडा. जिससे मुग़लो की आर्थिक व्यवस्था खराब हो गयी . 1707 में औरंगजेब की मृत्यु हो गयी . दुर्गादास ने इस स्थिति का लाभ लेते हुए मुग़ल सेना को विस्थापित कर दिया और जोधपुर को अपने कब्जे में लेकर मारवाड़ राज्य को पुनह स्थापित किया. अजीत सिंह को जोधपुर का महाराजा घोषित किया गया . इसके बाद दुर्गादास ने पुरे राज्य में मुसलमानों द्वारा खंडित किये गए मंदिरों का पुनः निर्माण कराया .
चरित्र :
औरंगजेब के पुत्र सुल्तान मुहम्मद अकबर ने अपने पिता के खिलाफ बगावत कर दिया. इस बगावत में दुर्गादास ने उसका साथ दिया. इसी दौरान मुहम्मद अकबर की मृत्यु हो गयी और उसकी संतान दुर्गादास के पास ही रह गयी . औरंगजेब अपने नाती पोतो को वापस पाने के लिए व्याकुल हो गया. उसने दुर्गादास जी से विनती की और वे सहमत हो गये. जब बच्चे औरंगजेब के पास पहुचे तो उसने एक काजी से उनको कुरान सिखाने को कहा. यह सुनते ही उसकी छोटी सी नतीन कुरान के आयत पढ़ने लगी. औरंगजेब यह सुनकर आश्चर्य चकित रह गया. बच्चे से पूछे जाने पर उसने बताया कि जब वो दुर्गादास के संरक्षण में थे तब उनको कुरान कि शिक्षा देने और उसके धार्मिक गुणों को बनाये रखने के लिए के लिए एक काजी रखा गया था. ऐसे थे वीर दुर्गादास राठौर.
आज भी उनके सम्मान में ये गया जाता है :
माई एह्ड़ा पूत जन, जेह्ड़ा दुर्गादास.
बांध मुन्दासो रखियो, बिन थाम्बे आकाश.
(माता यदि तुझे पुत्र जन्म देना है तो ऐसा दे जैसा दुर्गादास जिसने अकेले बिना किसी सहायता के मुगलों को इतने दिन बांध रखा)
अंतिम श्वास:
सफलता पूर्वक अपना कर्तव्य निभाने और महाराज जसवंत सिंह को दिया वचन पूरा करने के बाद वीर दुर्गादास जोधपुर छोड़ कर कुछ समय सादरी, उदयपुर , रामपुर में रहे और बाद में भगवान महाकाल की आराधना करने उज्जैन चले गये. 22 नवम्बर 1718 (मार्गशीर्ष शुक्ल 11 , संवत 1975 ) को 82 वर्ष कि उम्र में, शिप्रा नदी के किनारे उनका स्वर्गवास हो गया. लाल पत्थर से बना उनका अतिसुंदर छत्र आज भी उज्जैन में चक्रतीर्थ नमक स्थान में शुशोभित है. जो सभी राजपूतो और देशभक्तों के लिए तीर्थ स्थान है . वीर दुर्गादास राजपूती साहस , पराक्रम और वफादारी का एक उज्वल उदाहरण है.




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