Jyotiba फुले Ke Samajik Vichar ज्योतिबा फुले के सामाजिक विचार

ज्योतिबा फुले के सामाजिक विचार



Pradeep Chawla on 14-10-2018

महात्मा ज्योतिबा फुले जी का जन्म सन 1827 ई0 को महाराष्ट्र की एक माली जाति के परिवार में हुआ था| ज्योतिबा फुले के पिता का नाम गोविन्द राव और माता का नाम चिमनबाई था| ज्योतिबा जी के बड़े भाई का नाम राजाराम था| पूना के आस-पास माली जाति के लोगों को फुले (फूल वाले) कहा जाता है| ज्योतिराव फुले की माता चिमनाबाई का निधन उस समय हो गया जब वे मात्र एक वर्ष के थे| अब उनके पिता जी के सामने ज्योतिबा के पालन-पोषण की चिंता थी । उन्होंने उनके लिए एक धाय को नौकर रखा लेकिन दूसरी शादी नहीं की | उस धाय ने भी एक माता के समान ज्योतिबा का पालन-पोषण किया |

गोविन्द राव ने अपने पुत्र की जन्मजाति प्रतिभा को देखकर शिक्षार्जन हेतु भेजने का विचार किया | विद्यामन्दिरों में पंडित लोग तर्कशास्त्र, दर्शन-शास्त्र, व्याकरण आदि संस्कृति में ही पढ़ाते थे और किताबें इतिहास-भूगोल की जगह देवी-देवताओं की कहानियों से पटी पड़ी हुई थी | सन 1836 से ग्राम पाठशालाओं का सूत्रपात हुआ | ब्रिटिश सरकार के प्रारम्भ होने पर ही व्यवस्थित शिक्षा का सूत्रपात हुआ | उस समय जो स्कूल थे उन पर सिर्फ सवर्ण समाज का ही अधिकार था यदि किसी अब्राह्मण बालक ने काव्यपाठ किया या कुछ पढ़ा तो उसके साथ कठोर व्यवहार किया जाता था | आगे समय बीतने के साथ-साथ ब्रिटिश सरकार ने शिक्षा का अधिकार सबको सुनिश्चित किया |


गोविंदराव ने अपने पुत्र ज्योतिबाफुले को 7 वर्ष की आयु में एक मराठी पाठशाला में प्रवेश दिलाया | उधर ब्राह्मणों के लिए अंग्रेजी शिक्षा पद्धति अभिशाप प्रतीत हुई | वे अपने बच्चों को स्कूल के बाद इस लिए नहलाते थे कि वो अंग्रेजी पुस्तकें और अछूत बच्चों के साथ पढ़कर आया है | उस समय सवर्ण समाज की मानसिकता थी कि शिक्षा पाना सिर्फ ब्राह्मणों का अधिकार है अछूतों का नहीं और उनका विश्वास था कि सम्पूर्ण ज्ञान सिर्फ संस्कृति भाषा की पुस्तकों में विद्यमान है | ऐसी सामाजिक परस्थितियों में गोविंदराव ने अपने पुत्र ज्योतिबा को शिक्षा देने का आसाधारण कार्य किया | ज्योतिबा जी पढ़ने में काफी होशियार थे उन्होंने जल्द ही मराठी का लिखना-पढ़ना और बोलना सीख लिया |


उन्ही दिनों के बार ऐसा हुआ कि ‘बम्बई नैटिव एजुकेशन सोसाइटी’के संकेत पर सोसाइटी के विद्यालय से छोटी जाति के छात्रों को निकाल दिया गया | गोविंदराव ने भी उसी समय अपने पुत्र ज्योतिबा को विद्यालय से निकाल लिया | अब ज्योति फावड़ा और खुरपी लेकर खेतों में लग गए तथा फूलों के कार्य को आगे बढ़ाने लगे | धीरे-धीरे ज्योतिबा जब 13 वर्ष के हुए तो पिता गोविंदराव ने परम्परागत पद्धति के अनुसार ज्योतिबा का विवाह निश्चित कर दिया | बालिका-पत्नी जिसका नाम सावित्रीबाई फुले था की आयु 8 वर्ष थी | पूना के पास एक गाँव कबाड़ी में लड़की का मायका था | विद्यालय से अलग हो जाने से भी ज्योतिबा का लगाव पुस्तकों से दूर न हो सका | ज्योतिबा दिन भर खेतों में काम करने के बाद रात में दिये की रोशनी में पुस्तकें पढ़ते थे | उनकी इस लगन का पड़ोस में रहने वाले दो पड़ोसी गफारबेग तथा लेजिट पर बहुत प्रभाव पड़ा और उन्होंने गोविंदराव को स्कूल में दाखिला दिलाने का परामर्श दिया | गोविंदराव ने इस परामर्श को स्वीकार करते हुए 1841 ई0 में पुनः मिशन स्कूल में ज्योतिबा को प्रवेश दिलाया |


दो ब्राह्मण सहपाठियों को छोड़ कर ज्योतिबा जी के अधिकतर मुसलमान सहपाठी थे | स्कॉटलैंड के मिशन द्वारा संचालित स्कूल में ज्योतिबा जी ने अधिकतर शिक्षा ग्रहण की | अपने एक विशिष्ट सहपाठी के साथी ज्योतिबा फुले जी वाशिंगटन और शिवजी की जीवन कथाएं पढ़ते थे | उनके मन में भी अपने देश को स्वतंत्र करने के लिए निरंतर भाव जागृत रहता था | ज्योतिबा और उनका ब्राह्मण मित्र सदाशिव बल्लाल गोबंदे मिलकर अंधविश्वासों तथा मिथ्या कुरीतियों में फंसे लोगों को उनसे मुक्त होने के लिए प्रेरित करते रहते थे | 1847 ई0 में ज्योतिबा जी ने मिशन स्कूल की शिक्षा पूरी कर ली | ज्योतिबाफुले जी ने अपनी पुस्तक ‘गुलामी’ (स्लेवरी) में स्पष्ट लिखा है कि वे अपने देश से अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेकना चाहते थे | ज्योतिबा जी के छात्र जीवन से ही अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध छुटपुट घटनाएँ होने लगी थी |


ज्योतिबा जी के साथ एक घटना घटित हुई जिससे उनकी जीवन की दिशा ही बदल दी | एक बार ज्योतिबा फुले जी ब्राह्मण मित्र के विवाह में गए हुए थे | ज्योतिबा जी अपने ब्राह्मण मित्रों के सच्चे स्नेही थे | दूल्हे के साथ बरात सजधज कर जा रही थी ज्योतिबा जी भी साथ में चल रहे थे | बारात में प्रायः ब्राह्मण जाति के लोग थे | एक ब्राह्मण ने ज्योतिबा फुले जी को पहचान लिया और उसको यह सहन न हो सका कि ब्राह्मण के साथ शूद्र चले, उसने आवेश में आकर ज्योतिबा फुले जी को डांटने लगा और कहने लगा “अरे…! शूद्र तूने जातीय व्यवस्था की सारी मर्यादा तोड़ दी, तूने सबको अपमानित किया है तू जब हमारे बराबर नहीं है तो तुझे ऐसा करने से पहले सौ बार सोचना चाहिए था, तू बारात के पीछे चल या यहाँ से चल जा |” ज्योतिबा जी स्तंभित रह गए, दिमाग शून्य हो गया | जब कुछ देर बाद सामान्य हुए तो उन्हें अपने अपमान का अहसास हुआ, उनकी रग-रग में खून खौल उठा |


ज्योतिबा बारात से वापस अपने घर आ गए | उनकी आँखों में आंशू देखकर पिता ने जब कारण पूछा तो उन्होंने अपने अपमान का सारा कथानक पिता को सुनाया | उनके पिता ने तब उन्हें वर्ण व्यवस्था के बारे में विस्तार से समझाया और फिर कहा कि अच्छा हुआ केवल तुमको वह से उन्होंने भगा दिया अन्यथा वो तुमको मार-पीट भी सकते थे कभी-कभी तो वे इस तरह की भूल पर वे हाथी के पैर के नीचे गिराकर कुचल देते है | ज्योतिबा जी के पिता जी नहीं चाहते थे कि वे सामाजिक रीति-रिवाज़ों का उल्लंघन करके ब्राह्मणों का कोप भाजन बने | परन्तु ज्योतिबा शिवजी, वाशिंगटन तथा लूथर के आदर्शों को नहीं भुला सके, वह इसी उधेड़ बुन में पूरी रात सो नहीं सके | ज्योतिबा जी ने अनुभव किया कि शूद्रों को गुलामी और गरीबी में ही मरना-जीना है | शूद्र वर्ण में जन्म लेने का अर्थ है अपमान और दासता | ज्योतिबा जी ने हिन्दू धर्म में फैली ऊंच-नीच की अमानवीय भावना तथा रूढ़ियों एवं अंध-परम्पराओं को समाप्त करने का संकल्प लिया जबकि वह जानते थे कि इसकी जड़े काफी गहरी है |


ज्योतिबा फुले जी ने इस अज्ञान को ध्वस्त करने के लिए विद्रोह के ध्वजा अपने हाथों में ले ली | उनको विश्वास था कि छोटी जातियों के लोग सामाजिक समानता के लिए अवश्य संघर्ष करेंगे | ज्योतिबा जी की तरह और भी वयस्क लोग थे लेकिन ज्योतिबा जी के पास जो साहस और संकल्प था वह और किसी के पास नहीं था | 21 वर्ष की आयु में ज्योतिबा फुले जी ने महाराष्ट्र को एक नये ढंग का नेतृत्व दिया | ज्योतिबाफुले जी ने महाराष्ट्र की नारी तथा शूद्रों दोनों को सामाजिक गुलामी से मुक्त कराने की प्रतिज्ञा की | सर्वप्रथम उन्होंने एक बालिका विद्यालय की नींव डाली और उस विदयालय में सभी छोटी जातियों की छात्राएं शिक्षा पाने लगी | ज्योतिबा जी का विचार था कि अगर नारी शिक्षित नहीं होगी तो उसके बच्चे संस्कारी और परिष्कृत नहीं बन सकते |


ज्योतिबा जी ने मनुस्मृति के आसामाजिक सिंद्धान्तों का खंडन किया | मनुस्मृति की खुली आलोचना की | उन्होंने समाज के निम्न वर्गों को ललकार पूर्वक सम्बोधित किया और कहा “मेरा अनुसरण करो, अब मत डगमगाओ | शिक्षा तुमको आनंद देगी ज्योतिबा तुम से विश्वास पूर्वक कहता है |” ज्योतिबाफुले जी ने समूची सामाजिक परम्पराओं का विरोध किया तो परम्परा प्रेमी ज्योतिबा को अपना शत्रु समझने लगे |


उनके विद्यालय को जब कोई अध्यापक नहीं मिला तो उन्होंने इस कार्य के लिए अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले को शिक्षित किया, उनकी पत्नी ने भी इस कार्य को सहज स्वीकार किया | उनकी पत्नी विदयालय में पढ़ाने जाने लगी | सवर्णों के क्रोध की कोई सीमा न रही | सावित्रीबाई फुले जब स्कूल जाती थी तो लोग उन पर ढेले चलाना शुरू कर देते थे, उन पर कीचड़, कंकड़-पत्थर फेकने लगे | साड़ी गन्दी हो जाया करती थे इस लिए वो एक साड़ी हमेशा साथ ले कर चलती थी |


अब सवर्णों को कोई रास्ता नहीं दिख रहा था ज्योतिबा जी को रोकने के लिए तब उन्होंने उनके पिता पर दबाव बनाना शुरू किया और कहा कि “तुम्हारा बेटा हिन्दू धर्म एवं समाज के लिए कलंक है और उसी प्रकार उसकी निर्लज्ज पत्नी भी | तुम अनावश्यक भगवान का कोप भाजन बन रहे हो | धर्म और भगवान के नाम पर हम तुमसे कहते है कि तुम उसे ऐसा करने से रोको या फिर घर से निकाल दो |” उस समय ब्राह्मणों का वर्चस्व था इस कारण ज्योतिबा के पिता गोविंदराव को अपनी अन्तरात्मा विरुद्ध अपने ज्योतिबा से कहना पड़ा कि वह विद्यालय छोड़ दे या फिर घर को छोड़ दे | ब्राह्मण ज्योतिबा के घर में क्लेश करने में कामयाब हो गए चूँकि ज्योतिबाफुले जी को पता था कि वह सही रास्ते पर चल रहे है अतः उन्होंने पिता जी से कहा “परिणाम चाहे कुछ भी हो पर मैं अपने उद्देश्य से विरत नहीं हो सकता |” पिता ने भी साहस समेटकर कर कह दिया कि “जहाँ तुमको जाना है वहां जाओ लेकिन मेरा घर छोड़ दो |” धन्य थी वह स्त्री जिसने अनगिनत कष्ट सहते हुए अपने पति के साथ जाने के लिए कटिबद्ध हो गयी | उसने समाज को अनेक प्रकार की विषमताओं से मुक्त कराने के लिए अपने पति की अनुगामिनी बनकर ही रहना उचित समझा |


ज्योतिबा जी और उनकी पत्नी घर से निकाल दिए जाने के बाद भी विद्यालय चलाने की मनसा से मुक्त नहीं हो सके | सावित्रीबाई फुले जी ने अपने आगे की पढाई को सुचारू रूप से पूरा किया | कुछ समय पश्चात अपने दो मित्रों के सहायता से पुनः एक बालिका विद्यालय खोला | विदयालय के लिए जब कोई मकान किराये पर नहीं मिला तो उनके मित्र सदाशिव गोबांदे जूनागंज में एक स्थान की व्यवस्था कर दी | लेकिन वहां भी ब्राह्मणों ने अपना रोष व्यक्त किया और उस जगह को छोड़ने पर विवश कर दिया और उन्होंने एक मुसलमान से स्थान ले लिया | छात्रों के निर्धन होने के कारण ज्योतिबा उन्हें वस्त्र और पुस्तकें मुफ्त प्रदान करते थे |


पिछले तीन हज़ारों सालों के इतिहास में ऐसे विद्यालय का खोला जाना पहली घटना थी तथा ज्योतिबा जी ऐसे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने अपने साहस और लगन से यह अभूतपूर्व कार्य कर दिखाया | तब समाज की यह स्थिति थी कि यदि शूद्र कभी वेद पाठ सुन लेता तो उसके कानों में तपता हुआ तरल पदार्थ दाल दिया जाता था |


दो वर्षों तक शिक्षा के क्षेत्र में कार्य करने के बाद ज्योतिबा जी ने 3 जुलाई 1953 को एक दूसरा विद्यालय पूना के अन्नासाहेब चिपलूणकर भवन में खोला | अपने इस विदयालय के संचालन के लिए एक प्रबंध समिति का गठन किया | उस समय की सरकार को प्रबंध समिति की सूची प्रस्तुत की गयी | शासन ने ज्योतिबा फुले जी के शिक्षा सम्बन्धी कार्यों की प्रशंसा की और उन्हें एक महान समाज सेवी की रूप में मान्यता दी | प्रबंध समिति ने हमेशा यही आशा रखी कि ज्यो-ज्यो नारी शिक्षा की गति बढ़ेगी और उसका विकास होगा वैसे-वैसे देश का विकास होगा | ज्योतिबा फुले केवल पीड़ित-शोषितजनों के ही नहीं, बल्कि समाज सुधारकों के भी रक्षक थे | ज्योतिबा फुले को उनके अदम्य साहस एवं सेवा भावना के फलस्वरूप उनको समाज सेवियों के बीच प्रथम स्थान मिला था | उस समय के कुछ समाज सेवी ब्राह्मणों ने ज्योतिबा की नीतियों से प्रभावित होकर उनका सहयोग करना प्रारम्भ कर दिया जिससे रूढ़िवादी और समाज सेवी ब्राह्मणों में संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो गयी थी | इसी क्रम में ज्योतिबा जी ने आगे कई विद्यालय खोले |


19 फरवरी 1852 के ‘टेलीग्राफ एंड कोरियर’ पत्र में एक पर्यवेक्षक ने लिखा था कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि “ब्राह्मण छोटी जातियों के भयानक शत्रु थे किन्तु कुछ ब्राह्मणों ने यह भी अनुभव करना प्रारम्भ कर दिया है कि उनके पूर्वजों ने इन जातियों के लोगों को अनगिनत अघात पहुचाएं है |”


ज्योतिबा जी ने पूना में एक पुस्तकालय की स्थापना की जो छोटी जाति के छात्र-छात्रों के लिए अत्याधिक उपयोगी सिद्ध हुआ | इस कार्य के लिए पूना के अनेक महानुभावों ने हर प्रकार का सहयोग दिया | ज्योतिबा जी शिक्षक का कार्य जरूर करते थे किन्तु उनके अध्यापन की सीमा केवल विद्यालय तक सीमित नहीं रही, वे एक समग्र समाज के शिक्षक सिद्ध हुए |


ज्योतिबा फुले जी अब न तो माली थे, न शूद्र और न मात्र व्यक्ति | अब वे भारत की सामाजिक नव क्रांति के प्रतीक बन चुके थे | लेकिन विचित्र था वह धर्म और अनोखी थी यहाँ की वर्ण व्यवस्था कि समाज की सेवा करने वाले मनुष्य को शूद्र कहकर अत्याचारों और अपमानों का हल उनकी छाती पर चलाया जाता था | ज्योतिबा जी ने सभी को चुनौती देते हुए शिक्षा के द्वार सभी के लिए खोल दिए, ज्योतिबा जी ने शूद्र और नारी उद्धार के लिए शिक्षा पर ही विशेष बल दिया |


समाज में नयी चेतना के उदय होने पर भी ब्राह्मण अपना पुराना राग अलाप रहे थे। वे डर रहे थे कि यदि स्त्री और शूद्र शिक्षित हो गए तो समाज से उनका एकाधिपत्य और जातीय वर्चस्व ख़त्म हो जाएगा।


काफी हिन्दू ईसाई हो चुके थे लेकिन ज्योतिबा फुले जी ने अपना धर्म परिवर्तन नहीं किया। उनका मानना था कि हिन्दू धर्म में रहकर ही उसकी कुरीतियों को दूर किया जा सकता है और उसका स्वरुप बदला जा सकता है। ईसाई धर्म का द्वार सबके लिए खुला था लेकिन हिन्दू धर्म का द्वार हिन्दुओं के लिए ही बंद था। अनेक प्रतिष्ठित लोगों ने हिन्दू धर्म को त्याग कर ईसाई धर्म को धारण कर लिया। उन दिनों हिन्दू समाज में एक अजीब सा सूना पन छा गया। ब्राह्मणों की जड़ता, अहंकार, छुआ-छूत का भाव तथा अपने को सर्वश्रेष्ठ मानने के अहंकार ने हिन्दू धर्म को बर्बाद कर दिया, और हिन्दुओं की संख्या घटती चली गयी।


ज्योतिबा फुले की यह शूद्र तथा नारी शिक्षा की सफल योजना पूना के उच्च वर्ग के लोगों के आँखों की किरकिरी बन गयी थी। ज्योतिबा जी के कुछ चुने हुए ब्राह्मण मित्र थे जो हर प्रकार का खतरा उठाकर कर ज्योतिबा जी की हर संभव मदद करते थे। महाराष्ट्र के महान समाज सुधारक ज्योतिबा फुले जी ने जब देख लिया कि छोटी जातियां और स्त्रियों की शिक्षा पूना ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण महाराष्ट्र में व्यवस्थित रूप से चलने लगी तो उन्होंने समाज सुधार के दूसरे पटल पर अपना ध्यान केंद्रित करना शुरू कर दिया।


1840 में महाराष्ट्र में विधवा विवाह का प्रचार प्रारम्भ हुआ। ज्योतिबा जी विधवाओं की स्थिति देखकर बहुत ही दुखी थे, पति के बाद उन्हें एकाकी जीवन जीना पड़ता था और उनका समाज से कोई लेना-देना नहीं रह जाता था। न ही वो किसी मांगलिक कार्यक्रम में जा सकती थी। ज्योतिबा जी विधवा नारी के उद्धार का कार्यक्रम बनाया। ज्योतिबा जी की देखरेख में 8 मार्च 1860 में एक विधवा युवती का विवाह कराया गया। ज्योतिबा जी के इस प्रयास से एक नयी क्रांति का उदय हुआ | स्त्रियों को एक नया जीवन मिल गया।


उन्ही दिनों ज्योतिबा फुले जी के पिता गोविन्द राव रोगग्रस्त हो गए। वे अपने दूसरे पुत्र राजाराम के साथ रहते थे। उनके दूसरे पुत्र ही उनकी सारी सम्पति की देख-रेख करते थे। ज्योतिबा फुले जी के पिता को सबसे ज्यादा यह चिंता थी कि ज्योतिबा जी की कोई संतान नहीं थी इसलिए उन्होंने ज्योतिबा फुले को बुलाकर दूसरी शादी का प्रस्ताव रखा लेकिन ज्योतिबा जी इसके लिए तैयार नहीं हुए। ज्योतिबा जी की पत्नी सावित्रीबाई फुले ने कदम-कदम पर उनका साथ दिया तो वे भला दूसरे विवाह की कैसे सोंच सकते थे उन्हें पता था कि इससे अच्छा जीवन साथी और कोई नहीं हो सकता। कुछ समय पश्चात उनके पिता का निधन हो गया।


ज्योतिबा जी महाराष्ट्र के पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने शिवाजी के पराक्रम, साहस और कुशलता पर गीत लिखे | उन्होंने शिवाजी के महान आदर्शों का वर्णन किया।


पंद्रह वर्ष के लगातार संघर्ष के पश्चात ज्योतिबा जी ने अनुभव किया कि उनके विचार, सिद्धांतों एवं आदर्शों के लिए एक ऐसा मंच और संस्था की आवश्यकता है। जिसके माध्यम से छोटे वर्गों को समाज के समान धरातल पर लाने के लिए भरपूर प्रयास किया जाए। अभी तक वह पुस्तकों, पर्चों और भाषणों के द्वारा ही इस कार्य को सम्पादित कर रहे थे। अतः ज्योतिबा जी ने 24 सितम्बर 1873 में अपने सभी हितैषियों, प्रशंसकों तथा अनुयायियों की एक सभा बुलाई। उनसे विचार-विमर्श के बाद तथा ज्योतिबा जी के विचारों से सहमत होते हुए संस्था का गठन कर दिया गया। महात्मा ज्योतिबा फुले जी ने संस्था का नाम दिया “सत्य शोधक समाज।” यहाँ जो अहम बात है जो हमें याद रखना होगा कि उनके तीन ब्राह्मण मित्रों ने विनायक बापूजी भंडारकर, विनायक बापूजी डेंगल तथा सीताराम सखाराम दातार ऐसे थे जिन्होंने सत्यशोधक समाज को हर प्रकार का सहयोग देने का वचन दिया।


जुलाई 1883 में महात्मा ज्योतिबा फुले ने अपनी एक किताब पूरी कर ली। उनकी एक प्रति उन्होंने महाराजा बड़ौदा व एक प्रति गवर्नर जनरल को भेंट की। पुस्तक की प्रस्तावना के प्रारम्भ में ज्योतिबा फुले जी ने लिखा था :-



शिक्षा के अभाव में बुद्धि का ह्रास हुआ।


बुद्धि के अभाव में नैतिकता की अवनति हुई।
नैतिकता के अभाव में प्रगति अवरूद्ध हो गयी।
प्रगति के अभाव में शूद्र मिट गए।
सारी विपत्तियों का आविर्भाव निरक्षरता से हुआ।



जीवन के अंतिम समय में महात्मा ज्योतिबा फुले जी के शुभ चिंतक यह चाहते थे कि ज्योतिबा का शेष जीवन सुखमय व्यतीत हो, उनको किसी प्रकार की आर्थिक असुविधा न हो। उनके मित्रों ने महाराजा बड़ौदा को एक पत्र लिखा और महात्मा ज्योतिबा फुले जी के जीवन संघर्ष और उनकी सेवाओं का स्मरण दिलाया तथा अनुरोध किया कि ज्योतिबा फुले जी के परिवार को आर्थिक सहायता भेजी जाय। वृहस्पतिवार 27 नवम्बर 1890 को महात्मा ज्योतिबा जी का गिरा हुआ स्वास्थ्य उनके महाप्रयाण का संकेत देने लगा। ज्योतिबा फुले जी ने लगभग शाम 5 बजे अपने परिवार के लोगों को अपनी चारपाई के पास बुलाया। महातम ज्योतिबा फुले जी ने सभी को स्वार्थहीन तथा सात्विक ढंग से अपने कर्तव्यों के पालन का उपदेश दिया। उनके सबके सिर पर हाथ फेरा। अपनी पत्नी सावित्री बाई को बुलाकर अंतिम विदा ली। सावित्री बाई ज्योतिबा की शोक पूर्ण तथा शांत मुद्रा को देख रही थी।


धीरे-धीरे अर्द्ध रात्रि गुज़र गयी। घडी में 2 बजकर 20 मिनट हुआ था ठीक उसी समय महात्मा ज्योतिबा फुले जी चिरनिद्रा में सो गए। शोषितों-पीड़ितों के लिए जिए और उन्ही के लिए मरे। अपना सम्पूर्ण जीवन उन्ही के लिए बलिदान कर दिया। वो भले ही इस संसार को छोड़ कर जा चुके थे लेकिन उनके सिद्धांत व आदर्श आज भी जिन्दा है और हम उनसे प्रेरणा लेते रहेंगे।


महात्मा ज्योतिबा फुले जी के महान कार्यों के ऐतिहासिक महत्व को स्वीकार करके मिस्टर गांधी ने ज्योतिबाफुले जी के प्रति यह कह कर श्रद्धा व्यक्त की थी “ज्योतिबा असली महात्मा थे।” मिस्टर गांधी के उक्त उद्गार 25 नवम्बर 1949 में ‘दीनबन्धु’ नामक पत्र के महात्मा फुले विशेषांक में प्रकाशित हुए थे।





Comments Yuvraj on 10-01-2023

Yes

Aman on 25-12-2022

Jyotiba Phule ki samajik Chetna aur sudhar Bhavna per Prakash daliye

Anmol on 05-05-2022

Jyotiram Phule ke Samajik vichar tatha Ladkiyon ko school Ne bhejne ke liye Ke Piche Logon ke pass ko kyon कौन-कौन se Karan Hote the


Virma ram on 01-04-2022

Jyotiba phoole K moulik vichar kid pushtak me sanklit Hai

Diya on 05-02-2022

Jyotirao aur Anya Sudha Kaun Hai samaj mein jaati asamantaon ki aalochnaon ko Kis Tarah sahit thehraya

durjan choudhary on 02-04-2021

ज्योति बा फुले

NARESH on 04-07-2020

ज्योतिराव फुले के सामाजिक विचार तथा लडकियो को शकूर न भेजने के पीछे लोगों के पास कौन2 से कार्न होते हैं नवीकरणीय तथा अनवीकणीय ससाधनो मैं अनतर शपषट कीज्ए


दीपक on 12-03-2020

मन्दिरो को लेकर फ़ुले जी के क्या विचार थे..??





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