वनों के विनाश को रोकने में भारत सरकार के वर्ष 1983 के चिपको आंदोलन के साथ किए गए समझौते का खुला उल्लंघन कर एक हजार मीटर की ऊंचाई से वनों के कटान पर लगे प्रतिबंध को वर्ष 1994 में यह कहकर हटा दिया था कि हरे पेड़ों के कटान से प्राप्त धन से जनता के हक-हकूकों की आपूर्ति की जायेगी । वहीं वर्ष 1983 में चिपको आंदोलन के साथ हुए इस समझौते के बाद सरकारी तंत्र ने वनों के संरक्षण का दायित्व स्वयं उठाना था । इसके बावजूद भी टिहरी, उत्तरकाशी जनपदों में वर्ष 1983 से 1998 के दौरान गौमुख, जांगला, नेलंग, कारचा, हर्षिल, चौंरगीखाल, हरून्ता, अडाला, मुखेम, रयाला, मोरी, भिलंग आदि कई वन क्षेत्रों में कोई भी स्थान बचा नहीं था, जहाँ पर वनों की कटाई प्रारम्भ न हुई हो ।
वर्ष 1994 में वनों की इस व्यावसायिक कटाई के खिलाफ रक्षासूत्र आन्दोलन प्रारम्भ हुआ । पर्यावरण संरक्षण से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ताओं ने वनों में जाकर कटान का अध्ययन किया था । यहाँ पर राई, कैल, मुरेंडा, खर्सू, मौरू, बांझ, बुरांस, के साथ अनेकों प्रकार की जड़ी-बूटियाँ एवं जैव विविधता मौजूद है । इस दौरान पाया कि वन विभाग ने वन निगम के साथ मिलकर हजारों हरे पेड़ों पर छपान (निशान) कर रखा था । वन निगम जंगलाें में रातों-रात अंधाधुंध कटान करवा रहा था । इस पर्यावरण दल ने इसकी सूचना आस-पास के ग्रामीणों को दी । सूचना मिलने पर गांव के लोग सजग हुए और जानने का प्रयास भी किया गया था कि वन निगम आखिर किसकी स्वीकृति से हरे पेड़ काट रहा है । इसकी तह में जाने से पता चला कि क्षेत्र के कुछ ग्राम प्रधानों से ही वन विभाग ने यह मुहर लगवा दी थी कि उनके आस-पास के जंगलों में काफी पेड़ सूख गये हैंऔर इसके कारण गांव की महिलाएं जंगल में आना-जाना नहीं कर पा रही हैं । दुर्भाग्यपूर्ण यह था कि जनप्रतिनिधि भी जंगलों को काटने का लिए हुए थे । अतएव ग्रामीणों को पहले अपने ही जनप्रतिनिधियों से संघर्ष करना पड़ा ।
इस प्रकार वन कटान को रोकने के संबंध में टिहरी-उत्तरकाशी के गांव थाती, खवाड़ा, भेटी, डालगांव, चौंडियाट गांव, दिखोली, सौड़, भेटियारा, कमद, ल्वार्खा, मुखेम, हर्षिल, मुखवा, उत्तरकाशी आदि कई स्थानों पर हुई बैठकों में पेड़ों पर रक्षासूत्र बांधे जाने का निर्णय लिया गया था, जिसे रक्षासूत्र आन्दोलन के रूप में जाना जाता है । रक्षासूत्र आन्दोलन की मांग थी कि जंगलों से सर्वप्रथम लोगों के हक-हकूकों की आपूर्ति होनी चाहिये । साथ ही वन कटान का सर्वाधिक दोषी वन निगम में आमूल-चूल परिवर्तन करने की मांग भी उठायी गयी थी । इसके चलते ऊँचाई की दुर्लभ प्रजाति कैल, मुरेंडा, खर्सू, मौरू, बांझ, बुरांस, दालचीनी, देवदार आदि की अनेकों वन प्रजातियों को बचाने का काम रक्षासूत्र आन्दोलन ने किया ।
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