Hindi Cinema Ka Vikash हिंदी सिनेमा का विकास

हिंदी सिनेमा का विकास



GkExams on 10-12-2018

हिन्दी सिनेमा, जिसे बॉलीवुड के नाम से भी जाना जाता है, हिन्दी भाषा में फ़िल्म बनाने का उद्योग है। बॉलीवुड नाम अंग्रेज़ी सिनेमा उद्योग हॉलिवुड के तर्ज़ पर रखा गया है। हिन्दी फ़िल्म उद्योग मुख्यतः मुम्बई शहर में बसा है। ये फ़िल्में हिन्दुस्तान, पाकिस्तान और दुनिया के कई देशों के लोगों के दिलों की धड़कन हैं। हर फ़िल्म में कई संगीतमय गाने होते हैं। इन फ़िल्मों में हिन्दी की "हिन्दुस्तानी" शैली का चलन है। हिन्दी और उर्दू (खड़ीबोली) के साथ साथ अवधी, बम्बइया हिन्दी, भोजपुरी, राजस्थानी जैसी बोलियाँ भी संवाद और गानों में उपयुक्त होते हैं। प्यार, देशभक्ति, परिवार, अपराध, भय, इत्यादि मुख्य विषय होते हैं। ज़्यादातर गाने उर्दू शायरी पर आधारित होते हैं।भारत में सबसे बड़ी फिल्म निर्माताओं में से एक, शुद्ध बॉक्स ऑफिस राजस्व का 43% का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि तमिल और तेलुगू सिनेमा 36% का प्रतिनिधित्व करते हैं,क्षेत्रीय सिनेमा के बाकी 2014 के रूप में 21% का गठन है।बॉलीवुड भी दुनिया में फिल्म निर्माण के सबसे बड़े केंद्रों में से एक है। बॉलीवुड कार्यरत लोगों की संख्या और निर्मित फिल्मों की संख्या के मामले में दुनिया में सबसे बड़ी फिल्म उद्योगों में से एक है।Matusitz, जे, और पायानो, पी के अनुसार, वर्ष 2011 में 3.5 अरब से अधिक टिकट ग्लोब जो तुलना में हॉलीवुड 900,000 से अधिक टिकट है भर में बेच दिया गया था। बॉलीवुड 1969 में भारतीय सिनेमा में निर्मित फिल्मों की कुल के बाहर 2014 में 252 फिल्मों का निर्माण।1895 में लूमियर ब्रदर्स ने पेरिस सैलून सभाभवन में इंजन ट्रेन की पहली फिल्म प्रदर्शित की थी। इन्हीं लूमियर ब्रदर्श ने 7 जुलाई 1896 को बंबई के वाटसन होटल में फिल्म का पहला शो भी दिखाया था। एक रुपया प्रति व्यक्ति प्रवेश शुल्क देकर बंबई के संभ्रात वर्ग ने वाह-वाह और करतल ध्वनि के साथ इसका स्वागत किया। उसी दिन भारतीय सिनेमा का जन्म हुआ था। जनसमूह की जोशीली प्रतिक्रियाओं से प्रोत्साहित होकर नावेल्टी थियेटर में इसे फिर प्रदर्शित किया गया और निम्न वर्ग तथा अभिजात्य दोनों वर्गों को लुभाने के लिए टिकट की कई दरें रखी गईं। रूढ़िवादी महिलाओं के लिए जनाना शो भी चलाया गया। सबसे सस्ती सीट चार आने की थी और एक शताब्दी बाद भी यही चवन्नी वाले ही सिनेमा, इनके सितारों, संगीत निर्देशकों और दरअसल भारत के संपूर्ण व्यावसायिक सिनेमा के भाग्य विधाता हैं। 1902 के आसपास अब्दुल्ली इसोफल्ली और जे. एस. मादन जैसे उद्यमी छोटे, खुले मैदानों में घूम-घूमकर तंबुओं में बाइस्कोप का प्रदर्शन करते थे। इन्होंने बर्मा(म्यांमार) से लेकर सीलोन(श्रीलंका) तक सिनेमा के वितरण का साम्राज्य खड़ा किया। प्रारंभिक सिनेमा पियानो अथवा हारमोनियम वादक पर निर्भर होता था जिनकी आवाज प्रोजेक्टर की घड़घड़ाहट में खो जाती थी। लेकिन आयातित फिल्मों और डाक्यूमेंट्री फिल्मों के नयेपन का आकर्षण बहुत जल्दी ही दम तोड़ने लगा। फिर फिल्म प्रदर्शकों को अपनी प्रस्तुतियों को आकर्षक बनाने के लिए नृत्यांगनाओं, करतबबाजों और पहलवानों को मंच पर उतारना पड़ा।


शुरुआती दिनों में विवेकशील भारतीय दर्शक विदेशी फिल्मों से स्वयं को जुड़ा हुआ नहीं पाते थे। 1901 में एच.एस. भटवाड़ेकर ('सावे दादा' के नाम से विख्यात) ने पहली बार भारतीय विषयवस्तु और न्यूज रीलों की शूटिंग की। इसके तुरंत बाद तमाम यूरोपीय और अमेरिकी कंपनियों ने भारतीय दर्शकों के लिए भारत में शूट की गई भारतीय न्यूज रीलों का लाभ लिया। फरवरी, 1901 में कलकत्ता के क्लासिक थियेटर में मंचित ‘अलीबाबा’, ‘बुद्ध’, ‘सीताराम’ नामक नाटकों की पहली बार फोटोग्राफी हीरालाल सेन ने की। यद्यपि भारतीय बाजार यूरोपीय और अमेरिकी फिल्मों से पटा हुआ था, लेकिन बहुत कम दर्शक इन फिल्मों को देखते थे क्योंकि आम दर्शक इनसे अपने को अलग-थलग पाते थे। मई 1912 में आयातित कैमरा, फिल्म स्टॉक और यंत्रों का प्रयोग करके हिंदू संत ‘पुण्डलिक’ पर आधारित एक नाटक का फिल्मांकन आर. जी. टोरनी ने किया जो शायद भारत की पहली फुललेंथ फिल्म है।


पहली फिल्म थी 1913 में दादासाहेब फालके द्वारा बनाई गई राजा हरिश्चन्द्र। फिल्म काफी जल्द ही भारत में लोकप्रिय हो गई और वर्ष 1930 तक लगभग 200 फिल्में प्रतिवर्ष बन रही थी। पहली बोलती फिल्म थी अरदेशिर ईरानी द्वारा बनाई गई आलमआरा। यह फिल्म काफी ज्यादा लोकप्रिय रही। जल्द ही सारी फिल्में, बोलती फिल्में थी।


आने वाले वर्षो में भारत में स्वतंत्रता संग्राम, देश विभाजन जैसी ऎतिहासिक घटना हुई। उन दरमान बनी हिंदी फिल्मों में इसका प्रभाव छाया रहा। 1950 के दशक में हिंदी फिल्में श्वेत-श्याम से रंगीन हो गई। फिल्मों का विषय मुख्यतः प्रेम होता था और संगीत फिल्मों का मुख्य अंग होता था। 1960-70 के दशक की फिल्मों में हिंसा का प्रभाव रहा। 1980 और 1990 के दशक से प्रेम आधारित फिल्में वापस लोकप्रिय होने लगी। 1990-2000 के दशक में बनी फिल्में भारत के बाहर भी काफी लोकप्रिय रही। प्रवासी भारतीयो की बढती संख्या भी इसका प्रमुख कारण थी। हिंदी फिल्मों में प्रवासी भारतीयों के विषय लोकप्रिय रहे।






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Comments arunbharti@gmail.com on 09-03-2024

Bharat ki kaun si aisi film hai jismein ham kam kar sakte hain

Poonam on 20-12-2023

Cinema ke prakar





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