Apraadh Ki Samapti Ke Liye Mrityudand Anivarya Hai Is Vishay Ke Paksh Aur Vipaksh Me Vichar Prakat Kijiye अपराध की समाप्ति के लिए मृत्युदंड अनिवार्य है इस विषय के पक्ष और विपक्ष में विचार प्रकट कीजिए

अपराध की समाप्ति के लिए मृत्युदंड अनिवार्य है इस विषय के पक्ष और विपक्ष में विचार प्रकट कीजिए



Pradeep Chawla on 12-05-2019

इस विषय पर सड़क से लेकर संसद तक काफी बहस छिड़ चुकी है. लेकिन आज फिर से एक बार आधुनिक युग में इस महत्वपूर्ण विषय पर बहस होनी चाहिए कि क्या बदलते आधुनिक समाज में मृत्युदंड देना सही है? क्या इस प्रकार की सजा से अपराधों पर अंकुश लगना संभव है?



क्या फांसी का डर किसी व्यक्ति में इतना खौफ बिठा सकता है कि वह अपराध या आतंक में शामिल होने से अपने आपको रोक सके?



हर सिक्के के दो पहलू होते है. अगर एक पहलू से देखा जाए तो किसी भी देश में मृत्यु दंड देने से कुछ मिले या न मिले लेकिन इससे पीड़ित को इंसाफ मिलता है व साथ ही समाज में यह सख्त संदेश जाता है कि कोई भी अपराध करके बच नहीं सकेगा, जिससे अपराध नियंत्रण में सहयोग मिलता है.



दूसरा नजरिया यह है. कि किसी की जान लेने का अधिकार न अदालत है और न हीं सरकार को. फांसी की सजा मध्यकालीन युग की दकियानूसी सोच है, जिसकी आज के सभ्य व आधुनिक समाज में कोई गुंजाइश नहीं होनी चाहिए. अपराधी को खतम करने की बजाए अपराध को खतम करने की जरूरत है, जिसका दूसरे शब्दों में स्पष्ट अर्थ यह है कि अपराधी को सुधरने व प्रायश्चित करने का अवसर मिलना चाहिए.



1979 के संजय व गीता हत्याकांड में जब रंगा व बिल्ला को फांसी की सजा दी गई थी तो इसका विरोध करते हुए विख्यात शायर विजेन्द्र सिंह परवाज ने एक नज्म ‘मृत्युदंड’लिखी थी, जिसमें उनका तर्क यह था कि अगर आप अपराधी को सुधरने की बजाए फांसी दे देते हैं तो आप समाज को किसी संभावित सकारात्मक योगदान से वंचित कर देते हैं.



मसलन, अगर वाल्मिकी को उनके अपराधों के लिए मृत्युदंड दे दिया जाता, उन्हें प्रायश्चित करने का अवसर न मिलता तो संसार ‘रामायण’ जैसे शानदार, प्रेरक व मार्गदर्शन करने वाले ग्रंथ से वंचित रह जाता. इसमें कोई दो राय नहीं है कि मृत्युदंड ऐसी चीज नहीं है जिसे आधुनिक सभ्य समाजों की कानून पुस्तकों में मौजूद होना चाहिए. संसार को मृत्युदंड निरस्त करने की दिशा में बढ़ना चाहिए.



हालांकि समाज में कुछ अपवाद अवश्य हो सकते है. यदि सविधान में मृत्यु दंड है तो उसे बदलना चाहिए क्योंकि नियमों व कानूनों को समय की जरूरतों के साथ बदलता जरूरी होता है.



जो कानून समय के अनुसार नहीं बदलते हैं वह इंसाफ करने की बजाए अवाम पर बोझ बनने लगते हैं. किसी भी अपराधी को मृत्युदंड की बजाए ऐसा अपराध देना चाहिए जिसमें उसके लिए करने को कुछ न हो, वह अपने अपराध को याद करता हुआ पल-पल मौत का इंतजार करता रहे.



वही एक बड़ा सवाल यह भी है कि क्यों अपने देश में मृत्युदंड पर उस समय बहस क्यों नहीं होती है जब अदालतें यह सजा सुनाती हैं? जब कुछ वर्ष पहले कोलकाता में बलात्कारी हत्यारे धनंजय चटर्जी को फांसी दे दी गई थी तब इस विषय पर बहस छिड़ी थी और अब जब संसद पर हमले के षडयंत्रकारी अफजल गुरू को फांसी पर लटका दिया गया है तब इस पर बहस हो रही थी.



आवश्यकता इस बात की है कि जब अवाम के जज्बात संयम की स्थिति में हों तब इस महत्वपूर्ण विषय पर बहस होनी चाहिए कि क्या बदलते आधुनिक समाज में मृत्युदंड देना सही है? आज चारों तरफ यह चर्चा हो रही है कि जब अफजल गुरू को फांसी दे दी गई है तो फिर राजीव गांधी के हत्यारों व बेअंत सिंह के हत्यारे राजोआना को फांसी क्यों नहीं दी जा रही है. गौरतलब है कि अपने देश में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो मृत्युदंड को न्याय नहीं समझते हैं.



इनके अनुसार मृत्युदंड से तो अपराधी एक अर्थ में सजा से ‘छुटकारा’ पा जाता है. जीवन न रहने के कारण उसे अपने किए पर अफसोस होगा ही नहीं, जबकि वह अगर बिना पेरोल के अपने जीवन के बाकी दिन सलाखों के पीछे बिना किसी अर्थ के गुजारने के लिए मजबूर होगा तो वह स्वयं भी पछतावा करेगा और दूसरे भी उसे देखकर सबक लेंगे व अपराध करने से बचेंगे.



मृत्यु दंड मानवाधिकारों के उल्लंघन के खिलाफ है. वास्तव में यह न्याय के नाम पर व्यवस्था द्वारा किसी इंसान की सुनियोजित हत्या का एक तरीक़ा है. यह जीने के अधिकार के विरुद्ध है.



यह न्याय का सबसे क्रूर, अमानवीय और अपमानजनक तरीक़ा है. मृत्यु-दंड सभ्य समाज के लिए लिए कलंक है. विकसित और विकासशील देश के लिए कलंक है, जहा फांसी देने लायक अपराध होते हैं. जहाँ इस तरह के अपराधी को अपराध होने से पहले नहीं रोका जाता है, हम इतने कमजोर हैं की इस तरह के अपराधियों को अपराध से पहले नहीं रोक पाते हैं, और अपराध के बाद फांसी दे कर जश्न मनाते हैं.



विश्व के लगभग 140 देशों में फांसी की सजा नहीं है. मात्र 58 देशों में फांसी का प्रावधान है. जिन देशों में फांसी की सजा नहीं है, उन देशों में अपराध का ग्राफ फांसी वाले देशों से कम है. इन देशों से सिखा जा सकता है की बिना फांसी के फंदों पर लटकाए अपराधियों से कैसे निबटा जाता है.



दरअसल, फांसी की सजा पर संसद और समाज में देशव्यापी बहस की जरूरत है.




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Comments Nanu on 08-04-2022

Matudand ke pakes m tark

Alakh on 03-01-2022

it should not be compulsory as you cant really give someone a death penalty for just petty thievery

Srishti on 19-04-2020

Apradh ko khatm krne ke liye mrityu dand dena anivarya hai taaki dusre apradhiyon ke mann mein phansi ka khaof sada ke liye bass jaye aur vh koi bhi apradh krne se pehle hazaar baar soche.....


Prerna on 12-05-2019

Ye paksh me h ya vipaksh me???

Sangam Dixit on 12-05-2019

Apradh khatm Karne ke lite mirtyu dand aniwary hai

By Naira shamim khan on 12-05-2019

Apraadh ke liye mratyudand aniwary nhi h





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