गुप्त सम्राटों के समय में गणतंत्रीय राजव्यवस्था का ह्मस हुआ। गुप्त प्रशासन राजतंत्रात्मक व्यवस्था पर आधारित था। देवत्व का सिद्वान्त गुप्तकालीन शासकों में प्रचलित था। राजपद वंशानुगत सिद्धान्त पर आधारित था। राजा अपने बड़े पुत्र को युवराज घोषित करता था। उसने उत्कर्ष के समय में गुप्त साम्राज्य उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में विंघ्यपर्वत तक एवं पूर्व में बंगाल की खाड़ी से लेकर पश्चिम में सौराष्ट्र तक फैला हुआ था।
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कुशल प्रशासन के लिए विशाल गुप्त सम्राज्य कई प्रान्तों में बंटा था। प्रान्तों को 'देश', 'भुक्ति' अथवा 'अवनी' कहा जाता था। सम्राट द्वारा जो स्वयं शासित होता था उसकी सबसे बड़ी प्रशासनिक ईकाई 'देश' या 'राष्ट्र' कहलाती थी। 'जूनागढ़ अभिलेख' में सौराष्ट्र को एक देश कहा गया है। चन्द्रगुप्त के एक अभिलेख में सुकुती (मध्यभारत) नामक देश का उल्लेख मिलता है। देश का राष्ट्र का प्रशासक 'गोप्ता' कहा जाता था। जूनागढ़ अभिलेख से ज्ञात होता है कि सौराष्ट्र के गोप्ता पर्णदत्त की नियुक्ति स्वयं गुप्त सम्राट ने की थी। भुक्ति के प्रशासन को ‘उपरिक‘ व ‘उपरिक महाराज‘ कहा जाता था। सीमा प्रान्तों के प्रशासक ‘गोष्ठा‘ कहलाये थे। इन पदों पर राजकुमार या राजवंश से सम्बन्धित व्यक्ति को ही नियुक्त किया जाता था। चन्द्रगुप्त द्वितीय का छोटा पुत्र गोविन्दगुप्त तीन भुक्ति का (आधुनिक दरभंगा) तथा कुमारगुप्त का प्रथम पुत्र घटोत्कचगुप्त पूर्वी मालवा का राज्यपाल था। गुप्तकालीन अभिलेखों में कुछ प्रांतीय प्रशासकों का विवरण मिलता है। इन शासकों को प्रान्तों में 5 वर्ष के लिए नियुक्त किया जाता था।
भुक्ति का विभाजन जनपदों में किया गया था। जनपदों को ‘विषय‘ कहा जता था, जिसका प्रधान अधिकारी ‘विषयपति‘ होता था। विषयपति को 'कुमारामात्य' भी कहा गया है। कुमारगुप्त प्रथम के मंदसौर अभिलेख में 'लाटा' विषय का उल्लेख मिलता है। हूण शासक तोरमाण के समय के एरण वराह अभिलेख में 'एरिकिरण' विषय का वर्णन मिलता है। 'अंतर्वेदी' विषय की नियुक्ति स्वयं सम्राट स्कंदगुप्त ने की थी।
विषयपति के सहयोग हेतु एक समिति होती थी। इनके सदस्यों को ‘विषयमहत्तर‘ कहा जाता था, जिनमें निम्न वर्ग के लोग सदस्य होते थे-
‘प्रस्तपाल‘ अभिलेखों को सुरक्षित रखने वाले अधिकारी को कहते थे। विषय वीथियों में बंटे थे विधि की समिति में भूस्वामियों एवं सैनिक कार्यों से सम्बद्ध व्यक्तियों को रखा गया था। वीथि से छोटी ईकाई पेठ थी। पेठ अनेक ग्राम के समूहों को कहा जाता था। यह ग्राम समूह की छोटी ईकाई थी। इसका उल्लेख संक्षोभ के खोह अभिलेख में मिलता है जहां ओपनी नामक ग्राम को कणनाग पेठ के अंतर्गत बताया गया है।
प्रान्त | क्षेत्र |
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1- सौराष्ट्र | जूनागढ़(गुजरात) |
2- पश्चिमी मालवा | अवन्ति |
3- पूर्वी मालवा | एरण |
4- तीरभुक्ति | उत्तरी बिहार |
5- पुन्ड्रवर्द्धन | उत्तरी बंगाल |
6- वर्द्धमान | उत्तरी बंगाल |
7- मगध | पश्चिमी बंगाल |
नगरों का प्रशासन नगर महापालिकाओं द्वारा चलाया जाता था। ‘पुरपाल‘ नगर का मुख्य अधिकारी होता था। वह कुमारामात्य के श्रेणी का अधिकारी होता था। जूनागढ़ लेख से ज्ञात होता है कि गिरनार नगर का पुरपाल चक्रपालित था। नगर के शासन के लिए नियुक्ति समिति को सम्भवतः ‘पौर‘ कहा जाता था।
‘ग्राम‘ शासन की सबसे छोटी काई होती थी। ‘ग्राम सभा‘ द्वारा इसका प्रशासन संचालित होता था। ग्राम सभा का मुखिया ‘ग्रामिक‘ कहलाता था एवं सदस्यों को ‘महत्तर‘ कहा जाता था जो ग्राम के प्रतिष्ठित एवं कुलीन व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व करते थे। कुछ गुप्तकालीन अभिलेखों में ग्राम सभा को ‘ग्राम जनपद‘ एवं ‘पंचमंडली‘ कहा गया है।
देश या राष्ट्रभुक्ति <- विषय <- बीथि <- पेठ <- ग्राम।
सम्राट साम्राज्य का सर्वोच्च न्यायाधीश होता था। इसके अतिरिक्त मुख्य न्यायाधीश एवं अन्य न्यायाधीश होते थे। इस काल में अनेक विधि-ग्रंथ संकलित किए गए। पहली बार दीवानी और फ़ौजदारी क़ानून भली-भांति परिभाषित और पृथक्कृत हुए। चोरी और व्याभिचार फ़ौजदारी क़ानून में आए और सम्पत्ति सम्बन्धी विवाद दीवानी क़ानून में। व्यापारियों एवं व्यवसायियों की श्रेणी होती थी। ये श्रेणियां श्रेणी धर्म के आधार पर अपने विवादों का निपटारा करती थी। ‘पूग‘ नगर में निवास करने वाली विभिन्न जातियों की समिति होती थी। ‘कुल‘ समान परिवारों के सदस्यों की समिति होती थी। समितियां राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त थीं। ये समितियां आपसी विवाद में निर्णय देती थी। गुप्तकालीन अभिलेखों में न्यायाधीशों का उल्लेख 'महादण्डनायक', 'दण्डनायक' एवं 'सर्वदण्डनायक' के रूप में मिलता है।
सदस्य | विभाग |
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1- हरिषेण | यह समुद्रगुप्त का सन्धिविग्रहिक एवं महादण्डनायक था। |
2- शाव (वीरसेन) | चन्द्रगुप्त द्वितीय का सन्धिविग्रहिक |
3- शिखरस्वामी | चन्द्रगुप्त द्वितीय का मंत्री एवं कुमारामात्य |
4- पृथ्वीषेण | कुमारगुप्त का मंत्री एवं कुमारामात्य |
राजा के पास स्थायी सेना थी। सेना के चार प्रमुख अंग थे-
सर्वाच्च सेनाधिकारी 'महाबलाधिकृत' कहलाता था। हाथियों की सेना के प्रधान को 'महापीलुपति' कहते थे। घुडसवारों की सेना के प्रधान को 'भटाश्श्वपति' कहते थे। पदाति समानों की अवस्था करने वाले अधिकारी को 'रणभण्डागरिका' कहते थे। पदाति सेना की टुकड़ी को 'चमूय' कहा जाता था। गजसेना के नायक को 'कटुक' तथा अश्वारोही सेना के प्रमुख को 'अटाश्वपति' कहा जाता था। प्रयाग प्रशस्ति के गुप्तकाल के कुछ अस्त्र-शस्त्रों के नाम मिलते है जैसे- परशु, शर, शंकु, तोमर, मिन्दिपाल, नाराच आदि।
गुप्त काल में प्रशासन की एक मुख्य विशेषता यह थी कि इस समय वेतनों की अदायगी नक़द में न देकर सामान्यतः भूमि अनुदान के रूप में की जाती थी। दो तरह का भूमि अनुदान प्रचलन में था। ‘अग्रहार‘ सिर्फ़ ब्राह्मणों को प्राप्त होने वाला अनुदान होता था। इसके अंतर्गत आने वाली भूमि कर मुक्त होती थी। इस भूमि पर ग्रहीता के वंशानुगत अधिकार के बाद भी राजा यदि ग्रहीता के व्यवहार से संतुष्ठ नहीं है तो वह इस भूमि को वापस ले सकता था। दूसरे प्रकार का भूमि अनुदान वह होता था जिसे राजा अपने अधिकारियों को उनकी सेवा के बदले उपहार के रूप में देता था। 5वीं शती तक भूमिदान की प्रवृत्ति में काफ़ी परिवर्तन हुए और अब भूदान प्राप्तकर्ता को भूमि पर राजस्व प्राप्त करने के अधिकार के साथ-साथ उस भूखण्ड पर प्रशासन का भी अधिकार मिल गया। कालान्तर में इन दोनों अधिकारों से सुरक्षित वर्ग ही 'सामन्त' कहलाया । सातवाहन काल से भूमिदान की प्रथा शुरू हुई। सर्वाधिक भूमि अनुदान गुप्तकाल में दिया गया । ग्रामीण भूमि स्वामी को 'ग्रामिका', 'कुटुम्बिका' और 'नस्तर' कहा जाता था। छोटे किसानों को 'कृषिवाला', 'कृषक' और 'किसान' कहा जाता था।
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