शास्त्रों में यंत्र-तंत्र आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक दुःख की निवृत्ति के लिये अनेक उपाय बतलाये हैं। उनमें प्रधानतया यज्ञ का निर्देश अधिक प्राप्त होता है। ये यज्ञ कई प्रकार के होते हैं। जिनके विषय में अन्यत्र लिखा जा चुका है। यहाँ प्रश्न यह उठता है कि यज्ञ जो हवनात्मक होता है वह कैसे कहाँ किया जाय? तदर्थ शास्त्रों की आज्ञा है कि चतुर डडडडआदि कुण्डों में देवों की प्रसन्नता के निमित्त यज्ञ करना चाहिये। अतएव यहाँ कुण्डों के बारे में सामान्य विवेचन किया जाता है।
“कुण्ड” शब्द पाणिनीय व्याकरण के अनुसार रक्षणार्थक कुडि अथवा मानार्थक कुण धातु से सिद्ध होता है। तथा कोपकार कुण्ड शब्द का अर्थ व्युत्पत्ति और लक्षण से- रक्षा-स्थान, मान-नाप की वस्तु, अभिमुखकारी, दानादि—द्वारा पोषणकर्ता, हवन की अग्नि का निवास स्थान तथा जल का पात्र आदि करते हैं। इनमें से हमें ‘हवन की अग्नि का निवास-स्थान’ अर्थ यहाँ अभिप्रेत है। इस प्रकार कुण्ड में अग्नि के माध्यम से देवता के निकट हवि पहुँचाने की प्रक्रिया को विद्वज्जन यज्ञ करते हैं।
किसी भी कार्य के आरम्भ में वह सविधि सानन्द सम्पन्न हो, इस विचार से उसकी पूर्व भूमिका तैयार की जाती है। और तत्सम्बन्धी सम्पूर्ण सामग्री सुव्यवस्थित की जाती है। इसी प्रकार यज्ञ आरम्भ करने से पूर्व मण्डप-निर्माण होता है। वह कितना लम्बा-चौड़ा हो? इसका निर्णय भी विद्वानों ने ग्रन्थों द्वारा बतला दिया है। जैसे सभागृह में आगन्तुकों के अनुमान से लम्बाई-चौड़ाई का निर्णय होता है, वैसे ही यहाँ आहुति के आधार पर मण्डप की लघुता-दीर्घता का निर्णय होता है। कुण्ड भी मण्डप का अन्योन्याश्रय से अंग है ही। अतः उसका भी निर्माण आहुति के आधार पर अवलम्बित है। तदर्थ—“कुण्डसिद्धि” कार का कथन है कि—
शतर्धेडरत्निः स्याच्छतपरिमितेडरत्नि-विततं, सहस्रे हस्तं स्यादयुतहवने हस्तयुगलम्। चतुर्हस्तं लक्षे प्रयुतहवने पट्करमितं, ककुद्भिर्वा कोटौ नृपकरमपि प्राहुरपरे॥34॥
“पचास अथवा सौ आहुति देनी हो तो कुहनी से कनिष्ठिका तक के माप का कुण्ड बनाने; एक हजार आहुति में एक हस्त प्रमाण का, दस हजार आहुति में दो हस्त प्रमाण का, एक लक्ष आहुति में चार हाथ का, दस लक्ष आहुति में छह हाथ का तथा कोटि आहुति में 8 हाथ का अथवा सोलह हाथ का कुण्ड बनाना चाहिये।” भविष्योत्तर पुराण में पचास आहुति के लिये मुष्टिमात्र का भी निर्देश है। तथा इस विषय में “शारदातिलक, स्कन्दपुराण आदि का सामान्य मतभेद भी प्राप्त होता है। इसी तरह कुण्डसिद्धिकार ने कुछ विद्वानों के विचार को मान देते हुए यह लिखा है कि—
लक्षैकवृद्धया दशलक्षकान्तं, करैकवृद्धया दशहस्तकंच। कोट्यर्घदिग्विंशतिलक्षलक्ष—दले मुनीष्वर्तुकृशानुहस्तम्॥32॥
“एक लक्ष से दस लक्ष आहुति तक क्रमशः एक हाथ से दस हाथ तक का कुण्ड बनाना चाहिये। अथवा पचास लाख, दस लाख, बीस लाख, एक लाख या पचास हजार आहुति में क्रमशः 7, 5, 6, 3, (1) हाथ का कुण्ड बनाना चाहिये।”
साथ ही विशेष स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि—
वेदाक्षीणि युगाग्नयः शशियुगान्यष्टाब्धयस्त्रीपवोऽष्टाक्षावह्निरसा रसांगकमिता नेर्त्रषयोऽक्षस्वराः।
अडगुल्पोऽथ यवाः खमभ्रमिपवः ख पञ्चषट्सागराः, सप्त भ्रंमुनयस्त्वमीः निगदिता वेदास्रके बाहवः॥36॥
3—कुण्डसिद्धि
एक हस्त के कुण्ड का आयाम-विस्तार 24 अँगुल का, दो हस्त का हो तो 34 अँगुल का, तीन हस्त का हो तो 41 अँगुल और 5 यव का, चार हस्त का हो तो 48 अँगुल का, पाँच हाथ का कुण्ड हो, तो 56 अँगुल और 5 यव, छह हाथ का कुण्ड हो, तो 59 अँगुल और 6 यव, सात हाथ का कुण्ड हो, तो 63 अँगुल और 4 यव, आठ हाथ का कुण्ड हो, तो 66 अँगुल और 7 यव, नव हाथ का कुण्ड हो, तो 72 अँगुल तथा दस हाथ का कुण्ड हो, तो 76 अँगुल और 7 यव के प्रमाण से आयाम विस्तार होना चाहिये। ये चतुरस्र कुण्ड के भुज कहे हैं।
मण्डप के निर्माण में चारों ओर के स्तम्भ, उन के ऊपर छत तथा द्वार, तोरण और ध्वजा आदि के सम्बन्ध में भी शास्त्राज्ञा माननीय है। इसी प्रकार कुण्ड के निर्माण में अंगभूत खात, कंठ, मेखला तथा नाभि का प्रमाण भी आहुति एवं कुण्ड की आकृति के आधार से निश्चित किये जाते हैं। इस कार्य में न्यूनाधिक होने से राग शोक आदि विघ्न आते हैं। अतः केवल सुन्दरता पर ही दृष्टि न रख कर शिल्पी के साथ पूर्ण परिश्रम से शास्त्रानुसार कुण्ड तैयार करवाना चाहिये।
आधुनिक प्रचलित क्रियाओं में निम्नलिखित कुण्डों का उपयोग दृष्टिगोचर होता है:—
इन नौ कुण्डों की आकृतियाँ पीछे देखिये। 4
चतुष्कोण, अर्धचन्द्र, त्रिकोण, वृक्ष, विषमषडस्र, विषम आष्टास्र, पद्म, समषडस्र, सम अष्टास्र और योनिकुण्ड। इनके अतिरिक्त सप्तास्र, पञ्चास्र, धनुर्ज्याकृति, विषमभुज-मृदंगाकार, श्रिदेंल-पद्म, चतुर्दल पद्मकुण्ड के नाम भी प्राप्त होते हैं।
देखो ‘वाचस्पत्य-कोष’ कुण्ड शब्द के अर्थ वाला भाग।
नवग्रह की जो आकृतियाँ शास्त्रों में वर्णित हैं। नवग्रह की आकृतियाँ पीछे देखिये।
उनके अनुसार भी ‘नवग्रह-मख’ करते समय कुण्ड बनाये जा सकते हैं।
तारा भक्ति सुधार्णव के टीका कराने उपर्युक्त चतुरस्रादि कुण्डों की स्थापना का क्रम इस प्रकार बतलाया है—
प्राक् प्रोक्ते मण्डपे विद्वान्, वेदिकाया बहिस्त्रधा।
क्षेत्रं विभज्य मध्याँशे, पूर्वादि परिकल्पयेत्॥ अष्टास्वाशासु कुण्डानि, रम्याकाराण्यनुक्रमात्। चतुरस्र योनिमर्धचन्द्रं त्र्यस्रं सुवर्तुलम्॥ षडसाँ पंकजाकारमष्टास्रं तानि नामतः। आचार्यकुण्डं मध्ये स्याद् गौरीपतिमहेन्द्रयोः॥
आहुति के मान से मण्डप- निर्णय होने के पश्चात वेदिका के बाहर तीन प्रकार से क्षेत्र का विभाग करके मध्यभाग में पूर्व आदि दिशाओं की कल्पना करे। फिर आठों दिशाओं में—
आठ दिशाओं के नाम इस प्रकार हैं—पूर्व अग्नि, दक्षिण, निऋति, पश्चिम, वायव्य, उत्तर तथा ईशन क्रमशः चतुरस्र, योनि, अर्धचन्द्र, त्र्यस्र, वर्तुल, षडस्र, पंकज और अष्टास्रकुण्ड की स्थापना सुचारु रूप से करे। तथा मध्य में आचार्य कुण्ड वृत्ताकार अथवा चतुरस्र बनाये। यह नवकुंडी याग की प्रक्रिया से सम्बद्ध है।
पूर्वापरायतं सूत्रं, हस्तमानं प्रसार्य च। तम्याग्रयोर्मत्स्ययुग्मं, कुर्यात् स्पष्ट यथा भवेत्॥ द्विभागं कृत्य तत्सूत्रं पातयेद् दक्षिणोत्तरम। तदग्रयोर्मत्स्युग्मंकुर्यात् स्पष्टं यथा भवेत्॥ चतुर्दिक्षु चतुसूत्रं, पातयेत् तत्प्रमाणतः चतुरस्रं चतुःकोष्ठ, भवेदति मनोहरग्॥ कोणसूत्रद्वयं दद्यात् प्रमाणं तेन लक्षयेत्। चतुरस्रं भवेत् कुन्डं, सर्व लक्षण लक्षितम्॥
गौतमीयतन्त्र में चतुरस्रकुन्ड निर्माण की विधि स्पष्ट करते हुए लिखा है कि—पहले एक सूत्र एक हाथ-24 अंगुल का लेकर पूर्व से पश्चिम की ओर फैलाकर दो निशान स्पष्ट बनाये। फिर उसी सूत्र के दो भाग करके दक्षिण और उत्तर की ओर फैलाये तथा उसका निशान बनाये। तदनन्तर चारों दिशाओं में सूत्र को नापते हुए प्रमाण युक्त निशान करे जिस से मनोहर चतुरस्र कुण्ड का निर्माण होगा। कोनों में सूत्र का नाप करके प्रमाण ज्ञान करले। जिससे न्यूनाधिक न हो। इस प्रकार सर्व लक्षण चतुरस्रकुण्ड होता है।
इसी तरह 10-कुण्ड की गहराई के लिये शास्त्रकारों का आदेश है कि जितना कुण्ड का विस्तार और आयाम हो उतना गहरा प्रथम मेखला तक करना चाहिये। तथा गहराई चौबीसवें भाग में कुण्ड का निर्माण होना श्रेष्ठ है। 11-मेखला के बारे में विद्वानों का अभिप्राय है कि एक मेखलावाला कुण्ड अधम, दो मेखलावाला मध्यम और तीन मेखला वाला उत्तम होता है। कुछ विद्वान् पाँच 12-मेखला वाले को उत्तम मानते हैं।
सोमशम्भु नामक विद्वान् का मत है कि एक मेखलावाला कुण्ड वैश्य के लिये हितकर है दो वाला क्षत्रिय के लिये सुखद है और तीन मेखलावाला ब्राह्मणों के लिए लाभप्रद है।
इन मेखलाओं में सत्त्व, रजस् और तमस् की भावना से तीनों रंग भरे जाते हैं तथा पांच हो वहाँ पञ्चतत्त्व की भावना से रंग देने का सम्प्रदाय है। इनके निर्माण का गणित भी अविस्मरणीय है।
नाभि-कुण्ड के आकार से बारह अंश ऊपर तथा छः अंश के विस्तार वाली जैसा कुण्ड हो उसके अनुरूप कमल के आकार वाली बनानी चाहिये। 13
योनि- के लिये त्रैलोक्यसार में लिखा है कि—
14- बारह अंगुल चौड़ी, विस्तार से तीन अंश छोटी, मध्यभाग में एक अंगुल ऊपर उठी हुई, कुण्ड में झुकी हुई, अश्वत्थ के पत्र की तरह छिद्र और नाल में युक्त, ऊपर कुछ संकोच वाली तथा मेखला के मध्य में पश्चिम की ओर अथवा दक्षिण में, एक अंगुष्ठ-प्रमाण की मेखला से युक्त, घृत धारण करने में समर्थ ऐसी बनानी चाहिये। कुण्ड में नहीं बनायी जाती है। x15
10-11—देखो—कुण्ड सिधि, शारदातिलक।
12-देखो—क्रियासार, लक्षणसंग्रह।
13—पद्मकुण्ड में नाभि नहीं होती है।
14-दीर्घा सूर्यांगु योनिसत्र्यंशोना विस्तरेण तु।एकांगु लोच्छिता सातु, प्रविष्टाऽभ्यन्तरे तथा॥कुम्भद्गयार्धसंयुक्ता, चाश्वत्थदलवन्मता।अंगुष्ठमेखला युक्ता, मध्ये त्वाज्यवृतिक्षमा॥
इत्यादि।
x15—वैदिकों को कुंड में गत्तोदि अभिमत है।
सर्वसाधारण कार्यों में प्रायः चतुरस्र अथवा वृत्तकुँड का निर्माण करके कार्य चलाने की पद्धति है। क्योंकि ‘सर्वसिद्धिकर’ कुँड चतुरस्रमुदाहृतम्-चतुरस्र-कुँड सर्व सिद्धि करने वाला है। इसी प्रकार वृत्त कुँड भी शान्ति-पुष्टिकारक है।
कुँड निर्माण का विषय ज्यामिति, मूमिति, क्षेत्रमिति और वातुशास्त्र से अधिक सम्बन्ध रखता है। अतः जिन्हें अधिक इससे रस हो, उन्हें कुँडसिद्धि, भविष्य पुराण, वायु पुराण, अनुष्ठान प्रकाश, पञ्चसार, क्रियासार समुच्चय, शारदातिलक आदि ग्रंथों का पूर्णतया अवलोकन करना चाहिये। एवं कर्मकाँड करते समय साम्प्रदायिक परिपाटी में क्रियाभेद न हो, तदर्थ गुरु के साथ यज्ञादि के समय उपस्थित रहकर प्रत्यक्ष-शिक्षण प्राप्त करना चाहिए। जिससे स्वपर का कल्याण हो, तथा शास्त्रों के प्रति नवीन मस्तिष्क के लोगों की अभिरुचि बढ़े।
कुण्डों की रचना में भिन्नता का उद्देश्य यह है कि काम्यकर्मों की प्रधानता के अनुसार पृथक्-पृथक् आकार वाले भिन्न-भिन्न दिशाओं में कुण्ड बनाने से फलसिद्धि शीघ्र होती है। तदर्थ बहवृच परिशिष्टादि ग्रन्थों की उक्ति है कि—15 भुक्ति, मुक्ति, पुष्टि, जीर्णोद्धार, नित्य हवन तथा शान्ति के लिए पश्चिम दिशा में वृत्ताकार कुँड का निर्माण करना चाहिए। इसी प्रकार दिशाभेद का विशेष स्पष्टीकरण करते हुए अन्य ग्रन्थकारों ने लिखा है कि—
16- स्तम्भन करने के लिये पूर्व दिशा में चतुरस्र, भोगप्राप्ति के लिए अग्निकोण में के आकारवाला मारण के लिए दक्षिण दिशा में अर्धचन्द्र अथवा नैऋत्यकोण में त्रिकोण, शान्ति के लिए पश्चिम में वृत्त, उच्चाटन के लिए वायव्यकोण में षडस्र पौष्टिक कर्म के लिए उत्तर में पद्मकृति और मुक्ति के लिये ईशान में अष्टास्र कुँड हितावह है। इनमें कुछ विशिष्ट कार्यों के लिए भी प्रयुक्त होते हैं। यथा—
17—पुत्र प्राप्ति के लिए योनिकुँड, भूत प्रेत और ग्रहबाधा-विनाश के लिए पंचास्र अथवा धनुर्ज्यावृति, अभिचारदोष का शमन करने के लिए सप्तास्र इत्यादि।
सूक्ष्म दृष्टि से विचार कर ऊपर कुँड और यन्त्र का साम्य भी कुछ झलकता है जैसे यंत्र देवता का शरीर भाग जाता है वैसे ही कुँड भी देवता का शरीर ही है ऐसा मान लें तो कोई आपत्ति नहीं।
प्रत्येक कर्म में यथाशक्ति यज्ञ करना ही चाहिये। पर उसमें कुँड ही बनाया जाय, यह आवश्यक नहीं। तदर्थ शास्त्रकारों की आज्ञा है कि—(18) यदि कुँड करने का सामर्थ्य न हो, तो सामान्य हवनादि में विद्वान् चार अंगुल ऊँचा, अथवा एक अँगुल ऊँचा एक हाथ लम्बा चौड़ा सुवर्णाकार-पीली मिट्टी अथवा बालू रेती का सुन्दर स्थण्डिल बनाये।
नित्यं नैमित्तिकं होमं स्थण्डिले वासमाचरेत्”
शारदा तिलक मत से नित्य-नैमित्तिक हवन स्थन्डिल में करना चाहिये।
स्थण्डिल का स्थान
“कुण्डमेव विधंनस्यात् स्थण्डिले वा समाचरेत”
स्थानापन्न स्थंडिल का वही स्थान है, जो कुँड का है।
“तत्स्थानापन्नस्तद्धर्म लभते स्थान धर्माणाँ स्थानान्यति देशः।,’ कुँड स्थापन स्थंडिल भी कुँड स्थान में ही होता है; स्थानान्तर में नहीं।
इसके अतिरिक्त ताम्र के और पीतल के भी यथेच्छ कुँड बाजार मैं प्राप्त होते हैं। उनमें प्रायः ऊपर मुख चौड़ा होता है और नीचे क्रमशः छोटा
15-भुक्तौ मुक्तौ तथा पुष्टौ, जीर्णोद्धारे विशेषतः। सदाँ हौमे तथा शान्तौ, वृत्तं वरुणादिग्गतम्॥
16-ऐन्द्रयाँ स्तम्भे चतुष्कोणमग्नौ भोगे भगाकृति। चन्द्रार्धं मारणे याम्ये, नैऋते हि त्रिकोणकम्॥
वारुण्याँ शान्तिके वृत्तं, षडस्त्युच्चाटनेऽनिले। उदीष्ठयाँ पौष्टिके पद्म, रौद्रयामष्टास्रमुक्तिदम्॥
17-देखो—वाचस्पत्यकोप कुँड शब्द।
18-अथवाऽपि मृदा सुवर्णभासा करमानं चसुरंग लोच्चमल्पे। हवनेविदधीत वांग लोच्चं: विबुध स्थण्डिलमेव वेदकोणम्॥ ॥कुँड सिद्धि॥
होता है। वह भी शास्त्र की दृष्टि से ग्राह्य है। नित्य हवन-बलिवैश्व-देव आदि के लिए अनेक विद्वान इन्हें उपयोग में लेते हैं।
इसका उलटा प्रकार जो मंडल के रूप में कहा जा सकता है। जिसमें नीचे से चौड़ा और ऊपर तक छोटा आकार वाला भी मृत्तिकादि से बनाते हैं। उसमें पाँच या सात मेखला रहती है।
यह सामान्य दिग्दर्शन है।
1 हवन कुंड की मेखला की ऊंचाई का अनुपात कितना होता है इस संबंध में कोई जानकारी लेख में नहीं है और सारी जानकारियां अति उत्तम हैं आपके ज्ञान को शत-शत नमन एवं अनुमोदना
Ardkaar havan kund ki lambai or chodie
Havan me pach ahuti ghee ki kis nam dena
Vedi kis parkar se banave
Dinesh. Khan havankunad. Kaesebanayan
Kounse dhatu se havan kund banana chahiye our kiu
Matel of havan kund please tell me vedic bhaishya
Havan kund kaise bnaye
Havan kund ki gaharai kitni honi chahy
Havan kund banane ki vidhi
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1 हवन कुंड की मेखला की ऊंचाई का अनुपात कितना होता है