Samajik Samjhauta Ka Sidhhant सामाजिक समझौता का सिद्धांत

सामाजिक समझौता का सिद्धांत



Pradeep Chawla on 12-05-2019

यदि लोगों से कहा जाए कि स्वयं के लिए किस तरह का समाज चुनेंगे? तो संभवतः वह ऐसा समाज चुनेंगे जिसके नियम और संगठन उन्हें कुछ विशेष सुविधासंपन्न स्थान दिलवा सकें। प्रत्येक व्यक्ति अपने व्यक्तिगत हितों को अलग रखकर समाज के बारे में सोचे और आत्म-त्यागी बने। यह अपेक्षा नहीं की जा सकती क्योंकि उनका निर्णय उनकी भावी पीढ़ियों की स्थिति और अवसरों को प्रभावित करेगा। ऐसी स्थिति में सम्पूर्ण समाज के लिए न्याय के सिद्धांतों की बुनियाद को रखना लगभग असंभव हो जाएगा। ऐसी परिस्थिति में निष्पक्ष और न्यायसंगत निर्णय कैसे लिया जाए? जॉन रॉल्स इसी प्रश्न का उत्तर देने का प्रयास करते हैं। उनका मानना है कि आमतौर पर लोग अपने स्वार्थी हितों से निर्देशित होते हैं ऐसी स्थिति में यदि उनसे कहा जाए कि आप न्यायपूर्ण समाज चुनें तो वह निष्पक्ष रूप से निर्णय नहीं ले पाएँगे। न ही वह उन निष्पक्ष न्यायपूर्ण सिद्धांतों को स्वीकार कर पाएँगे। इसलिए न्यायसंगत नियम तक पहुँचने का एकमात्र मार्ग यही है कि हम स्वयं को ऐसी परिस्थिति में होने की कल्पना करें जहाँ सभी यह नहीं जानते कि वह स्वयं कौन है? अमीर या गरीब, दलित या ब्राह्मण, स्त्री या पुरुष, हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख, जैन, ईसाई या बुद्धवादी। तब वहां समाज में भेदभाव नहीं होगा, वहाँ असमानता नहीं जन्मेगी। यदि ऐसी स्थिति में समाज में हमें यह निर्णय लेना है कि समाज को कैसे संगठित व संचालित किया जाए? तो वहां उचित निष्पक्ष नियमों का निर्माण किया जा सकता है। वह भविष्य के उस समाज के नियमों और संगठन के बारे में जिस निर्णय को अपनाएँगे, वह तार्किक रूप से तमाम सदस्यों के लिए अच्छा होगा।



रॉल्स ने अपने न्याय सिद्धांत को समाज में स्थापित करने के लिए “सामाजिक समझौते” की युक्ति का प्रयोग किया हैं। रॉल्स स्वयं कहते हैं कि ‘मेरा उद्देश्य न्याय की एक ऐसी संकल्पना पेश करना है जो लॉक, रूसो और कांट में पाए जाने वाले सामाजिक समझौता सिद्धांत के जाने-पहचाने सिद्धांत को सामान्य रूप में प्रस्तुत करे और साथ ही उसे उच्चतम स्तर की अमूर्तता तक पहुँचाए’ (रॉल्स 1971:11)।



प्राय: सभी उदारवादी चिंतकों ने समझौते को एक उपकरण के रूप में प्रयोग किया है इसलिए रॉल्स ने भी इसके लिए एक काल्पनिक युक्ति का प्रयोग किया है। रॉल्स का सामाजिक समझौता काल्पनिक है, न कि ऐतिहासिक या वास्तविक। सामाजिक समझौता सिद्धांत में एक विशेष तरह की प्राकृतिक अवस्था होती है। इसे रॉल्स “मूल अवस्था” (Original Position) का नाम देते हैं, जो लॉक, रूसो के पारम्परिक सिद्धांतों की प्राकृतिक अवस्था से मिलती-जुलती है। प्राकृतिक अवस्था में प्राकृतिक गुणों, प्रतिभाओं की असमानता को रॉल्स पक्षपातपूर्ण मानते हैं, साथ ही यह कहते हैं कि इस मूल अवस्था में न्याय के सिद्धांतों के चयन में लोगों को उनके मनमाने लाभों का फायदा उठाने से रोकना जरूरी है। इसलिए वह मूल स्थिति में एक विशेष परिस्थिति का निर्माण करते हैं। रॉल्स इसे ‘अज्ञानता का पर्दा’ (Veil of Ignorance) कहते हैं। रॉल्स मानते हैं कि मूल स्थिति में लोग अज्ञानता के पर्दे के पीछे ही रहते हैं।



अज्ञानता के पर्दे में रहते हुए कोई भी व्यक्ति समाज में अपना स्थान, सामाजिक-आर्थिक हैसियत (जाति, धर्म, नस्ल, लिंग, रंग, वंश, वर्ग) को नहीं जानता। व्यक्ति अपने प्राकृतिक गुणों, प्रतिभा, बुद्धिमता, ताकत और योग्यताओं जैसी किसी भी चीज की जानकारी नहीं रखते। वह अपनी शुभ (Good) या उत्तम जीवन की संकल्पना को नहीं जानते। वे व्यक्ति यह भी नहीं जानते कि किन बातों से समाज में संघर्ष उत्पन्न होता है। वह नहीं जानते कि यदि पर्दा उठ जाए तो वह किस स्थिति में होंगे, समाज में उनका क्या स्थान होगा, वह किस स्थिति में रहेंगे। यद्यपि वह कुछ बातों की जानकारी भी रखते हैं। जैसे वह विवेकपूर्ण हैं, उन्हें अर्थशास्त्र एवं मनोविज्ञान का प्रारंभिक ज्ञान होता है, जिस कारण वह यह जानते हैं कि अर्थव्यवस्था किस प्रकार संचालित होती है एवं मनुष्य किस व्यवहार से खुश होगा और किस व्यवहार से उसे दुःख पहुँचेगा। साथ ही उनके पास न्याय की भावना भी होती है, जो परिवार से आती है। वह ईर्ष्यालु नहीं होते। वह इस बात से मतलब रखते हैं कि उनके लिए जो आवश्यक है, वह उनके पास रहे किन्तु यदि दूसरों के पास कोई चीज ज्यादा है तो उनसे उन्हें किसी प्रकार की ईर्ष्या नहीं होती। अज्ञानता के पर्दे के पीछे बैठे व्यक्ति दूसरे व्यक्तियों की स्थिति से प्रभावित नहीं होंगे। उत्तम जीवन को लेकर उनके पास कोई स्पष्ट सोच नहीं है परन्तु वह चाहते हैं कि सामाजिक प्राथमिक वस्तुओं (स्वतंत्रता, अवसर व अधिकार और आत्म-सम्मान) में कमी न हो बल्कि वह और ज्यादा बढ़ें। अर्थात् वह अतिस्वार्थी तथा अहंकारी नहीं होते।



रॉल्स मानते हैं कि इस स्थिति में इन व्यक्तियों की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता है कि वह विवेकी है इसलिए सभी लोग मानते हैं सामाजिक प्राथमिक वस्तुओं (अधिकार, स्वतंत्रताएं, अवसर आदि) का समान रूप में प्रयोग करें और उसे कम करने की जगह उसे बढ़ाने पर जोर दिया जाए। विवेकी होने के कारण ही वह अपनी स्थिति को लेकर किसी भी प्रकार का जोखिम उठाने को तैयार नहीं हैं क्योंकि उन्हें डर होता है कि अधिक पाने की लालसा में कहीं वह पर्दा उठ जाने पर अपने आपको सबसे हीन स्थिति में न पाएँ। इसलिए रॉल्स मानते हैं कि इस अनिश्चितता से परिपूर्ण स्थिति में व्यक्तियों के सामने जो भी विकल्प होंगे, उनमें से वह सबसे कम नुकसानदायक नतीजा चुनेंगे।



रॉल्स कहते हैं चूंकि कोई भी नहीं जानता कि वह कौन है, उसके लिए लाभप्रद क्या होगा। इसलिए उस परिस्थिति में उनका सहजबोध व विवेक जिसे निष्पक्ष व उचित बताता है वह उन्हीं सिद्धांतों को चुनेंगे। लोगों के पास एकमात्र जीवन है इसलिए वह अपने जीवन को असंतोषजनक नहीं बनाना चाहेंगे। सभी पर्दा उठने की स्थिति में अपनी स्थिति के बारे में सोचेंगे तो वह यह भी ध्यान रखेगें कि कहीं वही स्वयं निम्नतम स्थिति में न आ जाएँ। संभवतः सभी व्यक्ति सबसे बुरी स्थिति के मद्देनजर समाज की कल्पना करेंगे और अंततः हीनतम व्यक्तियों को अधिक से अधिक फायदा मिले इस पर सहमति बनाएँगे। इस निर्णय के पीछे यह सोच कार्य करेगी कि यदि वह हीनतम स्थिति में हों तो उन्हें अधिक से अधिक फायदा मिले। साथ ही वह यह भी सोचेंगे कि यदि वह सुविधासंपन्न स्थिति में अपने आपको पाएँ तो वह हीनतम व्यक्तियों के अधिकतम फायदे के कारण कमजोर न हो जाएँ इसलिए वह यह तय करेंगे कि ऐसी नीतियाँ न बनें जो बेहतर स्थिति वाले लोगों को कमजोर बना दें। इसलिए यह सभी के हित में होगा कि निर्धारित नियमों और नीतियों से पूरे समाज को फायदा हो, समाज में किसी एक वर्ग (सुविधासंपन्न या हीनतम) को नहीं। यह बिल्कुल सही निष्पक्षता होगी, जो विवेक का परिणाम होगा न कि दया, सहानुभूति, परोपकार अथवा उदारता का।



रॉल्स तर्क देते हैं कि मूल अवस्था के कारण जब सभी व्यक्ति पूर्व-राज्य अवस्था में आपसी सहमति से समाज व राज्य का निर्माण करते हैं, जिसमें सभी परिवारों व समूहों के मुखिया बैठते हैं और एक सामाजिक समझौता करते हैं। इनके सामने प्रमुखतः एक न्यायपूर्ण समाज की स्थापना का प्रश्न होता है। समझौता मूलतः सुविधासंपन्न व हीनतम दोनों के फायदों के नियमों पर ही होगा जिससे निष्पक्षता रखी जा सके। रॉल्स कहते हैं कि ऐसी स्थिति में लोग उनके द्वारा प्रतिपादित “न्याय की विशिष्ट संकल्पना” को ही स्वीकार करेंगे अर्थात् समान स्वतंत्रता का सिद्धांत, अवसर की समानता का सिद्धांत और असमानता को सही ठहराने के लिए भेदमूलक सिद्धांत को अपनाया जाएगा (विशेष पूर्वता-क्रम के साथ)। क्योंकि सभी के लिए निष्पक्ष और न्यायसंगत नियम व सिद्धांत यही हो सकता हैं, जो हमारे सहजबोधों के भी अनुरूप हो। सभी अपनी बुनियादी स्वतंत्रताओं का प्रयोग कर पाएं, अवसर की समानता का प्रयोग कर अपने भविष्य का चुनाव कर सकें। साथ ही जो लोग सुविधासंपन्न हैं या अपनी स्वतंत्रता व अवसरों का लाभ उठाकर सुविधासंपन्न बनेंगे वह हीनतम व्यक्तियों को फायदा पहुँचाएं तभी उनकी असमान स्थिति को उचित माना जा सकता है। इस तरह रॉल्स न्याय से सम्बंधित सम्पूर्ण प्रक्रिया में अधिकारों (Rights) को शुभ (Good) पर वरीयता देते हैं।



रॉल्स कहते हैं कि सामाजिक समझौते के पश्चात् वह एक ऐसे संविधान-निर्माण की प्रक्रिया को चाहते हैं जो न्याय के सिद्धांतों को अपनाये। विधि-निर्माण, नीतियों-नियमों में यह न्याय के सिद्धांत परिलक्षित होने चाहिए, जिससे यह समाज की आधारभूत संरचना (राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक संस्थाएं) का अंग बन जाएँ और शक्तिशाली बनती रहे। अब प्रश्न है कि न्यूनतम सुविधाग्रस्त लोगों को अधिकतम फायदा कैसे पहुँचाया जाए? इस प्रश्न के उत्तर में रॉल्स कहते हैं कि पुनर्वितरणात्मक न्याय ही इसके लिए सही है क्योंकि इसी के माध्यम से सभी को सुविधाएं उपलब्ध करवाई जाएँगी। इन सुविधाओं को प्रदान करवाने के लिए सुविधासंपन्न, पूंजीपति वर्ग की संपत्ति के एक भाग को टैक्स के रूप में ले लिया जाएगा, जिसे हीनतम, पिछड़े और गरीब वर्ग की स्थिति को ऊपर उठाने के लिए खर्च करना होगा। इससे केवल योग्य व्यक्ति को ही पुरस्कार नहीं मिलता बल्कि निम्नतम लोगों की क्षतिपूर्ति होती है। इसलिए रॉल्स का सिद्धांत ‘पुरस्कार का सिद्धात न होकर क्षतिपूर्ति का सिद्धांत है’। आर्थिक, सामाजिक स्तर पर राज्य को पुनर्वितरणात्मक योजना चाहिए। जिससे पूंजीपतियों को मिलने वाली आय का फायदा समाज के सबसे हीन वर्ग को भी मिलना चाहिए परन्तु यह एक हद व सीमा में ही पूंजीपतियों की आय का वितरण करे जिससे यह समृद्ध वर्ग के लिए ही खतरा न बन जाए।



परन्तु प्रश्न उठता है कि रॉल्स के सिद्धांत में विशेष प्रतिभावान लोग हीनतम लोगों के कल्याण के लिए कार्य क्यों करेंगे? रॉल्स सटीक रूप से कहते हैं कि समाज एक ‘चेन-व्यवस्था’ (Chain System) है जिसमें कि “कोई भी जंजीर अपनी सबसे कमजोर कड़ी से मजबूत नहीं होती”। इसलिए सामाजिक व्यवस्था को चलाने के लिए यह कार्य करना ही पड़ेगा। समाज-रूपी श्रृंखला को मज़बूत करने के लिए इसकी सबसे कमज़ोर कड़ी को मज़बूत करना जरूरी है। यह काम हो जाने के पश्चात् फिर सबसे कमजोर कड़ी को ढूंढ़कर यही प्रक्रिया दोहरानी होगी। जब तक समाज रहेगा, यह प्रक्रिया अनवरत् रूप से चलती रहेगी। जब तक समाज रहेगा यह प्रक्रिया निरंतर रूप से चलती रहेगी यही ‘न्यायपूर्ण समाज’ का प्रमाण होगा। इसे ही रॉल्स ने “निष्पक्षता के रूप में न्याय” का नाम दिया।



6.3. रॉल्स के सिद्धांत की सामान्य आलोचनाएं



कुछ विद्वान् रॉल्स के न्याय सिद्धांत की आलोचना विभिन्न आधारों पर प्रस्तुत करते हैं। जैसे वे कहते हैं कि रॉल्स ने भेदमूलक सिद्धांत को मानने का जो आधार (अधिकतम-न्यूनतम रणनीति) बताया है कि अज्ञानता का पर्दा उठने से पहले सभी अपनी स्थिति को लेकर चिंतित होते हैं कि कहीं उनकी एकमात्र जिंदगी संतोषजनक होगी या असंतोषजनक। इसलिए लोग सबसे हीनतम को फायदे के सिद्धांत को अपनाते हैं क्योंकि यदि वही हीनतम स्थिति में आते हैं तो उन्हें ज्यादा फायदा हो (Maximin Principle)। इसलिए रॉल्स के सिद्धांत को भी उपयोगितावाद से ज्यादा तार्किक नहीं माना जा सकता है। साथ ही यह हीनतम के छोटे-मोटे लाभों के ऊपर अमीरों के बड़े लाभों को मानेगा और इसको मान्यता देते हुए इसे आगे बढ़ाएगा।



ब्रायन बैरी (Brian Barry) भी कहते हैं रॉल्स सिर्फ भेदमूलक सिद्धांत के साथ सामने आते हैं। वह अज्ञानता के पर्दे की युक्ति का सहारा इसलिए लेते हैं क्योंकि वह भेदमूलक सिद्धांत को उत्पन्न कर सकें। इस कार्य के लिए वह मनोवैज्ञानिक कल्पनाओं का भी सहारा लेते हैं जो निराधार होती हैं इसलिए उन्हें ऐसा करने का कोई हक नहीं है।



रोनाल्ड ड्वोर्किन (Ronald Dworkin) ने रॉल्स के सामाजिक समझौते की युक्ति पर वैसी ही आलोचना दर्ज की है जैसी हाब्स, लॉक, रूसो तथा कांट की हुई थी। वह भी समझौते को काल्पनिक मानते हैं। साथ ही वह कहते हैं कि कोई भी काल्पनिक समझौता कभी भी किसी दायित्व के आज्ञापालन के लिए बाध्य नहीं कर सकता। ड्वोर्किन कहते हैं कि यह कहना सही नहीं हैं कि एक काल्पनिक सहमति वास्तविक समझौते का एक धुंधला रूप है बल्कि यह तो कोई समझौता ही नहीं है। प्राकृतिक अवस्था में स्वीकार किए गए किसी समझौते से हमारे बंधे होने के विचार का मतलब है कि



चूंकि पहले से ही पूछे जाने पर एक आदमी ने कुछ निश्चित सिद्धांतों पर सहमति दे दी होगी, इसलिए उस पर बाद में, अलग परिस्थितियों में, इन सिद्धांतों को लागू करना उचित है। उस स्थिति में भी ऐसा करना सही है, जब वह व्यक्ति नई परिस्थितियों में इन सिद्धांतों को मानने के लिए तैयार न हो। लेकिन यह एक बुरा तर्क है। मान लीजिये कि मैं सोमवार को अपनी पेंटिंग का मूल्य नहीं जानता था। उस समय यदि आप मुझे इसके लिए 100 डॉलर देते, तो मैं स्वीकार कर लेता। मंगलवार को मुझे पता चला कि यह मूल्यवान है। आप यह तर्क नहीं दे सकते हैं कि अदालतों के लिए यह उचित होगा कि वह मुझे बुधवार को इस बात के लिए मजबूर करें कि मैं अपनी पेंटिंग आपको 100 डॉलर में बेचूं। यह मेरा सौभाग्य हो सकता है कि आपने मुझसे सोमवार को मेरी पेंटिंग नहीं खरीदी, लेकिन यह बाद में पेंटिंग बेचने के सम्बन्ध में जबर्दस्ती करने को सही साबित नहीं करता (किमलिका द्वारा संदर्भित ड्वोर्किन की पुस्तक टेकिंग राइट्स सीरियसली (Taking Right Seriously) का अंश [किमलिका 2010:49])



किमलिका इस पर कहते हैं कि इसलिए सामाजिक समझौते का विचार या तो ऐतिहासिक रूप से बेतुका है (यदि यह वास्तविक सहमति पर आधारित है) या नैतिक रूप से गैर-महत्त्वपूर्ण है (यदि यह काल्पनिक सहमति पर आधारित है)।







6.4. रॉल्स के न्याय-सिद्धांत की आंतरिक समस्याएँ



रॉल्स की एक सफल आलोचना को उनके सिद्धांत के मूल आधार पर ही चोट करनी चाहिए इसलिए उनके सिद्धांत के मूल आधार सहजबोध पर टिके हुए तर्कों का परीक्षण करना आलोचकों का प्राथमिक कार्य होना चाहिए था, जो भेदमूलक सिद्धांत को आगे बढ़ाने का कारण बनते हैं। किमलिका भी कुछ ऐसा ही करते हैं। वह रॉल्स के सहजबोधों की आलोचना नहीं करते है बल्कि रॉल्स ने उन सहजबोधों (Intuitions) का जिस तरह से विकास किया है, उसमें निहित समस्याओं को ढूंढते हैं। किमलिका इसके दो मुख्य आधार बताते हैं।







6.4.1. प्राकृतिक असमानताओं के लिए मुआवजा देना



रॉल्स मानते हैं कि सामाजिक वस्तुओं (अधिकार, अवसर, संपत्ति व स्वतंत्रताएं) पर लोगों का दावा प्राकृतिक गुणों पर निर्भर न हो अर्थात् प्रतिभावान लोग अधिक आय के हकदार नहीं हैं। उन्हें केवल तभी वह आय लेनी चाहिए, जब यह हीनतम व्यक्तियों को लाभ पहुँचाए। इसलिए भेदमूलक सिद्धांत यह तय करने के लिए सबसे अच्छा सिद्धांत है कि प्राकृतिक गुणों का कोई अनुचित प्रभाव न हो। हीनतम व्यक्ति कौन हैं, रॉल्स इसे सामाजिक वस्तुओं पर लोगों के स्वामित्व से ही परिभाषित करते हैं। रॉल्स मानते हैं कि ऐसे दो लोग समान रूप से सुख की स्थिति में हैं जिनके पास सामाजिक प्राथमिक वस्तुएं समान मात्रा में हैं। किमलिका इस पर तर्क देते हैं कि उनमें से एक व्यक्ति अप्रतिभावान या शारीरिक तौर पर विकलांग या मानसिक रूप से कमजोर हो सकता है। इसलिए यह मुमकिन है कि प्राकृतिक कमी (विकलांगता सम्बन्धी बीमारी) के कारण उसका बीमारी पर इतना ज्यादा खर्च होता हो कि उसकी सामाजिक वस्तुएं उसके लिए कम पड़ें (अर्थात् बीमारी के इलाज या अपाहिजों के लिए विशेष उपकरणों आदि की जरूरत आदि के लिए खर्च)।



किमलिका प्रश्नचिन्ह लगाते हैं कि सामाजिक संस्थाओं के अन्दर न्याय का विश्लेषण करने के लिए हीनतम व्यक्ति को सामाजिक वस्तुओं के सन्दर्भ में ही क्यों परिभाषित किया जाए? यह शर्त रॉल्स के सहजबोध आधारित और समझौतावादी दोनों ही तर्कों से टकराती है क्योंकि यदि समझौता सिद्धांत की मूल स्थिति में सभी पक्षों की तार्किकता के कारण यह शर्त व्यर्थ सी लगती है। हर व्यक्ति इस बात को मानता है कि यदि वह अचानक अपाहिज हो जाए तो वह हीनतम स्थिति में होगा, भले ही उसके पास पहले की तरह सामाजिक वस्तुएं हों। ऐसे में क्या कोई भी पुरुष या स्त्री यह नहीं चाहेगा कि समाज उसके नुकसान को भी मान्यता दे?



सहजबोध आधारित तर्क भी इसी दिशा में संकेत करता है। ज़िन्दगी जीने के लिए प्राकृतिक वस्तुओं की समान रूप से जरूरत है। साथ ही, प्राकृतिक गुणों के वितरण में लोगों को जो गुण मिलते हैं, वह उसके लिए जिम्मेदार नहीं हैं, इसलिए इस कारण से लोगों का फायदे या नुकसान की स्थिति में होना गलत है। किमलिका कहते हैं कि रॉल्स का तर्क भ्रम में डालने वाला है। हम केवल तभी भेदमूलक सिद्धांत पर पहुँचते हैं, जब लाभ और नुकसान से हमारा अर्थ सामाजिक वस्तुओं के सन्दर्भ में लाभों या नुकसानों से हो। भेदमूलक सिद्धांत इसको सुनिश्चित करता है कि विशेष प्राकृतिक गुण संपन्न लोग सिर्फ प्राकृतिक गुणों के वितरण में अपनी मनमानी स्थिति के कारण अधिक सामाजिक वस्तुओं को हासिल न करें। साथ ही यह इस बात को भी सुनिश्चित करता है कि विकलांग लोग सिर्फ अपने स्थान के कारण सामाजिक वस्तुओं से वंचित न हों।



अत: भेदमूलक सिद्धांत यह तय कर सकता है कि मेरे पास सामाजिक वस्तुओं का वही समूह हो, जो एक अपाहिज व्यक्ति के पास हैं। लेकिन एक अपाहिज व्यक्ति को अतिरिक्त चिकित्सा और परिवहन के खर्च का सामना करना है। अपाहिज व्यक्ति संतोषजनक जिंदगी जीने की अपनी क्षमता में अनर्जित बोझ का सामना करता है। यह एक ऐसा बोझ होता है, जो उसके चुनावों के कारण नहीं, बल्कि उसकी परिस्थितियों के कारण है। भेदमूलक सिद्धांत इस बोझ को नहीं हटाता है। किमलिका कहते हैं कि रॉल्स अवसर की समानता के प्रचलित दृष्टिकोण के खिलाफ अपने ही तर्क के पूरे अर्थ को ही नहीं समझ सके हैं। सवाल यह है कि प्राकृतिक रूप से अपाहिज के रूप में जन्म लेने वाले लोगों के बारे में रॉल्स ऐसी चिंता क्यों नहीं दिखाते? अपाहिज लोगों द्वारा अपनी कमी के कारण भेदभाव न करने की मांगों में अतिरिक्त मुआवजे की मांग भी क्यों नहीं शामिल होनी चाहिए? सब्सिडी युक्त दवा, परिवहन, नौकरी का प्रशिक्षण आदि इस तरह के अतिरिक्त मुआवजे को अदा करने के विभिन्न तरीके हो सकते हैं।




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