चंद्रधर Sharma Guleri Ke Nibandh चंद्रधर शर्मा गुलेरी के निबंध

चंद्रधर शर्मा गुलेरी के निबंध



Pradeep Chawla on 10-10-2018

जब कैकेयी ने दशरथ से यह वर माँगा कि राम को वनवास दे दो तब दशरथ तिलमिला उठे, कहने लगे कि चाहे मेरा सिर माँग ले अभी दे दूँगा, किन्तु मुझे राम के विरह से मतमार। गोसाईं तुलसीदासजी के भाव भरे शब्दों में राजा ने सिर धुन कर लम्बी साँस भर कर कहा 'मारेसि मोहिं कुठाँउ‌' ‌- मुझे बुरी जगह पर घात किया। ठीक यही शिकायतहमारी आर्यसमाज से है। आर्यसमाज ने भी हमें कुठाँव मारा है, कुश्ती में बुरे पेच से चित पटका है।


हमारे यहाँ पूँजी शब्दों की है। जिससे हमें काम पड़ा, चाहे और बातों में हम ठगे गए पर हमारी शब्दों की गाँठ नहीं कतरी गई। राज के और धन के गठकटे यहाँ कई आये परशब्दों की चोरी (महाभारत के ऋषियों के कमलनाल की ताँत की चोरी की तरह) किसी ने न की। यही नहीं, जो आया उससे हमने कुछ ले लिया।


पहले हमें काम असुरों से पड़ा, असीरियावालों से। उनके यहाँ असुर शब्द बड़ी शान का था। असुर माने वाला प्राणवाला, जबरदस्त। हमारे इन्द्र को भी यही उपाधि हुई,पीछे चाहे शब्द का अर्थ बुरा हो गया। फिर काम पड़ा पणियों से - फि‌नीशियन व्यापारियों से। उनसे हमने पण धातु पाया, जिसका अर्थ लेन-देन करना, व्यापार करना है। एकपणि उनमें ऋषि भी हो गया, जो विश्वामित्र के दादा गाधि की कुर्सी के बराबर जा बैठा। कहते हैं कि उसी का पोता पाणिनि था, जो दुनिया को चकरानेवाला सर्वांगसुन्दरव्याकरण हमारे यहाँ बना गया। पारस के पार्श्वों या पारसियों से काम पड़ा तो वे अपने सूबेदारों की उपाधि क्षत्रप या छत्रपावन् या महाक्षत्रप हमारे यहाँ रख गए औरगुस्तास्य, विस्तास्य के वजन के कृश्वाश्व, श्यावाश्व, बृहदश्व आदि ऋषियों और राजाओं के नाम दे गये। यूनानी यवनों से काम पड़ा तो वे यवन की स्त्री यवनी तो नहीं,पर यवन की लिपि यवनानी शब्द हमारे व्याकरण को भेंट कर गये। साथ ही बारह राशियाँ मेष, वृष, मिथुन आदि भी यहाँ पहुँचा गये। इन राशियों के ये नाम तो उनकी असलीग्रीक शकलों के नामों के संस्कृत तक में हैं, पुराने ग्रंथकार तो शुद्ध यूनानी नाम आर, तार, जितुम आदि काम में लेते थे। ज्योतिष में यवन सिद्धांत को आदर सेस्थान मिला। वराहमिहिर की स्त्री यवनी रही हो या न रही हो, उसने आदर से कहा है कि म्लेच्छ यवन भी ज्योति:शास्त्र जानने से ऋषियों की तरह पूजे जाते हैं। अब चाहेवेल्युयेबल सिस्टम भी वेद में निकाला जाय पर पुराने हिंदू कृतघ्न और गुरुमार नहीं थे। सेल्युकस निकेटर की कन्या चन्द्रगुप्त मौर्य के जमाने में आयी,यवन-राजदूतों ने विष्णु के मंदिरों में गरुड़ध्वज बनाये और यवन राजाओं की उपाधि सोटर, त्रातर का रूप लेकर हमारे राजाओं के यहाँ आ लगी। गांधार से न केवल दुर्योधनकी माँ गांधारी आई, बालवाली भेड़ों का नाम भी आया। बल्ख से केसर और हींग का नाम बाल्हीक आया। घोड़ों के नाम पारसीक, कांबोज, वनायुज, बाल्हीक आये। शकों के हमलेहुए तो शाकपार्थिव वैयाकरणों के हाथ लगा और शक संवत् या शाका सर्वसाधारण के। हूण वंक्षु (Oxus) नदी के किनारे पर से यहाँ चढ़ आये तो कवियों को नारंगी उपमा मिलीकि ताजा मुड़े हुए हूण की ठुड्डी की‌-सी नारंगी। कलचुरी राजाओं को हूणों की कन्या मिली। पंजाब में वाहीक नामक जंगली जाति आ जमी तो बेवकूफ, बौड़म के अर्थ में(गौर्वाहीक:) मुहाविरा चल गया। हाँ, रोमवालों से कोरा व्यापार ही रहा, पर रोमक सिद्धान्त ज्योतिष के कोष में आ गया। पारसी राज्य न रहा पर सोने के सिक्के निष्कद्रम्भ (दिरहम) और दीनार (डिनारियस) हमारे भंडार में आ गये। अरबों ने हमारे 'हिंदसे' लिये तो ताजिक, मुथहा, इत्थशाल आदि दे भी गये, कश्मीरी कवियों को प्रेम अर्थमें हेवाक दे गए। मुसलमान आये तो सुलताना का सुरत्राण, हमीर का हम्मीर, मुगल का मुँगल, मसजिद का मसीति:, कई शब्द आ गये। लोग कहते हैं कि हिन्दुस्तान अब एक होरहा है, हम कहते हैं कि पहले एक था, अब बिखर रहा है। काशी की नागरी प्रचारिणी सभा वैज्ञानिक परिभाषा का कोष बनाती है। उसी की नाक के नीचे बाबू लक्ष्मीचन्दवैज्ञानिक पुस्तकों में नयी परिभाषा काम में लाते हैं। पिछवाड़े में प्रयाग की विज्ञान-परिषद् और ही शब्द गढ़ती है। मुसलमान आये तो कौन-सी बाबू श्यामसुन्दर कीकमिटी बैठी थी कि सुलतान को सुरत्राण कहो और मुगल को मुगल? तो कभी कश्मीरी कवि या गुजराती कवि या राजपूताने के पंडित सब सुरत्राण कहने लग गये। एकता तब थी कि अब?


बौद्ध हमारे यहीं से निकले थे। उस समय के वे आर्यसमाजी ही थे। उन्होंने भी हमारे भंडार को भरा। हम तो 'देवानां प्रिय' मूर्ख को कहा करते थे। उन्होंनेपुण्य-श्लोक धर्माशोक के साथ यह उपाधि लगाकर इसे पवित्र कर दिया। हम निर्वाण के माने दिये का बिना हवा के बुझना ही जानते थे, उन्होंने मोक्ष का अर्थ कर दिया।अवदान का अर्थ परम सात्विक दान भी उन्होंने किया।


बकौल शेक्सपीयर के जो मेरा धन छीनता है, वह कूड़ा चुराता है, पर जो मेरा नाम चुराता है वह सितम ढाता है, आर्यसमाज ने मर्मस्थल पर वह मार की है कि कुछ कहा नहींजाता, हमारी ऐसी चोटी पकड़ी है कि सिर नीचा कर दिया। औरों ने तो गाँव को कुछ न दिया, उन्होंने अच्छे-अच्छे शब्द छीन लिये। इसी से कहते हैं कि 'मारेसि मोहिंकुठाँउ'। अच्छे-अच्छे पद तो यों सफाई से ले लिये हैं कि इन पुरानी दुकानों का दिवाला निकल गया। लेने की देने पड़ गये।


हम अपने आपको 'आर्य' नहीं कहते, 'हिन्दू' कहते हैं। जैसे परशुराम के भय से क्षत्रियकुमार माता के लहँगों में छिपाये जाते थे वैसे ही विदेशी 'शब्द' 'हिन्दू' कीशरण लेनी पड़ती है और आर्यसमाज पुकार-पुकार कर जले पर नमक छिड़कता है कि हैं क्या करते हो? हिन्दू माने काला चोर, काफिर। अरे भाई कहीं बसने भी दोगे? हमारीमंडलियाँ भले, 'सभा' कहलावें, 'समाज' नहीं कहला सकतीं। न आर्य रहे न समाज रहा तो क्या अनार्य कहें और समाज कहें (समाज पशुओं का टोला होता है) ? हमारी सभाओं केपति या उपपति (गुस्ताखी माफ, उपसभापति से मुराद है) हो जावें किन्तु प्रधान या उपप्रधान नहीं कहा सकते। हमारा धर्म वैदिक धर्म नहीं कहलावेगा, उसका नाम रह गया है- सनातन धर्म। हम हवन नहीं कर सकते, होम करते हैं। हमारे संस्कारों की विधि संस्कार विधि नहीं रही, वह पद्धति (पैर पीटना) रह गयी। उनके समाज-मंदिर होते हैं,हमारे सभा-भवन होते हैं। और तो क्या 'नमस्ते' का वैदिक फिकरा हाथ से गया, चाहे जयरामजी कह लो, चाहे जयश्रीकृष्ण, नमस्ते मत कह बैठना। ओंकार बड़ा मांगलिक शब्दहै। कहते हैं कि यह पहले-पहल ब्रह्मा का कंठ फाड़कर निकला था। प्रत्येक मंगल-कार्य के आरम्भ में हिन्दू श्री गणेशाय नम: कहते हैं। अभी इस बात का श्रीगणेश हुआ है- इस मुहावरे का अर्थ है कि अभी आरम्भ हुआ है। एक वैश्य यजमान के यहाँ मृत्यु हो जाने पर पंडित जी गरुड़ पुराण की कथा कहने गये। आरम्भ किया, श्री गणेशाय नम:।सेठ जी चिल्ला उठे - 'वाह महराज! हमारे यहाँ तो ... और आप कहते हैं कि श्री गणेशाय नम:। माफ करो।' तब से चाल चल गयी है कि गरुड़पुराण की कथा में श्री गणेशाय नम:नहीं कहते हैं श्रीकृष्णाय नम: कहते हैं। उसी तरह अब सनातनी हिन्दू न बोल सकते हैं न लिख सकते हैं, संध्या या यज्ञ करने पर जोर नहीं देते। श्रीमद्-भागवत की कथाया ब्राह्मण-भोजन पर सन्तोष करते हैं।


और तो और, आर्यसमाज ने तो हमें झूठ बोलने पर लाचार किया। यों हम लिल्लाही झूठ न बोलते, पर क्या करें। इश्कबाजी और लड़ाई में सब कुछ जायज है। हिरण्यगर्भ के मानेसोने की कौंधनी पहने हुए कृष्णचन्द्र करना पड़ता है, 'चत्वारि श्रृंगा' वाले मंत्र का अर्थ मुरली करना पड़ता है, 'अष्ट-वर्षोष्टवर्षो वा' में अष्ट च अष्ट चएकशेष करना पड़ता है। शतपथ ब्राह्मण के महावीर नामक कपालों की मूर्तियाँ बनाना पड़ता है। नाम तो रह गया हिन्दू। तुम चिढ़ाते हो कि इसके माने होते हैं काला, चोरया काफिर। अब क्या करें? कभी तो इसकी व्युत्पत्ति करते हैं कि हि+इंदु। कभी मेरुतंत्र का सहारा लेते हैं कि 'हीनं च दूष्यत्येव हिन्दुरित्युच्यते प्रिये।' यहउमा-महेश्वर संवाद है, कभी सुभाषित के श्लोक 'हिंदवो विंध्यमाविशन्' को पुराना कहते हैं और यह उड़ा जाते हैं कि उसी के पहले 'यवनैरवनि: क्रांता' भी कहा है, कभीमहाराज कश्मीर के पुस्तकालय में कालिदास रचित विक्रम महाकाव्य में 'हिन्दूपति: पाल्यताम्' पद प्रथम श्लोक में मानना पड़ता है। इसके लिए महाराज कश्मीर केपुस्तकालय की कल्पना की, जिसका सूचीपत्र डाक्टर स्टाइन ने बनाया हो, वहाँ पर कालिदास के कल्पित काव्य की कल्पना कालिदास के विक्रम संवत् चलानेवाले विक्रम केयहाँ होने की कल्पना तथा यवनों से अस्पृष्ट (यवन माने मुसलमान! भला यूनानी नहीं) समय में हिन्दू पद के प्रयोग की कल्पना, कितना दु:ख तुम्हारे कारण उठाना पड़ताहै।


बाबा दयानन्द ने चरक के एक प्रसिद्ध श्लोक का हवाला दिया कि सोलह वर्ष से कम अवस्था की स्त्री में पच्चीस वर्ष से कम पुरुष का गर्भ रहे तो या तो वह गर्भ में हीमर जाय, या चिरंजीवी न हो या दुर्बलेंद्रिय जीवे। हम समझ गये कि यह हमारे बालिका-विवाह की ज़ड़ कटी नहीं, बालिकारभस पर कुठार चला। अब क्या करें? चरक कोई धर्मग्रंथ तो है नहीं कि जोड़ की दूसरी स्मृति में से दूसरा वाक्य तुर्की-बतुर्की जवाब में दे दिया जाय। धर्म-ग्रन्थ नहीं है, आयुर्वेद का ग्रंथ है इसलिए उसकेचिरकाल न जीने या दुर्बलेंद्रिय होकर जीने की बात का मान भी कुछ अधिक हुआ। यों चाहे मान भी लेते और व्यवहार में मानते ही हैं - पर बाबा दयानन्द ने कहा तो उसकीतरदीद होनी चाहिए। एक मुरादाबादी पंडित जी लिखते हैं कि हमारे परदादा के पुस्तकालय में जो चरक की पोथी है, उसमें पाठ है -


ऊनद्वादशवर्षायामप्राप्त: पंचर्विशतिम्।


लीजिए चरक तो बारह वर्ष पर ही 'एज आफ़ कंसेंट विल' देता है, बाबाजी क्यों सोलह कहते हैं? चरक की छपी पोथियों में कहीं यह पाठ न मूल में हैं, न पाठान्तरों में। नहुआ करे - हमारे परदादा की पोथी में तो है। इसीलिए आर्यसमाज से कहते हैं कि 'मारेसि मोहिं कुठाँउ'।






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Comments Soniya boyat on 09-11-2021

Nimn me se konsa nibandh guleri ji ka nahi he

Nibndh on 26-10-2019

Nibndh

Dhaneshwar Dewangan on 21-08-2018

Chandradhar dharma gulery likhit nibandha - khel nhi sikcha hai ko study karna hai.


Dhaneshwar Dewangan on 21-08-2018

Chandradhar sharma gulery likhit nibandha - khel bhi sikcha hee hai ko study karna hai.





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