Malvi Bhasha Ka Sahitya मालवी भाषा का साहित्य

मालवी भाषा का साहित्य



GkExams on 05-02-2019

मालवी भाषा और साहित्य



अपना घर- आँगन की बोलीहुन की तरफ ध्यान देवा की जरुरत है. मालवी का वास्ते घना परयास भोत जरूरी है.म. प्र. ग्रन्थ अकादमी, भोपाल से म्हारा सम्पादन में छपी मालवी भाषा और साहित्य पोथी में सन्त पीपाजी , सन्त सिंगाजी, आनन्दराव दुबे , बालकवि बैरागी, भावसार बा,नरहरि पटेल, मदनमोहन व्यास ,मोहन सोनी ,शिव चौरसिया ने दादा श्रीनिवास जोशी जी की रचना हुन सामल करी है. ई में दादा श्रीनिवास जोशी जी की चार गद्य रचना हुन 'धक्का को चमत्कार','राखोड्या' , 'नाना को नतीजो' ने 'सासू जी रीसाएगा' सामल है. इनी पोथी के भोपाल , इन्दोर ने उज्जैन -तीन यूनीवर्सिती में पढायो जई रियो है.
अपना ने सब मिली ने मालवी को मान बड़ानो है. मालवी को इतिहास सन 700 का एरे-मेरे से शुरू होए है. या वात म्हने पोथी मालवी भाषा और साहित्य में परमान का साथ राखी है.



Pradeep Chawla on 12-05-2019

पारा आवर्त सारणी के सबसे गैर भरोसेमंद तत्वों में से एक है। ये नाजुक है, बेपनाह खूबसूरत है लेकिन जानलेवा भी है।

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बीते जमाने में ये माना जाता था कि पारा ही वो पहला पदार्थ था जिसे अन्य धातुएं बनीं। लेकिन अब इसे लेकर नापसंदगी का आलम कुछ इस कदर बना है कि पारे के इस्तेमाल को रोकने एक अंतरराष्ट्रीय संधी अस्तित्व में आ गई।



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ये समझना आसान है कि पारे को लेकर ऐसी दीवानगी क्यों हैं। ये इकलौती ऐसी धातु है जो कमरे के सामान्य तापक्रम पर तरल अवस्था में मिल जाती है। और यह उन गिनी चुनी चीजों में शुमार है जो सबसे ज्यादा ललचाने वाली धातु सोना के साथ प्रतिक्रिया करता है। इस प्रक्रिया को देखना भी कम हैरतअंगेज नहीं है।



युनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ लंदन में केमेस्ट्री के प्रोफेसर एंड्रीय सेला सोने की एक कमजोर सी पत्ती को पारे की एक झिलमिलाती हुई बूंद के ऊपर रखा। मेरी आँखों के सामने ही सोना आहिस्ता-आहिस्ता खत्म होने लगा। नष्ट होने से पहले सोने की पत्ती किसी चादर की तरह पारे के उस सुनहरे से धब्बे के इर्द-गिर्द सिमट कर रह गई।



सेला कहते हैं, अब पारे से उसकी गंदगी साफ कर लीजिए। आप देखेंगे कि शुद्ध सोने के अवशेष रह गए हैं। यह सोने और पारे का अजीब सा रिश्ता है जो रसायनों के जानकारों को हमेशा से आकर्षित करता रहा है।

लेकिन सावधान।।।



पारा

सेला बताते हैं, पारा इन्सानों पर लंबे समय में असर करने वाला जहरीला धातु है। अन्य जीवों पर भी ये जहरीला है। इसलिए पर्यावरण में पारे की मौजूदगी एक गंभीर मुद्दा है। पर्यावरण में हरेक साल आने वाली पारे की आधी मात्रा ज्वालामुखी फटने से और अन्य भूगर्भीय प्रक्रियाओं से आती है। इसको लेकर हम कुछ भी नहीं कर सकते हैं।



लेकिन बची हुई आधी मात्रा के लिए इन्सान जिम्मेदार हैं। नवपाषाण काल से पारे के लाल, सिंदूरी अयस्क का इस्तेमाल रंगने के काम में लाया जा रहा है। बीते दौर के कलाकारों ने पारे का इस्तेमाल तस्वीरें बनाने के लिए किया। इसे तुर्की में स्थित गुफाओं की दीवारों पर बने विशाल जंगली जानवरों की तस्वीरों में देखा जा सकता है। ये जानवर अब लुप्त हो चुके हैं।



रोम के लोग पारे का इस्तेमाल खूबसूरती निखारने में किया करते थे। चीनी लोग इसका उपयोग रंग-रोगन के काम में करते थे जबकि मध्यकाल में पारे को मोम के साथ मिलाकर जरूरी कागजात पर मुहर लगाने के काम में इस्तेमाल करते थे। सदियों तक पारे के उपयोग दवाई में भी किया गया। यहाँ तक कि हाल तक पारा ऐंटीसेप्टिक, अवसादरोधक दवाईयों में भी प्रयोग में लाया जाता रहा है।



बुखार होने की सूरत में शरीर का तापमान नापने के लिए भी पारे वाले थर्मामीटर की जरूरत पड़ती रही है। दाँतों की भराई में भी पारा अछूता नहीं रह पायाय। पारे की कुछ मात्रा जो दवाओं और दाँतों की भराई के दौरान शरीर में रह जाती है, वह भी कुछ समुदायों में शव की अंत्येष्टि के बाद धुएँ में घुल जाता है।



ये सिलसिला फ्लूरेसेंट बल्ब में पारे की मौजूदगी तक चलता रहता है और इसी लिए पारे के साथ सावधानी से निपटने की जरूरत है। दाँतों की भराई और नष्ट किए गए फ्लूरेसेंट बल्ब इन्सानों की ओर से पर्यावरण में छोड़े गए पारे की दो हजार टन की मात्रा का एक हिस्सा ही है। पर्यावरण में मौजूद पारे की एक चौथाई मात्रा बिजली बनाने वाले कारखानों से आती है।



चिंताजनक स्थिति

कोयले का काला धुआँ उगलने वाले बिजली संयंत्र वातावरण में जो धुआँ छोड़ते हैं, उनमें पारे का अंश पाया गया है। इतना ही सोने के लिए लोगों की दीवानगी ने कोयला आधारित बिजली कारखानों से छोड़े जाने वाले पारे से भी ज्यादा मात्रा में उत्सर्जन किया है। यह पारे की कुल मात्रा का एक तिहाई से भी ज्यादा है।



दुनिया भर में लाखों लोग जो सोने के खनन के काम में लगे हुए हैं वे पारे का इस्तेमाल कर इस शुद्ध धातु का उसके अयस्क से अलग करते हैं और समस्या तब पैदा होती है जब पारे से शुद्ध धातु को अलग करने की कवायद शुरू की जाती है। बचे हुए पारे का निपटारा करना एक बहुत बड़ी चुनौती होती है। ये पानी में मिलने पर बेहद ही खतरनाक पदार्थ में बदल जाता है जिसे हम मिथाइल मरकरी कहते हैं।



इसे शैवाल और खारे पानी में पैदा होने वाली वनस्पतियाँ सहज से रूप से ग्रहण कर लेता है। इसे बड़े जानवर खाते हैं और फिर उसके बाद उससे भी बड़े जानवर और उसे सबसे आखिर में मनुष्य खा लेते हैं। इस प्रक्रिया में इस जहरीले रसायन का हमारी जिंदगी पर असर बढ़ा है और अजन्मे बच्चों और बच्चों के विकसित होते दिमाग पर गंभीर खतरे की आशंका व्यक्त की जा रही है।



पर्यावरण मामलों की जानकार डॉक्टर केट स्पेंसर कहती हैं, हमारी सबसे बड़ी चिंता आहार श्रृंखला के एक छोर पर स्थित मछली को लेकर है, खासकर स्वोर्डफिश और प्रिडेटर फिश जैसी प्रजातियों से जुड़ी है। लेकिन दुनिया की सभी सरकारें इस विचार से बहुत ज्यादा इत्तेफाक नहीं रखती हैं।



पर्यावरण पर पारे के प्रभावों को लेकर चिंताजनक स्थिति से निपटने के लिए अभी तक 93 देशों ने मिनामाटा संधि पर दस्तखत किए हैं। यह संधि पारे के प्रदूषण को रोकने की बात करती है और अमरीका ने भी इस पर दस्तखत किए हैं। सोने के खनन में पारे के इस्तेमाल को कम करने के अभियान से जुड़े क्रिस डेविस कहते हैं, सबसे अच्छी खबर ये है कि दुनिया पारे की आदत को कम करने के लिए साथ काम करने पर सहमत है।



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