Bharat Ke Vitarit Nyay Ke Record भारत के वितरित न्याय के रिकॉर्ड

भारत के वितरित न्याय के रिकॉर्ड



Pradeep Chawla on 31-10-2018

यह तय करना मानव-जाति के लिए हमेशा से एक समस्या रहा है कि न्याय का ठीक-ठीक अर्थ क्या होना चाहिए, और लगभग सदैव उसकी व्याख्या समय के संदर्भ में की गर्इ है। मोटे तौर पर उसका अर्थ यह रहा है कि अच्छा क्या है इसी के अनुसार इससे संबंधित मान्यता में फेर-बदल होता रहा है। जैसा कि डी.डी. रैफल का मत है, न्याय 'द्विमुख है, जो एक साथ अलग-अलग चेहरे दिखलाता है। वह वैधिक भी है और नैतिक भी। उसका संबंध सामाजिक व्यवस्था से है और उसका सरोकार जितना व्यकितगत अधिकारों से है उतना ही समाज के अधिकारों से भी है।... वह रूढि़वादी (अतीत की ओर अभिमुख) है, लेकिन साथ ही सुधारवादी (भविष्य की ओर अभिमुख) भी है।1

न्याय के अर्थ का निर्णय करने का प्रयत्न सबसे पहले यूनानियों और रोमनों ने किया (यानी जहाँ तक पाश्चात्य राजनीतिक चिंतन का संबंध है) यूनानी दार्शनिक अफलातून (प्लेटो) ने न्याय की परिभाषा करते हुए उसे सदगुण कहा, जिसके साथ संयम, बुद्धिमानी और साहस का संयोग होना चाहिए। उनका कहना था कि न्याय अपने कत्र्तव्य पर आरूढ़ रहने, अर्थात समाज में जिसका जो स्थान है उसका भली-भाँति निर्वाह करने में निहीत है (यहाँ हमें प्राचीन भारत के वर्ण-धर्म का स्मरण हो आता है)। उनका मत था कि न्याय वह सदगुण है जो अन्य सभी सदगुणों के बीच सामंजस्य स्थापित करता है। उनके अनुसार, न्याय वह सदगुण है जो किसी भी समाज में संतुलन लाता है या उसका परिरक्षण करता है। उनके शिष्य अरस्तू (एरिस्टोटल) ने न्याय के अर्थ में संशोधन करते हुए कहा कि न्याय का अभिप्राय आवश्यक रूप से एक खास स्तर की समानता है। यह समानता ;1द्ध व्यवहार की समानता तथा ;2द्ध आनुपातिकता या तुल्यता पर आधारित हो सकती है। उन्होंने आगे कहा कि व्यवहार की समानता से 'योग्यतानुसारी (कम्यूटेटिव) न्याय उत्पन्न होता है और आनुपातिकता से 'वितरणात्मक न्याय प्रतिफलित होता है। इसमेें न्यायालयों तथा न्यायाधीशों का काम योग्यतानुसार न्याय का वितरण होता है और विधायिका का काम वितरणात्मक न्याय का वितरण होता है। दो व्यäयिें के बीच के कानूनी विवादों में दण्ड की व्यवस्था योग्यतानुसारी न्याय के सिद्धांतों के अनुसार होना चाहिए, जिसमें न्यायपालिका को समानता के मध्यवर्ती बिंदु पर पहुँचने का प्रयत्न करना चाहिए और राजनीतिक अधिकारों, सम्मान, संपत्ति तथा वस्तुओं के आवंटन में वितरणात्मक

1ण् डी.डी. रैफेल, प्राब्लम्स आफ पालिटिकल फिलासफी, मैकमिलन, नर्इ दिल्ली, 1977, पृ. 165।

न्याय के सिद्धांतों पर चलना चाहिए। इसके साथ ही किसी भी समाज में वितरणात्मक और योग्यतानुसारी न्याय के बीच तालमेल बैठाना आवश्यक है। फलत: अरस्तू ने किसी भी समाज में न्याय की अवधारणा को एक परिवर्तनधर्मी संतुलन के रूप में देखा, जो सदा एक ही सिथति में नहीं रह सकती।

रोमनों तथा स्टोइकों (समबुद्धिवादियों) ने न्याय की एक किंचित भिन्न कल्पना विकसित की। उनका मानना था कि न्याय कानूनों और प्रथाओं से निसृत नहीं होता बलिक उसे तर्क-बुद्धि से ही प्राप्त किया जा सकता है। न्याय दैवी होगा और सबके लिए समान। समाज के कानूनों को इन कानूनों के अनुरूप होना चाहिए; तभी उनका कोर्इ मतलब होगा, अन्यथा नहीं। मानव-निर्मित कानून वास्तव में कानून हो, इसके लिए यह आवश्यक है कि वह इस कानून और प्राÑतिक न्याय की कल्पना से मेल खाए। इस प्राÑतिक न्याय की कल्पना का विकास सर्वप्रथम स्टोइकों ने किया था और बाद में उसे रोमन कैथोलिक र्इसार्इ पादरियों ने अपना लिया। इस न्याय की दृषिट में सभी मनुष्य समान थे। अपनी Ñति इन्स्टीच्यूटस में जसिटनियन तर्क-बुद्धि द्वारा विकसित या प्राप्त कानून तथा आम लोगों के कानून या आम कानून के बीच भेद किया।

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