संस्कार दो शब्दोंका मेल है सम+कार अतार्थ सम का मतलब सम्यक या अच्छा और कर का मतलब कृति या कार्य,इस प्रकार संस्कार यानि अच्छा कार्य I संस्कार का सामान्य अर्थ है-किसीको संस्कृत करना या शुद्ध करके उपयुक्त बनाना। किसी साधारण या विकृत वस्तु कोविशेष क्रियाओं द्वारा उत्तम बना देना ही उसका संस्कार है। वहीँ आध्यात्मिक अर्थ मेंमन, वचन, क्रम और शारीर को पाक पवित्र करना, हमारी प्रवृतियों और मनोवृतियों कोशुद्ध व सभ्य बनाना संस्कार होता है औरव्याहारिक अर्थ में सद्गुणों को बढ़ाना व दुर्गुणों को घटाना और अच्छी आदत लगाना वबुरी आदत छोड़ना संस्कार है I संस्कार से ही हमारा सामाजिक और आध्यात्मिक जीवनपुष्ट होता है और हम सभ्य कहलाते हैं। व्यक्तित्व निर्माण में संस्कारों कीमहत्वपूर्ण भूमिका होती है। संस्कार विरुद्ध आचरण असभ्यता की निशानी है।मनुष्य जन्म के समय विशुद्ध प्रकृति होता है , संस्कारमिलने से सस्कृति और विकार मिलने से उसमें विकृति आ जाती हैI इसप्रकार अच्छे-बुरेसंस्कार होने के कारण मनुष्य अपने जीवन में अच्छे-बुरे कर्म करता है, फिर इन कर्मों से अच्छे-बुरे नए संस्कार बनते रहतेहैं तथा इन संस्कारों की एक अंतहीन श्रृंखला बनती चली जाती है, जिससे मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण होता है।
व्याहारिक दृष्टि से संस्कार का अर्थ इस उदहारणसे भी समझा जा सकता है जैसे की केला खा कर छिलका फेंक देना एक साधारण कृति (कार्य)है, केला खा कर छिलका कूड़ेदान में फेंक देना प्रकृति है, केला खा कर छिलका सड़क पर में फेंक देना विकृति है और दुसरे व्यक्ति द्वाराकेला खा कर सड़क पर फेंका गया छिलका उठा कर कूड़ेदान में डालना संस्कृति है या यूँकहें की भूख लगना और खाना खाना प्रकृति है,दुसरे का खाना खाना विकृति है और भगवानको अर्पित करके खाना खाना संस्कृति हैI संस्कार पूर्णतया विरासत में मिलते है, बच्चेमाता-पिता से सबसे ज्यदा सीखते है फिर अपने गुरुजनों से और फिर अपने नजदीक के वातावरणऔर अपने दोस्तों से सीखते है Iबच्चे के पहले गुरू माता-पिता होते है अत: सर्वप्रथममाता-पिता को धर्म-स्वरूप व संस्कारी बनना चाहिए, जैसा कार्य माता-पिता करेंगेवैसा ही बच्चे करेंगे ;जैसे गुण आपके होंगे , बच्चे वैसा ही सीखेंगे I अच्छे बुरेकी पहचान का विवेक और उनमें अंतर समझने योग्य संस्कार बच्चे को उसके माता-पिता सेही मिलते है I
सामान्यत: माता-पिताकहते रहते है की बच्चे बिगड़ गए है, दोस्त,रिश्तेदार या उस जन-पहचान वाले ने बिगाड़दिया है लेकिन इससे माता-पिता का दोष कम नहीं हो जाता क्योंकि बच्चे को अच्छेसंस्कार देने का श्रेय माता-पिता को जाता है तो बच्चे में अच्छे संस्कार न होने कादोष भी उन्ही पर ही आता है I मैं माता- पिता के दृष्टिकोण से नहीं बच्चो के दृष्टिकोणसे बात करूं तो कई बार माँ-बाप बच्चों में संस्कार व अनुशासन इत्यादि सिखाने मेंइतने आगे निकल जाते है की हम अपना मूल उद्देश्य पूर्णतया भूल जाते है नतीजन डोरअधिक खिंच जाती है ,बच्चे में विद्रोही प्रवृति पैदा हो जाती है I अति हमेशा बुरीहोती है और अति से लाभ कम और हानि ज्यादा होती हैI इसलिए हमेशा माता-पिता को बच्चोंके साथ मित्रभाव व प्रेममय व्यवहार रखते हुए एक आदर्श प्रस्तुत करना चाहिए Iसंस्कार आदेश, निर्देश, प्रवचन या पठन-पाठन से नहीं आते और न ही तत्व-ज्ञान,कथा-कहानी या किसी लालच से आते है बल्कि संस्कार आपके द्वारा किए गए कार्यों व व्यवहारका अनुसरण करने से आते है जैसे आप बच्चे को बड़े-बुजर्गों चरणस्पर्श के संस्कार देनाचाहते हो तो यदि हम उसे ऐसा करने का कहेंगे तो दो-चार दिन करने के बाद छोड़ देगा ; लालचदिखाओगे तो उसकी मांग बढती जाएगी और एक विकार का रूप ले लेगी ; गुण-दोष समझोगे तोभी वे लगातार नहीं करेंगे और धीरे धीरे विद्रोही व्यवहार दिखाना शुरू कर देंगे I
बच्चे अपनेमाता-पिता के व्यवहार,रहन-सहन और उनके आचार-विचार से संकर ग्रहण करते है , जैसा व्यवहार आप करेंगे बच्चे उससे आगे व्यवहार करतेहै I जैसे आप बच्चे को बड़े-बुजर्गों चरणस्पर्श के संस्कार देना चाहते हो तो आपकोअपने बड़े-बुजर्गों के चरणस्पर्श करने होंगे, बच्चे आपको देखेंगे की आप दादा-दादीजीके चरणस्पर्श करते है तो वो स्वत: आप का अनुसरण करते हुए आप जैसा व्यवहार करनाशुरू कर देंगे और अपनी जीवनचर्या में स्थायी रूप में शामिल कर लेंगे I अत: संस्कारमौन रहकर आदर्श कृत्य करने से आते है I इसप्रकार माता-पिता को चाहिए की वे अपनेबच्चों के सामने आदर्श , मर्यादित ,सन्तुलित और प्रेममय जीवन व्यवहार प्रस्तुतकरते हुए अपने बच्चों को संस्कारवान बनाये I
अब कुछ चर्चा माता-पिता के दृष्टिकोण से भी करते है I कोई भीमाता-पिता ये नहीं चाहता की उनका बालक कष्ट में जीवनयापन करे, उसका बच्चासंस्कारहीन बन कर एक अपराधी जैसा जीवन जिए I इस संसार में तीन प्राणी ऐसे है जोआपकी निस्वार्थ उन्नति की कामना करते है- माता, पिता और गुरू I आज के भौतिकवादी वप्रतिस्पर्धा के युग में जहाँ संयुक्त परिवार की जगह एकल परिवार ने ले ली है,बच्चे दादा-दादी की बजाय किराये की आया की छत्र छाया में पल बढ़ रहे है तो बच्चोंका माता-पिता के प्रति लगाव व स्नेह कमहोना स्वाभाविक है I आज बच्चे संस्कार दादा-दादी की कहानियों से नहीं टेलीविजन केनाटकों से ले रहे है ऐसे में बच्चों को उचित वातावरण उपलब्ध करवाना जहाँ माता-पिताका दायित्व है वहीँ बच्चों को सस्ते व हल्के दोस्तों और साहित्य से दुरी बनातेहुए, विकृत साधनों से दूर रहते हुए अपने माता-पिता के सपनो को समझने का प्रयासकरना चाहिए तथा अपना भविष्य संस्कारों की सीडी बनाकर सफलता की मंज़िल तक पहुचनाचाहिए I युवाओं को संस्कारित कृत्य करते हुए स्वम को अपने समाज के योग्य बनाकर तन,मन और मस्तिष्क से स्वस्थ रहकर अपने माँ-बाप के प्रति अपने फर्ज़ को निभाएं, अपने वअपने परिवार के दुःख-शोक मिटा कर शांति और समृद्धि का रास्ता खोलें व अपने जीवन को सुखद तथा सुंदर बनाये I