Parmar Vansh Ki Vanshavali परमार वंश की वंशावली

परमार वंश की वंशावली



Pradeep Chawla on 18-10-2018

परमार का शाब्दिक अर्थ शत्रु को मारने वाला होता है। प्रारम्भ में परमारों का शासन आबू के आस-पास के क्षेत्रों तक ही सीमित था। प्रतिहारों की शक्ति के ह्रास के उपरान्त परमारों की राजनीतिक शक्ति में वृद्धि हुई।

आबू के परमार- आबू के परमार वंश का संस्थापक'धूमराज' था, लेकिन इनकी वंशावली उत्पलराज से प्रारम्भ होती है। पड़ौसी होने के कारण आबू के परमारों का गुजरात के शासकों से सतत् संघर्ष चलता रहा। गुजरात के शासक मूलराज सोलंकी से पराजित होने के कारण आबू के शासक धरणीवराह को राष्ट्रकूट धवल का शरणागत होना पड़ा। लेकिन कुछ समय बाद धरणीवराह ने आबू पर पुनः अधिकार कर लिया। उसके बाद महिपाल का 1002 ई. में आबू पर अधिकार प्रमाणित होता है। इस समय तक परमारों ने गुजरात के सोलंकियों की अधीनता स्वीकार कर ली। महिपाल के पुत्र धंधुक ने सोलंकियों की अधीनता से मुक्त होने का प्रयास किया। फलतः आबू पर सोलंकी शासक भीमदेव ने आक्रमण किया। धंधुक आबू छोड़कर धार के शासक भोज के पास चला गया। भीमदेव ने विमलशाह को आबू का प्रशासक नियुक्त किया। विमलशाह ने भीमदेव व धंधुक के मध्य पुनः मेल करवा दिया। उसने 1031 ई. में आबू में 'आदिनाथ' के भव्य मंदिर का भी निर्माण करवाया। धंधुक की विधवा पुत्री ने बसन्तगढ़ में सूर्यमंदिर का निर्माण करवाया व सरस्वती बावड़ी का जीर्णोद्धार करवाया।


कृष्णदेव के शासनकाल में 1060 ई. में परमारों और सोलंकियों के सम्बन्ध पुनः बिगड़ गए, लेकिन नाड़ौल के चौहान शासक बालाप्रसाद ने इनमें पुनः मित्रता करवाई। कृष्णदेव के पौत्र विक्रमदेव ने महामण्डलेश्वर की उपाधि धारण की। विक्रमदेव का प्रपौत्रधारावर्ष (1163-1219 ई.) आबू के परमारों का शक्तिशाली शासक था। इसने मोहम्मद गौरी के विरूद्ध युद्ध में गुजरात की सेना का सेनापतित्व किया। वह गुजरात के चार सोलंकी शासकों कुमारपाल, अजयपाल, मूलराज व भीमदेव द्वितीय का समकालीन था। उसने सोलंकियों की अधीनता का जुआ उतार फेंका। उसने नाडौल के चौहानों से भी अच्छे सम्बन्ध रखे। अचलेश्वर के मन्दाकिनी कुण्ड पर बनी हुई धारावर्ष की मूर्ति और आर-पार छिद्रित तीन भैंसे उसके पराक्रम की कहानी कहते हैं। 'कीर्तिकौमूदी' नामक ग्रंथ का रचयिता सोमेश्वर धारावर्ष का कवि था। उसके पुत्र सोमसिंह के शासनकाल में तेजपाल ने आबू के देलवाड़ा गाँव में 'लूणवसही' नामक नेमिनाथ का मंदिर अपने पुत्र लूणवसही व पत्नी अनुपमादेवी के श्रेयार्थ बनवाया। इसके पश्चात् प्रतापसिंह और विक्रम सिंह आबू के शासक बने। 1311 ई. के लगभग नाडौल के चौहान शासक राव लूम्बा ने परमारों की राजधानी चन्द्रावती पर अधिकार कर लिया और वहाँ चौहान प्रभुत्व की स्थापना कर दी।


मालवा के परमार- मालवा के परमारों का मूल उत्पत्ति स्थान भी आबू था। इनकी राजधानीउज्जैन या धारानगरी रही, मगर राजस्थान के कई भू-भाग-कोटा राज्य का दक्षिणी भाग, झालावाड़, वागड़, प्रतापगढ़ का पूर्वी भाग आदि इनके अधिकार में थे। मालवा के परमारों का शक्तिशाली शासक मुंज हुआ, वाक्पतिराज, अमोघ-वर्ष उत्पलराज, पृथ्वीवल्लभ, श्रीवल्लभ आदि उसके विरूद थे। मेवाड़ के शासक शक्तिकुमार के शासनकाल में उसने आहड़ को नष्ट किया और चित्तौड़ पर अधिकार कर लिया। उसने चालुक्य शासक तैलप द्वितीय को छः बार परास्त किया, मगर सातवीं बार उससे पराजित हुआ और मारा गया। राजामुंजको'कविवृष' भी कहा जाता था। 'नवसहसांक चरित' का रचयिता पद्मगुप्त और 'अभिधानमाला' का रचयिता हलायुध उसके दरबार की शोभा बढ़ाते थे।


मुंज के बाद सिन्धुराज और भोज प्रसिद्ध परमार शासक हुए। भोज अपनी विजयों और विद्यानुराग के लिए प्रसिद्ध था। भोज ने सरस्वती कण्ठाभरण, राजमृगांक, विद्वज्जनमण्डल, समरांगण, शृंगार मंजरी कथा, कूर्मशतक आदि ग्रंथ लिखे। चित्तौड़ में उसने 'त्रिभुवन नारायण' का प्रसिद्ध शिव मंदिर बनवाया, जो मोकल मंदिर के नाम से भी जाना जाता है, (1429 ई. में राणा मोकल द्वारा जीर्णोद्धार के कारण)। कुम्भलगढ़ प्रशस्ति के अनुसार नागदा में भोजसर का निर्माण भी परमार भोज द्वारा करवाया गया। उसने सरस्वती कण्ठाभरण नामक पाठशाला बनवाई। वल्लभ, मेरूतुंग, वररूचि, सुबन्धु, अमर, राजशेखर, माघ, धनपाल, मानतुंग आदि विद्वान उसके दरबार में थे।


भोज का उत्तराधिकारी जयसिंह भी एक योग्य शासक था। वागड़ का राजा मण्डलीक उसका सामन्त था। 1135 ई. के लगभग मालवा पर चालुक्य शासक सिद्धराज ने अधिकार कर लिया और परमारों की शक्ति ह्रासोन्मुख हो गई। तेरहवीं शताब्दी में अर्जुन वर्मा के समय मालवा पर पुनः परमारों का आधिपत्य स्थापित हुआ। मगर यह अल्पकालीन रहा। खिलजियों के आक्रमण ने मालवा के वैभव को नष्ट कर दिया और परमार भाग कर अजमेर चले गए।


वागड़ के परमार- वागड़ के परमार मालवा के परमार कृष्णराज के दूसरे पुत्र डम्बरसिंह के वंशज थे। इनके अधिकार में डूंगरपुर-बाँसवाड़ा का राज्य था, जिसे वागड़ कहते थे। अर्थूणा इनकी राजधानी थी। धनिक, कंकदेव, सत्यराज, चामुण्डराज, विजयराज आदि इस वंश के शासक हुए। चामुण्डराज ने 1079 ई. में अर्थूणा में मण्डलेश्वर मंदिर का निर्माण करवाया। 1179 ई. में गुहिल शासक सामन्तसिंह ने परमारों से वागड़ छीन कर वहाँ गुहिल वंश का शासन स्थापित कर दिया। अर्थूणा के ध्वस्त खण्डहर आज भी परमार काल की कला और समृद्धि की कहानी बयां करते हैं।






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Comments ZEESHAN RANDU on 06-07-2022

Hamara gotra hy Randu Panwar Rajput

Ajay Parmar on 18-05-2021

Parmar ke kul devi or devta ka kya naam hai or kha par hai

Shailesh Kumar Singh on 07-03-2021

Hmara gotra hai sandilya Rajput parmar


Ashish on 12-05-2019

Parmar vansawali

Rishabh parmar on 12-08-2018

Please tell me my Gotra





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