Sanyukt Van Prabandhan Kya Hai संयुक्त वन प्रबंधन क्या है

संयुक्त वन प्रबंधन क्या है



Pradeep Chawla on 12-05-2019











पहले से बिल्कुल हटकर अब 16 राज्यों में 15 हजार सामुदायिक समूह वन विभाग

के साथ मिलकर 15 लाख हेक्टेयर वनों का प्रबन्ध देख रहे हैं। संयुक्त वन

प्रबन्धन कार्यक्रम के तहत यह सम्भव हुआ है। इस कार्यक्रम को अक्सर

लोकोन्मुख वन प्रबन्धन की ओर पहला कदम माना जाता है।





संयुक्त वन प्रबन्धन कार्यक्रम लागू होने के सात वर्ष बाद भी यह विशेष

कारगर साबित नहीं हुआ है। राज्यों से मिल रहे संकेतों से यह पता चलता है कि

यह कार्यक्रम भी अन्य सरकारी कार्यक्रमों की तरह केवल दस्तावेज बनकर रह

गया है। सहभागिता और सतत विकास की अवधारणाओं पर आधारित होने के बावजूद

कार्यक्रम के तहत लोगों को अपनी सम्पदा का खुद प्रबन्ध करने का कोई अधिकार

मुश्किल से ही मिल पाया है। ऐसा मूल अवधारणा में किसी कमी की वजह से हुआ है

या इसका क्रियान्वयन ठीक तरह से नहीं होने से, यह कहना मुश्किल है। क्या

स्थिति में बदलाव आएगा? इस बारे में कार्यक्रम के समर्थकों का तर्क है कि

यह तो एक प्रक्रिया की शुरुआत मात्र है और 150 वर्षों से चली आ रही

प्रवृत्ति को बदलने में समय तो लगेगा ही। दूसरी ओर विरोधियों का कहना है कि

ये तर्क आँखों में धूल झोंकने के समान है। उनका कहना है कि यह कार्यक्रम

धन देने वाली अन्तरराष्ट्रीय एजेन्सी के दबाव में चलाया जा रहा है और इसका

उद्देश्य फिर से जंगलों को हरा-भरा करने और उत्पादों को सस्ते मूल्य पर

खरीदने के लिए चल रहे जनांदोलन का तोड़ना है।





इस लेख में संयुक्त वन प्रबन्धन की अवधारणा और उसके वास्तविक क्रियान्वयन

का अध्ययन किया गया है और सम्बद्ध साहित्य के साथ-साथ यह नवम्बर, 1996 से

मई, 1997 के बीच कर्नाटक और उड़ीसा में किए गए क्षेत्रीय अध्ययनों पर

आधारित है।





संयुक्त वन प्रबन्धन कार्यक्रम, 1988 की राष्ट्रीय वन नीति पर आधारित है

जिसमें जीविका के लिए गरीब ग्रामीणों के वन स्रोतों पर निर्भर रहने की बात

साफतौर पर स्वीकार की गई है। इस नीति में वनभूमि के विकास और उसके संरक्षण

में जन-सहभागिता के महत्व को स्वीकार किया गया है। पिछले 150 वर्षों से देश

का लगभग 23 प्रतिशत भौगोलिक भाग (3290 लाख हेक्टेयर), जिसे वन भूमि माना

जाता है, नियोजित और वैज्ञानिक वानिकी के बहाने सरकार के नियन्त्रण में है।

इस दौरान ध्यान केवल इमारती लकड़ी के उत्पादन और जरूरतों के अनुरूप उसके

शोषण पर ही रहा। वन भूमि पर उद्योगों की जरूरतों के अनुरूप पौधों की

किस्में लगाने को बढ़ावा दिया गया। इसके लिए मिश्रित जाति के वनों का कटाव

भी किया गया। 1947 में आजादी के बाद भी यह जारी रहा।





इससे वनों का ह्रास हुआ और ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी और बेरोजगारी बढ़ी।

वन सम्पदा पर अधिकार के मुद्दे को लेकर और स्थानीय समुदाय को आजीविका के

लिए लम्बे समय से चले आ रहे स्रोतों से अलग कर देने से सामाजिक संघर्ष

बढ़ा। वनों का ह्रास बिना रुके जारी रहा और वनों पर आधारित उद्योगों के

विकास से यह समस्या और बढ़ी। कृषि भूमि में कमी (वर्ष 1951 से 1980 के बीच)

2.623 मिलियन हेक्टेयर वन भूमि सरकारी तौर पर कृषि कार्य के लिए

स्थानांतरित की गई। अनाधिकृत कब्जों, विकास गतिविधियों के लिए वन भूमि का

प्रयोग और उद्योगों को वनों से कच्चा माल कम कीमत पर मिलते रहने से वनों के

ह्रास में और तेजी आई। यह काम गरीब ग्रामीणों के हितों को ताक पर रखकर

होता है। (अग्रवाल और सहगल, 1996: 1)।





वर्ष 1976 में वनों को संविधान की समवर्ती सूची में शामिल करके सरकार ने

वनक्षेत्र में आ रही कमी को रोकने का प्रयास किया। इससे वनों और वन्य जीवन

पर कानून बनाने का अधिकार केन्द्र सरकार के पास आ गया। वन संरक्षण की दिशा

में एक महत्त्वपूर्ण कदम 1980 में वन संरक्षण अधिनियम बनाकर उठाया गया। इस

अधिनियम से वनभूमि का प्रयोग गैर-वनीय कार्यों के लिए करने के पहले केन्द्र

सरकार की अनुमति लेना जरूरी हो गया। इससे वन भूमि के गैर-वनीय प्रयोगों के

लिए स्थानान्तरण पर कुछ हद तक रोक लगी लेकिन वनों का ह्रास जारी रहा। वर्ष

1980-85 के बीच हर वर्ष 47,300 हेक्टेयर वन समाप्त होते गए (अग्रवाल और

सहगल, 1996)





वनों पर बढ़ते हुए दबाव को कम करने के लिए गैर-वनीय भूमि पर एक सामाजिक

वानिकी कार्यक्रम शुरू किया गया। इसका उद्देश्य लोगों की आम जरूरतों को

पूरा करना था लेकिन इससे वांछित परिणाम नहीं मिल पाए। सामाजिक वानिकी

कार्यक्रम वन कर्मचारियों और वन उत्पादों का उपयोग करने वालों के बीच लम्बे

समय से चल रहे संघर्ष को रोकने में असमर्थ रहा। कई वन अधिकारियों ने वन

विभाग की कार्यप्रणाली पर प्रश्नचिन्ह लगाने शुरू कर दिए। अब उनकी समझ में

आने लगा कि किसी भी वानिकी कार्यक्रम की सफलता के लिए लोगों की सहभागिता

जरूरी है। (अग्रवाल और सहगल, 1996: 2)।





इस बीच यह सूचना मिलने लगी कि ग्रामीणों के कई समूह खुद आगे आकर अपने आसपास

के वनों को संरक्षण दे रहे हैं। उड़ीसा, दक्षिण बिहार, मध्य प्रदेश और

गुजरात में इस तरह के कई वन संरक्षक समूह हैं। पश्चिम बंगाल में तो कुछ

दूरदर्शी अधिकारियों ने आस-पास के समुदायों को वन प्रबन्धन के कार्य में

शामिल कर लिया। इसके परिणाम बहुत नाटकीय रहे।





इन्हीं सब सन्दर्भों में 1988 की राष्ट्रीय वन नीति तैयार की गई। इसमें

पर्यावरण सम्बन्धी मुद्दों को प्राथमिकता देने और स्थानीय लोगों की जरूरतों

को पूरा करने के साथ ही उनको वन प्रबन्धन में शामिल करने की बात कही गई।

इस नीति के अनुसार वनों का उद्योगों के लिए व्यावसायिक शेषण नहीं किया जा

सकता। भूमि एवं पर्यावरण संरक्षण के साथ ही स्थानीय लोगों की जरूरतों को

पूरा करने को भी इसमें महत्त्वपूर्ण माना गया। इस वन नीति में राजस्व कमाने

से अधिक प्राथमिकता पर्यावरण स्थिरता को दी गई (पैरा 2.2)। यह नीति एक ही

किस्म के वनों की जगह मिश्रित श्रेणी के वनों को बढ़ावा देती है। इस नीति

में व्यापार और निवेश के स्थान पर पारिस्थितिकी और लोगों की न्यूनतम

जरूरतों जैसे ईंधन-चारा उपलब्ध कराने तथा जनजातीय लोगों के वनों से जुड़ाव

पर ज्यादा जोर दिया गया (सक्सेना 1995: 13)।





नई नीति के पैरा 4.3 में कहा गया है कि जंगलों के नजदीक रहने वाले जनजातीय

और गरीब लोगों का जीवन वनों पर ही आधारित होता है अतः उनके अधिकारों और

हितों की रक्षा करनी चाहिए। चारे, ईंधन, वन उत्पाद और इमारती लकड़ी में

उनका पहला हक होना चाहिए। इस सबके बावजूद इन उद्देश्यों को हासिल करने के

लिए कोई ठोस पहल नहीं की गई।





नीति का क्रियान्वयन




आखिरकार 1988 की वन नीति जून, 1990 में पर्यावरण वन मन्त्रालय द्वारा

संयुक्त वन प्रबन्धन अवधारणा की घोषणा के बाद सही मायनों में क्रियान्वित

हुई। यह अवधारणा पश्चिम बंगाल में संयुक्त वन प्रबन्धन के सफल अनुभवों पर

आधारित थी। इसके अनुसार वनों को फिर से हरा-भरा बनाने के लिए काम कर रहे

ग्रामीण संगठनों को निर्धारित वन क्षेत्र से होने वाली आय में हिस्सा दिया

जाना चाहिए। (एम ओ ई एफ 1990, पैरा 4, 5)। योजना के अन्तर्गत लाभार्थियों

के अधिकारों और कर्तव्यों के बारे में एक समझौता ज्ञापन तैयार किया जाना

चाहिए और उस पर उनकी और राज्य सरकार दोनों की सहमति ली जानी चाहिए

(एमओइएफ,1990 पैरा 1, 7, 14)। इसके अलावा 1990 में सरकार द्वारा जारी

परिपत्र में विशेष तौर पर कहा गया है कि ह्रास होती वन भूमि के संरक्षण और

बचाव के लिए गैर-सरकारी संगठनों की अर्थपूर्ण सहभागिता ली जानी चाहिए

क्योंकि समुदाय को संगठित करने में उन्हें दक्षता हासिल होती है (पैरा 3)।

लेकिन परिपत्र में यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि ग्रामीण संगठनों को तैयार

करना किसकी जिम्मेदारी होगी और न ही इसमें इन संगठनों के वन प्रबन्धन में

भाग लेने सम्बन्धी किसी अधिकार की चर्चा है।







राष्ट्रीय नीति के सुझाव लचीले हैं और इस बात की जरूरत ह कि राज्य भी इसके

समानान्तर वन नीति तैयार करें और उसे खुद लागू करें। संयुक्त वन प्रबन्धन

कार्यक्रम देश भर के 16 राज्यों में लागू किया गया है। केवल केरल और

उत्तर-पूर्व के राज्यों में यह नहीं चल रहा है। ऐसा लगता है कि केरल भी अब

इस कार्यक्रम पर कार्य कर रहा है। उत्तर-पूर्व में ज्यादातर जंगलों पर

स्थानीय समुदाय का स्वामित्व है लेकिन देश के दूसरे भागों की तरह वहाँ

संयुक्त वन कार्यक्रम अपने मौजूदा रूप में लागू नहीं किया जा सकता है।

त्रिपुरा ने तो अपने अलग संयुक्त वन प्रबन्धन कार्यक्रम की घोषणा की है।

मेघालय और अरुणाचल प्रदेश में भी इसी दिशा में महत्त्वपूर्ण प्रगति की खबर

है।





वनों की किस्म और सामाजिक-आर्थिक आँकड़े राज्यवार अलग-अलग हैं। इसलिए

संयुक्त वन कार्यक्रम भी राज्यवार सहभागिता के लिए समूहों के चुनाव

(सोसायटी, कोऑपरेटिव या पंजीकृत अन्य संगठन) और उनको दिए जाने वाले

अधिकारों को लेकर कुछ अलग-अलग हैं। इसके बावजूद सबका उद्देश्य एक ही है।

सभी राज्यों द्वारा जारी आदेश के पहले भाग में नष्ट होती हुई वन-भूमि को

फिर से हरा-भरा बनाने और उसके विकास में सामुदायिक सहभागिता की बात पर बल

दिया गया है। उड़ीसा सरकार द्वारा जारी आदेश में इससे भी एक कदम आगे जाकर

वन प्रबन्धन को पूरी तरह लोगों को सौंपने तथा वन विभाग और लोगों के बीच

समान भागीदारी वाला कार्यक्रम बनाने की बात कहीं गई है।





अवधारणा में बदलाव




संयुक्त वन प्रबन्धन को वन विभाग के बाहर से भी पर्याप्त समर्थन मिला है

क्योंकि राजनीतिक रूप से भी यह एक उचित कदम है और इससे आम लोग प्रबन्धन की

मुख्य धारा में शामिल हो जाते हैं। यह कार्यक्रम वनों को फिर से तैयार करने

के तरीके में मौलिक परिवर्तन की बात करता है और वास्तव में यह एक आन्दोलन

की तरह है। इस अवधारणा में जो बदलाव आए हैं उन्हें संलग्न सारणी में

दर्शाया गया है:





अवधारणा में बदलाव


पहले

अब

केन्द्रीय प्रबन्धन

प्रबन्धन का विकेन्द्रीकरण

राजस्व पर ज्यादा जोर

स्रोतों पर ज्यादा जोर

उत्पादों पर जोर

सतत विकास पर बल

एक तरह के ही उत्पाद पर ध्यान

तरह-तरह के उत्पादों पर बल

बड़ी कार्ययोजना

सूक्ष्म कार्ययोजना

लक्ष्य पर बल

क्रियान्वयन पर बल

एकतरफा निर्णय

सहभागिता से निर्णय

दण्डात्मक नियम

स्वयं तैयार किए गए नियम

लोगों पर नियन्त्रण

लोगों को सुविधा

विभाग

लोगों का अपना संगठन

योजना में एकरूपता

विविधता पर बल

पूर्व निर्धारित उद्देश्य प्राप्त करना

आवश्यकता पर आधारित उद्देश्य

पूरे क्षेत्र का प्रबन्धन

चुने हुए क्षेत्र का प्रबन्ध

लकड़ी का उत्पादन

कई पदार्थों का उत्पादन

एक ही तकनीक

कई विकल्प

तय प्रक्रिया

तरह-तरह के प्रयोग और लचीलापन

पहले वृक्षारोपण

पहले सहभागिता और फिर हरा-भरा बनाना

वृक्ष की एक ही प्रजाति

कई प्रजातियाँ

स्रोत: राजू 1996






क्रियान्वयन में कमियाँ




देशभर में क्रियान्वयन पर नजर डालने पर पता चलता है कि अभी बहुत कुछ किया

जाना है हालाँकि कुछ जगह यह कार्यक्रम काफी सफल रहा है जैसे पश्चिम बंगाल

के मिदनापुर जिले में अराबारी में कार्यक्रम ने दिखा दिया है कि स्थानीय

समुदाय अपने गाँव के आस-पास के जंगलों को प्रभावी संरक्षण दे सकते हैं और

वन विभाग भी लोगों के साथ काम कर सकता है। संयुक्त वन प्रबन्धन कार्यक्रम

के प्रमुख सिद्धान्त हैं-





1. ह्रास होते हुए बड़े वन क्षेत्र को स्थानीय समुदाय की भागीदारी से फिर से हरा-भरा बनाया जा सकता है।





2. स्थानीय समुदाय वन संरक्षण और वन की उत्पादकता बढ़ाने में तब ही भाग

लेगा जब उन्हें प्रोत्साहन मिले और बाहर के लोगों को योजना से अलग रखा जाए।





कार्यक्रम का व्यवहारिक स्वरूप कुछ इस तरह से है-




1. ज्यादातर इलाकों में यह कार्यक्रम नष्ट होते हुए वन को फिर से हरा-भरा

बनाने और लगाए गए वृक्षों को जीवित रखने के उद्देश्य से ही चलाया जा रहा है

ताकि विभाग के उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सके।





2. हालाँकि कार्यक्रम में लकड़ी को छोड़कर दूसरे उत्पादों तक लोगों की खुली

पहुँच की बात कही गई है लेकिन ज्यादातर लक्ष्य वन विभाग द्वारा तय किए

जाते हैं। अधिकतर का उद्देश्य लकड़ी का उत्पादन बढ़ाना ही है।





3. स्थानीय समुदाय कार्यक्रम के अन्त में मिलने वाले लाभों के प्रति कोई

रुचि नहीं रखता। उन्हें तो सतत और दिनों के आधार पर उसके लाभ मिलने चाहिए

जिनमें ईंधन और चारा जैसी चीजें शामिल हों। लेकिन कार्यक्रम के अनुसार

लाभ-परियोजना क अन्त में दिया जाएगा।





वास्तव में इस कार्यक्रम का क्रियान्वयन भी अन्य सरकारी कार्यक्रमों की तरह

ही किया जा रहा है

जिनका ध्यान केवल सरकारी लक्ष्यों तक ही सीमित होता है। ग्रामीण समुदाय

गठित करने में भी यह साफ दिखाई देता है। किसी महत्त्वपूर्ण व्यक्ति के दौरे

या धन देने वाली किसी विदेशी संस्था के दल के आने या फिर किसी बड़े

अधिकारी के दौरे से पहले वन अधिकारी भाग-दौड़ करके वन समितियाँ तैयार करते

हैं और उन्हें वन सुरक्षा समिति (उड़ीसा) या ग्रामीण वन समिति जैसे नाम दिए

जाते हैं। संयुक्त वन प्रबन्धन का प्रमुख कार्य छोटी-छोटी योजनाएँ तैयार

करना है जिनमें ग्रामीण संस्थाएँ भाग ले सकें और जो लोगों की आवश्यकता के

अनुरूप हों।





लेकिन व्यवहार में राज्यों के वन विभाग आरम्भिक प्रक्रिया में अपना वर्चस्व

रखते हैं और योजना के मसौदे में समुदाय द्वारा स्रोतों के उपयोग और उनको

मिलने वाले लाभों के स्थान पर निवेश पर ज्यादा जोर होता है। वन विभाग अक्सर

कार्यक्रम के बजट, वेतन-भत्ते और दूसरी बातों की जानकारी उपलब्ध नहीं

कराते। वे अपने ढँग से वन लगाने का काम करते रहते हैं जबकि कार्यक्रम में

छोटी-छोटी योजनाओं पर जोर दिया गया है। वास्तव में यह कार्यक्रम कुछ जगह

शोषण का तरीका बन गया है। उड़ीसा में मयूरभंज जिले में कुटलिंग गाँव और

फूलवनी जिले के तलनदडाकला गाँव के लोगों ने किसी छोटी योजना का नाम सुना तक

नहीं है जबकि कागजों में यह योजना उनके सहयोग से बनाई जानी थी। कर्नाटक

में ग्रामीणों को पेड़ों की किस्म के बारे में अपनी पसन्द बताने की बात

कागजों में तो कही गई है लेकिन ग्रामीणों को इसका पता ही नहीं है। बाद में

योजना बनने और वृक्षारोपण का काम पूरा होने पर विभाग कर्मचारियों द्वारा

अपने मन से तैयार पेड़ों की सूची लोगों की ओर से योजना में शामिल कर दी

जाती है। लगभग सभी राज्यों में कार्यक्रम की लघु योजनाओं के दस्तावेज

अंग्रेजी में तैयार किए जाते हैं। इससे यदि कागजात मिल भी जाएँ तो ग्रामीण

उन्हें पढ़ नहीं सकते हैं। कार्यक्रम का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा ग्रामीण

संगठनों और वन विभाग के बीच एक समझौता-पत्र पर हस्ताक्षर होना है। कर्नाटक

के उत्तर-कन्नड़ गाँव में इस तरह के समझौते पर पहली बार हस्ताक्षर हुए।

लेकिन ग्रामीण संस्था के अध्यक्ष से एक खाली कागज पर हस्ताक्षर ले लिए गए

क्योंकि गाँव में मन्त्री को उद्घाटन के लिए आना था और इतना समय ही नहीं था

कि गाँव के लोगों को योजना की पूरी जानकारी दी जाए। गुजरात में वन विभाग

ग्रामीण संगठनों को मजदूरों की व्यक्तिगत संस्था की तरह देखता है और उनके

द्वारा योजना में किए गए कार्य के लिए मजदूरी देता है। यह कार्यक्रम की

भावना के बिल्कुल विपरीत है। कार्यक्रम में अपेक्षा की गई है कि विभाग

ग्रामीण संगठनों से सामूहिक रूप में सम्पर्क रखेगा न कि उन्हें व्यक्तिगत

मजदूर मानेगा (राजू 1997: 11)। कई जगह योजना का दुरुपयोग भी हुआ है जैसे कि

कर्नाटक के उत्तर-कन्नड़ जिले में ही वाशी और बेलंकेरी जिले में सीमान्त

किसानों की भूमि पर कब्जा करके कार्यक्रम के तहत पेड़ लगा दिए गए। लोगों की

सहभागिता की बात कागजों में उनकी संख्या गिनने तक रह गई और वनों के

वास्तविक प्रबन्ध में उनकी कोई भूमिका तय नहीं हो पाई।





राजस्व में वृद्धि






वन विभाग का जोर अभी भी लकड़ी का उत्पादन बढ़ाकर राजस्व में वृद्धि करने पर

है। यह एक ही तरह के पेड़ लगाने से स्पष्ट दिखाई देता है। प्राकृतिक रूप

से वनों का फिर से हरा-भरा होना सम्भव है और कई किस्म के पेड़ उगाने से

स्थानीय समुदायों की तरह-तरह की जरूरतें पूरी हो सकती है। बस इसके साथ एक

ही समस्या है कि प्राकृतिक रूप से वन के फिर से उत्पादक बनने में लम्बा समय

लगता है और वृक्षारोपण के बारे में सरकारी आँकड़े उपलब्ध नहीं हो पाते

हैं। शीशम और खास किस्म के वृक्ष लगाने से लोगों की राजमर्रा की जरूरतें

पूरी नहीं होती। इसलिए वे कार्यक्रम में भाग नहीं लेते हैं।





इसके अलावा संयुक्त वन प्रबन्धन कार्यक्रम केवल ह्रास होती हुई वन भूमि,

जहाँ कि वन 25 प्रतिशत से कम हो, में ही चलाया जाता है। यह 1988 की वन-नीति

का खुला उल्लंघन है। उत्तर कन्नड़ जिले में घोषित वन क्षेत्र 8262 वर्ग

किलोमीटर है। इससे केवल लोगों की भागीदारी कुल भूमि की एक प्रतिशत तक ही रह

गई है। ह्रास होती वन भूमि का प्रयोग स्थानीय समुदाय द्वारा अक्सर चारागाह

की तरह ही किया जाता है। एक ही तरह के पेड़ लगाने से उन्हें नुकसान होता

है।





संयुक्त वन प्रबन्धन कार्यक्रम के मसौदे में वनों के अन्तिम उत्पाद की

हिस्सेदारी पर जोर दिया गया है। जबकि स्थानीय समुदाय रोजमर्रा की जरूरतों

की पूर्ति चाहते हैं न कि अन्तिम उत्पादों की। चारे एवं ईंधन जैसी चीजें

गरीबों के लिए ज्यादा जरूरी हैं न कि 15-20 वर्षों बाद जंगल की लकड़ी में

हिस्सेदारी। कर्नाटक में तो सरकारी आदेश में कहा गया है कि दलालों से बचने

के लिए लोग ईंधन, चारा, पत्तियों की खाद आदि सरकारी डिपो से खरीदें। इस तरह

लोगों को उन्हीं चीजों के लिए पैसा देने के लिए मजबूर किया जा रहा है

जिन्हें बचाने के लिए वे योजना के तहत कार्य कर रहे हैं। इस तरह के कई और

उदाहरण हैं जिनसे कार्यक्रम की मूल भावना को ठेस पहुँचती है। वास्तव में

ऐसा एक भी गाँव ढूँढना मुश्किल है जहाँ लोग संयुक्त वन कार्यक्रम को सरकारी

कार्यक्रम न मानकर अपना कार्यक्रम मान रहे हों।





व्यवहार में वन विभाग का रुख अभी भी वही है जो पहले था। यह उड़ीसा के मामले

में स्पष्ट दिखाई देता है जहाँ स्थानीय समुदाय कई वर्षों से बिना किसी

बाहरी सहायता के अपने वनों की रक्षा कर रहे हैं जबकि राज्य सरकार इसी काम

के लिए स्वीडन की विकास एजेन्सी से धन लेने के लिए बातचीत कर रही है। अपनी

सफलता साबित करने के लिए झूठे वायदे करके घरेलू स्तर पर किए गए प्रयासों को

तोड़ने की कोशिश की गई है। एक गाँव में तो वन विभाग की योजना पर लोगों की

सहमति लेने के लिए गाँव में मुफ्त में टी-शर्ट्स दी गईं। गाँव को रंगीन

टेलीविजन दिया गया। 30 सितम्बर, 1996 को जारी एक सरकारी आदेश में तो

स्थानीय समुदायों की खुद की पहल से संरक्षित वनों को ‘ग्रामीण वन’ घोषित कर

दिया गया। आज हालत यह है कि वन विभाग के ऊपर से लेकर नीचे तक के अधिकारी

इस योजना से छुटकारा पाने की कोशिश में हैं। उनका कहना है कि यह

क्रियान्वित ही नहीं की जा सकती।





वैधानिक समर्थन




संयुक्त वन प्रबन्धन कार्यक्रम का एक और पहलू महत्त्वपूर्ण है। इसके किसी

भी प्रस्ताव को विधायी समर्थन प्राप्त नहीं है। इसके लिए बार-बार माँग की

जाती रही है लेकिन अभी ऐसा नहीं हुआ है। सरकार और वन विभाग लोगों की

सहभागिता को मानव संसाधन की तरह देखते हैं। वन विभाग को केवल सस्ते

उत्पादों की ही चिन्ता है और संयुक्त वन प्रबन्धन को वह इस बारे में अपना

उद्देश्य प्राप्त करने का साधन मानता है। कार्यक्रम के तहत लोगों की

भागीदारी को स्रोतों पर उनके अधिकार और उनके जीवन-स्तर में सुधार का जरिया

नहीं माना जाता। कुल मिलाकर संयुक्त वन प्रबन्धन लोगों को और अधिकार देने

का कार्यक्रम नहीं बन पाया है।





वन प्रबन्धन कार्यक्रम के तरीके गाँव के लोगों द्वारा खुद अलग से वन

संरक्षण में उनको मिलने वाले अधिकारों और ऐसा करने में अपनाई जाने वाले

प्रक्रिया से बिल्कुल भिन्न हैं। वनों को संरक्षित रखने के लिए सामुदायिक

पहल के कई उदाहरण अब उड़ीसा और बिहार से मिल रहे हैं। वहाँ गाँवों में

हजारों संगठन चार लाख हेक्टेयर से अधिक वनों को फिर से हरा-भरा बनाने में

लगे हैं। गुजरात, राजस्थान, कर्नाटक, मध्य प्रदेश और आन्ध्र प्रदेश

(अग्रवाल और सहगल, 1996) में भी छोटे स्तरों पर ऐसा हो रहा है। संयुक्त वन

प्रबन्धन कार्यक्रम का मुख्य सिद्धान्त यह है कि स्थानीय समुदाय अपने वनों

की रक्षा खुद कर सकते हैं। यह इन उदाहरणों से भी स्पष्ट है।





ग्रामीणों के ये समूह खत्म होते वनों और उससे पैदा हुई चारे, ईंधन और वन

उत्पादों की कमी से निपटने के लिए अपने आस-पास के वनों को फिर से हरा-भरा

बनाने में लगे हैं। ज्यादातर ये समूह उन इलाकों में काम कर रहे हैं जहाँ

लोग अभी भी आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से वनों पर निर्भर हैं और जहाँ जीविका

के लिए स्रोतों के सामुदायिक प्रबन्धन की परम्परा अब भी बनी हुई है। इन

लोगों ने वन संरक्षण का काम बिना किसी बाहरी मदद, सरकारी या गैर-सरकारी

सहायता के शुरू किया है और सफल प्रबन्धन की विलक्षण क्षमता दिखाई है। इन

लोगों ने लागत और लाभ को हर परिवार में बाँटने के लिए एक संस्थागत व्यवस्था

भी बनाई है। गतिविधियों पर नियन्त्रण और नियम तोड़ने वालों पर ग्राम सभाओं

द्वारा जुर्माना भी किया जाता है।





इन समूहों द्वारा तय नियम अलग-अलग हैं लेकिन कुल मिलाकर इन समूहों के सिद्धान्त और लक्ष्य इस प्रकार हैं-





-ईंधन के लिए लकड़ी इकट्ठा करने का स्थानीय लोगों का अधिकार। इसके लिए सूखी

टहनियाँ, गिरी हुई लकड़ी ली जा सकती है। लेकिन पेड़ नहीं काटे जा सकते।

कहीं-कहीं यह हफ्ते में एक बार और साल में दो बार निर्धारित दिनों में ही

किया जा सकता है। समिति के सदस्य जंगल में आकर इस पर नजर रखते हैं।





-गैर-लकड़ी उत्पादों जैसे फल, पत्तियाँ, गोंद, सब्जियाँ और तिलहन इकट्ठा करने का अधिकार





-कृषि के औजारों और घर बनाने के लिए लकड़ी की जरूरत पड़ने पर लोग स्थानीय

प्रबन्ध समिति से आवेदन करते हैं। समिति मामले की पूरी जाँच-पड़ताल करके

जरूरत के मुताबिक पेड़ों का आबंटन कर देती है। कभी-कभी इसके लिए मामूली

शुल्क लिया जाता है और वह राशि ग्रामीण विकास कोष में दे दी जाती है। लकड़ी

के लिए आवेदन देने और खास किस्म की लकड़ी को काटने के बारे में कड़े नियम

भी हैं।





-व्यावसायिक उपयोग के लिए पेड़ काटने की अनुमति नहीं है। प्रत्येक गाँववासी

का वनों की देख-रेख के कार्यक्रम में शामिल होना आवश्यक है। बारी-बारी से

एक-एक घर के सदस्य चौकीदारी का काम करते हैं उड़ीसा में इसे ‘घिंगा पाली’

और गुजरात में ‘वारा’ के नाम स जाना जाता है। कभी-कभी ग्रामीण अनाज इकट्ठा

करके चौकीदार का प्रबन्ध करते हैं।





-नियमों का उल्लंघन करने वाले ग्रामीणों और बाहर के लोगों पर जुर्माना किया जाता है।





यह सभी ग्रामीण संस्थाएँ पारदर्शिता, नियम, जागरुकता, पहल, विकास और

संतुष्टि के मापदण्डों पर खरी उतरती हैं। जरूरी है कि इन्हें स्वतन्त्र लोग

संस्थाओं के रूप में मान्यता दी जाए और इसके लिए सरकारी और गैर-सरकारी

संगठन दोनों ही आगे आएँ।





यदि वन विभाग और सरकार वनों को फिर से हरा-भरा बनाने में वास्तव में लोगों

की भागीदारी चाहती है तो क्षेत्रीय वास्तविकताओं और वन प्रबन्धन में

स्थानीय समुदायों के अनुभवों को मद्देनजर रखकर संयुक्त वन प्रबन्धन

कार्यक्रम के मूल स्वरूप में परिवर्तन करना होगा। नए स्वरूप में ग्रामीण

समुदाय को एक स्वतन्त्र इकाई मानना होगा न कि सरकारी विभाग का सहयोगी

मात्र, जिसकी जरूरत सिर्फ वन संरक्षण में होती हो।





इन ग्रामीण समुदायों को वन प्रबन्धन में स्वायतत्ता देनी होगी। इसका मतलब

है कि संयुक्त वन प्रबन्धन में वन विभाग की केन्द्रीय भूमिका जो आज है,

भविष्य में नहीं होगी। उसके स्थान पर लोगों को निर्णय लेने के अधिकार सहित

मुख्य भूमिका सौंपी जाएगी। वानिकी कार्यक्रमों का लक्ष्य केवल व्यावसायिक

उपयोग के लिए लकड़ी हासिल करने से बदल कर चारे, ईंधन जैसी लोगों की दैनिक

जरूरतों को पूरा करने वाला बनाना होगा। अन्ततः वन विभाग को कृषि और पशुपालन

विभागों की तरह केवल सलाहकार और सहायक एजेंसी की तरह ही काम करना होना।

केवल इसी तरीके से वनों को बचाया जा सकेगा। एक-दो अधिकारियों के व्यक्तिगत

प्रयोगों ने यह दिखा दिया है कि वन विभाग चाहे तो ऐसा कर सकता है।




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Comments Sneha on 12-05-2019

संयुक्त वन प्रबंधन क्या है?





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