मरुस्थलीकरण कई कारकों द्वारा प्रेरित है, मुख्य रूप से मानव द्वारा की जाने वाली वनों की कटाई के कारण, जिसकी शुरुआत होलोसिन (तकरीबन 10,000 साल पहले) युग में हुई थी और जो आज भी तेज रफ्तार से जारी है। मरुस्थलीकरण के प्राथमिक कारणों में अधिक चराई, अधिक खेती, आग में वृद्धि, पानी को घेरे में बन्द करना, वनों की कटाई, भूजल का अत्यधिक इस्तेमाल, मिट्टी में अधिक लवणता का बढ़ जाना और वैश्विक जलवायु परिवर्तन शामिल हैं[2].
रेगिस्तान को आसपास के इलाके के पहाड़ों से घिरे कम शुष्क क्षेत्रों एवं अन्य विषम भू-स्वरूपों, जो शैल प्रदेशों जो मौलिक संरचनात्मक भिन्नताओं को प्रतिबिंबित करते हैं, से अलग किया जा सकता है। अन्य क्षेत्रों में रेगिस्तान सूखे से अधिक आर्द्र वातावरण के एक क्रमिक संक्रमण द्वारा रेगिस्तान के किनारे का निर्माण कर रेगिस्तान की सीमा को निर्धारित करना अधिक कठिन बना देते हैं। इन संक्रमण क्षेत्रों में नाजुक, संवदेनशील संतुलित पारिस्थितिकी तंत्र हो सकता है रेगिस्तान के किनारे अक्सर सूक्ष्म जलवायु की पच्चीकारी होते हैं। लकड़ी के छोटे टुकड़े वनस्पति को सहारा देते हैं जो गर्म हवाओं से गर्मी ले लेते हैं और प्रबल हवाओं से जमीन की सुरक्षा करते हैं। वर्षा के बाद वनस्पति युक्त क्षेत्र आस-पास के वातावरण की तुलना में अधिक ठंडे होते हैं।
इन सीमांत क्षेत्रों में गतिविधि केंद्र पारिस्थितिकी तंत्र पर सहनशीलता की सीमा से परे तनाव उत्पन्न कर सकते हैं जिसके परिणामस्वरूप भूमि का क्षय होने लगता है। अपने खुरों के प्रहार से पशु मिट्टी के निचले स्तर को ठोस बनाकर अच्छी सामग्री के अनुपात में वृद्धि करते हैं और मिट्टी के अंतःस्त्रवण की दर को कम कर पानी और हवा द्वारा क्षरण को प्रोत्साहित करते हैं। चराई और लकड़ियों का संग्रह पौधों को कम या समाप्त कर देता है, जो मिट्टी को बांधकर क्षरण को रोकने के लिए आवश्यक है। यह सब कुछ एक खानाबदोश संस्कृति के बजाय एक क्षेत्र में बसने की प्रवृत्ति के कारण होता है।
रेत के टीले मानव बस्तियों पर अतिक्रमण कर सकते हैं। रेत के टीले कई अलग-अलग कारणों के माध्यम से आगे बढ़ते हैं, इन सभी हवा द्वारा सहायता मिलती है। रेत के टीले के पूरी तरह खिसकने का एक तरीका यह हो सकता है कि रेत के कण जमीन पर इस तरह से उछल-कूद कर सकते हैं जैसे किसी तालाब की सतह पर फेंका गया पत्थर पानी पूरी की सतह पर उछलता है। जब ये उछलते हुए कण नीचे आते हैं तो वे अन्य कणों से टकराकर उनके अपने साथ उछलने का कारण बन सकते हैं। कुछ मजबूत हवाओं के साथ ये कण बीच हवा में टकरा कर चादर प्रवाह (शीट फ्लो) का कारण बनते हैं। एक बड़े धूल के तूफान में टीले इस तरह चादर प्रवाह के माध्यम से दसियों मीटर बढ़ सकते हैं। बर्फ की तरह, रेत स्खलन, टीलों की खड़ी ढलानों से हवा के विपरीत नीचे गिरती रेत भी टीलों को आगे बढ़ाता है।
अक्सर यह माना जाता है कि सूखा भी मरुस्थलीकरण का कारण बनता है, हालांकि ई.ओ विल्सन ने अपनी पुस्तक जीवन का भविष्य, में कहा है कि सूखा के योगदान कारक होने पर भी मूल कारण मानव द्वारा पर्यावरण के अत्यधिक दोहन से जुड़ा है।[2] शुष्क और अर्द्धशुष्क भूमि में सूखा आम हैं और बारिश के वापस आने पर अच्छी तरह से प्रबंधित भूमि का सूखे से पुनरुद्धार हो सकता है। तथापि, सूखे के दौरान भूमि का लगातार दुरुपयोग भूमि क्षरण को बढाता है। सीमान्त भूमि पर वर्द्धित जनसंख्या और पशुओं के दबाव ने मरुस्थलीकरण को त्वरित किया है। कुछ क्षेत्रों में, बंजारों के कम शुष्क क्षेत्रों में चले जाने ने भी स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र को बाधित किया है और भूमि के क्षरण की दर में वृद्धि की है। बंजारे पारंपरिक रूप से रेगिस्तान से भागने की कोशिश करते हैं लेकिन उनके भूमि के उपयोग के तरीकों की वजह से वे रेगिस्तान को अपने साथ ला रहे हैं।
अपेक्षाकृत छोटे जलवायु परिवर्तन के परिणाम से वनस्पति के फैलाव में आकस्मिक परिवर्तन हो सकता है। 2006 में, वुड्स होल अनुसंधान केंद्र ने अमेज़न घाटी में लगातार दूसरे वर्ष सूखे की सूचना देते हुए और 2002 से चल रहे एक प्रयोग का हवाला देते हुए कहा है कि अपने मौजूदा स्वरूप में अमेज़न जंगल संभावित रूप से रेगिस्तान में बदलने के पहले केवल तीन साल तक ही लगातार सूखे का सामना कर सकता है।[3] ब्राजीलियन नैशनल इंस्टिट्यूट ऑफ अमेंज़ोनियन रिसर्च के वैज्ञानिकों में तर्क दिया है कि इस सूखे की यह प्रतिक्रिया वर्षावन (रेनफारेस्ट) को महत्वपूर्ण बिंदु की दिशा में धकेल रही है। यह निष्कर्ष निकाला गया है कि पर्यावरण में सीओ2 (CO2) होने के विनाशकारी परिणामों के साथ जंगल वृक्ष रहित बड़े मैदान (सवाना) या रेगिस्तान परिवर्तित होने में के कगार पर जा रहा है,[4] वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर (World Wide Fund for Nature) के अनुसार, जलवायु परिवर्तन और वनों की कटाई दोनों के संयोजन से मृत पेड़ सूखने लगते हैं और जंगल की आग में ईंधन का काम करते हैं।[5]
कुछ शुष्क और अर्द्ध-शुष्क भूमि फसलों के अनुकूल होती हैं लेकिन अत्यधिक आबादी के बढ़ते दबाव से या वर्षा में कमी होने से जो पौधे होते हैं, वे भी गायब हो सकते हैं। मिट्टी हवा के संपर्क में आती है और मिट्टी के कण उड़कर कहीं और एकित्रत होते हैं। ऊपरी परत का क्षरण हो जाता है। छाया हटने के बाद वाष्पीकरण की दर बढ़ने से नमक सतह पर आ जाता है। इससे मिट्टी की लवणता बढ़ती है जो पौधे के विकास को रोकती है। पौधों में कमी आने से क्षेत्र में नमी कम हो जाती है जो मौसम के स्वरुप को बदलती है जिससे वर्षा कम हो सकती है।
पहले की उत्पादक जमीन में अपकर्ष आना एक जटिल प्रक्रिया है। इसमें कई कारण शामिल हैं और यह विभिन्न मौसमों में अलग-अलग दरों में होती है। मरुस्थलीकरण सामान्य जलवायु प्रवृत्ति को सुखा की और बढ़ा सकता है या स्थानीय जलवायु में परिवर्तन आरंभ कर सकता है। मरुस्थलीकरण रैखिक या आसानी से बदले जाने वाली प्रवृत्ति में घटित नहीं होता है। रेगिस्तान अपनी सीमाओं पर अनियमित ढंग से धब्बे बनाकर बढ़ सकता है। प्राकृतिक रेगिस्तान से दूर के क्षेत्र खराब भूमि प्रबंधन के कारण जल्द ही बंजर भूमि, पत्थर या रेत में बदल सकते हैं। मरुस्थलीकरण का आस-पास उपस्थित रेगिस्तान से कोई सीधा संबंध नहीं है। दुर्भाग्य से, मरुस्थलीकरण से गुजर रहा कोई क्षेत्र जनता के ध्यान में तभी आता है जब वह उस प्रक्रिया से काफी हद तक गुजर चुका होता है। अक्सर पारिस्थितिकी तंत्र के पूर्व अवस्था या उसके अपकर्ष की दर की ओर संकेत करने के बहुत कम डाटा उपलब्ध होते हैं।
मरुस्थलीकरण पर्यावरण और विकास दोनों की समस्या है। यह स्थानीय वातावरण और लोगों के जीने के तरीके को भी प्रभावित करता है। यह वैश्विक स्तर पर जैव विविधता और मौसमी परिवर्तन पर प्रभाव डालता है और जल संसाधनों पर भी. इलाके का अपकर्ष सीधे मानवीय गतिविधियों से जुड़ी है और शुष्क क्षेत्रों के सतत विकास में बहुत बड़ी बाधा और बुरे विकास के लिए एक बहुत बड़ा कारण है।[6]
मरुस्थलीकरण की रोकथाम जटिल और मुश्किल है और तब तक असंभव है जब तक भूमि प्रबंधन की उन प्रथाओं को नहीं बदला जाता जो बंजर होने का कारण बनती हैं। भूमि का अत्यधिक इस्तेमाल और जलवायु में विभिन्नता समान रूप से जिम्मेवार हो सकती है और इनका जिक्र फीडबैक में किया जा सकता है, जो सही शमन रणनीति चुनने में मुश्किल पैदा करते हैं। ऐतिहासिक मरुस्थलीकरण की जांच विशेष भूमिका निभाती हैं जो प्राकृतिक और मानवीय कारकों में अंतर करना आसान कर देता है। इस संदर्भ में, जॉर्डन में मरुस्थलीकरण के बारे में हाल के अनुसंधान मनुष्य की प्रमुख भूमिका पर सवाल उठती है। अगर ग्लोबल वार्मिंग जारी रहा तो यह संभव है कि पुनर्वनरोपण परियोजनाओं जैसे मौजूदा उपाय अपने लक्ष्यों को हासिल नहीं कर पायें.
Rajasthan mein marusthalikaran ka Pramukh Karan Kaun sa nahin hai
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