abhigyaan शाकुन्तलम् Chaturth Ank ShLok अभिज्ञान शाकुन्तलम् चतुर्थ अंक श्लोक

अभिज्ञान शाकुन्तलम् चतुर्थ अंक श्लोक



Pradeep Chawla on 12-05-2019

अभिज्ञानशाकुन्तलम - चतुर्थ अÄï



(मूल पाठ, अनुवाद व व्याख्या : श्लोक 14-22)



शकुन्तला- (सख्यौ प्रति) हला, एष द्वयोयर्ुवयोर्हस्ते निक्षेप: (हला, एषा दुवेणं वो हत्थे णिक्खेवो)



शकुन्तला- (दोनों सखियों से) सखियों। यह (लता) तुम दोनों के हाथ में (अपनी) ध्रोहर (अमानत) के रूप में है।



सख्यौ- अयं जन: कस्य हस्ते समर्पित:। (इति वाष्पं विहरता) (अअं जणो कस्स हत्थे समपिपदो।)



दोनों सखियां- यह (हम) व्यकित किसके हाथ में छोडे़? (इस प्रकार (कहकर) दोनों आँसू बहाती हैं)



काश्यप- अनसूये, अलं रुदित्वा। ननु भवतीभ्यामेव सिथरीकर्तव्या शकुन्तला।



(सर्वे परिक्रामनित)



काश्यप- अनसूया रोओ मत। (रोना बंद करो) निस्संदेह तुम दोनों के द्वारा तो शकुन्तला ध्ैर्ययुक्त (व्याकुलता रहित) की जानी चाहिए। अर्थात तुम्हें तो शकुन्तला को ढांढस बंधना चाहिए।



(सब चारों ओर घूमते हैं)



शकुन्तला- तात, एषोटजपर्यन्तचारिणी गर्भमन्थरा मृगवध्ूर्यदा¿नघप्रसवा भवति, तदा मÞयं कमपि प्रियनिवेदयितृकं विसर्जयिष्यथ। (ताद, एषा उडअपज्जन्तचारिणी गव्भमन्थरा मअवहू जदा अणघप्पसवा होइ तदा मे कंपि पिअणिवेदइत्तअं विसज्जइस्सह।)



शकुन्तला- पिता जी, कुटिया के आस पास विचरण करने वाली, गर्भ के (भार से) कारण सुस्त (ध्ीमी, शिथिल) यह मृगी जब सकुशल बच्चे को जन्म दे दे तो (यह) शुभ समाचार देने वाले किसी को मेरे पास भेज दीजिएगा।



काश्यप- नेदं विस्मरिष्याम:।



काश्यप- (हम) यह नहीं भूलेंगे।



शकुन्तला- (गतिभंग रूपयित्वा) को नु खल्वेष निवसने मे सज्जते। (इति परावर्तते) (को णु ख्खु एसो निवसणे मे सज्जइ)।



शकुन्तला- (चलने में बाध का अभिनय करके) यह कौन मेरे वस्त्रा खींच रहा है।



(पीछे की ओर मुड़ती है)



काश्यप- वत्से,



यस्य त्वया व्रणविरोपणमिंंगुदीनां



तैलं न्यषिच्यत मुखे कुशसूचिवि(े।



श्यामाकमुषिटपरिवर्धितको जहाति



सो¿यं न पुत्राÑतक: पदवीं मृगस्ते।।14।।



अन्वय- यस्य कुशसूचिवि(े मुखे त्वया व्रणविरोपणम इंगुदीनां तैलं न्यषिच्यत, स: अयं श्यामाकमुषिटपरिवर्धितक: पुत्राÑतक: मृग: ते पदवीं न जहाति।



काश्यप- पुत्राी, जिसका मुख कुशा के नुकीले अग्रभाग से बिंध् जाने पर तुम्हारे द्वारा घाव को भरने वाला इंगुदी का तेल लगाया जाता था। वह यह सांवा (चावल) की मुटिठयों (को खिलाने) से बड़ा किया गया और (तुम्हारे द्वारा) पुत्रावत माना गया मृग तुम्हारे मार्ग को नहीं छोड़ रहा है।



व्याख्या- पतिगृह जाती हुर्इ शकुन्तला अचानक रूकावट का अनुभव करती है और पूछती है कि यह कौन है जो मेरे वस्त्रा को खींच रहा है? तब महर्षि काश्यप उससे कहते हैं कि- यह वही मृग है जिसे तुमने अपने पुत्रा के समान पाला है। माता के समान तुमने इसे अपनी मुटिठयों से इसे जंगली धन खिलाकर बढ़ा किया है। जब घास खाते हुए किसी नुकीले तिनके से इसका मुंह घावयुक्त हो जाता था तो तुम इसके घाव को ठीक करने के लिए इंगुदी का तेल लगाती थी। यही वह मृग मातृप्रेम के कारण तुम्हें जाने से रोक रहा है।



वस्तुत: आश्रम के प्रत्येक लता, पादप पशु पक्षी के प्रति शकुन्तला का अनूठा प्रेम है इसीलिए आश्रम में रहने वाली गर्भवती मृगवध्ू का प्रसव सकुशल हो जाने पर वह पिता काश्यप से यह शुभ समाचार देने के लिए किसी को भेजने का आग्रह करती है। वह वनज्योत्स्ना की देखभाल का उत्तरदायित्व भी अपनी दोनों सखियों अनसूया और प्रियंवदा को सौंप देती है।



इस श्लोक में स्वभावोकित अलंकार है। वसन्ततिलका छन्द प्रयोग हुआ है।



व्याख्यात्मक टिप्पणी



निक्षेप- इस शब्द का प्रयोग ध्रोहर के लिए होता है। जब कोर्इ वस्तु किसी के पास कुछ समय के लिए सुरक्षा के निमित्त रखी जाती है तो उसे निक्षेप कहते हैं। ध्रोहर की रक्षा बड़ी सावधनी से की जाती है क्योंकि यह दूसरे की सम्पत्ति होती है। इसे सुरक्षित लौटाने की चिन्ता रहती है। वस्तुत: यह उत्तरदायित्व बहुत महान होता है।



इंगुदी- यह एक विशेष प्रकार का जंगली पफल होता है। जिसका तेल लगाने से घाव ठीक हो जाते हैं।



श्यामाक- यह एक प्रकार का जंगली धन होता है जिसे सांवां भी कहते हैं। इसे बोया नहीं जाता यह वन में स्वयं उत्पन्न होता है।



समास



गर्भमन्थरा- गर्भेण मन्थरा (तृतीया तत्पुरूष)



अनघप्रसवा- अनघ: प्रसव: सस्या: सा (बहुव्रीहि)



व्रणविरोपणम- व्रणानाम विरोपणनम (तत्पुरूष)



कुशसूचिवि(े- कुशानाम सूचिमि: वि(े (तत्पुरूष)



श्यामाकमुषिटपरिवर्धितक:- श्यामाकानाम मुषिटमि: परिवर्धितक: (तत्पुरूष)



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शकुन्तला- वत्स किं सहवासपरित्यागिनीं मामनुसरसि। अचिरप्रसूतया जनन्या विना वर्धित एव। इदानीमपि मया विरहितं त्वां तातशिचन्तयिष्यति। निवर्तस्व तावत। (इति रुदती प्रसिथता) (वच्छ किं सहवासपरिच्चाइणिं मं अणुसरसि। अचिरप्पसूदाए जण्णीए विणा वडिढदो एव्व। दाणिं पि मए विरहिदं तुमं तादो चिन्तइस्सदि। णिवत्तेहि दाव।)



शकुन्तला- पुत्रा, (तुम्हारा) साथ छोड़कर जाने वाली मुझ शकुन्तला का पीछा क्यों कर रहे हो? अभी ही प्रसूत हुर्इ (मृत्यु को प्राप्त) माता के बिना (भी) पाले गए हो। इस समय भी मेरे से रहित हुए तुम्हें पिता जी पालेंगे तो लौट जाओ।



(ऐसा कहकर रोती हुर्इ प्रस्थान करती है)



काश्यप:-



उत्पक्ष्मणोर्नयनयोरुपरु(वृत्तिं



वाष्पं कुरू सिथरतया विरतानुबन्ध्म।



असिमन्नलक्षितनतोन्नतभूमिभागे,



मार्गे पदानि खलु ते विषमीभवनित।।5।।



अन्वय- उत्पक्ष्मणो: नयनयो: उपरू(वृत्तिम वाष्पम सिथरतया विरत- अनुबन्ध्म कुरु। अलक्षित-नत-उन्नत भूमिभागे असिमन मार्गे ते पदानि खलु विषमीभवनित।



अनुवाद- उफपर उठी हुर्इ पलकों वाले नेत्राों के व्यापार को (देखने की क्रिया) रोकने वाले आंसुओं (के प्रवाह) को ध्ैर्यपूर्वक रोको, (क्योंकि) न देखने के कारण नीची ऊँची भूमिभाग वाले इस मार्ग में तुम्हारे पैर वास्तव में लड़खड़ा रहे हैं।



व्याख्या- शकुन्तला जब पतिगृह जाती है तो वह तपोवन के सभी साथियों से विदा लेती है और स्नेह के कारण भावुक भी हो जाती है। इस श्लोक में यह बताया गया है कि न केवल मानव अपितु पशु भी उसके विरह से दु:खी है। एक मृग का बच्चा जिसे उसने पुत्रा के समान पाला था वह भी उसको जाने से रोक रहा है। यहाँ पर कवि ने यह बताने का प्रयास किया है कि हिरण के बच्चे का शकुन्तला को रोकने से यह प्रमाणित होता है कि शकुन्तला का पशु पक्षियों से कितना प्रेम था और वह (शकुन्तला) भी उनसे बिछुड़ते हुए कितनी रो रही है? उसके निरन्तर रोने से आंसुओं का प्रवाह इतना बढ़ गया है कि वह ठीक से देख नहीं पा रही और ऊँची-नीची भूमि पर उसके पैर लड़खड़ा रहे हैं। इसीलिए पिता काश्यप उससे कह रहे हैं कि तुम अपने आंसुओं को रोको जिससे कि तुम्हें रास्ता ठीक से दिखार्इ पड़े। इस प्रकार इस श्लोक में शकुन्तला की हिरण के बच्चे के प्रति ममता को दिखाया गया है।



इस श्लोक में काव्यलिंग अलंकार एवं वसन्ततिलका छन्द है।



समास



सहवासपरित्यागिनीम- सहवासं परित्यजतीति। ताम (बहुव्रीहि)



अचिरप्रसूतया- अचिरं प्रसूता इति अचिर प्रसूता तया। (बहुव्रीहि)



उत्पक्ष्मणो:- उदगतानि पक्ष्माणि ययो: तयो: (बहुव्रीहि)



विरतानुबन्ध्म- विरत: अनुबन्ध्: यस्य स: तम (बहुव्रीहि)



उपरु(वृत्तिम- उपरु(ा वृत्ति: येन स: तम (बहुव्रीहि)



अलक्षितनतोन्नतभूमिभागे- अलक्षित: नत: उन्नत: भूम्या: भाग: यसिमन स: तसिमन (बहुव्रीहि)



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शाÄर्õख:- भगवन, ओदकान्तं सिनग्धे जनो¿नुगन्तव्य इति श्रूयते। तदिदं सरस्तीरम। अत्रा संदिश्य प्रतिगन्तुमर्हति।



शाÄर्õख- भगवन, जल के किनारे तक (जलाशय, कुंआ बावड़ी आदि तक) प्रिय व्यकित का अनुगमन करना चाहिए (उसको छोड़ने उसके साथ जाना चाहिए) ऐसा सुना जाता है तो यह सरोवर का तट है। यहाँ सन्देश देकर (आप) वापस चले जाएं।



काश्यप:- तेन हीमां क्षीरवृक्षच्छायामाश्रयाम:। (सर्वे परिक्रम्य सिथता:)



काश्यप- तो हम इस पीपल की छाया में आश्रय लेते हैं।



(सब चारों ओर घूमकर खड़े हो जाते हैं)



काश्यप:- (आत्मगतम) किं नु खलु तत्राभवतो दुष्यन्तस्य युक्तरूपमस्माभि: संदेष्टव्यम।



(इति चिन्तयति)



काश्यप- (मन में) हमारे द्वारा आदरणीय दुष्यन्त के लिए उचित सन्देश क्या भेजा जाना चाहिए (दुष्यन्त के लिए जो अनुकूल हो वह सन्देश क्या होना चाहिए)



(इस प्रकार सोचते हैं।)



शकुन्तला- (जनानितकम) हला पश्य नलिनीपत्राान्तरितमपि सहचरमपश्यन्त्यातुरा चक्रवाक्यारटति दुष्करमहं करोमीति। (हला प्रेक्ख णलिणीपत्तन्तरिदं वि सहअरं उदेक्खन्ती आदुरा चक्कवार्इ आरडदि दुक्करं अहं करोमित्ति)



शकुन्तला (कान में, हाथ से ओट करके)- सखी, (इध्र) देखो कमलिनी के पत्ते से छिपे हुए साथी को न देखने के कारण व्याकुल चकवी चिल्ला रही है। मैं कठिन कार्य कर रही हंू (क्योंकि मैं पति के बिना भी जीवित हंू)



अनसूया- सखि, मैवं मन्त्रायस्व।



एषापि प्रियेण विना गमयति रजनी विषाद दीर्घतराम।



गुर्वपि विरहदु:खमाशाबन्ध्: साहयति।।16।।



(सहि, मा एव्वं मन्तेहि।



एसा वि पिएण विणा गमेर्इ रअणिं विसाउदीहअरं।



गरूअं पि विरहदुक्खं आसाबन्धे सहावेदि।।)



अनसूया- सखी, ऐसा मत कहो (सोचो)



अन्वय- एषा अपि प्रियेण विना विषाद दीर्घतरां रजनीं गमयति। आशाबन्ध्: गुरू अपि विरहदु:खं साहयति।



अनुवाद- यह (चकवी) भी अपने प्रिय के बिना दु:ख के कारण विशाल (प्रतीत होने वाली) रात्रि बिताती है, (क्योंकि) आशा का बन्ध्न विरह के महान कष्ट को भी सहन करवाता है।



व्याख्या- शकुन्तला को विदा करने के लिए जब आश्रम के सभी लोग जाते हैं तो शाÄर्õख कण्व Íषि से कहते हैं कि आप जलाशय तक ही चलें क्योंकि शास्त्राों में कहा गया है कि प्रियजनों को छोड़ने के लिए जल तक अर्थात सरोवर, कुएं नदी या बावड़ी तक ही साथ जाना चाहिए। यह शुभ माना जाता है। इसलिए सरोवर आ जाने पर शाÄर्õख काण्व मुनि को वापस जाने को कहता है तब काण्व Íषि राजा दुष्यन्त के लिए ऐसा संदेश भेजना चाहते हैं जो राजा के योग्य भी हो और उनके वक्तव्य को भी प्रकट करने वाला हो। तभी शकुन्तला देखती है कि एक चकवा कमलिनी के पत्ते की ओट में छिपा है और उसे न देख सकने के कारण चकवी उसके विरह में तड़प रही है। यह सब देखकर शकुन्तला कहती है कि यह चकवी तो इतनी सी देर के लिए भी अपने प्रिय का विरह सहन नहीं कर पार्इ और एक मैं हूं जो अपने पति से इतने समय से इतनी दूर रहने पर भी प्राण धरण कर रही हंू। वास्तव में मैं बहुत कठिन कार्य कर रही हंू। यह सुनकर अनसूया कहती है कि ऐसी बात नहीं है क्योंकि यह चकवी भी प्रत्येक रात्रि अपने प्रियतम चकवे के बिना व्यतीत करती है जो रात विरह के दु:ख से और भी लम्बी प्रतीत होती है परन्तु यह भी प्राणों का त्याग नहीं करती क्योंकि उसे आशा है कि प्रात:काल वह अपने प्रिय से पुन: मिलेगी। आशा का बन्ध्न महान से महान दु:ख भी सहन करवा देता है। यह बात शकुन्तला को समझाते हुए अनसूया कहती है कि व्यकित को कितने भी बड़े से बड़े कष्ट का सामना क्यों न करना पड़े। वह कितनी भी विशाल विपत्ति एवं दु:ख से क्यों न घिर जाए भविष्य में उस कष्ट से मुकित की आशा का बन्ध्न उस दु:ख को सहन कराने की शकित प्रदान करता ही है। इसीलिए शकुन्तला ने भी पति मिलन की आशा से उसके विरह का जो दु:ख सहन किया वह अब दूर हो जाएगा। अनसूया पिफर कहती है कि तुम्हारा यह कहना कि मैं दुष्कर कर्म कर रही हूं यह सोचना ठीक नहीं। अभिप्राय यह है कि तुम्हारा प्रिय से मिलन अत्यन्त निकट है अत: दु:खी न होकर इसी आशा में तुम्हें इस विरह वेदना को सहन कर लेना चाहिए।



इस श्लोक में अर्थान्तरन्यास अलंकार एवं आर्या छन्द का प्रयोग है।



व्याख्यात्मक टिप्पणी



आत्मगतम- यह नाटयसाहित्य का परिभाषिक शब्द है। इसका लक्षण है- अश्राव्यं स्वगतं मतम। अर्थात जो बात रंगमंच पर सबको सुनाने योग्य नहीं होती उसे स्वगतम अथवा आत्मगतम कहते हैं। इसमें रंगमंच का कोर्इ पात्रा अपने मन के भावों को प्रकट करने के लिए दूसरे पात्राों की तरपफ से मुंह पफेरकर इस तरह बात करता है कि दर्शक तो सुन लें परन्तु रंगमंच पर सिथत अन्य पात्रा न सुन पाएं। स्वगतम या आत्मगतम वस्तुत: पात्रा की मानसिक भावनाओं को प्रकट करता है।



समास



ओदकान्तम-उदकस्य अन्त: उदकान्त:, आ उदकान्ताम ओदकान्तम (अव्ययी भाव समास)



विषाददीर्घतराम- विषादेन दीर्घतरा या सा ताम (बहुव्रीहि)



आशाबन्ध्- आशाया: बन्ध्:। (षष्ठी तत्पुरूष)



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काश्यप:- शाÄर्õख, इति त्वया मद्वचनात स राजा शकुन्तलां पुरस्Ñत्य वक्तव्य:।



काश्यप- शाÄर्õख, शकुन्तला को आगे करके यह तुम्हारे द्वारा मेरी तरपफ से उस राजा से कहा जाना चाहिए।



शाÄर्õख- आज्ञापयतु भवान।



शाÄर्õख- आप आज्ञा दीजिए।



काश्यप:



अस्मान्साध्ु विचिन्त्य संयमध्नानुच्चै: कुलं चात्मन-



स्त्वÕयस्या: कथमप्यबान्ध्वÑतां स्नेहप्रवृत्तिं च ताम ।



सामान्यप्रतिपत्तिपूर्वकमियं दारेषु दृश्या त्वया



भाग्यायत्तमत: परं न खलु तद्वाच्यं वध्ूबन्ध्ुभि: ।।17।।



अन्वय- संयमध्नान अस्मान च आत्मन: उच्चै: कुलम त्वयि अस्या: स्नेहप्रवृत्तिम कथम अपि अबान्ध्वÑताम च ताम साध्ु विचिन्त्य इयम त्वया दारेषु सामान्यप्रतिपत्ति पूर्वकम दृश्या अत: परम भाग्य-आयत्तम तद वध्ू बन्ध्ुभि: खलु न वाच्यम।



काश्यप- संयम रूपी ध्न वाले हमारा और अपने उफंचे कुल का, तुम्हारे प्रति इसका प्रेम व्यापार किसी भी प्रकार बन्ध्ु-बान्ध्वों द्वारा नहीं करवाया गया है उसके विषय में भली प्रकार सोच कर यह (शकुन्तला) तुम्हारे द्वारा अपनी सित्रायों में समान रूप से आदरपूर्वक देखी जानी चाहिए। उससे अधिक भाग्य के अध्ीन है। वह वध्ू के सम्बनिध्यों द्वारा निशिचत रूप से नहीं कहा जाना चाहिए।



व्याख्या- इस श्लोक में काण्व Íषि दुष्यन्त के लिए अपना संदेश भेजते हुए कह रहे हैं हमारा संयम ही ध्न है अर्थात अपने सांसारिक विषयों से अपने आप को दूर रखा है और अपनी इनिद्रयाें को वश में किया है इसलिए अब हमारे पास संयम रूपी ध्न ही है और तुम तो राजा हो उच्च कुल से सम्बन्ध् रखते हो इसलिए तुम सभी भौतिक विषयों से सम्पन्न हो। हम लोग तो तपस्वी हैं अत: शकुन्तला को दहेज आदि के रूप में देने के लिए हमारे पास किसी भी प्रकार की कोर्इ ध्न सम्पत्ति नहीं है। कहने का तात्पर्य यह है कि तुम अपने उच्च एवं गौरवशाली कुल पुरूवंश की मर्यादा को èयान में रखते हुए हमसे किसी भी प्रकार से दहेजादि की इच्छा न रखना क्योंकि पुरूवंशियों ने हमेशा ही तपसिवयों का आदर किया है। अत: तुम्हें भी हमारी भावनाओं का आदर करना चाहिए।



इसके अतिरिक्त जो तुमने शकुन्तला से स्वाभाविक रूप से प्रेमविवाह किया उसमें भी किसी के भी बन्ध्ुबान्ध्वों की भूमिका नहीं थी तुमने स्वतन्त्रा रूप से यह निर्णय लिया तुम्हें किसी ने विवश नहीं किया। इस सम्बन्ध् को अपनी सहमति से बनाया है इसलिए अब तुम्हें इसका (शकुन्तला) वैसे ही आदर सम्मान करना है जिस प्रकार तुम अपनी विधिपूर्वक विवाहित रानियों का करते हो। तुम्हें इसे भी सबके समान आदरभाव एवं गौरव प्रदान करते हुए ही देखना चाहिए।



इससे अधिक सब भाग्य के अध्ीन है और वध्ू के सम्बनिध्यों द्वारा इससे अधिक कहा जाना अच्छा नहीं लगता। कहने का अभिप्राय यह है शकुन्तला के भाग्य में यदि महारानी बनना है तो वह बनेगी परन्तु हमारा आपसे उसे महारानी बनाने के लिए कहना उचित प्रतीत नहीं होता।



इस श्लोक मे अप्रस्तुत प्रशंसा अलंकार एवं शादर्ूलविक्रीडित छन्द का प्रयोग हुआ है। इसमें लोक व्यवहार की दृषिट, एक पुत्राी के पिता की जो मानसिक सिथति होती है उसका सुन्दर चित्राण किया गया है।



इस अंक के सर्वश्रेष्ठ श्लोक चतुष्टय का यह दूसरा श्लोक है।



समास



संयमध्नान - संयम एव ध्नं येषाम ते संयमध्ना: तान (बहुव्रीहि)



स्नेहप्रवृत्तिम - स्नेहस्यं प्रवृत्तिम (तत्पुरूष)



सामान्यप्रतिपत्तिपूर्वकम - सामान्या प्रतिपत्ति: सामान्यप्रतिपत्ति: (कर्मधरय) सा पूर्वा यसिमन तत (बहुव्रीहि)



अबान्ध्वÑताम - न बान्ध्वै: Ñताम (न×ा तत्पुरूष)



भाग्यायत्तम - भाग्ये आयत्तम (सप्तमी तत्पुरूष)



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शाÄर्õख: - गृहीत: सन्देश:।



शाÄर्õख - आपका सन्देश ग्रहण कर लिया गया है।



काश्यप: - वत्से त्वमिदानीमनुशासनीया¿सि। वनौकसो¿पि सन्तो लौकिकज्ञा वयम।



काश्यप - पुत्राी अब तुम्हें भी शिक्षा देनी है। वनवासी होते हुए भी हम लौकिक व्यवहारों को जानते हैं।



शाÄर्õख: - न खलु ध्ीमतां कशिचदविषयो नाम।



शाÄर्õख - निश्चय ही विद्वानों के लिए कुछ भी अज्ञात नहीं है।



काश्यप: - सा त्वमित: पतिकुलं प्राप्य-



शुश्रूषस्व गुरून्कुरु प्रियसखीवृत्तिं सपत्नीजने



भतर्ुर्विप्रÑता¿पि रोषणतया मा स्म प्रतीपं गम:।



भूयिष्ठं भव दक्षिणा परिजने भाग्येष्वनुत्सेकिनी



यान्त्येवं गृहिणीपदं युवतयो वामा: कुलस्याध्य:।।18।।



कथं वा गौतमी मन्यते।



अन्वय- गुरून शुश्रूषस्व सपत्नीजने प्रियसखीवृत्तिम कुरु विप्रÑता अपि रोषणतया भतर्ु: प्रतीपम मा स्म गम:। परिजने भूयिष्ठम दक्षिणा भव भाग्येषु अनुत्सेकिनी एवम युवतय: गृहिणीपदम यानित वामा: कुलस्याध्य:।।18।।



काश्यप- वह तुम (शकुन्तला) यहां से पतिगृह जाकर (अपने) गुरुजनों की सेवा करना, सपतिनयों के प्रति प्रिय सखी जैसा व्यवहार करना, अपमानित होने पर भी क्रोध् के कारण पति के विपरीत आचरण मत करना सेवकों पर अत्यधिक उदार रहना (अपने) भाग्य पर घमण्ड न करना। इस प्रकार (आचरण करने वाली) युवतियाँ गृहिणी पद को प्राप्त करती है इसके विपरीत (आचरण करने वाली) कुल के लिए अभिशाप (बीमारी) होती है। अथवा गौतमी (इस विषय में) क्या सोचती हैं?



व्याख्या- इस श्लोक में कण्व Íषि एक सामान्य पिता के समान अपनी पुत्राी को शिक्षा दे रहे हैं कि तुम ससुराल के सभी सदस्यों के प्रति इस प्रकार अच्छा व्यवहार करना जिससे कि तुम अच्छी गृहिणी होने का सौभाग्य प्राप्त कर सको। इसके लिए तुम अपने से बड़ों की सेवा करना, राजा की जो अन्य रानियाँ हैं उनके साथ सखियों जैसा व्यवहार करना। र्इष्र्या द्वेष मत करना। यदि कभी तुम किसी बात से अपने को अपमानित हुआ अनुभव करो तो क्रोधित मत होना और क्रोध् के कारण पति के प्रतिकूल कार्य मत करना। ऐसी सिथति में बड़े ध्ैर्य से कार्य करना और क्रोध् को शान्त करना। महल में जितने भी सेवक हैं उनके प्रति उदार भाव रखना। उन्हें किसी प्रकार से दु:ख मत पहुँचाना। अपने अच्छे भाग्य के कारण घमण्ड मत करना क्योंकि घमण्ड होने पर व्यकित का व्यवहार औरों के प्रति अच्छा नहीं रहता और वह अपनी मर्यादा को भी भूल जाता है। इस प्रकार से जो युवतियाँ व्यवहार करती हैं वे पति के घर में सदगृहिणी के स्थान को प्राप्त करती हैं परन्तु जो इसके विपरीत आचरण करती हंै अर्थात बड़ों की सेवा नहीं करती, पति के प्रतिकूल आचरण करती हैं क्रोध् र्इष्र्या व द्वेष करती है। परिवार की सित्रायों से झगड़ा करती हैं सेवकों पर अत्याचार करती हैं तथा घमण्ड के कारण मर्यादा का उल्लंघन करती हैं वे कुल के लिए अभिशाप बन जाती हैं। इस प्रकार इस श्लोक में गृहलक्ष्मी का स्थान कैसे प्राप्त किया जा सकता है? इसका वर्णन बहुत ही सुन्दर शब्दों में किया गया है।



यह श्लोक भी श्लोकचतुष्टय में समाविष्ट है। इसमें अर्थान्तरन्यास और रूपक अलंकार है एवं शादर्ूलविक्रीप्रित छन्द है।



व्याख्यात्मक टिप्पणी



आधि - आधि का अर्थ है मानसिक दु:ख या विपत्ति जो प्रकट रूप में दिखार्इ नहीं देती परन्तु अन्दर ही अन्दर व्यकित को क्षीण करती रहती है, नष्ट करती रहती है।



समास



प्रियसखीवृत्तिम - प्रियाया: सख्या: वृत्तिम (तत्पुरूष)



सपत्नीजने - समान: पति: यासां ता: सपत्न्य:। (बहुव्रीहि)



गृहिणीपदम - गृहिण्या: पदम (षष्ठी तत्पुरूष)



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गौतमी- एतावान्वध्ूजनस्योपदेश:। जाते एतत खलु सर्वमवधरय। (एत्ति ओ बहूजणस्स उवदेसो। जादे एदं क्खु सव्वं ओधरेहि।)



गौतमी- नवविवाहिताओं (नववध्ुओं) के लिए इतना ही उपदेश है। पुत्राी यह सब अच्छी तरह धरण करो (यह सब याद रखना)



काश्यप:- वत्से परिष्वजस्व मां सखीजनं च।



काश्यप- पुत्राी, मुझसे और सखियों से गले मिलो (मुझे और सखियों को गले लगाओ)



शकुन्तला- तात इत एव किं प्रियंवदा¿नसूये सख्यौ निवर्तिष्येते। (ताद इदो एव्व किं पिअंवदा अणसूआओ सहीओ णिवत्तिस्सनित)



शकुन्तला- पिता जी, क्या प्रियंवदा और अनसूया (मेरी) सखियाँ यहाँ से ही वापस चली जाएंगी (लौट जाएंगी)?



काश्यप- वत्से इमे अपि प्रदेये। न युक्तमनयोस्तत्रा गन्तुम। त्वया सह गौतमी यास्यति।



काश्यप- पुत्राी ये दोनों भी दी जानी है अर्थात इन दोनों का भी विवाह किया जाना है। इन दोनों का वहाँ जाना उचित नहीं है। तुम्हारे साथ गौतमी जाएगी।



शकुन्तला- (पितरमाशिलष्य) कथमिदानीं तातस्याकांत परिभ्रष्टा मलयतटोन्मूलिता चन्दनलतेव देशान्तरे जीवितं धरयिष्यामि (कहं दार्णि तादस्य अंकादो परिब्भटटा मलअतडडममूलिआ चन्दणलदा विअ देसन्तरे जीविअं धरइस्सं।)



शकुन्तला- (पिता से लिपट कर) पिता की गोद से गिरी हुर्इ मलय पर्वत के किनारे से उखाड़ी गर्इ चन्दन की लता के समान अब मैं परदेस में कैसे जीवन धरण करूंगी (अर्थात पिता प्रेम से वंचित होकर पति के घर कैसे रह सकूंगी)



काश्यप: - वत्से किमेवं कातरा¿सि।



अभिजनवतो भतर्ु: श्लाèये सिथता गृहिणीपदे



विभवगुरूभि: Ñत्यैस्तस्य प्रतिक्षणमाकुला।



तनयमचिरात प्राचीवाक± प्रसूय च पावनं



मम विरहजां न त्वं वत्से शुचं गणयिष्यसि।।19।।



(शकुन्तला पितु: पादयो: पतति)



अन्वय- अभिजनवत: भतर्ु: श्लाèये गृहिणीपदे सिथता तस्य विभव गुरुभि: Ñत्यै: प्रतिक्षणम आकुला च अचिरात प्राची पावनम अर्कम इव तनयम प्रसूय वत्से मन विरहजाम शुचम त्वम न गणयिष्यसि।।19।।



अनुवाद- पुत्राी इस प्रकार अध्ीर क्यों हो रही हो? कुलीन वंश (उफंचे परिवार) में उत्पन्न पति के प्रशंसनीय गृहिणीपद पर सिथत होकर उसके ऐश्वर्य से महान कायो± द्वारा प्रतिक्षण व्यस्त होकर और शीघ्र ही पूर्व दिशा के पवित्रा सूर्य के समान पुत्रा को उत्पन्न करके हे पुत्राी मेरे वियोग से उत्पन्न दु:ख को तुम अनुभव नहीं करोगी। ।।18।।



(शकुन्तला पिता के पैरों पर गिरती है अर्थात पैर छूती है)



व्याख्या- शकुन्तला अपने सम्बनिध्यों से विदा लेते हुए बहुत ही भावुक हो रही है कभी वह पिता के प्रेम का स्मरण करती है कभी सखियों बिछुड़ने के दु:ख को याद करती है। बार-बार सबसे मिलती है और जब उसे यह पता लगता है कि उसकी सखियाँ उसके साथ नहीं जाएगी तो वह और भी दु:खी हो जाती है शकुन्तला की इस दशा पर पिता कण्व उसे समझाते हुए कहते हैं कि पतिगृह जाकर तुम गृहिणी बन कर अपने कायो± में व्यस्त हो जाओगी। जब तुम्हारे चक्रवर्ती पुत्रा का जन्म हो जाएगा तो उसके पालन पोषण आदि कायो± में इतनी अधिक व्यस्त हो जाओगी कि तुम मेरे विरह से उत्पन्न दु:ख को भूल जाओगी।



वस्तुत: इस श्लोक में जीवन की सत्यता का सुन्दर चित्राण किया है। विवाहित पुत्रियाँ प्रारम्भ में तो अपने माता-पिता के घर को याद करती रहती हैं परन्तु जैसे-जैसे अपनी गृहस्थी के कार्य व उत्तरदायित्व बढ़ते जाते हैं वैसे-वैसे उनका पहले जैसा प्रेम कम हो जाता है। इसलिए कण्व भी शकुन्तला को यही समझा रहे हैं कि तुम भी ध्ीरे-



ध्ीरे मेरे वियोग के दु:ख को भूल जाओगी।



यह श्लोक भी श्लोकचतुष्टय में से एक है।



समास



मलयतटोन्मूलिता - मलयस्य तटात उन्मूलिता या सा (बहुव्रीहि)



विभवगुरुभि: - विभवेन गुरुभि: (तृतीय तत्पुरूष)



प्रतिक्षणम - क्षणे क्षणे इति (अव्ययीभाव)



.....................................................



काश्यप: - यदिच्छामि ते तदस्तु।



काश्यप - जो मैं चाहता हूं वह तुम्हें प्राप्त हो।



शकुन्तला - (सख्यावुपेत्य) हला द्वे अपि मां सममेव परिष्वजेथाम। (हला दुबे वि मं समं एव्व परिस्सजद्व।)



शकुन्तला - (सखियों के पास जाकर) तुम दोनों एक साथ ही मुझसे गले मिलो।



सख्यौ - (तथा Ñत्वा) सखि यदि नाम स राजा प्रत्यभिज्ञानमन्थरो भवेत्ततस्मायिदमात्मनामध्ेयाÄïतिमÄुõलीयकं दर्शय। (सहि जइ णाम सो राआ पच्चहिण्णाणमन्थरो भवे तíो स इमं अत्तणामहेअअÄकिअं अÄगुलीअअं दंसेहि।)



दोनों सखियां- (वैसा करके) सखि यदि वह राजा पहचानने मे देरी करे (ध्ीमा हो) तो उसे यह अपने नाम से अंकित अंगूठी दिखाना।



साख्यौ- मा भैषी:। अतिस्नेह: पापशÄïी। (मा माआहि। अदिसिणेहोपावसÄïी)



दोनों सखियां - डरो मत। अत्यधिक प्रेम अनिष्ट की आशंका करता है।



शाÄर्õख: - युगान्तरमारूढ: सविता। त्वरतामत्राभवती।



शाÄर्õख: - सूरज दूसरे पहर पर चढ़ गया है अर्थात दोपहर हो गर्इ है। आप जल्दी करें।



शकुन्तला - (आश्रमाभिमुखी सिथत्वा) तात, कदा नु भूयस्तपोवनं प्रेक्षिष्ये। (तदा, कदा णु भूओ तवोवणं पेकिखस्सं।)



शकुन्तला - (आश्रम की ओर मुंह करके) पिता जी, (अब) मैं पिफर कब (इस) तपोवन को देखूंगी?



काश्यप: - श्रूयताम-



भूत्वा चिराय चतुरन्तमहीसपत्नी



दौष्यनितमप्रतिरथं तनयं निवेश्य।



भत्रर्ाा तदर्पितकुटुम्बभरेण साध्±



शान्ते करिष्यसि पदं पुनराश्रमे¿सिमन।।20।।



अन्वय- चिराय चतुरन्तमहीसपत्नी भूत्वा, अप्रतिरथं तनयं दौष्यनितं निवेश्य, तदर्पित कुटुम्बभरेण भत्रर्ाा साधर््म असिमन शान्ते आश्रमे पुन: पदं करिष्यसि।



काश्यप - सुनो-



चिरकाल तक चारों समुद्र पर्यन्त पृथ्वी की सपत्नी होकर अद्वितीय वीर दुष्यन्त के पुत्रा को राजसिंहासन पर बैठाकर, उस पर कुटुम्ब का उत्तरदायित्व सौंप देने वाले पति के साथ इस शान्त आश्रम में पुन: पैर रखोगी।



व्याख्या- शकुन्तला जाते समय जब पिता कण्व के पैर छूती है तो पिता उसे आशीर्वाद देते हैं और कहते हैं मैं तुम्हारे लिए जो कुछ भी चाहता हूं वह तुम्हें प्राप्त हो। वस्तुत: सभी माता पिता अपने बच्चों के लिए हमेशा अच्छा ही सोचते है एवं उन्हें सदा सुखी देखना चाहते हैं। प्रियंवदा और अनसूया के साथ बराबर स्नेह होने के कारण शकुन्तला दोनों को एक साथ गले लगाना चाहती है। सखियाँ भी उसे यह कहती है कि यदि राजा तुम्हें पहचानने में कुछ आनाकानी करे तो तुम यह अंगूठी दिखा देना। वस्तुत: दोनों सखियाँ दुर्वासा मुनि के शाप के विषय में स्पष्ट रूप से न बता कर उसके निवारण का ही उपाय बताती है। यह सुनकर शकुन्तला डर जाती है क्योंकि उसने इस बात की कल्पना भी नहीं की कि दुष्यन्त उसे पहचानने से मना भी कर सकता है। परन्तु सखियाँ उसकी इस व्याकुलता का निराकरण यह कहकर कर देती हैं कि जिससे जितना अधिक स्नेह होता है उसके लिए उतने ही बड़े अनिष्ट की आशंका की जाती है। अर्थात जो सबसे अधिक प्रिय होता है उसके लिए उतने ही बुरे विचार मन में आते हैं।



शकुन्तला आश्रम की ओर देखती हुर्इ जब यह कहती है कि अब मैं यहां पिफर कब आउफंगी तो कण्व मुनि कहते हैं कि गृहस्थाश्रम के सभी उत्तरदायित्वों का वहन करके वानप्रस्थाश्रम में तुम इस आश्रम में पुन: अपने पति के साथ आओगी समुद्र पर्यन्त पृथ्वी के स्वामी राजा दुष्यन्त के महारानी पद को अलंÑत करके अद्वितीय महापराक्रमी दुष्यन्त के पुत्रा का राज्याभिषेक करके ऐसे पति के साथ तुम आश्रम में आओगी जिसने कुटुम्ब का समस्त भार अपने पुत्रा को सौंप दिया है अभी शकुन्तला के पुत्रा उत्पन्न नहीं हुआ है अत: उसका नाम न लेकर दौष्यनित कहा गया है। यहां कवि ने प्राचीन आश्रम व्यवस्था का पोषण किया है क्योंकि गृहस्थाश्रम के पश्चात वानप्रस्थ आश्रम होता है यह श्लोक इस अंक के चार सर्वश्रेष्ठ श्लोकों में अनितम और चतुर्थ सर्वश्रेष्ठ श्लोक है।



इसमें वसन्ततिलका छन्द एवं माला दीपक अलंकार है।



व्याख्यात्मक टिप्पणी



वानप्रस्थ - आश्रम व्यवस्था के अन्तर्गत चार आश्रम माने गए हैं - ब्रह्राचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। गृहस्थाश्रम के पश्चात वानप्रस्थ आश्रम होता है जिसमें अपने सभी दायित्व अपने बड़े पुत्रा को सौंपकर पति-पत्नी दोनों ही वन में जाकर निवास करते है तथा भगवदभकित में लीन हो जाते हैं।



प्रत्यभिज्ञान - पहले देखी हुर्इ वस्तु को पुन: देखकर कुछ स्मरण करना प्रत्यभिज्ञान कहलाता है।



युगान्तरम - युग का अर्थ यहां पहर है सूर्य अब दूसरे पहर पर चढ़ गए हैं। 24 घण्टे के एक दिन में 8 पहर होते है। अत: एक पहर में तीन घण्टे होते हैं।



समास



चतुरन्तमहीसपत्नी - चत्वार: अन्ता: यस्या: तादृश्या: मáा: सपत्नी (बहुव्रीहि गर्भक तत्पुरूष)



दौष्यनितम - दुष्यन्तस्य पुत्रा: दौष्यनित: (तत्पुरूष)



अप्रतिरथम - न विधते प्रतिरथ: यस्य स: तम (बहुव्रीहि)



तदर्पितकुटुम्बभरेण - तसिमन अर्पित: कुटुम्बस्य भर: येन तेन (बहुव्रीहि)



.....................................................



गौतमी- जाते, परिहीयते गमनवेला। निवर्तय पितरम। अथवा चिरेणापि पुन: पुनरेषैवं मन्त्रायिष्यते। निवर्ततां भवान। (जादे, परिहीअदि गमणवेला। णिवत्तेहि पिदरं। अहवा चिरेण वि पुणो पुणो एसा एव्वं मन्तइस्सदि। णिवत्त्दु भवं।)



गौतमी- पुत्राी जाने का समय बीत रहा है (अर्थात जाने में देरी हो रही है) पिताजी को वापस भेज दो अथवा (नहीं तो) यह (शकुन्तला) देर तक बार बार इसी प्रकार कहती रहेगी। आप (कण्व Íषि) वापस चले जाएं।



काश्यप:- वत्से उपरुèयते तपो¿नुष्ठानम।



काश्यप- पुत्राी मेरी तपस्या के कार्य में रूकावट हो रही है (बाध पड़ रही है)



शकुन्तला- (भूय: पितरमाशिलष्य) तपश्चरणपीडितं तातशरीरम तन्मातिमात्रां मम Ñत उत्कण्ठस्व। (तवच्चरणपीडिदं तादसरीरं। ता मा अदिमेत्तं मम किदेउक्कण्ठसस।)



शकुन्तला - (दुबारा पिता से लिपट कर) आप (पिता) का शरीर तपस्या के आचरण से दुर्बल है। अत: आप मेरे लिए अधिक दु:खी मत होइए।



काश्यप: - (सनि:श्वासम)



शममेष्यति मम शोक: कथं नु वत्से त्वया रचितपूर्वम।



उटजद्वारविरूढं नीवारबलिं विलोकयत:।।21।।



गच्छ। शिवास्ते पन्थान: सन्तु।



(निष्क्रान्ता शकुन्तला सहयायिनश्च)



अन्वय- वत्से, त्वया रचितपूर्वम उटजद्वारविरूढं नीवारबलिं विलोकयत: मम शोक: कथं नु शमम एष्यति।



काश्यप-(लम्बी सांस लेकर)



हे पुत्राी तुम्हारे द्वारा पहले डाले गए (और अब) कुटिया के द्वार पर उगे हुए नीवार बलि को देखते हुए मेरा दु:ख किस प्रकार शान्त होगा। ।।21।।



जाओं, तुम्हारे मार्ग कल्याण कारी हों।



(शकुन्तला और उसके साथ जाने वाले चले जाते हैं)



व्याख्या- गौतमी द्वारा पुन: यह कहे जाने पर कि जाने का समय बीतता जा रहा है कण्व मुनि शकुन्तला से यह कह कर विदा लेते हैं कि उनके तपानुष्ठान में विलम्ब हो रहा है। शकुन्तला कहती है कि तपस्या के कारण आपका शरीर दुर्बल हो गया है अत: आप मेरे विषय में अधिक चिन्ता नहीं करना। तब गहरी सांस लेकर महर्षि कण्व कहते हैं कि पुत्राी मैं तुम्हें कैसे भूल पाउफँगा? क्योंकि तुम्हारे द्वारा कुटिया के बाहर डाले गए नीवार के दाने तुम्हारी याद दिलाएंगे क्योंकि जब भी मैं उन अंकुरित नीवार को देखूंगा तब मुझे तुम्हारी याद आएगी कि शकुन्तला पक्षियों के लिए जो दाना डालती थी उसी से यह नीवार उत्पन्न हुआ है। इस प्रकार तुम्हारी याद आती रहेगी। इस प्रकार इस श्लोक में कण्व Íषि के वात्सल्य (पुत्राी प्रेम) को बहुत ही सुन्दर ढंग से अभिव्यक्त किया है।



सख्यौ- (शकुन्तलां विलोक्य) हा धिक हा धिक। अन्तर्हिता शकुन्तला वनराज्या। (ह(ी ह(ी। अन्तलिहिदा सउन्दला वणराइए।)



दोनों सखियां- (शकुन्तला की ओर देखकर) हाय, हाय शकुन्तला वन पंकित (की ओट में हो जाने) से ओझल हो गयी।



काश्यप:- (सनि:श्वासम) अनसूये, गतवती वां सहचारिणी निगृá शोकमनुगच्छतं मां प्रसिथतम।



काश्यप- (लम्बी सांस लेकर) अनसूया, तुम दोनों की सखी चली गर्इ है। अपने दु:ख को वश में करके मुझ जाते हुए के पीछे आओ।



उभे- तात शकुन्तलाविरहितं शून्यमिव तपोवनं। कथं प्रविशाव:। (ताद सउन्दलाविरहिदं सुण्णं विअ तपोवणं कहं पविसामो।)



दोनों (प्रियंवदा और अनसूया)- पिताजी शकुन्तला से रहित तपोवन खाली सा (दिखार्इ दे रहा) है। (हम) कैसे प्रवेश करें।



काश्यप:- स्नेहप्रवृतिरेवंदर्शिनी (सविमश± परिक्रम्य) हन्त भो: शकुन्तलां पतिकुलं विसृज्य लब्ध्मिदानीं स्वास्थ्यम। कुत:



अर्थो हि कन्या परकीय एव तामध संप्रेष्य परिग्रहीतु:।



जातो मामयं विशद: प्रकामं प्रत्यर्पितन्यास इवान्तरात्मा।।22।।



अन्वय- हि कन्या परकीय: अर्थ: एव ताम अध परिग्रहीतु: संप्रेष्य मम अयम अन्तरात्मा प्रत्यर्पित न्यास इव प्रकामम विशद: जात:।।22।।



(इति निष्क्रान्ता: सर्वे।)



(इति चतुर्थो¿Äï)



काश्यप- स्नेह की अधिकता ही ऐसा दिखा रही है। (विचार मग्न चारों ओर घूमकर) ओह शकुन्तला को पतिगृह भेजकर मेरे द्वारा निशिचन्तता (स्वास्थ्य) प्राप्त कर ली गर्इ है। क्योंकि निस्सन्देह कन्या पराया ध्न है उसे आज पतिगृह भेजकर मेरी यह अन्तरात्मा ध्रोहर लौटा देने के समान अत्यधिक प्रसन्न हो रही है।



(सब चले जाते हैं।)



व्याख्या- प्रियंवदा और अनसूया शकुन्तला से बिछुड़ कर दु:खी हैं और तपोवन उन्हें खाली लग रहा है। वे शकुन्तला को ओझल होने तक देखती रहती हैं। कण्व Íषि भी पहले दु:खी थे परन्तु शकुन्तला को उसके पति के घर भेजने के पश्चात महर्षि कण्व परमशानित एवं सुख का अनुभव करते हैं। प्रस्तुत श्लोक में उन्हीं के मनोभावों को बताते हुए कहा गया है कि पुत्राी तो पराया ध्न होती है पिता तो केवल मात्रा उसकी रक्षा व पालन पोषण करता है और समय आने पर उसके योग्य अधिकारी पति को सौंप देता है जैसे कोर्इ व्यकित किसी ध्रोहर को उसके स्वामी के पास सौंप देता हैं। वैसे ही मैंने आज अपनी पुत्राी शकुन्तला को उसके स्वामी दुष्यन्त के पास भेज दिया है। उसे सौंप कर मैं आज परम शानित एवं प्रसन्नता का अनुभव कर रहा हूं क्योंकि ध्रोहर की रक्षा व्यकित को सदा चिनितत करती रहती है किन्तु जब उसे वह सुरक्षित रूप से लौटा देता है तो वह चैन की सांस लेता है। कहने का अभिप्राय यह है कि जब तक विवाह योग्य पुत्राी का विवाह न हो जाए तब तक पिता चिनितत ही रहता है क्योंकि अपनी पुत्राी के लिए सुयोग्य वर की इच्छा उसे होती है और जब वह अपनी पुत्राी को मनोनुकूल वर के पास सौंप देता है तो उसके मन का बोझ हल्का हो जाता है और वह अपने को स्वस्थ प्रसन्नचित्त अनुभव करता है। इसी प्रकार महर्षि कण्व भी अब निशिचत होकर प्रसन्नता का अनुभव कर रहे हैं।



व्याख्यात्मक टिप्पणी



नीवारवलि- नीवार जंगली धन्य होता है।



पंचमहायज्ञों में एक बलिवैश्वदेव यज्ञ भी है इसमें पशुपक्षियों को अन्नादि दिया जाता है। इसलिए शकुन्तला पक्षियों के खाने के लिए नीवार के कण कुटिया के बाहर बिखेर देती थी। इसे ही नीवार बलि कहा गया है।



समास



रचितपूर्वम- पूव± रचितम। भूतपूर्वे चरट से समास हुआ है।



शकुन्तलाविरहितम- शकुन्तलया विरहितम (तृतीया तत्पुरूष)



प्रत्यर्पितन्यास:- प्रत्यर्पित: न्यास: येन स: (बहुव्रीहि)



(चतुर्थ अÄï समाप्त)



अभिज्ञानशाकुन्तलम के चतुर्थ अÄï पर आधरित प्रष्टव्य प्रमुख प्रश्न



1. चतुर्थ अंक का महत्त्व



2. दुर्वासा Íषि के शाप का महत्त्व



3. कण्व Íषि की भूमिका



चतुर्थ अंक का महत्त्व पाठ-2 में बता दिया गया है। शेष अन्य विषय इस प्रकार हैं-



दुर्वासा Íषि के शाप का महत्त्व



अभिज्ञानशाकुन्तलम में कवि कालिदास द्वारा प्रस्तुत किया गया शाप का प्रसंग उनका अपना मौलिक चिन्तन है। महाभारत के शकुन्लोपाख्यान में शाप का उल्लेख नहीं है।



चतुर्थ अंक के प्रारम्भ में शकुन्तला अपनी कुटिया के बाहर दुष्यन्त के विषय में सोचते हुए इतनी खो जाती है कि उसे आए हुए अतिथि दुर्वासा Íषि का भी पता नहीं चलता। जब दुर्वासा Íषि शकुन्तला के इस व्यवहार को देखते हैं तो वे अपने को अपमानित समझ कर उसे शाप देते हैं कि जिसकी सोच में डूबी हुर्इ तुमने मुझ आए हुए (अतिथि) का अपमान किया वह याद दिलाने पर भी इस प्रकार तुम्हें भूल जाएगा जैसे कि कोर्इ पागल व्यकित पहले कही हुर्इ बातों को याद नहीं रखता है।



विचिन्तयन्ती यमनन्यमानसा



तपोध्नं वेतिस न मामुपसिथतम।



स्मरिष्यति त्वां न स बोधितो¿पि सन



कथां प्रमत्त: प्रथमं Ñतामिव।।



इस शाप का नाटक में विशेष महत्त्व रहा है। सर्वप्रथम तो सामाजिक मर्यादा का उल्लंघन करना अपराध् है इस बात को इस शाप द्वारा सि( किया गया है। यहाँ दो प्रकार का सामाजिक मर्यादाओं का उल्लंघन हुआ है एक तो दुष्यन्त के साथ गान्ध्र्व विवाह द्वारा और दूसरे घर आए हुए पूजनीय अतिथि की उपेक्षा द्वारा। अपराध् को क्षमा भी कर दिया जाता है यदि अपराध्ी अपना दोष स्वीकार कर ले यही बात इस अंक में भी बतार्इ गर्इ है। जब शकुन्तला की सखियां शाप को सुनकर व्याकुल हो जाती हैं तो वे Íषि के पास जाकर अनुनय विनय करती है कि शाप जो नहींं वापिस लेते परन्तु उसके प्रभाव को शान्त करने का समाधन बता देते हैं।



नाटक की कथावस्तु को नया मोड़ देकर उसे और अधिक रोचक बनाने में शाप के प्रसंग का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यदि यह शाप का प्रसंग न होता तो शायद नाटक की समापित चार अंकों में ही हो जाती और नाटक इतना प्रभावशाली न बन पाता। शकुन्तला दुष्यन्त के पास चली जाती और वहाँ पुत्रा जन्म होता और नाटक का अन्त हो जाता। तब पिफर शायद इस नाटक का नाम भी अभिज्ञान शाकुन्तलम न होता क्योंकि अभिज्ञान भी तभी होगा जब कोर्इ भूल जाए। यदि शाप न दिया होता तो क्या दुष्यन्त शकुन्तला को भूल सकता था? क्या वह इतना अबोध् या विश्वासघाती था? नहीं वह तो राजा है और एक राजा का इस प्रकार का व्यवहार स्वीकार्य नहीं है। इसलिए शाप के कारण ही कथावस्तु आगे बढ़ती है जिसके माèयम से कवि कालिदास ने अन्य कर्इ घटनाओं एवं मान्यताओं को प्रस्तुत करने का सपफल प्रयास किया है।



इस प्रकार दुर्वासा का शाप इस नाटक का केन्द्र बिन्दु है क्योंकि इसी के चारों ओर नाटक की सम्पूर्ण कथावस्तु घूमती है। शाप की परिकल्पना करके कवि ने जहाँ इस नाटक के नायक के चरित्रा को उज्ज्वल बनाने का सपफल प्रयास किया है। वहीं इससे नाटक के कथानक में विशेष चमत्कार की उत्पत्ति हुर्इ है जो कि कालिदास के अपूर्व नाटयकौशल का परिचायक है।



कण्व Íषि की भूमिका



अभिज्ञानशाकुन्तलम के तीन Íषि पात्राों कण्व, दुर्वासा और मारीच से महर्षि कण्व की भूमिका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रही है। वे आश्रम के कुलपति हैं। कश्यप गोत्रा में उत्पन्न होने के कारण उनका दूसरा नाम काश्यप भी है। नाटक के चतुर्थ अंक में इनकी उपसिथति प्रत्यक्षरूप से है। यधपि Íषि नैषिठक ब्रह्राचारी त्रिकालदर्शी और विधा एवं ज्ञान की साक्षात मूर्ति हैं परन्तु चतुर्थ अंक में उनकी भूमिका आदर्श पिता, महान अगिनहोत्राी लोकव्यवहारज्ञ श्रेष्ठ मनोवैज्ञानिक के रूप में है।



आदर्श पिता-



महर्षि कण्व यधपि अविवाहित है शकुन्तला भी उनकी औरस सन्तान नहीं है तथापि इस नाटक में वे आदर्श पिता के रूप में चित्रित किए गए हैं क्योंकि उन्होंने अनाथ शकुन्तला को अत्यन्त प्रेमपूर्वक पाला है। वे उससे अत्यधिक स्नेह करते हैं। वे उसको अपना जीवन सर्वस्व व प्राण मानते हैं। शकुन्तला के प्रति उनका नि:स्वार्थप्रेम है। पुत्राी की विदार्इ के समय आदर्श पिता के समान उनका âदय भी रो पड़ता है और वह कह उठते हैं-



यास्यत्ध शकुन्तलेति âदयं संस्पृष्टमुत्कण्ठया।



कण्ठ: स्तमिभत वाष्पवृत्ति: कलुषशिचन्ताज¿ंदर्शनम।।



जब शकुन्तला उन्हें चिन्ता न करने के लिए कहती है तो वे कहते हैं कि यह तो संभव कैसे हो सकता है क्योंकि-



शममेष्यति मम शोक: कथं नु वत्से त्वया रचितपूर्वम।



उटजद्वारविरुढ़ं निवारबलिं विलोकयत:।।



Íषि कण्व आदर्श पिता की भूमिका तो तब पूर्णतया निभाते हैं जब वे शकुन्तला को ससुराल में जाकर बड़ों की सेवादि का उपदेश देते हैैं। क्योंकि एक आदर्श पिता ही पुत्राी को ऐसी शिक्षा दे सकता है-



शुश्रूषस्व गुरूनकुरु प्रियसखीवृत्तिं सपत्नीजने,



भतर्ृर्विप्रÑता¿पि रोषणतया मा स्म प्रतीपं गम:।



भूयिष्ठं भव दक्षिणा परिजने भाग्येष्वनुत्सेकिनी,



यान्त्येव गृहिणीपदं युवतयो: वामा: कुलस्याध्य:।।



इसी प्रकार दुष्यन्त को विनम्रतापूर्वक दिया गया सन्देश भी एक आदर्श पिता का सन्देश कहा जा सकता है। आदर्श पिता के समान ही वे अपनी पुत्राी के सुख की कामना करते हुए कहते है- यदिच्छामि ते तदस्तु। शकुन्तला को पति के घर भेजकर वे अत्यधिक सन्तोष का अनुभव करते हैं- जातो ममायं विशद: प्रकामं प्रत्यर्पितन्यास इवान्तरात्मा।



इस प्रकार चतुर्थ अंक में महर्षि कण्व की आदर्श पिता के रूप में भूमिका विशेष रूप से प्रशंसनीय है।



महान अगिनहोत्राी- महर्षि कण्व इस अंक में एक महान अगिनहोत्राी के रूप में भी चित्रित किए गए है। उनके आश्रम में सदैव त्रिकालिक यज्ञ का विधन है। इस नियम का पालन उनकी अनुपसिथति में भी किया जाता है। यज्ञ की रक्षा के लिए ही आश्रमवासियों ने राजा दुष्यन्त को आश्रम में आमनित्रात किया है। विदार्इ के समय कण्व शकुन्तला को इन्हीं यज्ञ की अगिनयों की प्रदक्षिणा करने का आदेश प्रदान करते हैं- वत्से, इत: सधो हुताग्नीन प्रदक्षिणी कुरुष्व। तप का आचरण करने के कारण उनका शरीर अत्यन्त दुर्बल हो गया है- तपश्चरणपीडितं तातशरीरम। वे सदा ही अपने तपादि कायो± में लगे रहते हैं तभी शकुन्तला के विदा होने के समय वे कहते हैं- उपरुèयते तपो¿नुष्ठानम।



लोकव्यवहारज्ञ- नैषिठक ब्रह्राचारी एवं तपस्वी होते हुए भी कण्व Íषि को लोक व्यवहार की सम्पूर्ण जानकारी है। क्योंकि उनके द्वारा कहे गए- वनौकसो¿पि सन्तो लौकिकज्ञा वयम इस कथन से यह ज्ञात होता है। शकुन्तला को दिया गया उपदेश भी इसी ओर संकेत करता है कि वे लौकिक व्यवहार से भलीभांति परिचित थे। वे जानते हैं कि समाज में इस बात को ठीक नहीं समझा जाता कि विवाहित पुत्राी बहुत समय तक पिता के घर रहे। इसीलिए शकुन्तला गान्ध्र्व विवाह का पता लगते ही वे उसे पति के घर भेजने का प्रबन्ध् करते हैं। उन्हें यह भी पता है कि अविवाहित कन्याओं को दूसरे के घर जाना ठीक नहीं या बाहर घूमना स्वीकार्य नहीं है अत: वे प्रियंवदा और अनसूया को शकुन्तला के साथ नहीं भेजते। इसीलिए वे शकुन्लता से कहते हैं कि वत्से, इमे अपि प्रदेये। न युक्तमनयोस्तत्रागन्तुम। वे कन्या को पराया ध्न मानते है- अर्थो हि कन्या परकीय एव। इस प्रकार यह प्रमाणित होता है कि कण्व Íषि लौकिक व्यवहार में बहुत निपुण थे।



श्रेष्ठ मनोवैज्ञानिक- कण्व Íषि दूसरे के मन की भावनाओं को भली प्रकार समझते है। उन्हें मानव स्वभाव का भी अच्छा ज्ञान है। वे जानते हैं कि व्यकित अपने दु:खों को ध्ीरे-ध्ीरे भूल जाता है। इसलिए शकुन्तला के पूछने पर कि आपसे अलग होकर मैं कैसे जीवित रहूँगी? वे कहते हैं कि-



अभिजनवतो भतर्ु: श्लाèये सिथता गृहिणीपदे



विभवगुरुभि: Ñत्यैस्तस्य प्रतिक्षणमाकुला।



तनयमचिरात प्राचीवाक± प्रसूय च पावनं



मम विरहजां न त्वं वत्से शुचं गणयिष्यसि।।



इस प्रकार चतुर्थ अंक में महर्षि कण्व को अनेक भूमिकाओं में भारतीय संस्Ñति के आदर्श रूप में प्रस्तुत किया है।



अभ्यास-कार्र्र्य



नोट: परीक्षा में अभिज्ञानशाकुन्तलम के चतुर्थ अंक में से कुल 12) अंक के प्रश्न पूछे जाएंगे। जिनकी रूपरेखा इस प्रकार है।



प्रश्न 1- सप्रसंग व्याख्या (किन्हीं दो श्लोकों में से एक) 4 अंक



प्रश्न 2- प्रश्न का उत्तर (किन्हीं दो में से एक प्रश्न) 5 अंक



प्रश्न 3- समास विग्रह व समास का नाम 1 अंक



प्रश्न 4- टिप्पणियाँ (नाटक के पारिभाषिक शब्द) 2 अंक



नोट: विधार्थियों को अभ्यास के लिए कुछ प्रश्न दिए जा रहे हैं-



प्रश्न 1- निम्नलिखिति श्लोकों की सप्रसंगत व्याख्या कीजिए।



श्लोक संख्या- 1, 2, 6, 10, 12, 16, 17, 18, 20, 22



प्रश्न 2- निम्नलिखित समस्त पदों का विग्रह करते हुए समास का नाम लिखें।



अतिथिपरिभाविनि, अनन्यमानसा, प्रÑतिवक्र:, तेजोद्वयस्य अरण्यौकस:, अनुमतगमना, वनवासबन्ध्ुभि:, उदगलितदर्भकवला, परित्यक्तनर्तना:, विषाददीर्घतराम, संयमध्नान, दौष्यनितम, अप्रतिरथम, तदर्पितकुटुम्बभरेण, प्रत्यर्पितन्यास:।



प्रश्न 3- निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।



(क) चतुर्थ अंक का सार लिखिए।



(ख) चतुर्थ अंक का महत्त्व बताइए।



(ग) दुर्वासा Íषि के शाप का उल्लेख करते हुए उसका महत्त्व बताइए।



(घ) शकुन्तला प्रÑति पुत्राी है स्पष्ट कीतिए।



(Ä) महर्षि कण्व का चतुर्थ अंक के आधर पर चरित्रा चित्राण करे।



प्रश्न 4- निम्नलिखित पर टिप्पणियाँ लिखिए



अंक, विष्कम्भक, स्वगत, जनानितकम।




सम्बन्धित प्रश्न



Comments Kashish on 17-12-2022

Abhigyan shakuntala ke chaturth ank ke shloko ki vyakhya

Kishan Kumar on 30-01-2022

Primvand ka parichay

Makvana Ravina on 08-04-2021

Abhigyanshkuntlm natk na chotha Anknu રસદર્શન ગુજરાતીમાં


Jignesh on 04-03-2021

अभिज्ञान शाकुन्तलम के चौथे अंक का सारांश लिखिये

Chhaya Kumari on 04-12-2020

Chaturth ank ka mahatva pratipadit kreb

Nikita bhandari on 03-12-2020

Kalidaas k 4 अंक का सार लिखिए ?

Stuti Goyal on 27-11-2020

चतुर्थ अंक का महत्त्व बताइए।


Alsaba on 04-06-2020

Sakuntala kiski beti h



राय on 12-05-2019

काव्येषनाटकरम्यमतत्रशकुंला

Shreyasingh on 03-06-2020

Abhigyan shakuntalam ke ank ki visheshtaen



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