Shaikshik SamajShastra Ki Prakriti शैक्षिक समाजशास्त्र की प्रकृति

शैक्षिक समाजशास्त्र की प्रकृति



Pradeep Chawla on 12-05-2019

शैक्षिक समाजशास्त्र, समाजशास्त्र की वह शाखा है जो शिक्षा तथा समाजशास्त्र का समन्वित रूप है। शैक्षिक समाजशास्त्र इस बात पर बल देता है कि समाजशास्त्र के उद्देश्यों को शैक्षिक प्रक्रिया के द्वारा प्राप्त किया जाये। शैक्षिक समाजशास्त्र सामाजिक विकास और उन्नति के लिए उन सभी सामाजिक प्रतिक्रियाओं एवं सामाजिक अन्तः-प्रक्रियाओं का अध्ययन करता है, जिनको जाने बिना शिक्षा के स्वरूप एवं समस्याओं का समाधान नहीं किया जा सकता। संक्षेप में शैक्षिक समाजशास्त्र वह विज्ञान है, जो शिक्षा सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाली प्रक्रियाओं, जन समूहों, संस्थाओं तथा समितियों का अध्यन करता है।



जार्ज पेनी (E. George Payne) को शैक्षिक समाजशास्त्र का पिता कहा जाता है। इसने अपनी पुस्तक ‘दि प्रिन्सिपिल्स ऑफ एजूकेशनल सोशियोलाजी’ में कहा है कि शिक्षा का सामूहिक जीवन पर तथा सामूहिक जीवन का शिक्षा पर प्रभाव पड़ता है। उसने यह भी बताया कि व्यक्ति के सर्वांगीण विकास के लिए उस पर पड़ने वाली सामाजिक शक्तियों के प्रभाव का अध्ययन करना अति आवश्यक है। जार्ज पेनी के अलावा जॉन डीवी, मूर, फ्रेडरिक लीप्ले, डंकन, कोल, मैकाइवर, मेरिल, डेविस, डोलार्ड, दुूर्खीम, क्लार्क आदि विद्वानों ने शैक्षिक समाजशास्त्र के विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया है। जान डीवी ने अपनी पुस्तक ‘स्कूल तथा समाज’ एवं ‘जनतन्त्र और शिक्षा’ में शैक्षिक समाजशास्त्र के महत्व को स्वीकार करते हुए शिक्षा को सामाजिक प्रक्रिया माना है।



समाजशास्त्री मुख्य रूप से शिक्षा पर सामाजिक परिस्थितियों के प्रभाव, शिक्षा की प्रकृति और सामाजिक परिवर्तनों में शिक्षा की भूमिका आदि पर प्रकाश डालते हैं। अन्य शब्दों में, समाज के कौन से पहलू (सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक) शिक्षा की प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं, का अध्ययन किया जाता है। असल में किसी भी समाज की संरचना, उसकी जरूरतें, उसमें उपलब्ध अलग-अलग तरह के स्रोत ही उस समाज की शिक्षा की नीति की आधारभूमि तय करते हैं।



एस॰सी॰ दुबे ने शिक्षा और समाज का भविष्य में लिखा है-



शिक्षा और समाज में गहरा संबंध है। एक ओर शिक्षा, परम्परा की धरोहर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाती है और इस तरह संस्कृति की निरंतरता बनाए रखने में सहायक होती है, दूसरी ओर पारिस्थितिकी परिवर्तन उसे अनुकूलन का साधन बनने की प्रेरणा देते हैं। अपने इस पक्ष में शिक्षा, परिवर्तन का माध्यम बनती है। यह परिवर्तन की दिशा-निर्धारित कर उसके वैकल्पिक प्रतिरूप प्रस्तुत करती है, प्राविधिक साधन जुटाती है और नवाचारों के लिए भावभूमि निर्मित करती है। शिक्षा के ये दोनों प्रकार्य महत्त्पूर्ण हैं, क्योंकि परंपरा की उपेक्षा यदि समाज को धुरीहीन बनाती है तो परिवर्तन की अस्वीकृति या मंदगति सांस्कृतिक पक्षाघात प्रमाणित हो सकती है। वैकल्पिक भविष्य की परिकल्पनाओं को साकार करने के लिए इन दोनों प्रकार्यों की भूमिका महत्त्वपूर्ण है।



शिक्षा को सामाजिक प्रक्रिया कहते हुए हम शिक्षा के सामाजिक आधार को निम्न बिन्दुओं में समझ सकते हैं-



शिक्षा के उद्देश्य समाज की जरूरतों के अनुसार तय किए जाते हैं।



शिक्षा की प्रक्रिया के विभिन्न अंग निरंतर ही समाज के स्वरूप से प्रभावित होते रहते हैं।



शिक्षा की प्रक्रिया पर खर्च होने वाला खर्च समाज से ही आता है।



शिक्षा प्रक्रिया के तीनों अंग क्रमशः शिक्षार्थी, शिक्षक तथा पाठ्यक्रम, समाज का ही अंग हैं।



शिक्षण की सामग्री का निर्माण तथा शिक्षण पद्धतियाँ समाज के स्वरूप पर ही निर्भर हैं।



शिक्षा के स्वरूप में आनेवाले परितर्वन भी समाज की बदलती जरूरतों पर निर्भर करते हैं।



शिक्षा की प्रक्रिया जहाँ एक ओर वर्तमान की स्थितियों से तथा भावी स्वरूप से प्रभावित होती है या बदलती है वहीं उस समाज की संस्कृति से नियंत्रित भी होती है।



अनुक्रम



1 शैक्षिक समाजशास्त्र के उद्देश्य

2 शैक्षिक समाजशास्त्र का क्षेत्र (scope)

3 सामूहिक जीवन

4 इन्हें भी देखें



शैक्षिक समाजशास्त्र के उद्देश्य



हेरिंगटन ने शैक्षिक समाजशास्त्र के निम्नलिखित उद्देश्यों को बताया है -



(१) सामाजिक प्रगति के लिए शिक्षक एवं स्कूल के कार्यों का समाजिक संदर्भ में ज्ञान प्राप्त करना।



(२) विद्यालय को प्रभावित करने वाले सामाजिक तत्वों का अध्ययन करना।



(३) छात्रों पर पड़ने वाले सामाजिक तत्वों के प्रभाव का ज्ञान प्राप्त करना।



(४) सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक पक्षों को ध्यान में रखकर सामाजिक दृष्टिसे शैक्षिक पाठ्यक्रम का निर्माण करना।



(५) जनतांत्रिक विचारधाराओंं का ज्ञान प्राप्त करना।



(६) शैक्षिक समाजशास्त्र के उद्देश्यों की पूर्ति हेतु विभिन्न अनुसंधान विधियों का प्रयोग करना।

शैक्षिक समाजशास्त्र का क्षेत्र (scope)



शैक्षिक समाजशास्त्र के अन्तर्गत निम्नलिखित बातों का अध्ययन किया जाता है -



(१) शिक्षक एवं छात्रों का परस्पर सम्बन्ध



(२) समाज में शिक्षक की स्थिति



(३) सामाजिक आवश्यकताएं एवं समस्याएं



(४) विभिन्न सामाजिक इकाइयों के परस्पर सम्बन्ध



(५) बालक एवं विद्यालय पर सामाजिक जीवन का प्रभाव



(६) सामाजिक प्रक्रिया में रेडियो, सिनेमा एवं प्रेस का मूल्यांकन



(७) व्यक्ति एवं समाज की प्रगति हेतु पाठ्यक्रम में आवश्यक परिवर्तन



(८) सामाजिक नियंत्रण एवं सामाजिक प्रगति के साधनों का मूल्यांकन।

सामूहिक जीवन

समाजशास्त्र सें हमें ज्ञात होता है कि व्यक्ति समूह अर्थात समाज में रहता है। वह अपने साथियों के साथ जीवन यापन करता है। इसी कारण व्यक्ति को सामाजिक प्राणी कहा जाता है। दो या दो से अधिक व्यक्ति मिलकर समूह का निर्माण करते हैं। समूह की प्राथमिक इकाई परिवार होता है। परिवार का निर्माण माता पिता एवं बच्चों से होता है। समान विचार एवं समान पूर्वजों वाले परिवार से मिलकर कुल या गोत्र का निर्माण होता है। व्यक्ति अपना सामूहिक जीवन इसी में व्यतीत करता है। समूह में ही व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का निर्माण एवं विकास करता है। समूह में रह कर ही व्यक्ति समूह के प्रति अपने कर्तव्यों को समझता है। व्यक्ति समाज में कई समूह होने के कारण व्यक्ति कई समूहों का सदस्य होता है। समाज में पाये जाने वाले विभिन्न समूहों में से कुछ समूह रक्त से सम्बन्धित होते हैं, तो कुछ व्यापार, व्यावसाय या अन्य उद्देश्यों के आधार पर बन जाते हैं। इन समूहों का प्रभाव व्यक्ति के व्यवहार पर तथा व्यक्ति के व्यवहार का प्रभाव इन समूहों पर पड़ता है। विद्यालय को भी समूह माना जाता है। जहाँ पर छात्र सामूहिक जीवन के विषय में ज्ञान प्राप्त करते हैं वहाँ का सामाजिक वातावरण छात्रों के व्यक्तित्व विकास में सहायक होता है। इसी प्रकार के समूहों में रह कर ही व्यक्ति सहयोग, भाई चारा, प्रतिद्वन्द्विता, प्रेम करना, दया करना, अनुकरण करना आदि सीखता है। नैतिकता का पालन करना भी समूह के द्वारा ही सीखते हैं।




सम्बन्धित प्रश्न



Comments Pulkit shukla on 12-05-2019

Ydi manav Prakrit SE darshnik hai to wh samajsastri BHI hai kyoki samajik Jivan uska swabhavik uddeshya hai. Yh kisne kha hai?





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