Ek Bill Ki Samiksha Karne Me Sthayi Samiti Ki Bhumika एक बिल की समीक्षा करने में स्थायी समिति की भूमिका

एक बिल की समीक्षा करने में स्थायी समिति की भूमिका



GkExams on 10-01-2019

लोकतंत्र निर्वाचित संस्थाओं के संचालन से ही विधिमान्य बनता है. संसद अनेक प्रकार के महत्वपूर्ण कार्यों को संपन्न करते हुए भारत के लोकतंत्र में अपनी केंद्रीय भूमिका का निर्वाह करता है. प्रधान मंत्री (और मंत्रिमंडल) को हर समय प्रत्यक्ष रूप में निर्वाचित लोकसभा के बहुमत का समर्थन अपेक्षित होता है. लोकसभा और परोक्ष रूप में निर्वाचित राज्यसभा अपने प्रश्नकाल में पूछे गए सवालों और राष्ट्रीय महत्व के विषयों पर की जाने वाली बहस और प्रस्तावों जैसी अनेक प्रक्रियाओँ के द्वारा संपन्न सरकारी कार्यों की समीक्षा करती हैं. दोनों सदनों के पास कानून बनाने और संविधान में संशोधन करने का अधिकार होता है, लेकिन सरकारी खर्च या कर संबंधी प्रस्तावों के अनुमोदन का अधिकार केवल लोकसभा के पास ही होता है.


अपना संसदीय कार्य करने के लिए दोनों सदनों की साल में लगभग 70 बैठकें होती हैं. दोनों सदनों को प्रत्यक्ष कार्य के अलावा और भी बहुत-से कार्य करने होते हैं. ये कार्य समितियों द्वारा किये जाते हैं. संसद द्वारा हाल ही में विभागीय स्थायी समितियों (DRSCs) को पुनर्गठित किया गया है. ये समितियाँ निम्नलिखित तीन महत्वपूर्ण कार्य संपन्न करती हैं : समितियों को भेजे गए विधेयकों की समीक्षा करना; मंत्रालयों से संबंधित विशिष्ट विषयों का चयन करना और सरकार द्वारा कार्यान्वित किये जाने पर इनकी समीक्षा करना और विभागों के बजटीय खर्च की जाँच करना. संसद एक ऐसी संस्था है, जो कानून बनाती है, सरकार की जवाबदेही तय करती है और सार्वजनिक खर्च के लिए मंजूरी प्रदान करती है. इसके कार्य-परिणामों से समग्र रूप में संसद की कार्यसाधकता प्रभावित होती है.


ये समितियाँ अनेक उद्देश्यों की पूर्ति करती हैं. सबसे पहला उद्देश्य तो यह है कि संसद इनकी मदद से अपना कार्य बेहतर ढंग से चला पाती है. 700 सदस्यों के बजाय 30 सदस्यों की समिति किसी भी मामले की गहराई से जाँच कर सकती है. दूसरा उद्देश्य यह है कि ये समितियाँ विशेषज्ञों की राय लेती हैं. इसका सीधा असर नीति या विधान पर भी पड़ता है. उदाहरण के लिए, विभागीय स्थायी समितियाँ (DRSCs) जनता से भी अक्सर राय लेती हैं और अनेक लोगों को साक्ष्य के लिए बुलाती हैं. तीसरा उद्देश्य यह है कि सार्वजनिक चकाचौंध के बिना इन समितियों के सदस्य अपने चुनाव क्षेत्र के दबाव के बिना ही अनेक मुद्दों पर चर्चा करते हैं और आम सहमति बना लेते हैं. भारतीय संदर्भ में चौथा उद्देश्य यह है कि दल-बदल विरोधी कानून समितियों पर लागू नहीं होता. यही कारण है कि समितियों के निर्णय आम तौर पर दलीय आधार पर नहीं लिये जाते. अंततः ये समितियाँ अपने सदस्यों को कुछेक विशिष्ट क्षेत्रों पर ही ध्यान केंद्रित करने और अपनी विशेषज्ञता बनाने के लिए प्रेरित करती हैं ताकि वे समग्र रूप में गहराई से संबंधित मुद्दों की जाँच कर सकें.


ये समितियाँ कितनी प्रभावी होती हैं? विभागीय स्थायी समितियों (DRSCs) का गठन सन् 1993 में हुआ था. इससे पहले विधेयकों की जाँच की कोई व्यवस्थित प्रक्रिया नहीं थी और महत्वपूर्ण विधेयकों के लिए प्रवर समितियों का गठन समय-समय पर कर लिया जाता था. इन समितियों की बैठकों में अन्य मामलों और बजटीय मामलों की भी जाँच नहीं की जाती थी. हरेक विभागीय स्थायी समिति (DRSC) कुछेक मंत्रालयों पर ही केंद्रित रहती है और यही कारण है कि सदस्यों को संबंधित क्षेत्र का ज्ञान बढ़ाने के लिए प्रेरित किया जाता है. इस समय चौबीस विभागीय स्थायी समितियाँ (DRSCs) हैं. जैसे, वित्त समिति, परिवहन, पर्यटन या संस्कृति समिति. प्रत्येक समिति में लोकसभा के 21 और राज्यसभा के 10 सदस्य होते हैं.


आम तौर पर विभागीय स्थायी समितियों (DRSCs) की बैठकों में विधेयकों की समीक्षा करते समय अनेक विशेषज्ञों को आमंत्रित किया जाता है, लेकिन व्यापक प्रभाव वाले विधेयकों के मामले में भी हमेशा ऐसा नहीं हो पाता. उदाहरण के लिए, शिक्षा का अधिकार विधेयक, 2008 की समीक्षा करने वाली विभागीय स्थायी समिति (DRSC) ने भी किसी विशेषज्ञ को साक्ष्य के लिए नहीं बुलाया था. यही वह विधेयक है, जिसमें छह से चौदह वर्ष की उम्र वाले बच्चों के लिए निःशुल्क शिक्षा देने की गारंटी दी गई थी. दूसरी बात यह है कि सभी विधेयक समितियों को नहीं भेजे गए थे. जहाँ एक ओर, पिछली दो संसदों की कार्यावधियों के दौरान 60 और 71 प्रतिशत विधेयक समितियों को भेजे गए थे, वहीं मौजूदा संसद में प्रस्तुत केवल 27 प्रतिशत विधेयक ही समितियों को भेजे गए. वैसे तो नियम यही है कि लोकसभा के अध्यक्ष या राज्यसभा के अध्यक्ष द्वारा ही विधेयक समितियों को भेजा जाए, लेकिन सामान्यतः इसे संबंधित मंत्री की सिफ़ारिश पर ही भेजा जाता है. राज्यसभा की संरचना कुछ ऐसी है कि कुछ मामलों में तो इससे संवीक्षा या छानबीन करने में मदद ही मिलती है. मौजूदा सरकार राज्यसभा में अल्पमत में है. ऐसे मौके कई बार आए हैं जब लोकसभा में पारित हो जाने के बाद भी राज्यसभा ने प्रवर समिति गठित की है ताकि संबंधित विधेयकों की बारीकी से जाँच की जा सके. इतना ही नहीं, संविधान में संशोधन के लिए अपेक्षित वस्तु व सेवा कर (GST) जैसा महत्वपूर्ण विधेयक भी विभागीय स्थायी समिति (DRSC) को भेजे बिना ही लोकसभा द्वारा पारित कर दिया गया था. राज्यसभा द्वारा प्रवर समिति गठित की गई और उसकी अनेक सिफ़ारिशों को विधेयक में शामिल करने के बाद ही विधेयक पारित किया जा सका. तीसरी बात यह है कि इन समितियों की सिफ़ारिशें मानना भी बाध्यकारी नहीं होता. सरकार या कोई अन्य सदस्य संबंधित संशोधनों को संसद के पटल पर प्रस्तुत करता है और फिर सदन द्वारा मतदान करके इसे पारित किया जाता है. इसके पीछे मंशा यही है कि समितियाँ संसद का ही एक छोटा भाग हैं, जिनका काम है संबंधित मुद्दे की जाँच करके सिफ़ारिशें देना. उसके बाद पूरे सदन को यह अधिकार है और उसकी ज़िम्मेदारी भी है कि वह इस संबंध में अंतिम निर्णय ले.


नई प्रवृत्ति को उजागर करना भी प्रासंगिक होगा. वित्त मंत्रालय द्वारा प्रस्तुत अनेक विधेयकों को तो विभागीय स्थायी समिति (DRSC) को भेजे बिना ही विशेष रूप से गठित संयुक्त समिति को भेज दिया गया. हालाँकि इसका स्पष्ट कारण तो पता नहीं है, लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि विभागीय स्थायी समिति (DRSC) की अध्यक्षता कांग्रेस पार्टी के किसी सदस्य द्वारा की जाती है, जबकि संयुक्त समितियों की अध्यक्षता शासक पार्टी भाजपा द्वारा की जाती है.


जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है कि विभागीय स्थायी समितियाँ (DRSCs) अन्य विषयों के साथ-साथ अनुदान-माँगों की जाँच भी करती हैं. फिर सरकार सिफ़ारिशों के कार्यान्वयन की सूचना भी समितियों को देती है और समितियाँ उन सिफ़ारिशों पर की गई कार्रवाई से संबंधित रिपोर्ट प्रकाशित करती है. पिछली संसद की पाँच वर्ष की कालावधि में सरकार ने समितियों की 54 प्रतिशत सिफ़ारिशें स्वीकार की थीं और विभागीय स्थायी समिति (DRSC) ने 13 प्रतिशत मामलों में संतोष प्रकट किया था, 21 प्रतिशत मामलों में उनकी प्रतिक्रिया को निरस्त कर दिया था और 12 प्रतिशत मामलों में उन्हें प्रतिक्रियाएँ ही नहीं मिलीं.


इन समितियों की एक बड़ी कमज़ोरी यह है कि उनके पास स्थायी अनुसंधान के लिए कोई सपोर्ट नहीं है. संसद का सामान्य सपोर्ट स्टाफ़ ही इन समितियों को भी सपोर्ट करता है. इनके पास शोधकर्ताओं के रूप में पूरी तरह से समर्पित स्टाफ़ नहीं होता. हालाँकि ये समितियाँ बाहरी विशेषज्ञों की सेवाएँ ले सकती हैं और वे अक्सर ऐसा करती भी हैं, लेकिन इनका अपना कोई आंतरिक विशेषज्ञ नहीं होता, जो इनकी सम्मतियों को सूक्ष्म रूप में समझ सके. एक संबंधित मुद्दा यह भी है कि संसद के सदस्यों में बार-बार भारी बदलाव भी होता रहता है. पिछली तीन लोकसभाओं में प्रत्येक में 50 प्रतिशत से अधिक सांसद पहली बार लोकसभा में चुनकर आए थे. जहाँ एक ओर कई अनेक अनुभवी सांसद मंत्री बन गए, वहीं सांसदों का एक छोटा-सा वर्ग बहुत लंबे समय तक समिति का सदस्य रहने के कारण संबंधित विषय की जानकारी प्राप्त करता रहा.


अंतिम मुद्दा है, समिति के कार्यसंचालन में पारदर्शिता से जुड़ा मुद्दा. सभी समितियों की बैठकें बंद दरवाज़ों में होती हैं. उनकी केवल अंतिम रिपोर्ट ही प्रकाशित होती है, जिसमें संक्षेप में कार्यवृत्त दिये जाते हैं. इस बात को लेकर भी बहस होती रही है कि इनकी बैठकों की कार्यवाही को भी (संसदीय कार्यवाही की तरह) टी.वी. पर सीधे प्रसारित किया जाना चाहिए या फिर कम से कम उसके ट्रांसक्रिप्ट को ही प्रकाशित कर दिया जाए. इसके लिए प्रति-तर्क यह भी दिया जा सकता है कि समितियाँ चर्चा के लिए एक मंच प्रदान करती हैं और अक्सर आम सहमति भी बना ली जाती है. यह तभी संभव हो पाता है जब सदस्यों पर एक खास तरह की सोच के अनुरूप अपनी राय व्यक्त करने का कोई दबाव नहीं होता. अगर विस्तृत कार्यवाहियों को सार्वजनिक किया जाने लगे तो इसका उद्देश्य ही पूरा नहीं हो पाएगा. मध्यम मार्ग यही हो सकता है कि विभिन्न विशेषज्ञों और सार्वजनिक जीवन से जुड़े लोगों की प्रस्तुतियों और साक्ष्य को ही प्रकाशित कर दिया जाए ताकि सदस्यों को चुनाव क्षेत्र के दबाव से मुक्त करते हुए उनके विचारों को अधिक पारदर्शी रूप में देखा जा सके.


भारत के संसदीय अनुभव में विभागीय स्थायी समिति (DRSC) प्रणाली का प्रयोग बहुत कामयाब रहा है. संबंधित मुद्दों की ब्यौरेवार जाँच की क्षमता को और अधिक मज़बूत बनाने के लिए यह बेहद ज़रूरी है ताकि कानून बनाने और जवाबदेही के लिए संसदीय कार्यों को बेहतर बनाया जा सके. इनमें निम्नलिखित कामों को शामिल किया जा सकता है, सभी विधेयकों की अनिवार्य जाँच, अनुसंधान दलों का गठन और पक्षपोषण करने वाले दलों से प्राप्त तथ्यों और विचारों को सामने रखकर इनके कार्य-संचालन में सुधार लाया जा सके और इसे और अधिक पारदर्शी बनाया जा सके. कई सांसद इन समितियों को ‘लघु संसद’ भी कहते हैं और इनको सुदृढ़ करने से इसका सीधा प्रभाव संसद की समग्र कार्यप्रणाली पर भी पड़ेगा.






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