Neel Vidroh Ka Prabhav नील विद्रोह का प्रभाव

नील विद्रोह का प्रभाव



GkExams on 21-11-2022


नील के पौधे के बारें में : नील का वानस्पतिक नाम "Indigofera tinctoria" है। यह पौधा एक से दो मीटर ऊँचा होता है, जिसमे निकलने वाले फूलो का रंग बैंगनी और गुलाबी होता है। इसके पौधे जलवायु के आधार पर एक से दो वर्ष तक उत्पादन देते है। भारत की बात करें तो यहाँ नील की फसल मुख्य रूप में बिहार और बंगाल जैसे राज्यों (indigo farming india) में उगाई जाती है।

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इस पौधे की पत्तियों के प्रसंस्करण से नील रंजक (indigo rebellion) प्राप्त किया जाता है। नील की खेती सबसे पहले बंगाल में 1777 में शुरू हुई थी। यूरोप में ब्लू डाई की अच्छी डिमांड होने की वजह से नील की खेती करना आर्थिक रुप से लाभदायक था।


नील की खेती के लिए भूमि :




सबसे पहले तो आपको बता दे की इस प्रकार की खेती (indigo farming in british india) के लिए बलुई दोमट मिट्टी की आवश्यकता होती है। और भूमि में उचित जल निकासी भी होनी चाहिए। जल-भराव वाली भूमि में इसकी खेती करना मुश्किल होता है।


वैसे नील की अच्छी फसल के लिए गर्म और नरम जलवायु को उचित माना जाता है। नील के पौधों को अधिक वर्षा की जरूरत होती है, क्योंकि इसके पौधे बारिश के मौसम में बढ़िया विकास करते हैं। इसके पौधों को सामान्य तापमान की जरूरत होती है। अधिक गर्म और अधिक ठंडे मौसम में फ़सल को बहुत नुकसान हो सकता है।


नील की खेती (indigo farming in hindi) की रोपाई जून-जुलाई में की जानी चाहिए। इससे पौधा कम समय में कटाई के लिए तैयार होता है और अच्छी पैदावार मिलती है। खेत में बीजों को लगाने से पहले खेत में एक से डेढ़ फ़ीट की दूरी रखते हुए पंक्तियों को तैयार करना चाहिए। इन पंक्तियों में प्रत्येक बीज के बीच एक फ़ीट की दूरी रखें।


ध्यान रहे की नील के पौधे 3 - 4 महीने में उत्पादन देने के लिए तैयार हो जाते हैं। इसके बाद पौधों (indigo crop in hindi) की कटाई की जा सकती है। नील के पौधों की कटाई कई बार की जा सकती है। एक से अधिक बार कटाई करने के लिए पौधों पर फूल बनने से पहले उन्हें काट लेना चाहिए।


नील की खेती के लाभ :




वर्तमान समय में बिहार के किसान एक एकड़ के खेत में 7 क्विंटल सूखी पत्तियों को प्राप्त कर लेते है। जिसका बाज़ारी भाव 50 से 60 रूपए प्रति किलो के आसपास होता है। जिससे किसान भाई एक एकड़ के खेत में नील की एक बार की फसल से 50 हज़ार रूपए तक की कमाई कर सकते है।


नील की खेती के नुकसान :




इस प्रकार की खेती की समस्या (indigo crop history) ये है की ये ज़मीन को बंजर कर देती है और इसके अलावा किसी और चीज़ की खेती होना बेहद मुश्किल हो जाता है। शायद यही कारण था कि अंग्रेज़ अपना देश छोड़कर भारत में मनमाने तरीके से इसे उगाया करते थे।


नील की खेती का आंदोलन :




इसे "नील विद्रोह" के नाम से जाना जाता है। इस विद्रोह के आरम्भ में नदिया जिले के किसानों ने 1859 के फरवरी-मार्च में नील का एक भी बीज बोने से मना कर दिया। यह आन्दोलन पूरी तरह से अहिंसक था तथा इसमें भारत के हिन्दू और मुसलमान दोनो ने बराबर का हिस्सा लिया। सन् 1860 तक बंगाल में नील की खेती लगभग ठप पड़ गई। सन् 1860 में इसके लिए एक आयोग गठित किया गया।


नील विद्रोह का प्रभाव :




नील आयोग ने जांच के बाद सुझाव दिया कि किसी भी रैय्यत को नील की खेती के लिए विवश नहीं किया जाएगा और सारे विवादों का निपटारा कानूनी ढंग से होगा। इस प्रकार बंगाल में नील उगाने वाले भूमिपतियों ने मात खायी और किसान अपनी भूमि पर मनचाही खेती करने के लिए स्वतन्त्र हो गये। और इस प्रकार 1860 ई. के अन्त तक नील की खेती पूरी तरह खत्म हो गयी। यह आंदोलन भारतीय किसानों का "प्रथम सफल आन्दोलन" था।





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Comments Mahboob on 24-12-2022

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Mahi on 20-10-2022

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नील विद्रोह का प्रभाव on 10-04-2019

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