Arvind Ghosh Ka Shiksha Darshan अरविन्द घोष का शिक्षा दर्शन

अरविन्द घोष का शिक्षा दर्शन



GkExams on 12-05-2019

महर्षि अरविन्द का शिक्षा दर्शन

श्री अरविन्द ने भारतीय शिक्षा चिन्तन में महत्त्वपूर्ण योगदान किया। उन्होंने सर्वप्रथम घोषणा की कि मानव सांसारिक जीवन में भी दैवी शक्ति प्राप्त कर सकता है। वे मानते थे कि मानव भौतिक जीवन व्यतीत करते हुए तथा अन्य मानवों की सेवा करते हुए अपने मानस को `अति मानस (supermind) तथा स्वयं को `अति मानव (Superman) में परिवर्तित कर सकता है। शिक्षा द्वारा यह संभव है।


आज की परिस्थितियों में जब हम अपनी प्राचीन सभ्यता, संस्कृति एवं परम्परा को भूल कर भौतिकवादी सभ्यता का अंधानुकरण कर रहे हैं, अरविन्द का शिक्षा दर्शन हमें सही दिशा का निर्देश करता हैं। आज धार्मिक एवं अध्यात्मिक जागृति की नितान्त आवश्यकता है। श्री वी आर तनेजा के शब्दों में-

"श्री अरविन्द का शिक्षा-दर्शन लक्ष्य की दृष्टि से आदर्शवादी, उपागम की दृष्टि से यथार्थवादी, क्रिया की दृष्टि से प्रयोजनवादी तथा महत्त्वाकांक्षा की दृष्टि से मानवतावादी है। हमें इस दृष्टिकोण को शिक्षा में अपनाना चाहिए।"

अनुक्रम

  • 1 शैक्षिक प्रयोग
  • 2 योग एवं दर्शन की अभिरुचि
  • 3 श्री अरविन्द का शैक्षिक दर्शन
    • 3.1 अरविन्द की दार्शनिक विचारधारा
  • 4 वर्तमान शिक्षा-पद्धति से असन्तोष
  • 5 शिक्षा के लक्ष्य
  • 6 पाठ्यक्रम
  • 7 नैतिक शिक्षा
  • 8 शिक्षण-विधि तथा शिक्षक

शैक्षिक प्रयोग

राष्ट्रीय आन्दोलन में लगे हुए विद्यार्थियों को शैक्षिक सुविधाएं प्रदान करने हेतु कलकत्ता में एक राष्ट्रीय महाविद्यालय स्थापित किया गया। श्री अरविन्द को 150 रु प्रति माह के वेतन पर इस कॉलेज का प्रधानाचार्य नियुक्त किया गया। इस अवसर का लाभ उठाते हुए श्री अरविन्द ने राष्ट्रीय शिक्षा की संकल्पना का विकास किया तथा अपने शिक्षा-दर्शन की आधारशिला रखी। यही कॉलेज आगे चलकर जादवपुर विश्वविद्यालय के रूप में विकसित हुआ। प्रधानाचार्य का कार्य करते हुए श्री अरविन्द अपने लेखन तथा भाषणों द्वारा देशवासियों को प्रेरणा देते हुए राजनैतिक गतिविधियों में भाग लेते रहे।


1908 ई में राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेने के कारण श्री अरविन्द गिरफ्तार हुए व जेल में रहे। उन पर मुकदमा चलाया गया तथा अदालत में दैवयोग से उनके मुकदमे की सुनवाई सैशन जज सी पी बीचक्राफ्ट ने की जो अरविन्द के ICS के सहपाठी रह चुके थे तथा अरविन्द की कुशाग्र बुद्धि से प्रभावित थे। अरविन्द के वकील चितरंजन दास ने जज बीचक्राफ्ट से कहा- "जब आप अरविन्द की बुद्धि से प्रभावित हैं तो यह कैसे संभव है कि अरविन्द किसी षडयन्त्र से भाग ले सकते हैं?" बीच क्राफ्ट ने अरविन्द को जेल से मुक्त कर दिया।

योग एवं दर्शन की अभिरुचि

जेल की अवधि में श्री अरविन्द ने आध्यात्मिक साधना की तथा उन्हें ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त हुआ। इसके पूर्व वे 1907 ई में जब बड़ौदा में थे तो एक प्रसिद्ध योगी विष्णु भास्कर लेलेके संपर्क में आये और योग-साधना में प्रवृत्त हुए। जेल से मुक्त होकर वे 4 अप्रैल 1910 को पांडिचेरी चले गये और उन्होंने अपना जीवन अनन्त सत्य की खोज में लगा दिया। सतत् साधना द्वारा उन्होंने अपनी आध्यामिक दार्शनिक विचारधारा का विकास किया।

श्री अरविन्द का शैक्षिक दर्शन

अरविन्द की दार्शनिक विचारधारा

श्री अरविन्द के दार्शन का लक्ष्य "उदात्त सत्य का ज्ञान" (Realization of the sublime Truth) है जो "समग्र जीवन-दृष्टि" (Integral view of life) द्वारा प्राप्त होता है। समग्र जीवन-दृष्टि मानव के ब्रह्म में लीन या एकाकार होने पर विकसित होती है। ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण द्वारा मानव `अति मानव (superman) बन जाता है अर्थात् वह सत, रज व तम की प्रवृत्ति से ऊपर उठकर ज्ञानी बन जाता है। अतिमानव की स्थिति में व्यक्ति सभी प्राणियों को अपना ही रूप समझता है। जब व्यक्ति शारीरिक, मानसिक तथा आत्मिक दृष्टि से एकाकार हो जाता है तो उसमें दैवी शक्ति (Devine Power) का प्रादुर्भाव होता है।


समग्र जीवन-दृष्टि हेतु अरविन्द ने योगाभ्यास पर अधिक बल दिया है। योग द्वारा मानसिक शांति एवं संतोष प्राप्त होता है। अरविन्द की दृष्टि में योग का अर्थ जीवन को त्यागना नहीं है बल्कि दैवी शक्ति पर विश्वास रखते हुए जीवन की समस्याओं एवं चुनौतियों का साहस से सामना करना है। अरविन्द की दृष्टि में योग कठिन आसन व प्राणायाम का अभ्यास करना भी नहीं है बल्कि ईश्वर के प्रति निष्काम भाव से आत्म समर्पण करना तथा मानसिक शिक्षा द्वारा स्वयं को दैवी स्वरूप में परिणित करना है।


अरविन्द ने मस्तिष्क की धारणा स्पष्ट करते हुए कहा है कि मस्तिष्क के विचार-स्तर चित्त, मनस, बुद्धि तथा अर्न्तज्ञान होते हैं जिनका क्रमश: विकास होता है। अर्न्तज्ञान में व्यक्ति को अज्ञान से संदेश प्राप्त होते हैं जो ब्रह्म ज्ञान के आरम्भ की परिचायक है। अरविन्द ने अर्न्तज्ञान को विशेष महत्त्व दिया है। अर्न्तज्ञान द्वारा ही मानवता प्रगति की वर्तमान दशा को पहुँची है। अत: अरविन्द का आग्रह है कि शिक्षक को अपने शिष्य की प्रतिभा का नैत्यिक-कार्य (routine work) द्वारा दमन नहीं करना चाहिए। वर्तमान शिक्षा पद्धति से अरविन्द का असंतोष इसी कारण था कि उनमें विद्यार्थियों की प्रतिभा के विकास का अवसर नहीं दिया जाता। शिक्षक को मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विद्यार्थियों की प्रतिभा के विकास हेतु उनके प्रति उदार दृष्टिकोण अपनाना चाहिए।


अरविन्द की मस्तिष्क की धारणा की परिणति `अतिमानस (supermind) की कल्पना व उसके अस्तित्व में है। अतिमानस चेतना का उच्च स्तर है तथा दैवी आत्म शक्ति का रूप है। अतिमानस की स्थिति तक शनै: शनै: पहुँचना ही शिक्षा का लक्ष्य होना चाहिए। अरविन्द के अनुसार भारतीय प्रतिभा की तीन विशेषताएँ हैं- आत्मज्ञान, सर्जनात्मकता तथा बुद्धिमत्ता (spirituality, creativity and intellectuality)। अरविन्द ने देशवासियों में इन्हीं प्राचीन आध्यात्मिक शक्तियों के विकास करने का संदेश देकर भारतीय पुनर्जागरण करना चाहा है। अरविन्द के शब्दों में-

" भारतीय आध्यात्मिक ज्ञान जैसी उत्कृष्ट उपलब्धि बगैर उच्च कोटि के अनुशासन के अभाव में संभव नहीं हो सकती जिसमें कि आत्मा व मस्तिष्क की पूर्ण शिक्षा निहित है।"

इस प्रकार श्री अरविन्द के दर्शन की चरम परिणति उनके शैक्षिक दर्शन में होती है।

वर्तमान शिक्षा-पद्धति से असन्तोष

प्रत्येक दार्शनिक अंतत: एक शिक्षाविद् होता है क्योंकि शिक्षा, दर्शन का गत्यात्मक पक्ष है। जैसा कि अभी हम देख चुके हैं - अरविन्द के दर्शन की चरम परिणति उनके शिक्षा-दर्शन में हुई है। वे वर्तमान शिक्षा-पद्धति से असन्तुष्ट थे। उनका कहना था-

"सूचनात्मक ज्ञान कुशाग्र बुद्धि का आधार नहीं हो सकता" (information can not be the foundation of intelligence।)।

यह ज्ञान तो नवीन अनुसंधान तथा भावी क्रियाकलापों का आरम्भ मात्र होता है। वे आज की शिक्षा-पद्धति में भारतीय प्रतिभा की तीन विशेषताओं-आध्यात्मिकता, सर्जनात्मकता तथा बुद्धिमत्ता- का ह्रास एवं पतन देखते थे। इस पतन का कारण वे रुग्ण आध्यात्मिकता (diseased spirituality) मानते थे।


अरविन्द की शिक्षा पद्धति की संकल्पना- अरविन्द इस प्रकार की शिक्षापद्धति चाहते थे जो विद्यार्थी के ज्ञान-क्षेत्र का विस्तार करे, जो विद्यार्थियों की स्मृति, निर्णयन शक्ति एवं सर्जनात्मक क्षमता का विकास करे तथा जिसका माध्यम मातृभाषा हो। श्री अरविन्द राष्ट्रीय विचारों के थे, अत: वे शिक्षा-पद्धति को भारतीय परम्परानुसार ढालना चाहते थे। उन्होंने शिक्षा द्वारा पुनर्जागरण का संदेश दिया था। यह पुनर्जागरण तीन दिशाओं की ओर उन्मुख होना चाहिए:-


(1) प्राचीन आध्यात्म-ज्ञान की पुर्नस्थापना;


(2) इस आध्यातम-ज्ञान की दर्शन, साहित्य, कला, विज्ञान व विवेचनात्मक ज्ञान में प्रयोग; तथा


(3) वर्तमान समस्याओं का भारतीय आत्म-ज्ञान की दृष्टि से समाधान की खोज तथा आध्यात्म प्रधान समाज की स्थापना।

शिक्षा के लक्ष्य

श्री अरविंद के अनुसार "शिक्षा का प्रमुख लक्ष्य विकासशील आत्मा के सर्वागीण विकास में सहायक होना तथा उसे उच्च आदर्शों के लिए प्रयोग हेतु सक्षम बनाना हैं।" अरविंद के विचार महात्मा गांधी द्वारा प्रतिपादित शिक्षा के लक्ष्यों के समान हैं। अरविंद की धारणा थी कि शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति में यह विश्वास जागृत करना है कि मानसिक तथा आत्मिक दृष्टि से पूर्ण सक्षम है तथा वह शनै: शनै: अतिमानव (superman) की स्थिति में आ रहा है। शिक्षा द्वारा व्यक्ति की अन्तर्निहित बौद्धिक एवं नैतिक क्षमताओं का सर्वोच्च विकास होना चाहिए। अरविंद का विश्वास था कि मानव दैवी शक्ति से समन्वित है और शिक्षा का लक्ष्य इस चेतना शक्ति का विकास करना है। इसीलिए वे मस्तिष्क को छठी ज्ञानेन्द्रिय मानते थे। शिक्षा का प्रयोजन इन छ: ज्ञानेन्द्रियों का सदुपयोग करना सिखाना होना चाहिए। उन्होंने कहा था कि-"मस्तिष्क का उच्चतम सीमा तक पूर्ण प्रशिक्षण होना चाहिए अन्यथा बालक अपूर्ण तथा एकांगी रह जायेगा। अत: शिक्षा का लक्ष्य मानव-व्यक्तित्व के समेकित विकास हेतु अतिमानस (supermind) का उपयोग करना है।"

पाठ्यक्रम

शिक्षा के पाठ्यक्रम के विषय में अरविन्द चाहते थे कि अनेक विषयों का सतही ज्ञान कराने की अपेक्षा विद्यार्थियों को कुछ चयनित विषयों का ही गहन अध्ययन कराया जाये। वे भारतीय इतिहास एवं संस्कृति को पाठ्यक्रम का अभिन्न अंग मानते थे क्योंकि उनका विचार था कि प्रत्येक बालक में इतिहास बोध होता है जो परीकथाओं, खेल व खिलौनों के माध्यम से प्रकट होता है। अत: बालकों को अभिरुचि अपने देश के साहित्य एवं इतिहास के प्रति विकसित करनी चाहिए।


अरविन्द के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति में जिज्ञासा, खोज, विश्लेषण व संश्लेषण करने की प्रवृत्ति होती है। अत: वे विज्ञान को पाठ्यक्रम में स्थान देते थे। विज्ञान द्वारा मानव प्राकृतिक वातावरण को समझता है तथा उसमें वस्तुनिष्ट बुद्धि के विकास हेतु अनुशासन आता है। मस्तिष्क को प्रधानता देने के कारण अरविन्द पाठ्यक्रम में मनोविज्ञान विषय को भी सम्मिलित करना चाहते थे जिससे कि `समग्र जीवन-दृष्टि विकसित हो सके। इसी उद्देश्य से वे पाठ्यक्रम में दर्शन एवं तर्कशास्त्र को भी स्थान देते थे।

नैतिक शिक्षा

अरविन्द बालक के बौद्धिक विकास के साथ उसका नैतिक एवं धार्मिक विकास भी करना चाहते थे। उनकी धारणा थी- "मानव की मानसिक प्रवृत्ति नैतिक प्रवृति पर आधारित है। बौद्धिक शिक्षा, जो नैतिक व भावनात्मक प्रगति से रहित हो, मानव के लिए हानिकारक है।" नैतिक शिक्षा हेतु अरविन्द गुरु की प्राचीन भारतीय परंपरा के पक्षधर थे जिसमें गुरु, शिष्य का मित्र, पथ प्रदर्शक तथा सहायक हो सकता था। अनुशासन द्वारा ही विद्यार्थियों में अच्छी आदतों का निर्माण हो सकता है। नैतिक "संसूचन विधि" (method of suggestion) द्वारा दी जानी चाहिए जिसमें गुरु व्यक्तिगत आदर्श जीवन एवं प्राचीन महापुरुषों के उदाहरण द्वारा विद्यार्थियों को नैतिक विकास हेतु उत्प्रेरित करे।

शिक्षण-विधि तथा शिक्षक

अरविन्द के अनुसार शिक्षण एक विज्ञान है जिसके द्वारा विद्यार्थियों के व्यवहार में परिवर्तन आना अनिवार्य है। उनके शब्दों में- "वास्तविक शिक्षण का प्रथम सिद्धान्त है कि कुछ भी पढ़ाना संभव नहीं अर्थात् बाहर से शिक्षार्थी के मस्तिष्क पर कोई चीज न थोपी जाये। शिक्षण प्रक्रिया द्वारा शिक्षार्थी के मस्तिष्क की क्रिया को ठीक दिशा देनी चाहिए।" प्रत्येक विद्यार्थी को व्यक्तिगत अभिवृत्ति एवं योग्यता के अनुकूल शिक्षा देनी चाहिए। विद्यार्थी को अपनी प्रवृति अर्थात् "स्वधर्म" के अनुसार विकास के अवसर मिलने चाहिए। अरविन्द मानस अर्थात् मस्तिष्क को छठी ज्ञानेन्द्रिय मानते थे जिसके विकास पर वे अधिक बल देते थे। विकसित मानस से सूक्ष्म दृष्टि उत्पन्न होती है जिससे निष्पक्ष दृष्टिकोण विकसित होता है। योग द्वारा चित्त शुद्धि शिक्षण का लक्ष्य होना चाहिए। अरविन्द की दृष्टि में वही शिक्षक प्रभावी शिक्षण कर सकता है जो उपरोक्त विधि से विद्यार्थी का विकास करे। शिक्षित विद्यार्थियों को ज्ञानेन्द्रियों तथा मस्तिष्क के सही उपयोग द्वारा उनकी पर्यवेक्षण (observation), अवधान (attention), निर्णय तथा स्मरण शक्ति का विकास करने में सहायता करे। शिक्षण बालकों की तर्क शक्ति के विकास द्वारा उनमें अंतर्दृष्टि (intution) उत्पन्न करे। अरविन्द शिक्षक का महत्व प्रकट करते हुए कहते थे कि-

"शिक्षक प्रशिक्षक नहीं है, वह तो सहायक एवं पथप्रदर्शक है। वह केवल ज्ञान ही नहीं देता बल्कि वह ज्ञान प्राप्त करने की दिशा भी दिखलाता है। शिक्षण-पद्धति की उत्कृष्टता उपयुक्त शिक्षक पर ही निर्भर होती है।"




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Comments Priti yadav on 17-11-2022

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Aditi on 10-04-2022

श्री अरविन्द घोष ने पाठ्यक्रम को किन पांच आयामों में विभक्त किया है

Pradeep yadav on 30-12-2021

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Pooja on 07-11-2021

श्री अरविंद घोष ने पाठ्यक्रम को कितने आयामों में विभक्त किया है

Pooja on 07-11-2021

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Anju on 01-09-2021

Arvind Ghosh ka darshan kis pe aadharit h?

Tara Chand on 26-08-2021

अरविंद घोष ने पाठयक्रम को किन पाँच आयामों में विभक्त किया?


SANJEEV KUMAR on 01-05-2020

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Anushasan on 08-12-2019

Iske bare me batae Arvind Ghosh Ka anushasan



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