Sharad Joshi Ki Bhasha Shaili शरद जोशी की भाषा शैली

शरद जोशी की भाषा शैली



GkExams on 24-11-2018

'लेखक विद्वान हो न हो, आलोचक सदैव विद्वान होता है। विद्वान प्रायः भौंडी बेतुकी बात कह बैठता है। ऐसी बातों से साहित्य में स्थापनाएँ होती हैं। उस स्थापना की सड़ांध से वातावरण बनता है जिसमें कविताएँ पनपती हैं। सो, कुछ भी कहो, आलोचक आदमी काम का है।' आज से आठ वर्ष पूर्व आलोचना पर अपने मित्रों के समूह में बोलते हुए यह विचार मैंने प्रकट किए थे। वे पत्थर की लकीर हैं। लेखक का साहित्य के विकास में महत्व है या नहीं है यह विवादास्पद विषय हो सकता है पर किसी साहित्यिक के विकास में किसी आलोचक का महत्व सर्वस्वीकृत है। साहित्य की वैतरणी तरना हो तो किसी आलोचक गैया की पूँछ पकड़ो, फिर सींग चलाने का काम उसका और यश बटोरने का काम कमलमुख का।


आलोचना के प्रति अपनी प्राइवेट राय जाहिर करने के पूर्व मैं आपको यह बताऊँ कि आलोचना है क्या? यह प्रश्न मुझसे अकसर पूछा जाता है। साहित्य रत्न की छात्राएँ चूँकि आलोचना समझने को सबसे ज्यादा उत्सुक दिखाई देती हैं इसलिए यह मानना गलत न होगा कि आलोचना साहित्य की सबसे टेढ़ी खीर है। टेढ़ी खीर इसलिए कि मैं कभी इसका ठीक उत्तर नहीं दे पाता। मैं मुस्कराकर उन लड़कियों को कनखियों से देखकर कह देता हूँ, 'यह किसी आलोचक से पूछिए, मैं तो कलाकार हूँ।'


खैर, विषय पर आ जाऊँ। आलोचना शब्द लुच् धातु से बना है जिसका अर्थ है देखना। लुच् धातु से ही बना है लुच्चा। आलोचक के स्थान पर आलुच्चा या सिर्फ लुच्चा शब्द हिंदी में खप सकता है। मैंने एक बार खपाने की कोशिश भी की थी, एक सुप्रसिद्ध आलोचक महोदय को सभा में परिचित कराते समय पिछली जनवरी में वातावरण बहुत बिगड़ा। मुझे इस शब्द के पक्ष में भयंकर संघर्ष करना पड़ा। आलोचक महोदय ने कहा कि आप शब्द वापस लीजिए। जनता ने भी मुझे चारों ओर से घेर लिया। मुझे पहली बार यह अनुभव हुआ कि हिंदी भाषा में नया शब्द देना कितना खतरा मोल लेना है। मैंने कहा, मैं शब्द वापस लेता हूँ। पर आप यह भूलिए नहीं कि आलोचना शब्द 'लुच' धातु से बना है।


अस्तु, बात आई गई हो गई। मैंने इस विषय में सोचना और चर्चा करना बंद सा कर दिया। पर यह गुत्थी मन में हमेशा बनी रही कि आलोचक का दायित्व क्या है? वास्तव में साहित्य के विशाल गोदाम में घुसकर बेकार माल की छँटाई करना और अच्छे माल को शो-केस में रखवाना आलोचक का काम माना गया है, जिसे वह करता नहीं। वह इस चक्कर में रहता है कि अपने परिचितों और पंथ वालों का माल रहने दें, बाकी सबका फिंकवा दें। यह शुभ प्रवृत्ति है और आज नहीं तो कल इसके लाभ नजर आते हैं। कोशिश करते रहना समीक्षक का धर्म है। जैसे हिंदी में अभी तक यह तय नहीं हो पाया है कि मैथिलीशरण गुप्त, निराला और कविवर कमलमुख में कौन सर्वश्रेष्ठ है। एक राष्ट्रकवि है। एक बहुप्रशंसित है और तीसरे से बड़ी-बड़ी आशाएँ हैं।


समीक्षकों के इस उत्तरदायित्वहीन मूड के बावजूद पिछला दशक हिंदी आलोचना का स्वर्णयुग था। जितनी पुस्तकें प्रकाशित नहीं हुईं उनसे अधिक आलोचकों को सादर भेंट प्राप्त हुई हैं। कुछ पुस्तकों का संपूर्ण संस्करण ही आलोचकों को सादर भेंट करने में समाप्त हो गया। समीक्षा की नई भाषा, नई शैली का विकास पिछले दशक में हुआ है। (दशक की ही चर्चा कर रहा हूँ क्योंकि मेरे आलोचक व्यक्तित्व का कँटीला विकास भी इसी दशक में हुआ है)। हिंदी का मैदान उस समय तक सूना था जब तक आलोचना की इस खंजर शब्दावली का जन्म नहीं हुआ था। इस शब्दावली के विशेषज्ञों का प्रकाशक की दुकान पर बड़ा स्वागत होते देखा है। प्रकाशक आलोचक पालते हैं और यदि इस क्षेत्र में मेरा जरा भी नाम हुआ तो विश्वास रखिए, किसी प्रकाशक से मेरा लाभ का सिलसिला जम जाएगा।


मैंने अपने आलोचक जीवन के शैशव काल में कतिपय प्रचलित शब्दावली, मुहावरावली और वाक्यावली का अनूठा संकलन किया था जिसे आज भी जब-तब उपयोग करता रहता हूँ। किसी पुस्तक के समर्थन तथा विरोध में किस प्रकार के वाक्य लिखे जाने चाहिए, उसके कतिपय थर्ड क्लास नमूने उदाहरणार्थ यहाँ दे रहा हूँ। अच्छे उदाहरण इस कारण नहीं दे रहा हूँ कि हमारे अनेक समीक्षक उसका उपयोग शुरू कर देंगे।


समर्थन की बातें


इस दृष्टि से रचना बेजोड़ है (दृष्टि कोई भी हो)। रचना में छुपा हुआ निष्कलुष वात्सल्य, निश्छल अभिव्यक्ति मन को छूती है।


छपाई, सफाई विशेष आकर्षक है।


रूप और भावों के साथ जो विचारों के प्रतीक उभरते हैं, उससे कवि की शक्ति व संभावनाओं के प्रति आस्था बनती है।


कमलमुख की कलम चूम लेने को जी चाहता है। (दत्तू पानवाला की, यह मेरे विषय में व्यक्त राय देते हुए संकोच उत्पन्न हो रहा है परंतु उनके विशेष आग्रह को टाल भी तो नहीं सकता)।


मनोगुंफों की तहों में इतना गहरा घुसने वाला कलाकार हिंदी उपन्यास ने दूसरा पैदा नहीं किया।


आपने प्रेमचंद की परंपरा को बढ़ाया है। मैं यदि यह कहूँ कि आप दूसरे प्रेमचंद हैं तो गलती नहीं करता।


कहानी में संगीतात्मकता के कारण उसी आनंद की मधुर सृष्टि होती है जो गीतों में पत्रकारिता से हो सकती है।


विरोध की बातें


कविता न कहकर इसे असमर्थ गद्य कहना ठीक होगा। भावांकन में शून्यता है और भाषा बिखर गई है।


छपाई, सफाई तथा प्रूफ संबंधी इतनी भूलें खटकने वाली हैं।


लेख कोर्स के लिए लिखा लगता है।


रचना इस यशसिद्ध लेखक के प्रति हमें निराश करती है। ऐसी पुस्तक का अभाव जितना खटकता था, प्रकाशन उससे अधिक अखरता है।


संतुलन और संगठन के अभाव ने अच्छी भाषा के बावजूद रचना को घटिया बना दिया है।


लेखक त्रिशंकु-सा लगता है - आक्रोशजन्य विवेकशून्यता में हाथ पैर मारता हुआ।


इन निष्प्राण रचनाओं में कवि का निरा फ्रस्ट्रेशन उभरकर आ गया है।


पूर्वग्रह ग्रसित दृष्टिकोण, पस्तहिम्मत, प्रतिक्रियाग्रस्त की तड़पन व घृणा, शब्द चमत्कार से कागज काला करने की छिछली शक्ति का थोथा प्रदर्शन ही होता है इन कविताओं में।


स्वयं लेखक की दमित, कुंठित वासना की भोंडी अभिव्यक्ति यत्र तत्र ही नहीं, सर्वत्र है।


सामाजिकता से यह अनास्था लेखक को कहाँ ले जाएगी। जबकि मूल्य अधिक है पुस्तक का।


ये वे सरल लटके-खटके हैं जिनसे किसी पुस्तक को उछाला जा सकता है, गिराया जा सकता है।


आलोचना से महत्वपूर्ण प्रश्न है आलोचक व्यक्तित्व का। पुस्तक और उसका लेखक तो बहाना या माध्यम मात्र है जिसके सहारे आलोचक यश अर्जित करता है। प्रसिद्धि का पथ साफ खुला है। स्वयं पुस्तक लिखकर नाम कमाइए अथवा दूसरे की पुस्तक पर विचार व्यक्त कर नाम कमाइए। बल्कि कड़ी आलोचना करने से मौलिक लेखक से अधिक यश प्राप्त होता है।


इस संदर्भ में मुझे एक वार्तालाप याद आता है जो साहित्यरत्न की छात्रा और मेरे बीच हुआ था -


रात के दस बजे / गहरी ठंड / पार्क की बेंच / वह और मैं / तारों जड़ा आकाश / घुप्प एकांत लुभावना।


वह - 'आलोचना मेरी समझ में नहीं आती सर।'


मैं - 'हाय सुलोचना, इसका अर्थ है तुझमें असीम प्रतिभा है। सृजन की प्रचुर शक्ति है। महान लेखकों को आलोचना कभी समझ में नहीं आती।'


वह - 'आप आलोचना क्यों करते हैं?'


मैं - 'और नहीं तो क्या करूँ। दूसरे की आलोचना का पात्र बनने से बेहतर है मैं स्वयं आलोचक बन जाऊँ।'


वह - 'किसी की आलोचना करने से आपको क्या मिलता है?'


मैं - 'उसकी पुस्तक।'


कुछ देर चुप्पी रही।


वह - 'सच कहें सर, आपको मेरे गले की कसम, झूठ बोलें तो मेरा मरा मुँह देखें। आलोचना का मापदंड क्या है? समीक्षक का उत्तरदायित्व आप कैसे निभाते हैं?'


उस रात सुलोचना के कोमल हाथ अपने हाथों में ले पाए बिना भी मैंने सच-सच कह दिया - 'सुलोचना! आलोचना का मापदंड परिस्थितियों के साथ बदलता है। समूचा हिंदी जगत तीन भागों में बँटा है। मेरे मित्र, मेरे शत्रु और तीसरा वह भाग जो मेरे से अपरिचित है। सबसे बड़ा यही, तीसरा भाग है। यदि मित्र की पुस्तक हो तो उसके गुण गाने होते हैं। सुरक्षा करता हूँ। शत्रु की पुस्तक के लिए छीछालेदर की शब्दावली लेकर गिरा देता हूँ। और तीसरे वर्ग की पुस्तक बिना पढ़े ही, बिना आलोचना के निबटा देता हूँ या कभी-कभी कुछ सफे पढ़ लेता हूँ। अपने प्रकाशक ने यदि किसी लेखक की पुस्तक छापी हो तो उसकी प्रशंसा करनी होती है ताकि कुछ बिक विक जाए। जिस पत्रिका में आलोचना देनी हो उसके गुट का खयाल करना पड़ता है। रेडियो के प्रोड्यूसर, पत्रों के संपादक तथा हिंदी विभाग के अध्यक्ष आलोचना के पात्र नहीं होते। सुलोचना, सच कहता हूँ, प्रयोगवादी धारा का अदना-सा उम्मीदवार हूँ। अतः हर प्रगतिशील बनने वाले लेखक के खिलाफ लिखना धर्म समझता हूँ। फिर भी मैं कुछ नहीं हूँ। मुश्किल से एक-दो पुस्तक साल में समीक्षार्थ मेरे पास आती है बस... बस इतना ही।'


(सुलोचना ने बाद में बताया उस रात मेरी आँखों में आँसू छलछला आए थे।)






सम्बन्धित प्रश्न



Comments Ajay on 25-12-2021

Shekhar joshee Bhasa seeli

Nancy on 25-07-2021

अफसर व्यंग्य की प्रसादी प्रकाश डालिये

Vikash verma on 06-04-2021

Shekhar josi ki bahasa seli


Vikash verma on 06-04-2021

Thoda Chhota Chhota Uttar batao are bhai Ham 11 class ke bacchehe itne bade bade kese yad karege

Vicky on 15-12-2020

Pagal ho name short me chahiye
Bhai

Sarad joshi on 29-11-2020

Sarad joshi ki bhasha sayli

Remeshvar singh on 16-08-2020

Sarad joshi ki rachna


Deepak vishwakarma on 31-12-2019

भाई हम 10th 12th क्लास के बच्चे है इतना बड़ा लिख कर क्या करेंगे हमें तो शॉर्टकट में चाहिए



Rajkumar on 18-12-2019

Sharad joshi ki 2 rachnaye or bhasha sheili or sanitya me sthan



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