शिक्षण अधिगम प्रक्रिया और सीखना चारों ओर के परिवेश से अनुकूलन में सहायता करता है। किसी विशिष्ट सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश में कुछ समय रहने के पश्चात् हम उस समाज के नियमों को समझ जाते हैं और यही हमसे अपेक्षित भी होता है। हम परिवार, समाज और अपने कार्यक्षे त्र के जिम्मे दार नागरिक एवं सदस्य बन जाते हैं। यह सब सीखने के कारण ही सम्भव है। हम विभिन्न प्रकार के कौशलों को अर्जित करने के लिये सीखने का ही प्रयोग करते हैं। परन्तु सबसे जटिल प्रश्न यह है कि हम सीखते कैसे हैं ?
शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षण सबसे प्रमुख हैं। शिक्षण एक सामाजिक प्रक्रिया हैं। शिक्षण शब्द शिक्षा से बना हैं जिसका अर्थ हैं ‘ शिक्षा प्रदान करना‘। शिक्षण की प्रक्रिया मानव व्यवहार को परिवर्तित करने की तकनीक हैं अर्थात् शिक्षण का उद्देश्य व्यवहार परिवर्तन हैं।
शिक्षण एवं अध्ययन, एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें बहुत से कारक शामिल होते हैं। सीखने वाला जिस तरीके से अपने लक्ष्यों की ओर बढ़ते हुए नया ज्ञान, आचार और कौशल को समाहित करता है ताकि उसके सीख्नने के अनुभवों में विस्तार हो सके, वैसे ही ये सारे कारक आपस में संवाद की स्थिति में आते रहते हैं।
पिछली सदी के दौरान शिक्षण पर विभिन्न किस्म के दृष्टिकोण उभरे हैं। इनमें एक है ज्ञानात्मक शिक्षण, जो शिक्षण को मस्तिष्क की एक क्रिया के रूप में देखता है। दूसरा है, रचनात्मक शिक्षण जो ज्ञान को सीखने की प्रक्रिया में की गई रचना के रूप में देखता है। इन सिद्धांतों को अलग-अलग देखने के बजाय इन्हें संभावनाओं की एक ऐसी श्रृंखला के रूप में देखा जाना चाहिए जिन्हें शिक्षण के अनुभवों में पिरोया जा सके। एकीकरण की इस प्रक्रिया में अन्य कारकों को भी संज्ञान में लेना जरूरी हो जाता है- ज्ञानात्मक शैली, शिक्षण की शैली, हमारी मेधा का एकाधिक स्वरूप और ऐसा शिक्षण जो उन लोगों के काम आ सके जिन्हें इसकी विशेष जरूरत है और जो विभिन्न सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से आते हैं।
सीखना या अधिगम (learning) एक व्यापक सतत् एवं जीवन पर्यन्त चलनेवाली महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। मनुष्य जन्म के उपरांत ही सीखना प्रारंभ कर देता है और जीवन भर कुछ न कुछ सीखता रहता है। धीरे-धीरे वह अपने को वातावरण से समायोजित करने का प्रयत्न करता है। इस समायोजन के दौरान वह अपने अनुभवों से अधिक लाभ उठाने का प्रयास करता है। इस प्रक्रिया को मनोविज्ञान में सीखना कहते हैं। जिस व्यक्ति में सीखने की जितनी अधिक शक्ति होती है, उतना ही उसके जीवन का विकास होता है। सीखने की प्रक्रिया में व्यक्ति अनेक क्रियाऐं एवं उपक्रियाऐं करता है। अतः सीखना किसी स्थिति के प्रति सक्रिय प्रतिक्रिया है।
उदाहरणार्थ – छोटे बालक के सामने जलता दीपक ले जानेपर वह दीपक की लौ को पकड़ने का प्रयास करता है। इस प्रयास में उसका हाथ जलने लगता है। वह हाथ को पीछे खींच लेता है। पुनः जब कभी उसके सामने दीपक लाया जाता है तो वह अपने पूर्व अनुभव के आधार पर लौ पकड़ने के लिए, हाथ नहीं बढ़ाता है, वरन् उससे दूर हो जाता है। इसीविचार को स्थिति के प्रति प्रतिक्रिया करना कहते हैं। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि अनुभव के आधार पर बालक के स्वाभाविक व्यवहार में परिवर्तन हो जाता है।
सीखना चारों ओर के परिवेश से अनुकूलन में सहायता करता है। किसी विशिष्ट सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश में कुछ समय रहने के पश्चात् हम उस समाज के नियमों को समझ जाते हैं और यही हमसे अपेक्षित भी होता है। हम परिवार, समाज और अपने कार्यक्षे त्र के जिम्मे दार नागरिक एवं सदस्य बन जाते हैं। यह सब सीखने के कारण ही सम्भव है। हम विभिन्न प्रकार के कौशलों को अर्जित करने के लिये सीखने का ही प्रयोग करते हैं।
1. अनुभव, क्रिया-प्रतिक्रिया, निर्देश आदि प्राणी के वयवहार में परिवर्तन लाते रहते है। यह अधिगम का व्यापक अर्थ है।
2. सामान्य अर्थ-व्यव्हार में परिवर्तन होना या सीखना होता है।
3. गिल्फोर्ड -” व्यवहार के कारण में परिवर्तन होना अधिगम है ” ( अधिगम स्वय व्यव्हार में परिवर्तन का कारण है)।
4. स्किनर -” व्यवहार के अर्जन में उन्नति की प्रक्रिया ही अधिगम है “।
5. काल्विन -“पहले से निर्मित व्यवहार में अनुभव द्वारा परिवर्तन ही अधिगम है “।
6. अधिगम की पूरक प्रक्रिया विभेदीकरण या विशिष्टीकरण भी मानी गई है। जैसे -खिलोने के सभी घटकों को अलग कर फिर से जोड़ना।
7. अधिगम सदैव लक्ष्य-निर्दिष्ट व सप्रयोजन होता है। यदि अधिगम के लक्ष्यों को स्पस्ट और निश्चित कथन में दिया जाये तो अधिगमकर्ता के लिए अधिगम अर्थपूर्ण तथा सप्रयोजन होगा।
8. अधिगम एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है जैसे विकास।
9. अधिगम व्यक्तिगत होता है अर्थात प्रत्येक अधिगमकर्ता अपनी गति से,रूचि, आकांक्षा, समस्या, संवेग, शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य आदि के आधार पर सीखता है। इसमें अभिप्रेरनात्मक करना भी होते है।
10. अधिगम सृजनात्मक होता है अर्थात अधिगम ज्ञान व अनुभवों का सृजनात्मक संश्लेषण है।
बालक के लिए कारक :- 1. सिखने की इच्छा 2. शैक्षिक प्रष्ठभूमि 3. शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य 4. परिपक्वता 5. अभिप्रेरणा 6. अधिगम कर्ता की अभिवृति 7. सिखने का समय व अवधि और 8.बुद्धि
अध्यापक के लिए कारक :- 1. अध्यापक का विषय ज्ञान, 2. शिक्षक का व्यवहार 3. शिक्षक को मनोविज्ञान का ज्ञान 4. शिक्षण विधि 5. व्यक्तिगत भेदों का ज्ञान 6. शिक्षक का व्यक्तित्व 7. पाठ्य-सहगामी क्रियाएं और 8. अनुशासन की स्थिति
पावलाव ,स्किनर आदि ने जिस प्रकार अधिगम सिद्धांतवादों का प्रतिपादन किया उसी प्रकार थार्नडायिक ने अधिगम के नियमो का प्रतिपादन किया है –
1. तत्परता का नियम: जब तक कोई अधिगम कर्ता सिखने के लिए अपने मन से तत्पर नहीं है तब तक अधिगम कठिन है।
2. अभ्यास का नियम: क्युकी शिक्षा,शिक्षण और अधिगम का मूल उद्देश्य विद्यार्थिओं में व्यवहारगत परिवर्तन लाना है। अतः व्यवहार में निरंतर अभ्यास न होने पर उसे भूल जाते है अतः अभ्यास अधिगम में बहुत महत्वपूर्ण है।
3. प्रभाव का नियम: जिस बात की जीवन उपयोगिता जितनी अधिक होगी बालक सिखने के लिए उतना ही अधिक प्रभावित होगा। साथ ही पूर्वज्ञान के प्रभाव में भी वह नए ज्ञान का अधिगम करता है।
साहचर्यवादी –
1. अनुकरण सिद्धांत – अनुकरण का सिद्धांत प्लेटो और अरस्तु की उपज है। इसके अनुसार अधिगम की प्रक्रिया में सुनी हुई बात की अपेक्षा देखि हुई या किसी परिस्थिति में घटित हुई बात का प्रभाव अधिक होता है। यही करना है की विद्यार्थी शिक्षक का अनुकरण (नक़ल) करते है।
2. प्रयत्न एवं भूल का सिद्धांत – थार्नडायिक इस सिद्धांत के प्रणेता है। उनके अनुसार अधिगम, परिस्थिति और उसके परिणामों क बीच पारस्परिक संबंधो का परिणाम है। किसी कार्य को करने का प्रयत्न तो कोई भी कर सकता है किन्तु उसमे सुधर मस्तिस्क की विशेष प्रक्रिया है। मस्तिस्क विकसित होता जाता है और जीरो-इरर की स्थिति आदर्श होती है। नए प्रयोग और नेई खोज आदि के लिए इस सिद्धांत अत्यंत उपयोगी है।
व्यव्हारवादी –
1. पावलाव का सिद्धांत – इसे पावलाव का अनुकूलित अनुक्रिया सिद्धांत / क्लासिकी अनुबंध / शाश्त्रीय अनुबंध सिद्धांत वाद भी कहते है, यह व्यव्हार वादी सिद्धांत है। इसको मानने वालों में पावलाव,स्किनर, वाटसन आदि है। पावलाव ने कुत्तों पर, स्किनर ने चूहों पर, और वाटसन ने खरगोश के बच्चो पर प्रयोग किये। इस सिद्धांत में – ” स्वाभाविक उद्दीपक के साथ कृत्रिम उद्दीपक को इस प्रकार अनुबंधित किया जाता है की अनुक्रिया अंत में कृत्रिम उद्दिपक से ही अनुबंधित रह जाती है। इसलिए इसे उद्दीपन-अनुक्रिया -सिद्धांत भी कहते है। अधिगम की दृष्टि से देखें तो बालक को लोरी सुनाना, प्रशंसा करना आदि उद्दीपक से धीरे-धीरे जो अनुक्रिया होती है वह अंततः आदत बन जाती है . अर्थात उत्तेजक द्वारा उत्प्रेरण का इस सिद्धांत में बड़ा महत्त्व है।.
2. स्किनर का सिद्धांत – इसे क्रियाप्रसूत अनुबंधन का सिद्धांत भी कहते है। यह एक अधिगम प्रक्रिया है जिसके द्वारा अधिगम अनुक्रिया को अधिक संभाव्य और द्रुत बनाया जाता सकता है। स्किनर की मान्यता है की मानव का समग्र व्यवहार क्रियाप्रसूत पुनर्बलन है। जब कोई बात किसी व्यव्हार के किसी रूप को पुनर्बलित करती है तो उस व्यव्हार की आवृति अधिक होती है। प्रबलन जीतना अधिक शक्तिशाली होगा व्यवहार की आवृति उतनी ही अधिक होगी। प्राकृतिक प्रबलन सबसे अधिक शक्तिशाली होते है। अभिवृतिया, जीवन -मूल्य आदि कृत्रिम है परन्तु स्थाई प्रबलन है।
गेस्टाल्टवादी –
1. सूझ का सिद्धांत – व्यव्हार वादी वैज्ञानिकों ने पशु-पक्षियों पर प्रयोग निष्कर्ष मानव के अधिगम से जोड़े जो अधिगमकर्तायों को स्वीकार नहीं था। इन वैज्ञानिकों का मानना है की कुछ सभ्यता तो हो सकती है लेकिन मानव का अधिगम पूरी तरह पशु-पक्षियों के अधिगम की भांति नहीं हो सकता, अधिगम सदैव प्रयोजनपूर्ण होता है। और पशु पक्षियों पर किये जाने वाले कई प्रयोग पूरी तरह कृत्रिम वातावरण पर आधारित होते है। यह सिद्धांत ज्ञान के उद्देश्पुर्ती पर बल अधिक नहीं देता है बल्कि कौशल के विकास पर अधिक बल देता है। सूझ द्वारा अधिगम सिद्धांत केलिए कोहलर ने प्रयोग किये है।
मुख्य नियम: सीखने के मुख्य नियम तीन है जो इस प्रकार हैं –
1. तत्परता का नियम – इस नियम के अनुसार जब व्यक्ति किसी कार्य को करने के लिए पहले से तैयार रहता है तो वह कार्य उसे आनन्द देता है एवं शीघ्र ही सीख लेता है। इसके विपरीत जब व्यक्ति कार्य को करने के लिए तैयार नहीं रहता या सीखने की इच्छा नहीं होती हैतो वह झुंझला जाता है या क्रोधित होता है व सीखने की गति धीमी होती है।
2. अभ्यास का नियम – इस नियम के अनुसार व्यक्ति जिस क्रिया को बार-बार करता है उस शीघ्र ही सीख जाता है तथा जिस क्रिया को छोड़ देता है या बहुत समय तक नहीं करता उसे वह भूलने लगताहै। जैसे‘- गणित के प्रष्न हल करना, टाइप करना, साइकिल चलाना आदि। इसे उपयोग तथा अनुपयोग का नियम भी कहते हैं।
3. प्रभाव का नियम – इस नियम के अनुसार जीवन में जिस कार्य को करने पर व्यक्ति पर अच्छा प्रभाव पड़ता है या सुख का या संतोष मिलता है उन्हें वह सीखने का प्रयत्न करता है एवं जिन कार्यों को करने पर व्यक्ति पर बुरा प्रभाव पडता है उन्हें वह करना छोड़ देता है। इस नियम को सुख तथा दुःख या पुरस्कार तथा दण्ड का नियम भी कहा जाता है।
गौण नियम: सीखने के गौण नियम पांच है जो इस प्रकार हैं
1. बहु अनुक्रिया नियम – इस नियम के अनुसार व्यक्ति के सामने किसी नई समस्या के आने पर उसे सुलझाने के लिए वह विभिन्न प्रतिक्रियाओं के हल ढूढने का प्रयत्न करता है। वह प्रतिक्रियायें तब तक करता रहता है जब तक समस्या का सही हल न खोज ले और उसकी समस्यासुलझ नहीं जाती। इससे उसे संतोष मिलता है थार्नडाइक का प्रयत्न एवं भूल द्वारा सीखने का सिद्धान्त इसी नियम पर आधारित है।
2. मानसिक स्थिति या मनोवृत्ति का नियम – इस नियम के अनुसार जब व्यक्ति सीखने के लिए मानसिक रूप से तैयार रहता है तो वह शीघ्र ही सीख लेता है। इसके विपरीत यदि व्यक्ति मानसिक रूप से किसी कार्य को सीखने के लिए तैयार नहीं रहता तो उस कार्य को वह सीख नहीं सकेगा।
3. आंशिक क्रिया का नियम – इस नियम के अनुसार व्यक्ति किसी समस्या को सुलझाने के लिए अनेक क्रियायें प्रयत्न एवं भूल के आधार पर करता है। वह अपनी अंर्तदृष्टि का उपयोग कर आंषिक क्रियाओं की सहायता से समस्या का हल ढूढ़ लेता है।
4. समानता का नियम – इस नियम के अनुसार किसी समस्या के प्रस्तुत होने पर व्यक्ति पूर्व अनुभव या परिस्थितियों में समानता पाये जाने पर उसके अनुभव स्वतः ही स्थानांतरित होकर सीखने में मद्द करते हैं।
5. साहचर्य परिवर्तन का नियम – इस नियम के अनुसार व्यक्ति प्राप्त ज्ञान का उपयोग अन्य परिस्थिति में या सहचारी उद्दीपक वस्तु के प्रति भी करने लगता है। जैसे-कुत्ते के मुह से भोजन सामग्री को देख कर लार टपकरने लगती है। परन्तु कुछ समय के बाद भोजन के बर्तनको ही देख कर लार टपकने लगती है।
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अतः एक अच्छा विद्यार्थी सीखने के हर मौके को एक अच्छा अवसर मानकर उसका उपयोग करता है। सीखने की पूर्व उल्लिखित विभिन्न विधियाँ या प्रकार सीखने के बारे में कुछ मूल विचार प्रकट करते हैं। व्यक्तित्व, रुचि या अभिवृत्तियों में आने वाले परिवर्तन सीखने के कतिपय प्रकारों के परिणामस्वरूप हो ते हैं। यह बदलाव एक जटिल प्रक्रिया के साथ होते हैं। सीखने में उन्नति के साथ आप में सीखने की क्षमता विकसित हो ती है। अगर आप सीखते हैं तो आप एक बेहतर व्यक्ति, कार्यशैली में लचीले और सत्य को सराहने की निपुणता वाले बन जाते हैं।
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