सुप्रीम कोर्ट ने सूखे के हालात को लेकर केंद्र सरकार को फटकार लगा दी। अदालत ने कहा कि केंद्र सरकार देश के 12 राज्यों में सूखे के हालात देखने से आंखें नहीं मूंद सकती। अदालत की डांट सुनने के बाद केंद्र सरकार को अब बताना पड़ेगा कि वह इस संकट से निपटने के लिए क्या कर रही है। गौरतलब है कि अभी दो रोज पहले ही जल सप्ताह के उद्घाटन समारोह में देश के वित्तमंत्री चुपके से दर्ज करा गए थे कि जल प्रबंधन राज्य सरकारों का काम है। लेकिन अब देश की सबसे बड़ी अदालत का सामना करने से टालमटोल करना केंद्र सरकार के लिए जरा मुश्किल होगा। दरअसल उसके पास अबतक फीलगुड का ही अनुभव है। जाहिर है सरकार यह समझाने की कोशिश कर सकती है कि राज्य सरकारों को आवश्यक सुझाव दिए जा रहे हैं। केंद्र सरकार यह भी बताने की कोशिश करेगी कि देश में मॉनसून कमजोर रहा है, लेकिन इतना कमजोर नहीं रहा कि सूखाग्रस्त घोषित किया जाए। इस तरह पूरे आसार सूखे के आकार-प्रकार पर बहस खड़ी हो जाने के हैं। इस बात पर अगर गंभीरता से बात बढ़ी, तो सामाजिक कार्यकर्ताओं को भी जल विज्ञान की कई महत्त्वपूर्ण जानकारियां हासिल होने का मौका मिलेगा। गुजरे मॉनसून में हुआ क्या था 88 फीसदी बारिश को सामान्य मानते हुए बारिश के आखिरी महीने यानी सितंबर तक पानी के संकट से निपटने की तैयारी उस लिहाज से नहीं हुई। किसी ने गंभीरता दिखाई होती तो वह बता सकता था कि गुजरा मॉनसून कमजोर मॉनसून का लगातार दूसरा साल था। ऐसा हो नहीं सकता कि नए माहौल के अपने नए जल विज्ञानी और नए जल प्रबंधक यह न जानते हों कि लगातार दूसरे साल ऐसी प्रवृत्ति कितनी भयावह होती है। जिन पत्रकारनुमा जल विशेषज्ञों ने इसे लेकर आगाह भी किया उन्हें सरकार को 'फिजूल' में तंग करने वाला बताकर हतोत्साहित कर दिया गया। सूखे के प्रकारों को समझने की जरूरत पड़ेगी पानी कम बरसना ही सूखा नहीं है देश में न्यायालिक जल विज्ञानियों की जरूरत 3 साल पहले यूपी सरकार ने बुंदेलखंड में पेयजल समस्या के समाधान के लिए एक वैज्ञानिक विशेषज्ञ विमर्श किया था। मुख्यमंत्री उसकी अध्यक्षता कर रहे थे। यह लेखक उस समिति में विशेषज्ञ की हैसियत से अपनी शोध प्रस्तुति दे रहा था। इस प्रस्तुति में एक सुझाव पेश किया गया था कि जल विवादों के आने वाले दिनों में देश और प्रदेशों को फॉरेंसिक हाइड्रोलोजिस्ट्स यानी न्यायालिक जलविज्ञानियों की जरूरत पड़ेगी। सुझाव था कि अभी से कुछ अपराधशास्त्रियों को जल विज्ञान की विशेषज्ञता में प्रशिक्षण का प्रबंध किया जाना चाहिए। यूपी के 30 से ज्यादा सचिवों और नगर विकास मंत्री और सिंचाई मंत्री की मौजूदगी में मुख्यमंत्री ने कहा था कि समझ रहा हूं। उन्होंने तभी बताया था कि वे खुद भी पर्यावरण अभियंत्रिकी के प्रशिक्षित स्नातक हैं। बहरहाल सुप्रीम कोर्ट में सूखे के हालात पर केंद्र सरकार को लगी फटकार को सुनकर लगता है कि फॉरेंसिक हाइड्रोलोजिस्ट्स तैयार करने की जरूरत का वक्त आ गया है।सूखे के प्रकार और इससे निपटने के उपाय
पिछले मॉनसून के पहले ही अनुमान लग गया था कि बारिश कम होगी। मॉनसून के दिनों में बारिश औसत से 12 फीसदी कम दर्ज की गई। यह कमी कोई छोटी-मोटी नहीं थी। लेकिन नए राजनीतिक माहौल में अफसरों, विशेषज्ञों और मीडिया का मिजाज भी इस बार बदला हुआ था। सो सभी ने इसे खुशफहमी के हिसाब से ही लिया। जैसा दसियों साल से होता चला आ रहा था कि हर बात को गंभीरता से और जोरशोर से उठाया जाता था, वह देखने को नहीं मिला।
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वैसे तो अपने यहां जल विज्ञानियों का अभी भी टोटा पड़ा हुआ है। फिर भी आईआईटी से पढ़कर निकले पुराने जल विज्ञानी सूखे के प्रकारों पर समझाते रहते हैं। बुधवार को एक कॉफी हाउस में ऐसे ही एक जल विज्ञानी कुलदीप कुमार अपने भूगर्भवेत्ता मित्र से बड़े काम की बातें करते पाए गए। उन्होंने बताया कि जल विज्ञान के हिसाब से सूखा तीन प्रकार का होता है। आजकल के प्रौद्योगिकविदों ने इसमें एक प्रकार और जोड़ा है। ये चार प्रकार हैं - क्लाइमैटेलॉजिकल ड्रॉट यानी जलवायुक सूखा, हाइड्रोलॉजिकल ड्रॉट यानी जल विज्ञानी सूखा, एग्रीकल्चरल ड्रॉट अर्थात कृषि संबंधित सूखा और चौथा रूप जिसे सोशिओ-इकोनॉमिक ड्रॉट यानी सामाजिक-आर्थिक सूखा कहते हैं।
अभी हम पानी के कम बरसने यानी सामान्य से 25 फीसदी कम बारिश को ही सूखे के श्रेणी में रखते हैं। इसे ही क्लाइमैटेलॉजिकल ड्रॉट यानी जलवायुक सूखा यानी जलवायुक सूखा कहते हैं। फर्ज कीजिए 12 फीसदी ही कम बारिश हुई, जैसा कि पिछली बार हुआ। अगर हम इसे सिंचाई की जरूरत के लिए रोककर रखने का इंतजाम नहीं कर पाए तो भी सूखा पड़ता है, जिसे हाइड्रोलॉजिकल ड्रॉट यानी जल विज्ञानी सूखा कहते हैं। जो पिछली बार पड़ा। दोनों सूखे न भी पड़े, लेकिन अगर हम खेतों तक पानी न पहुंचा पाएं, तब भी सूखा ही पड़ता है, जिसे एग्रीकल्चरल ड्रॉट या कृषि सूखा कहा जाता है। जो बीते साल कसकर पड़ा। चौथा प्रकार सोशिओ-इकोनॉमिक ड्रॅाट यानी सामाजिक-आर्थिक सूखा है, जिसमें बाकी तीनों सूखे के प्रकारों में सामाजिक आर्थिक कारक जुड़े होते हैं और इस स्थिति में किसानों में आत्महत्या की प्रवृत्ति आने लगती है। यह जानकारी राजनीतिक नहीं है, बल्कि जल विज्ञान के वैज्ञानिक पाठ की है और जल विज्ञान के पाठयक्रम के जरिये आ रही है। नए दिनों में इन जानकारियों की जरूरत अदालत की बहस के दौरान पड़ सकती है।
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