Srijanatmakta Ka Sidhhant सृजनात्मकता का सिद्धांत

सृजनात्मकता का सिद्धांत



Pradeep Chawla on 12-05-2019

सृजनात्मकता सर्जनात्मकता अथवा रचनात्मकता किसी वस्तु, विचार, ,

से संबद्ध किसी समस्या का समाधान निकालने आदि के क्षेत्र में कुछ नया

रचने, आविष्कृत करने या पुनर्सृजित करने की प्रक्रिया है। यह एक मानसिक

संक्रिया है जो भौतिक परिवर्तनों को जन्म देती है। सृजनात्मकता के संदर्भ

में वैयक्तिक क्षमता और प्रशिक्षण का आनुपातिक संबन्ध है। में सृजनात्मकता , और अभ्यास के सहसंबंधों की परिणति के रूप में व्यवहृत किया जाता है।







अनुक्रम







मार्क्सवाद में सृजनात्मकता

सृजनात्मकता

मानवीय क्रियाकलाप की वह प्रक्रिया है जिसमे गुणगत रूप से नूतन भौतिक तथा

आत्मिक मूल्यों का निर्माण किया जाता है। प्रकृति प्रदत्त भौतिक सामग्री

में से तथा वस्तुगत जगत की नियमसंगतियों के संज्ञान के आधार पर समाज की

विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले नये यथार्थ का निर्माण करने की

मानव क्षमता ही सृजनात्मकता है, जिसकी उत्पत्ति श्रम की प्रक्रिया में हुई

हो। सृजनात्मकता निर्माणशील क्रियाकलाप के स्वरूप से निर्धारित होते हैं।

सिद्धांत के अनुसार सृजन की प्रक्रिया में कल्पना समेत मनुष्य की समस्त

आत्मिक शक्तियां और साथ ही वह दक्षता भाग लेती है जो प्रशिक्षण तथा अभ्यास

से हासिल होती है तथा सृजनशील चिंतन को मूर्त रूप देने के लिए आवश्यक होती

है। सृजनात्मकता की संभावनाएं सामाजिक संबंधों पर निर्भर करती हैं।

निजी सम्पत्ति पर आधारित समाज के लिए अभिलाक्षणिक श्रम तथा मानव-क्षमताओं

के परकीयकरण को दूर करता है। वह सभी किस्मों और प्रत्येक व्यक्ति की

सृजनात्मक क्षमताओं के विकास के लिए आवश्यक पूर्वापेक्षाओं का निर्माण करता

है।



प्रत्ययवाद में सृजनात्मकता

सृजनात्मकता को दैवीय धुन ( ), तथा का संश्लेषण ( ), रहस्यवादी ( ) तथा सहजवृत्तियों की अभिव्यक्ति ( ) मानते हैं।




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