Thermometer Ke Prakar थर्मामीटर के प्रकार

थर्मामीटर के प्रकार



Pradeep Chawla on 12-05-2019

तापमापी या थर्मामीटर वह युक्ति है जो ताप

या ताप की प्रवणता को मापने के काम आती है। तापमिति (Thermometry)

भौतिकी की उस शाखा का नाम है, जिसमें तापमापन की विधियों पर विचार किया

जाता है।



तापमापी अनेक सिद्धान्तों के आधार पर निर्मित किये जा सकते हैं। द्रवों

का आयतन ताप ग्रहण कर बढ़ जाता है तथा आयतन में होने वाली यह वृद्धि

तापक्रम के समानुपाती होता है। साधारण थर्मामीटर इसी सिद्धान्त पर काम करते

हैं।









अनुक्रम



  • 1नियत बिंदु
  • 2परमताप
  • 3अंतर्राष्ट्रीय ताप पैमाना
  • 4विद्युतप्रतिरोधी तापमापी
  • 5तापविद्युत्‌ तापमापी
  • 6विकिरण तापमामी

    • 6.1पूर्ण विकिरण उत्तापमापी
    • 6.2प्रकाशीय उत्तापमापी


  • 7अतिनिम्न ताप का मापन
  • 8पारे का तापमापी
  • 9प्राथमिक और द्वितीयक तापमापी
  • 10तापमान
  • 11विकास
  • 12मापांकन (कैलीब्रेशन)
  • 13यथार्थता, विशुद्धता और पुनरुत्पादकता
  • 14तापमापी के अन्य प्रकार
  • 15सन्दर्भ
  • 16इन्हें भी देखें
  • 17बाहरी कड़ियाँ






नियत बिंदु

तापमापन

की इकाई निर्धारित करने के लिये किसी पदार्थ को क्रमश: दो निश्चित तापीय

साम्यावस्थाओं में रखा जाता है। इनको नियत बिंदु (Fixed points) कहते हैं।

इन अवस्थाओं में पदार्थ के किसी विशेष गुण के परिमाण निकाल लेते हैं और

उनके अंतर को एक निश्चित संख्या में बराबर बराबर बाँट देते हैं। इनमें से

प्रत्येक अंश तापमापन की इकाई मानी जाती है, जिसको एक अंश अथवा डिग्री कहते

हैं। बहुत समय से तापमापियों (थर्मामीटरों) में हिमबिंदु (Ice point) और

भापविंदु (Steam point) का नियत बिंदुओं के रूप में प्रयोग किया जाता रहा

है। जिस ताप पर शुद्ध बर्फ और शुद्ध वायुसंतृप्त (air saturated) पानी एक

वायुमंडल के दाब पर साथ साथ साम्यावस्था में रहते हैं उसको हिमबिंदु कहते

हैं। इसी प्रकार निश्चित दाब पर शुद्ध पानी और शुद्ध भाप का साम्य भापबिंदु

बतलाता है।



सामान्य थर्मामीटरों में शीशे की एक छोटी खोखली घुण्डी होती है, जिसमें

पारा या द्रव भरा रहता है। तापीय प्रसरण (thermal expansion) के कारण द्रव

नली में चढ़ जाता है। उर्पयुक्त दोनों नियत बिंदुओं पर नली में द्रव के तल

के सामने चिह्न लगा दिए जाते हैं। सेंटिग्रेड पैमाने में, जिसको अब सेलसियस

पैमाना कहते हैं, हिमबिंदु को शून्य और भापबिंदु को 100 डिग्री मानते हैं।

इन दोनों चिन्हों के बीच की दूरी को 100 सम भागों में बाँट दिया जाता है।

फारेनहाईट मापहाईट मापक्रम में ये दोनों बिंदु क्रमश: 32 और 212 डिग्री

माने जाते हैं और इनका अंतर 180 भागों में विभक्त होता है।



उपर्युक्त तापमापियों में तापक्रम तापीय प्रसारण पर आधारित है, किंतु

ऐसा आवश्यक नहीं। कोई भी गुण, जो तापवृद्धि के अनुसार एकदिष्टता

(monotonically) से बढ़ता है, इस कार्य के लिये प्रयुक्त हो सकता है।

वास्तव में प्रयोगशाला के अनेक सुग्राही तापमापी विद्युत्प्रतिरोध के

परिवर्तन या तापविद्युत पर आधारित होते हैं। गुणों की तरह द्रव पदार्थो पर

भी कोई प्रतिबंध नहीं होता। कोई भी पदार्थ तापमापी में प्रयुक्त किया जा

सकता है, किंतु मुख्य समस्या यह है कि पदार्थो और गुणों के भेद से जो

विभिन्न तापमापी निर्मित हो सकते हैं उनसे दोनों नियत बिंदुओं को छोड़कर

अन्य सब तापों पर पाठ्यांकों में भेद मिलेगा। इससे सिद्ध है कि यह सब मूलत:

प्रमाणिक नहीं माने जा सकते।



परमताप

सिद्धांततः उष्मागतिकी

(thermodynamics) पर आधारित मापक्रप स्वत:प्रमाण माना जाता है और दूसरे

पैमाने उसके अनुसार शुद्ध कर लिए जाते हैं। इस विज्ञान में ऐसे इंजन की

कल्पना की गई है जो एक भट्ठी से ऊष्मा लेकर उसका कुछ अंश महत्तम दक्षता

(efficiencey) के साथ कार्य में परिवर्तित कर देता है और शेष भाग एक

निम्नतापीय संघनित्र (condenser) को दे देता है। इसको कार्नो (carnot)

इंजन, अथवा प्रतिवर्ती (Reversible) इजंन, कहते हैं। सिद्धांत के अनुसार

अगर भट्ठी और संघनित्र के बहुत से भिन्न तापीय जोड़े एकत्रित हों और एक

कार्नो इंजन प्रत्येक के बीच क्रमश: लगाया जाए, तो उसके द्वारा किया गया

कार्य इन जोड़ो के तापातर भेद के समानुपाती होता है। इस प्रकार कार्य के

मापन से तापांतर ज्ञात किया जा सकता है। इस इंजन की दक्षता उसके सिलिंडर

में भरे हुए द्रव्य और उसकी अवस्था पर निर्भर नहीं करती, इसलिए इसको तापमान

का आधार माना गया है और इसके द्वारा निर्धारित ताप को परमताप कहते हैं।



सेंटिग्रेड और फारेनहाइट पैमाने की तरह परमताप मापक्रम का शून्य मनमाना

नहीं होता। कार्नो इंजन द्वारा किया गया कार्य भट्ठी और संघनित्र दोनों के

ताप पर निर्भर करता है। संघनित्र की तापीय अवस्था ऐसी भी हो सकती है कि यह

इंजन भट्ठी से प्राप्त समस्त ऊष्मा को कार्य में बदल दे और संघनित्र को

उसका कोई भी अंश प्राप्त न हो। ऐसी स्थिति में संघनित्र का ताप परमशून्य

माना जाता है।



डिग्री का परिमाण निर्धारण करने के लिये पहले की तरह दो नियत बिंदुओं की

आवश्यकता होती है। 1954 ई0 से पूर्व परमताप पैमाने में भी हिम और भाप

बिंदुओं का प्रयोग होता था। इन दोनों के तापभेद को 100° परम (100° पा) माना

जाता था। इसका यह अर्थ है कि कार्ने इंजन की भट्ठी को भापबिंदु पर और

संघनित्र को हिमबिंदु पर रखने से जो कार्य मिलता है उसका शतांश कार्य एक

डिग्री प्रदर्शित करती है। इस प्रबंध में बड़ी कठिनाई यह पड़ती है कि

हिमबिंदु की यथार्थता सीमित है और भिन्न वैज्ञानिकों द्वारा प्राप्त

राशिमानों में ± 01° पा तक का अंतर पाया जाता है। इससे बचने के लिये सन्‌

1954 से अंतर्राष्ट्रीय निश्चय के अनुसार केवल एक ही नियत बिंदु (पानी के

त्रिकबिदुं) का उपयोग होने लगा है। त्रिक्बिंदु उस ताप को कहते हैं जिसपर

पानी, बर्फ और जलवाष्प का साम्य संभव है। इसका मान स्वेच्छा से 273.16° पा

मान लिया गया है। ऐसा कहा जा सकता है कि सन्‌ 1954 से पूर्व परमताप पैमाना

तीन बिंदुओं, (परमशून्य, हिमबिंदु और भापबिंदु) द्वारा निर्घारित होता था,

किंतु अब केवल दो बिंदुओं (परमशून्य और त्रिक्‌बिंदु) का उपयोग होता है।

दूसरें शब्दों में इस लेख के प्रारंभ में वर्णित दो नियत बिंदुओं में से एक

परमशून्य और दूसरा त्रिक्बिंदू होता है। त्रिक्बिंदू और परमशून्य के बीच

कार्य करनेवाले कार्नो इंजन द्वारा जो कार्य होता है उसका 1/273.16 अंश

कार्य एक परम डिग्री का बोध करता है।



कार्नो का इंजन आदर्श मात्र है और व्यवहार में इसका निर्माण संभव नहीं,

परंतु यह सिद्ध किया जा सकता है कि आदर्श गैस के तापीय प्रसरण द्वारा

निर्मित तापमापी के पाठ्यांक परमताप के बराबर होते हैं। अत: आदर्श गैस

पैमाना स्वत: प्रमाण, अथवा प्राथमिक मानक (primary standard), माना जाता

है। आदर्श गैस उस गैस को कहते हैं जो निम्नलिखित नियम का पालन करती है:



PV = RT


जिसमें (P) दाब, (V) आयतन तथा (T) परमाताप होते है। (R) नियतांक है

जिसका मान प्रत्येक आदर्श गैस की एक ग्राम-अणु मात्रा के लिए एक समान होता

है।



गैस थर्मामीटर दो प्रकार के होते हैं, एक तो स्थिर आयतन वाले और दूसरे

स्थिर दाब वाले। पहले की क्रिया सरल है और उसकी त्रुटियों का संशोधन

विश्वसनीय रूप से किया जा सकता है। अत: स्थिर आयतन तापमापियों का ही उपयोग

होता है। जैसा नाम के प्रकट है, इनसे गैस का आयतन स्थिर रखकर दाब का मापन

किया जाता है।



अंतर्राष्ट्रीय ताप पैमाना

आदर्श गैस तापमापी

से ताप निकालने में अथक परिश्रम और समय की आवश्यकता होती है। अनेक कारणों

से पाठ में त्रुटियाँ होना संभव है और इनके लिये प्राप्त फलों में संशोधन

करना होता है। कुछ त्रुटियाँ तो तापमापी की बनावट में उचित परिवर्तन करके

दूर की जाती हैं और कुछ के लिये लंबी गणना करनी होती है। इससे यह सिद्ध है

कि गैस तापमापी प्रयोगशाला में दैनिक कार्य के लिये उपयुक्त नहीं हो सकता।

इसलिये अंतर्राष्ट्रीय निश्चय के अनुसार कुछ पदार्थों के गलनांक (melting points) और क्वथनांक

(boiling points) प्राथमिक मानक के रूप में प्रयुक्त होते हें। ये अंक

आदर्श गैस-पैमाने से बहुत परिश्रम के पश्चात्‌ ठीक रूप से माप लिए गए हैं

और उनके मान अंतर्राष्ट्रीय स्वीकृति पा चुके हैं।



नियतांक -- सैलसियस ताप डिग्री सें0



1. पानी का त्रिकबिंदु : 0.01 (मूल मानक)



2. आक्सीजन का क्वथनांक (आक्सीजन विंदु) : -182.97 (मानक)



3. हिम और वायुसंतृप्त पानी का साम्य (हिमबिंदु) : 0 (मानक)



4. पानी का क्वथनांक (भापबिंदु) : 100 (मानक)



5. गंधक का क्वथनांक (गंधक बिंदु) : 444.6 (मानक)



6. एंटिमनी का गलनांक (एंटिमनी बिंदु) : 630.5 (मानक)



7. रजत का गलनांक (रजत बिंदु) : 960.8 (मानक)



8. स्वर्ण का गलनांक (स्वर्ण बिंदु) : 1063 (मानक)



इसके अतिरिक्त और भी कुछ नियत बिंदु द्वितीय मानक के रूप में निश्चित

किए गए हैं। प्रयोगशाला में काम आनेवाले तापमापी इनसे मिलाकर शुद्ध कर लिए

जाते हैं। नियत बिंदुओं के मध्यवर्ती ताप अंतर्वेशन (interpolation) द्वारा ज्ञात किए जाते हैं। अंतरराष्ट्रीय पैमाने के लिये निम्नलिखित अंतर्वेशन विधियाँ चुनी गई है :



(1) 0 - 180 सें.° सेलसियस तक :



इस तापविधि में प्लैटिनम प्रतिरोध तापमापी का प्रयोग किया जाता है। तार

शुद्ध प्लैटिनम का और उसका व्यास 0.05 और 0.20 मिमी. के भीतर होना आवश्यक

है। ताप निम्नलिखित अंतर्वेशन विधियाँ चुनी गई है :



R1 = R0 { 1+ At+ Bt2+ C (t - 100) t3}


इसमें (t°) सें. और 0.00° सें. ताप पर विद्युत प्रतिरोध क्रमश: R1 और R0

है। (A,B,C) स्थिरांक हैं, जो भाप, गंधक और ऑक्सीजन बिंदुओं के प्रतिरोधों

द्वारा निकाले जाते हैं।



(2) 0° से 660° सें तक:



इसमें भी उपर्युक्त तापमापी प्रयुक्त होता है, किंतु इसका अंतर्वेशन समीकरण निम्नलिखित है :



Rt = R0 (1+ At+ Bt2)


A और B हिम, भाप और गंधक बिंदुओं पर तापमापी के प्रतिरोधों द्वारा निकाले जाते हैं।



(3) 660° से0 1063° से0 तक



इसके लिये एक तापांतर युग्म

(thermocouple) का प्रयोग किया जाता है, जिसका एक तार प्लैटिनम का और

दूसरा 90 प्रतिशत प्लैटिनम के साथ 10 प्रतिशत रोडियम की मिश्रधातु का बना

होता है। तारों का व्यास 0.35 और 0.65 मिमी0 के भीतर होता है तथा एक जोड़

0° सें° पर रखा जाता है। अतंर्वेशन सूत्र यह है:



E = a + b t + Ct2


(E) तापांतर युग्म में विकसित विद्युतद्वाहक बल (E.M.F.)) और (t) सें°

पैमाने में ताप है। स्थिरांक (a) (b) और (c) एंटिमनी, रजत और स्वर्ण

बिंदुओं पर वि0 वा0 ब0 का मान ज्ञात करके निकाले जाते हैं।



(4) 1063° से ऊपर के ताप विकरण तापमापियों द्वारा मापे जाते हैं।



विद्युतप्रतिरोधी तापमापी

जिस

प्रकार तापवृद्धि से पदार्थों की लंबाई बढ़ती है उसी प्रकार धातु के तारों

के विद्युत्प्रतिरोध (resistance) में भी ताप द्वारा वृद्धि होती है।

तापीय प्रसरण की तरह इस वद्धि का भी तापमापन में उपयोग हो सकता है। इस

कार्य के लिये अनेक धातुओं के तारों का उपयोग होता है। फिर भी प्लैटिनम

तार के बने तापमापी का महत्व इसलिये अधिक होता है क्योंकि वह

अंतरराष्ट्रीय पैमाने के अंतर्वेशन के लिये प्रयुक्त होता है। तार शुद्ध

घातु का और विकृतिमुक्त (unstrained) होना आवश्यक है। तार को बल्ब में पतले

अभ्रक, या स्फटिक के ढाँचे पर लपेट कर रखते हैं और उसका विद्युतप्रतिरोध

मापकर आवश्यकतानुसार उचित समीकरण (जैसे : Rt = R0 (1+ At+ Bt2) द्वारा ताप की गणना कर लेते हैं। प्रतिरोधमापन के लिये कई प्रकार के विद्युत्सेतुओं (bridges) का उपयोग किया जाता है। इनमें कैलेंडर-ग्रिफिथ का सेतु पुराना और सर्वविदित है। यह व्हीट्स्टोन सेतु के सिद्धांतपर आधारित है।



प्रतिरोधमापन के प्लैटिनम तार को जिन वाहक तारों से संयुक्त किया जाता

है वे भी ऊष्मा से गर्म हो जाते हैं, जिससे उनके प्रतिरोध में भी परिवर्तन

हो जाता है। यह परिवर्तन भी सेतु द्वारामापित होकर ताप की गणना में अशुद्धि

का कारण बन जाता है। कैलेंडर ग्रिफिथ सेतु से इस त्रुटि को दूर करने के

लिये ठीक इसी प्रकार के वाहक तार सेतु की संयुग्मी (conjugate) भुजा में भी

डाल दिए जाते हैं। दोनों जोड़े तापमापी में पास पास रहते हैं और इनपर

ऊष्मा का एक सा प्रभाव पड़ता है। इस कारण सेतु के संतुलन और मापित प्रतिरोध

पर इनका कोई असर नहीं होता।



इस त्रुटि को दूर करने का अन्य उपाय यह है कि प्लैटिनम के तार का

प्रतिरोध न निकाल कर उसके सिरों के बीच विभवांतर (potential difference)

नापते हैं। तार के अंदर निश्चित मात्रा में विदयुद्धारा का प्रवाह किया

जाता है। इसके दो सिरों को एक विभवमापी (potentiometer) से जोड़कर विभवातंर

माप लेते हैं। प्रतिरोध के समानुपाती होने के कारण विभवांतर से ओम (Ohm)

के नियमानुसार प्रतिरोध की गणना कर ली जाती है। इनमें वाहक तारों के

प्रतिरोध का प्रभाव पूर्णतया लुप्त हो जाता है।



तापविद्युत्‌ तापमापी

यदि

दो भिन्न धातुओं के तार एक परिपथ में संयुक्त हों और उनके संगमबिंदुओं

(junctions) को भिन्न ताप (T और T0) पर रखा जाय तो परिपथ में विद्युत धारा

का प्रवाह हाने लगता है। यह धारा परिपथ में सुग्राही धारामापी

द्वारा देखी जा सकती है। धारा के उत्पादक बल, अर्थात्‌ विद्युद्वाहक बल

(emf) का मान क और ख के तापांतर पर निर्भर करता है। अत: इसको नापकर तापांतर

ज्ञात कर सकते हैं। ऐसे तार के जोड़ों को तापांतर युग्म (thermocouple) कहते हैं।



अंतराष्ट्रीय पैमाने में प्रयुक्त तापांतर युग्मों की धातुओं का वर्णन

ऊपर किया गया है, किंतु प्रयोगशाला में सुग्राहिता (sensitivity) और प्रयोग

की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर विभिन्न धातुएँ काम में लाई जाती हैं।

तापांतर युग्म में वि0 वा0 ब0 तापांतर पर निर्भर होता है, इसलिये निम्न

तापवाले संगम का ताप स्थिर रखा जाता है।



क और ख सिरों को विभवमापी अथवा मिलिवोल्टमापी से संयुक्त करके EMF माप

लिया जाता है। मिलिवोल्टमापी में यह सीधा मापित होता है, परंतु यह उतना

सुग्राही नहीं है जितना विभवमापी।



विकिरण तापमामी

जब

किसी ठोस वस्तु को गरम किया जाता है तो उससे उर्जा का विद्युच्चुंबकीय

(electromagnetic) तरंगों के रूप में विकिरण (radiation) होता है। कम

तापवृद्धि होने पर तरंगों का तरंगदैर्घ्य (wave length) कम होता है और उनसे

ऊष्मा का अनुभव होता हैं। अधिक तापवृद्धि होने पर छोटे तरंगदैर्ध्यवाली

तरंगों का आधिक्य हो जाता है, जिनसे प्रकाश की प्रतीति होती है। विकीर्ण

ऊर्जा की मात्रा और उसके गुण गर्म वस्तु की अवस्था पर भी निर्भर करते हैं।

पूर्णतया काली वस्तु में यह गुण होता है कि वह अपने ऊपर पड़नेवाली समस्त

विकीर्ण ऊर्जा का शोषण कर लेती है और स्वत: अधिकतम ऊर्जा का विकिरण करती

है। ऐसी वस्तु को कृष्ण वस्तु अथवा कृष्णका भी कहते हैं। यदि चारों ओर से

बंद खोखले पिंड की दीवारों को समताप पर रखा जाए तो उसके भीतर उत्पन्न

विकीर्ण ऊर्जा गुण और मात्रा में पूर्णतया कृष्णिका विकिरण के समान होती

है। अत: प्रयोगशाला में कृष्णिका के लिये ऐसे ही खोखले बर्तन का उपयोग करते

हैं। यह अवश्य करते हैं कि उसमें एक छोटा छिद्र बना देते हैं, जिससे भीतर

से ऊर्जा बाहर आ सके और उसके गुणों का अध्ययन संभव हो। उच्चतम तापमान के

लिये कृष्णिका का उपयोग करते हैं। इसपर आधारित तापमापी दो प्रकार के होते

हैं। एक में पूर्ण विकिरण की मात्रा का पापन किया जाता है। इसको पूर्ण विकिरण उत्तापमापी (Total Radiation pyrometer) कहते हैं। दूसरें प्रकार में विकिरण के गुणों का अध्ययन करते हैं। इनको प्रकाशीय उत्तापमापी

(Optical Pyrometer) कहते हैं। इन उत्तापमापियों में यह गुण होता है कि

इनमें तापमापी को गर्म पदार्थ से संलग्न रखने की आवश्यकता नहीं होती और

इनसे ऊँचा ताप मापित हो सकता है। पर इनमें दोष यह है कि सिद्धांतत: इनसे

केवल कृष्णिका का तापमापन संभव है। अन्य वस्तुओं का ताप वास्तविक ताप से कम

मिलेगा, जिसके लिये संशोधन की आवश्यकता होती है।



पूर्ण विकिरण उत्तापमापी

यह स्टीफन के नियम पर आधारित है। इस नियम के अनुसार किसी कृष्णिका द्वारा विकीर्ण ऊर्जा (E), परम ताप (T) के चौथे घात की समानुपाती होती है, अर्थात्‌



E = s T 4


(s) एक स्थिरांक है। तापमापन के लिये उच्चतापीय वस्तु का विकिरण किसी

लेंस अथवा दर्पण से तापांतर युग्म के एक सिरे पर फोकस कर देते है उससे

ऊर्जा ऊज्ञात हो जाती है। अगर स्थिरांक मालूम हो तो उपरोक्त समीकरण द्वारा

ताप की गणना हो सकती है। वास्तव में अनेक त्रुटियों के कारण ताप का घात 4

से थोड़ा भिन्न होता है। इसलिए व्यवहार में नीचे दिए गए समीकरण का प्रयोग

करते हैं:



E = a (Tb - Tb0)


इसमें (a) और (b) स्थिरांक हैं। b स्टीफन के नियमानुसार 4 होना चाहिए,

किंतु यहाँ इसको अज्ञात मान लेते हैं। (T) उच्चतापीय कृष्णिका का ताप और

(T0) तापांतर युग्म को ताप है। उत्तापमापक को निश्चित तापों की कृष्णिकाओं

के समक्ष रखकर a और b का मान निकाल लिया जाता है। यंत्र में विकिरण के

फोकसीकरण का ऐसा प्रबंध रहता है कि उससे मापित ताप उच्चतापीय वस्तु की दूरी

पर निर्भर नहीं करता। यदि वस्तु पूर्णतया कृष्ण न हो तो इस अशुद्धि के

लिये संशोधन कर लिया जाता है।



प्रकाशीय उत्तापमापी

इनमें

कृष्णिका से प्राप्त विकिरण के वर्णक्रम (spectrum) का सूक्ष्म अंश, जिसका

तरंगदैर्घ्य लगभग एक होता है, छाँट लिया जाता है और इसकी तीव्रता

(intensity) की तुलना एक मानक लैंप की विकिरण तीव्रता से की जाती है। यदि

(l) तरंगदैर्घ्य के लिये (T1) परमताप पर कृष्णिका की विकिरण तीव्रता (T1)

पर उसकी तीव्रता (E2) हो, तो प्लांक के नियमानुसार



log (E1 / E2) = (C2 / l) (1/ T2 - 1 / T1)


(C2) एक स्थिरांक होता है जिसका मान प्लांक सिद्धांत द्वारा निश्चित है। यदि E1, E2 और T1 ज्ञात हों, तो T2 ज्ञात हो जाता है।



अदृश्य तंतु अत्तापमापियों (Disappearing Filament Pyrometer) में मानक

बत्ती की विकिरणतीव्रता में इस प्रकार परिवर्तन करते हैं कि उसकी तीव्रता

मापी जानेवाली विकीर्ण ऊर्जा की तीव्रता के बराबर हो जाए। उस समय बत्ती का तंतु अदृश्य हो जाता है।



एक अन्य प्रकार के प्रकाशीय उत्तापमापियों में मानक विकिरण की तीव्रता

स्थायी रखी जाती है और अज्ञात ताप के पिंड के विकिरण के सहित उत्तापमापी

में प्रवेश करती हैं। दानों को लंबवत्‌ तलों में रेखाध्रुवित (plane

polarised) कर दिया जाता है। ऐसा प्रबंध किया जाता है कि प्रत्येक विकिरण

का प्रतिबिम्ब अर्धगोलीय तथा एक दूसरे से सटा हुआ बने। इनको एक निकल

(nicol) प्रिज्म़ द्वारा देखा जाता है, जिसको इतना घुमाते है कि दोनों

प्रतिबिंबों की प्रकाशतीव्रता एक सी पड़े। निकल के घूर्णनकोण से E1/E2

ज्ञात करके उपरोक्त सूत्र से ताप ज्ञात कर लेते हैं।



अतिनिम्न ताप का मापन

अंतर्राष्ट्रीय

पैमाने के संबंध में निम्न ताप का 1900 सें0 तक मापन वर्णित है। इससे कम

ताप के लिए वाष्पदाबीय तापमापियों (vapour pressure thermometers) का

प्रयोग होता है। द्रव की वाष्पदाब उसके ताप पर निर्भर करती है। अत: गैसों

को द्रव रूप में परिणत करके उनको वाष्पदाबमापियों में भर लेते हैं। दाब की

मात्रा से तुरंत ताप ज्ञात हो जाता हे। इसके लिये आक्सीजन, नाइट्रोजन तथा

हीलियम द्रव रूप में प्रयुक्त होते हैं। हीलियम वाष्पदाबीय तापमापियों से

लगभग 10 तक ताप मापित हो सकता है। इससे निम्न ताप के लिये चुंबकीय

तापमापियों का प्रयोग होता है। इसमें एक समचुंबकीय लवण (paramagnetic salt)

नापी जाती है और क्यूरी के नियम के अनुसार गणना करके ताप निकाल लेते हैं।

साधारणत: इस ताप में त्रुटियाँ होती हैं, जिनका संशोधन करके परमताप निकाला

जाता है।



पारे का तापमापी

पारे

का तापमापी सर्वविदित है। अपने अनेक गुणों के कारण यह सर्वसामान्य रूप से

प्रयोग में लाया जाता है, किंतु इसकी यथार्थता (accuracy) सीमित होती है।

जहाँ विशेष यथार्थता की आवश्यकता होती है वहाँ इसके वाचन में अनेक

त्रुटियों के लिये संशोधन करना पड़ता है। इनमें सबसे मुख्य त्रुटि यह होती

है कि शून्य चिन्ह बदलता रहता है। यह दो कारणो से होता है। तापमापी जब

बनाया जाता है उसके बहुत समय पश्चात्‌ तक उसका शीशा सिकुड़ता रहता है,

जिससे शून्य चिन्ह बदलता रहता है। दूसरे, जब भी किसी गरम वस्तु का ताप

नापते है, तब शीशे को अपनी सामान्य अवस्था में आने में बहुत समय लगता हैं।



प्राथमिक और द्वितीयक तापमापी

अन्तर्निहित थर्मोडाइनेमिक

नियमों और राशियों के भौतिक आधार की जानकारी के स्तर के अनुसार तापमापी या

थर्मामीटर को दो अलग समूहों में वर्गीकृत किया जा सकता है। प्राथमिक तापमापी

के लिए, पदार्थ की मापित विशेषता इतनी भली प्रकार ज्ञात होती है कि तापमान

को बिना किसी अज्ञात परिमाण के परिकलित किया जा सकता है। इसके उदाहरण वे

तापमापी हैं जो एक गैस की अवस्था के समीकरण पर, एक गैस में ध्वनि के वेग

पर, थर्मल शोर (जॉनसन-न्यिकिस्ट शोर को देखें) वोल्टेज या एक विद्युत प्रतिरोधक के प्रवाह (धारा) पर और एक चुंबकीय क्षेत्र में कुछ रेडियोधर्मी नाभिक के गामा किरण उत्सर्जन की कोणीय असमदिग्वर्ती होने की दशा पर आधारित होते हैं। प्राथमिक तापमापी अपेक्षाकृत जटिल होते हैं।



तापमान

































तापमापीहिमबिंदुभापबिंदु
सेंटिग्रेड00C1000C
फारेनहाइट320F2120F


विकास

मापांकन (कैलीब्रेशन)

यथार्थता, विशुद्धता और पुनरुत्पादकता

==

प्रयोग ==डाक्टरी थर्मामीटर से96°©से110°©की ताप मापी जाती है। 2- पारे का

हिमान्क -39°©होता है।तथा इससे नीचे का ताप मापने के लिए एल्कोहल युक्त

थर्मामीटर का प्रयोग करते है।एल्कोहल का हिमान्क -115°©होता है।

3-पायरोमीटर से सूर्य का ताप मापा जाता है।




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