Bharat Me Gramin Vikash Ki Aavashyakta भारत में ग्रामीण विकास की आवश्यकता

भारत में ग्रामीण विकास की आवश्यकता



GkExams on 13-11-2018

ग्रामीण विकास एवं बहुआयामी अवधारणा है जिसका विश्लेशण दो दृष्टिकोणोंके आधार पर किया गया है: संकुचित एवं व्यापक दृष्टिकोण। संकुचित दृष्टि सेग्रामीण विकास का अभिप्राय है विविध कार्यक्रमेां, जैसे- कृषि, पशुपालन, ग्रामीणहस्तकला एवं उद्योग, ग्रामीण मूल संरचना में बदलाव, आदि के द्वारा ग्रामीण क्षेत्रोंका विकास करना।

वृहद दृष्टि से ग्रामीण विकास का अर्थ है ग्रामीण जनों के जीवन में गुणात्मकउन्नति हेतु सामाजिक, राजनितिक, सांस्कृतिक, प्रोद्योगिक एवं संरचनात्मक परिवर्तनकरना।

विश्व बैंक (1975) के अनुसार ‘‘ग्रामीण विकास एक विशिष्ट समूह- ग्रामीण निर्धनोंके आर्थिक एवं सामाजिक जीवन को उन्नत करने की एक रणनीति है।’’ बसन्तदेसार्इ (1988) ने भी इसी रुप में ग्रामीण विकास को परिभाशित करते हुए कहा कि,‘‘ग्रामीण विकास एक अभिगम है जिसके द्वारा ग्रामीण जनसंख्या के जीवन कीगुणवत्ता में उन्नयन हेतु क्षेत्रीय स्त्रोतों के बेहतर उपयोग एवं संरचनात्मक सुविधाओंके निर्माण के आधार पर उनका सामाजिक आर्थिक विकास किया जाता है एवंउनके नियोजन एवं आय के अवसरों को बढ़ाने के प्रयास किये जाते हैं।‘‘

क्रॅाप (1992) ने ग्रामीण विकास को एक प्रक्रिया बताया जिसका उद्देष्य सामूहिकप्रयासों के माध्यम से नगरीय क्षेत्र के बाहर रहने वाले व्यक्तियों के जनजीवन कोसुधारना एवं स्वावलम्बी बनाना है। जान हैरिस (1986) ने यह बताया कि ग्रामीणविकास एक नीति एवं प्रक्रिया है जिसका आविर्भाव विष्वबैंक एवं संयुक्त राश्ट्रसंस्थाओं की नियोजित विकास की नयी रणनीति के विशेष परिप्रेक्ष्य में हुआ है।ग्रामीण विकास की उपरोक्त परिभाशाओं के विष्लेशण में यह तथ्य उल्लेखनीय है किग्रामीण विकास की रणनीति में राज्य की भूमिका को महत्वपूर्ण माना गया है। राज्यके हस्तक्षेप के वगैर ग्रामवासियों के निजी अथवा सामूहिक प्रयासों, स्वयंसेवीसंगठनों के प्रयासों के आधार पर भी ग्रामीण जनजीवन को उन्नत करने के प्रयासहोते रहे हैं, इन प्रयासों को ग्रामीण विकास की परिधि में शामिल किया जा सकताहै। किन्तु नियोजित ग्रामीण विकास प्रारुप में राज्य की भूमिका महत्वपूर्ण मानी गयीहै। इन परिभाशाओं के विष्लेशण से दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य यह भी उभरता है किग्रामीण विकास सिर्फ कृषि व्यस्था एवं कृषि उत्पादन के साधन एवं सम्बन्धों मेंपरिवर्तन तक ही सीमित नहीं है बल्कि ग्रामीण परिप्रक्ष्य में सामाजिक, आर्थिक,सांस्कृतिक, प्रौद्योगिक, संरचनात्मक सभी पहलुओं में विकास की प्रक्रियायें ग्रामीणविकास की परिधि में शामिल हैं।

ग्रामीण पुनर्निर्माण के उपागम एवं रणनीतियाँ

भारत में ग्रामीण विकास की रणनीति अलग-अलग अवस्थाओं में बदलती रहीहै। इसका कारण यह है कि ग्रामीण विकास के प्रति दृष्टिकोण बदलता रहा है।वस्तुत: ग्रामीण भारत को विकसित करने हेतु राज्य द्वारा अपनाये गये प्रमुख अभिगम(दृष्टिकोण) हैं-

1. बहुद्देशीय अभिगम

बहुद्देशीय अभिगम की प्रमुख मान्यता यह थी किगावों में लोगों के सामाजिक आर्थिक विकास हेतु यह आवश्यक है कि उनकीप्रवृत्तियों एवं व्यवहारों को बदलने का संगठित प्रयास किया जाय। इस दृष्टिकोणके आधार पर 1952 में सामुदायिक विकास कार्यक्रम की रणनीति अपनार्इ गयीजिसमें राज्य के सहयेाग से लोगों के सामूहिक एवं बहुद्देषीय प्रयास को शामिलकरते हुए उनके भौतिक एवं मानव संसाधनों को विकसित करने का लक्ष्य निर्धारितकिया गया। इस प्रकार बहुद्देषीय उपागम के अन्तर्गत एक शैक्षिक एवंसंगठनात्मक प्रक्रिया के रुप में सामाजिक आर्थिक विकास के अवरोधों को दूर करनेपर बल दिया गया।

2. जनतांत्रिक विकेन्द्रीकरण अभिगम

इस दृष्टिकोण की प्रमुख मान्यता यहथी कि ग्रामीण विकास के लिए प्रशासन का विकेन्द्रीकरण एवं लोगों की जनतांत्रिकसहभागिता का बढ़ाया जाना आवष्यक है। इस अभिगम के अनुरुप भारत मेंपंचायती राज संस्थाओं का विकास किया गया एवं क्षेत्रीय स्तर पर स्थानीय विकासकार्यक्रमों के निर्धारण एवं क्रियान्वयन के द्वारा ग्रामीण संरचना में परिर्वन कीरणनीति अपनार्इ गयी।

3. अधोमुखी रिसाव (ट्रिकल डाउन) अभिगम

स्वतंत्रता के पश्चात् 1950 केआरम्भिक दशक में राज्य की रणनीति इन मान्यताओं पर आधारित थी कि जिसप्रकार बोतल के ऊपर रखी कुप्पी में तेल डालने पर स्वाभाविक रुप से उसकी पेंदीमें पहुँच जाता है एवं तेल के रिसने की प्रक्रिया को कुछ देर जारी रखा जाय तोबोतल भर जाती है उसी प्रकार आर्थिक लाभ भी ऊपर से रिसते हुए ग्रामीणनिर्धनों तक पहुँच जायेगा। 1950 के आरम्भ में पाश्चात्य आर्थिक विषेशज्ञों ने यहमत दिया कि ग्रामीण विकास समेत सभी प्रकार का विकास आर्थिक प्रगति पर हीआधारित है इसलिए कुल राष्ट्रीय आय में वृद्धि करके ग्रामीण निर्धनता को दूर कियाजा सकता है। एक दषक के अनुभवों के आधार पर उन्हें यह आभास हुआ किउनकी रणनीति ग्रामीण निर्धनता को दूर करने में असफल रही है। तत्पश्चात्अर्थषास्त्रियों एवं समाजवैज्ञानिकों का दृष्टिकोण बदला। नये दृष्टिकोण की मान्यतायह थी कि आर्थिक प्रगति के अलावा शिक्षा को माध्यम बनाना होगा एवं ग्रामीणजनता को शिक्षित करके उनमें जागरुकता लानी होगी। इस दृष्टिकोण परआधारित प्रयास का परिणाम यह निकला कि षिक्षित ग्रामीणों ने हल चलाने एवंकृषि कार्य रकने से इन्कार कर दिया, उनकी अभिरुचि केवल “वेत वसन कार्य(व्हाइट कलर वर्क) करने की बन गयी। तब 1960 में यह दृष्टिकोण पनपा किलोगों की अभिवृत्तियों एवं उत्प्रेरकों में परिवर्तन किये वगैर ग्रामीण विकास सम्भवनहीं। 1960 के दषक के परिणाम के आधार पर यह अनुभव हुआ कि कुछ प्रकार कीआर्थिक प्रगति ने सामाजिक न्याय में वृद्धि की है किन्तु अन्य अनेक प्रकार कीप्रगति ने सामाजिक असमानता को बढ़ाया है। 1970 के दषक में योजनाकारों एवंसमाजवैज्ञानिकों का दृष्टिकोण बदला। इस नये दृष्टिकोण की मान्यता यह थी किसामाजिक आर्थिक विकास के लाभ स्वत: रिसते हुए ग्रामीण निर्धनों तक पहुँचने कीधारणा भ्रामक है। अत: ग्रामीण विकास हेतु भूमिहीनों, लघु किसानों एवं कृषि परविषेश रुप से ध्यान केन्द्रित करना होगा। इस अभिगम के अन्तर्गत सामाजिकप्राथमिकताओं के निर्धारण एवं आर्थिक प्रगति एवं सामाजिक न्याय में संतुलनकायम रखने पर बल दिया गया।

4. जन सहभागिता अभिगम

जन सहभागिता उपागम की प्रमुख मान्यता यह थीकि ग्रामीण विकास की पूरी प्रक्रिया को जन सहभागी बनाना होगा। ग्रामीण विकासकी पूरी प्रक्रिया को जन सहभागी बनाना होगा। ग्रामीण विकास के लिए किये जानेवाले प्रषासन को न सिर्फ लोगों के लिए बल्कि लोगों के साथ मिलकर किये जानेवाले प्रषासन के रुप में परिवर्तित करना होगा। ग्रामीण जनों से आषय यह है किवे लोग जो विकास की प्रक्रिया से अछूते रह गये हैं तथा जो विकास की प्रक्रिया केषिकार हुए हैं अथवा ठगे गये हैं। सहीाागिता का आषय यह है कि ग्रामीण विकासहेतु स्त्रोतों के आवंटन एवं वितरण में इन ग्रामीण समूहों की भागीदारी बढ़ाना।जनसहभागिता अभिगम पर आधारित रणनीति को क्रियान्वित करने की दिषा मेंसामुदायिक विकास कार्यक्रमों के विस्तार, विभिन्न प्रकार की सहकारी समितियों केविकास, स्वयंसेवी संस्थाओं, संयुक्त समितियों, ग्राम पंचायतों, आदि को प्रोत्साहितकरने के तमाम प्रयास किये गये।

5. लक्ष्य समूह अभिगम

ग्रामीण विकास कार्यक्रमों के क्रियान्वयन से प्राप्तपरिणामों के आधार पर यह अनुभव हो गया था कि ये कार्यक्रम ग्रामीण समुदाय मेंअसमानता दूर करने में असफल रहे हैं। ग्रामीण विसंगतियों में सुधार हेतु यहदृष्टिकोण विकसित हुआ कि विविध समूहों- भूमिहीन मजदूरों, ग्रामीण महिलााओं,ग्रामीण षिषुओं, छोटे किसानों, जनजातियों, आदि को लक्ष्य बनाकर तदनुरुपविकास कार्यक्रम चलाने होंगे। इस दृष्टिकोण के आधार पर देा प्रकार के प्रयासकिये गये: (अ) भूमि सुधार के माध्यम से भूमिहीनों को भू-स्वामित्व दिलाने के प्रयासकिये गये, एवं (ब) मुर्गीपालन, पषुपालन तथा अन्य सहयोगी कार्यक्रमों के जरियेरोजगार के अवसर विकसित किये गये। ग्रामीण महिलाओं एवं षिषुओं, जनजातियोंतथा अन्य लक्ष्य समूहों के लिए पृथक-पृथक कार्यक्रम चलाये गये।

6. क्षेत्रीय विकास अभिगम

ग्रामीण विकास के क्षेत्रीय अभिगम की मान्यता यहथी कि भारत के विषाल भौगोलिक क्षेत्रों में अनेक गुणात्मक भिन्नतायें हैं। पर्वतीयक्षेत्र, मैदानी क्षेत्र, रेगिस्तानी क्षेत्र, जनजाति बहुल क्षेत्र आदि की समस्यायें समरुपीयनहीं हैं। अत: ग्रामीण विकास की रणनीति में क्षेत्र विषेश की समस्याओं को आधारबनाया जाना चाहिए। इस उपागम के अनुरुप अलग-अलग ग्रामीण क्षेत्रों के लिएपृथक-पृथक विकास कार्यक्रम निर्धारित किये गये तथा उनका क्रियान्वयन कियागया।

7. समन्वित ग्रामीण विकास अभिगम

1970 के दषक के अन्त तक ग्रामीणविकास की रणनीतियों एवं कार्यक्रमों की असफलता से सबक लेते हुए एक नयादृष्टिकोण विकसित हुआ जो समन्वित ग्रामीण विकास अभिगम के नाम से जानाजाता है। इस अभिगम की मान्यता यह है कि ग्रामीण विकास के परम्परागतदृष्टिकोण में मूलभूत दोष यह था कि वे ग्रामीण निर्धनों के विपरीत ग्रामीण धनिकोंके पक्षधर थे तथा उनके कार्यक्रमों एवं क्रियान्वयन पद्धतियों में कर्इ अन्य कमियॉ थींजिसके परिणामस्वरुप अपेक्षित परिणाम नहीं मिल सका। समन्वित ग्रामीण विकासअभिगम के अन्तर्गत जहाँ एक ओर ग्रामीण जनजीवन के विविध पहलुओं- आर्थिक,सामाजिक, शैक्षणिक, स्वास्थ्य, प्रौद्योगिक को एक साथ समन्वित करके ग्रामीणविकास के कार्यक्रमों के निर्धारण पर बल दिया गया वहीं दूसरी ओर विकस केलाभों के वितरण को महत्वपूर्ण माना गया।इन विविध अभिगमों के अवलोकन से यह स्पष्ट है कि भारत में ग्रामीणविकास के प्रति चिन्तन की दिषायें समय-समय पर बदलती रही हैं।

इन परिवर्तितदृष्टिकोणों पर आधारित रणनीतियों एवं ग्रामीण विकास कार्यक्रमों में भी तद्नरुपपरिवर्तन होता रहा है।

8. स्वयं सेवा समूह एवं लघु वित्त अभिगम

1990 के दशक के उत्तर्राद्ध सेलेकर वर्तमान में ग्रामीण विकास की मुख्य रणनीति है स्वयं सहायता समूहों कानिर्माण करना तथा वित्तीय संस्थाओं जैसे ग्रामीण बैंक, नाबार्ड, आदि द्वारा उन्हें लघुअनुदान प्रदान करते हुए स्वावलम्बी समूह के रूप में उनका विकास करना। इसदृष्टि से ग्रामीण निर्धन महिलाओं एवं पुरूषों के छोटे-छोटे समूह, जिसमें 10-15सदस्य शामिल हैं, विभिन्न प्रकार के उद्यम में संलग्न हैं तथा एक स्वयं सहायतासमूह के रूप में विकसित हो रहे हैं। इस अभिगम में वृहद् परियोजना एवं लागतकी बजाय कम पूँजी एवं लघु परियोजनाओं को प्राथमिकता दी गर्इ है।

ग्रामीण पुनर्निर्माण का गांधीवादी उपागम

ग्रामीण पुनर्निर्माण का आशय है गांवों को विकसित एवं रूपान्तरित करते हुएउसका पुन: निर्माण करना। ग्रामीण विकास के उपागम विविध हैं। मोटे तौर पर इनउपागमों को दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है: संघर्षवादी एवं प्रकार्यवादी उपागम।संघर्षवादी प्रारूप में ग्रामीण पुनर्निर्माण की प्रक्रिया द्वन्द्वात्मक है। ग्रामीण अर्थव्यवस्थामें परिवर्तन के जरिये सम्पूर्ण ग्रामीण संरचना का पुनर्निर्माण संभव है जिसमेंसामाजिक संघर्ष की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। इसके विपरीत प्रकार्यवादी प्रारूप मेंसामाजिक संघर्ष की बजाय अनुकूलन एवं सामंजस्य के द्वारा ग्रामीण संरचना कारूपान्तरण एवं पुनर्निर्माण किया जाता है।

महात्मा गाँधी की ग्रामीण पुनर्निर्माण योजना को दो प्रमुख आधारों पर समझाजा सकता है: प्रथम यह कि गांधीं किस प्रकार का ग्राम बनाना चाहते थे? दूसरायह कि उनकी ग्रामीण पुनर्निर्माण योजना वर्तमान समाज में कितनी प्रासंगिक है?वस्तुत: गांधी की ग्रामीण पुनर्निर्माण की परिकल्पना उनके विचारों एवं मूल्यों परआधारित है। गांधी के विचार, दर्शन एवं सिद्धान्त के प्रमुख अवयव हैं: सत्य के प्रतिआस्था, अहिंसा की रणनीति, विध्वंस एवं निर्माण की समकालिकता, साधन कीपवित्रता के माध्य से लक्ष्य की पूर्ति, गैर प्रतिस्पर्द्धात्मक एवं अहिंसक समाज कागठन, धरातल बद्धमूल विकास, वृहद् उद्योगों की वजाय कुटीर उद्योगों कोप्रोत्साहन, श्रम आधारित प्रौद्योगिकी की महत्ता, ग्रामीण गणराज्य एवं ग्राम स्वराजके आधार पर ग्राम स्वावलम्बन की स्थापना, इत्यादि।

गांधी की दृष्टि में विकेन्द्रित ग्रामीण विकास की रणनीति को ग्रामीणपुनर्निर्माण में आधारभूत बनाना अनिवार्य है। उन्होंने पंचायती राज के गठन पर बलदिया। गांधी ग्रामीण विकास को सम्पोषित स्वरूप प्रदान करना चाहते थे, इसलिएउन्होंने प्रकृति के दोहन की बजाय प्रकृति से तादात्म्य बनाने का सुझाव दिया।उनकी दृष्टि में नैतिक शिक्षा एवं प्रकृति से पेम्र करने की शिक्षा दी जानी चाहिए।सादा जीवन एवं उच्च विचार के अपने आदर्शों के अनुरूप उन्होंने लालच से बचनेएवं अपनी आवश्यकताओं को सीमित करने का सुझाव दिया। उन्होंने यह कहा किप्रकृति के पास इतना पर्याप्त स्रोत है कि वह संसार के समस्त प्राणियों कीआवश्यकताओं की पूर्ति कर सकती है किन्तु लालच को पूरा कर पाने में सम्पूर्णपृथ्वी भी अपर्याप्त है।

गांधी की दृष्टि में ग्रामीण रूपान्तरण एवं ग्रामीण पुनर्निर्माण की सम्पूर्णप्रक्रिया में गांव की स्वाभाविक विशिश्टता सुरक्षित बनाये रखना अनिवार्य है। ग्रामीणऔद्योगिकरण के परिप्रेक्ष्य में उन्होंने खादी एवं ग्रामोद्योग को विकसित करने पर बलदिया। अपनी पुस्तक हिन्द स्वराज में गांधी ने ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा पोषित आधुनिकसभ्यता को आर्थिक क्लेश का प्रमुख कारक माना तथा इससे मुक्ति हेतु उन्होंनेभारत की प्राचीन संस्कृति के मूल्यों-सत्य, अहिंसा, नैतिक प्रगति को पुनर्जीवितकरते हुए मानव विकास की परिकल्पना की। खादी आन्दोलन को औपनिवेशिकसंघर्ष का माध्यम बनाते हुए उन्होंने महिलाओं एवं समस्त ग्रामीण जनसमूहों को नसिर्फ आर्थिक एवं राजनीतिक सक्रिय भागीदार बनाया बल्कि उन्हें सशक्त एवंस्वावलम्बी बनाने का प्रयास भी किया।

गांधी की परिकल्पना में ग्रामीण उद्योग की परिधि में वे समस्त गतिविधियां,कार्य एवं व्यवसाय सम्मिलित हैं जिसमें ग्राम स्तर पर ग्रामीणों के लिए वस्तुओं काउत्पादन किया जाता है, स्थानीय क्षेत्रों में उपलब्ध कच्चे माल का उपयेाग करते हुएसरल उत्पादन प्रक्रिया अपनार्इ जाती है, केवल उन्हीं उपकरणों का प्रयोग कियाजाता है जो ग्रामीणों की सीमित आर्थिक क्षमता में सम्भव हैं, जिसकी प्रौद्योगिकीनिर्जीव शक्ति-विद्युत, मोटर, इत्यादि की बजाय जीवित शक्तियों-मनुष्य, पशु, पक्षीद्वारा संचालित होती है तथा जिसमें मानव श्रम का विस्थापन नहीं किया जाता है।

गांधी ने आधुनिक मशीन आधारित उत्पादन प्रणाली की बजाय मानव श्रमआधारित उत्पादन प्रणाली पर बल दिया क्योंकि उनकी दृष्टि में भारत जैसी विशालआबादी वाले देश में अधिकांश लोगों को रोजगार प्रदान करने का यह सर्वोत्तमविकल्प है। गांधी के ग्रामोद्योग की परिकल्पना ने जहाँ एक ओर हिंसारहित, शोषणविहीन, समानता के अवसर युक्त, प्रकृति को संरक्षित एवं संपोषित करने वालेग्रामीण उद्योगों के विकास का पथ प्रदर्शित किया वहीं दूसरी ओर उत्पादन कीप्रक्रिया में मशीनों के प्रयोग, बाजार एवं साख से जुड़े प्रश्न समेत अनेक वाद-विवादभी उत्पादन किया।

स्वतंत्र भारत में बाजार के अनुभवों के आधार पर इस तरह केप्रश्न उभरे कि खादी एवं ग्रामोद्योग उत्पादों का बाजार अत्यन्त सीमित है, इनकेउत्पादकों की आर्थिक दशा दयनीय है क्योंकि मशीन आधारित उत्पादकों सेप्रतिस्पर्धा में वे पिछड़े हुए हैं, इत्यादि। इन प्रश्नों के उत्तर समय-समय परगांधीवादी परिप्रेक्ष्य में संशोधित होते रहे हैं। आरम्भिक अवस्था में खादी हेतु बाजारका प्रश्न गांधी के लिए महत्वपूर्ण नहीं था। उन्होंने भारतीयों को खादी वस्त्र धारणकरने का संदेश दिया जिसमें खादी के लिए बाजार से जुड़े प्रश्न का उत्तरसन्निहित था। 1946 में गांधी ने बाजार की मांग के अनुरूप वाणिज्यक खादी एवंहैण्डलूम के अलावे पावरलूम को भी स्वीकृति दी।स्वतंत्र भारत में 1948 की प्रथम औद्योगिक नीति से लेकर 1991 की नर्इ लघुउद्यम नीति तक ग्रामीण रोजगार सृजन एवं ग्रामीण अर्थव्यवस्था को समृद्ध करनेहेतु खादी एवं ग्रामोद्योग को प्रोत्साहित किया गया। किन्तु व्यावहारिक स्तर परगांधीवादी उपागम पर आधारित ग्रामीण औद्योगिकरण की प्रक्रिया भारत में ग्रामीणनिर्धनता एवं बेरोजगारी उन्मूलन में पूर्णत: सफल नहीं हो सकी तथा विविधसमस्यायें अभी भी बनी हुर्इ हैं, जैसे-
  1. खादी उत्पादकों की आय इतनी कम है कि इसके जरिये वे निर्धनता रेखा सेउपर उठने में असमर्थ हैं। हाल ही में महिला विकास अध्ययन केन्द्र, गुजरातद्वारा किये गये सर्वेक्षण से प्राप्त तथ्य इस निष्कर्ष की पुष्टि करते हैं।
  2. खादी उत्पादकों के लिए बाजार एक प्रमुख समस्या बनी हुर्इ है।
  3. कोआपरेटिव संस्थाओं के जरिये खादी एवं
अन्य कुटीर उत्पादों केबाजारीकरण एवं उत्पादक सम्बन्धी संस्थागत प्रयास प्राय: असफल ही रहे हैं।गांधी के ग्रामीण पुनर्निर्माण की रणनीति का आविर्भाव एक विशिष्टऐतिहासिक एवं सामाजिक आर्थिक परिपे्रक्ष्य में हुआ। यद्यपि ग्रामीण औद्योगिकरणकी गांधीवादी परिकल्पना व्यवहार में बहुत सफल नहीं रही किन्तु इसका यह आशयनहीं कि गांधी का दृष्टिकोण अप्रासंगिक है। आधुनिकता के पक्षधर पंडित जवाहरलाल नेहरू ने यह स्वीकार किया कि तीव्र प्रगति हेतु आधुनिक मशीनों का उपयोगआवश्यक है किन्तु भारत की बहुसंख्यक आबादी के परिप्रेक्ष्य में गांधी का मानव श्रमपर आधारित प्रौद्योगिकी को प्रोत्साहित करने सम्बन्धी दृष्टिकोण अत्यन्त प्रासंगिकहै।

ग्रामीण विकास के विविध कार्यक्रम एवं उनका मूल्यांकन

राज्य द्वारा ग्रामीण विकास के क्षेत्र में लागू किये गये कार्यक्रमों को मोटे तौरपर चार भागों में बाँटा जा सकता है: (अ) आय बढ़ाने वाले कार्यक्रम (ब) रोजगारउन्मुख कार्यक्रम (स) शिक्षा एवं कल्याण कार्यक्रम (द) क्षेत्रीय कार्यक्रम।





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Comments Antima Patel on 13-02-2023

Gramin vikash kyu jajuri hai

Govind on 14-07-2021

Gramin Kshetra mein bacchon ka Vikas karykram

Govind on 14-07-2021

Gramin Kshetra mein
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मुकेश कुमार on 12-05-2019

पटवारी परीक्षा के लिए ग्रामीण समाज एवं ग्रामीण विकास पर आधारित प्रश्न कौन कौन से होते है





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