Vanchit Warg Kise Kehte Hai वंचित वर्ग किसे कहते है

वंचित वर्ग किसे कहते है



Pradeep Chawla on 23-09-2018

पाठ्यपुस्तक में, और शिक्षिका द्वारा भी, वंचित वर्गों को ही उनके दमन का कारण बताया गया। शिक्षिका द्वारा ये वक्तव्य दिए गए, “ऐसे कई लोग होते हैं जो अपने माता-पिता के काम को ही आगे जारी रखते हैं। क्या तुमने रमेश भैया को देखा है - जो स्कूल में झाड़ू लगाता है? उसकी माँ रेलवे स्टेशन पर झाड़ू लगाती है। वह अपनी माँ के पेशे का ही अनुसरण कर रहा है। यदि उसने थोड़ी पढ़ाई कर ली होती तो वह कुछ और बन सकता था, पर उसने पढ़ाई न करके अपनी माँ के पेशे को अपना लेने का आसान रास्ता चुना। ऐसे लोगों की दयनीय दशा उनके अपने कर्मों के कारण है। सरकार ने उन्हें सुविधाएँ प्रदान की हैं और प्रावधान बनाए हैं। यह उनकी गलती है कि वे सरकारी नीतियों का लाभ नहीं ले रहे हैं।” इस प्रकार यह साफ तौर पर देखा जा सकता है कि गरीब और निम्न जाति के लोगों को अपनी गरीबी के लिए स्वयं ज़िम्मेदार दर्शाया जाता है।

यह देखना भी दिलचस्प है कि किस प्रकार कक्षा में होने वाले अध्यापन के माध्यम से पाठ्यपुस्तक का अलग-अलग ढंग से अर्थ लगाया जाता है। उदाहरण के लिए, पाठ में कहा गया है: ‘जब किसी दलित समुदाय का कोई शिक्षित युवक रोज़गार विभाग में जाता है तो उसे स्वत: ही सफाई कर्मचारी या किसी अन्य छोटे काम के लिए रख लिया जाता है। यह सामाजिक अनुकूलन है: लोग इसी तरह सोचते हैं क्योंकि उनके लिए यह करना स्वाभाविक होता है।’

इसे समझाते हुए शिक्षिका ने कहा, “अनुसूचित जाति का व्यक्ति रोज़गार कार्यालय गया और शिक्षित होने के बावजूद खुद को सफाई कर्मचारी के काम के लिए नामांकित करा लिया। उसने ऐसा क्यों किया, यह मेरी समझ के परे है।” शिक्षिका ने अपने सामाजिक दृष्टिकोण के आधार पर पुस्तक में लिखी बात का बिलकुल ही गलत अर्थ लगा लिया। उसके अनुसार अनुसूचित जाति के व्यक्ति ने खुद सफाई कर्मचारी बनना पसन्द किया, जबकि पाठ कहता है कि रोज़गार कार्यालय के कर्मचारी ने उसे सफाई कर्मचारी के पद के लिए नामांकित किया।
यह इस बात को दर्शाने के लिए अच्छा उदाहरण हो सकता था कि कैसे जाति व्यवस्था लोगों के ज़हन में गहराई से जड़ें जमाए हुए है (जिसमें शहरों में रहने वाले शिक्षित लोग भी शामिल हैं) और संवैधानिक प्रावधानों के बावजूद किस तरह से यह मानसिकता विभिन्न रूपों में प्रकट होती है। लेकिन शिक्षिका अनुसूचित जाति के लोगों की इस दयनीय स्थिति में सुविधा-सम्पन्न वर्ग के लोगों की सहयोगी भूमिका को अनदेखा कर देती है। उसे लगता है जाति व्यवस्था का अस्तित्व अतीत की बात है और स्वतंत्रता के बाद तो सरकार ने दलितों के उत्थान के लिए ढेर सारे प्रावधान बना दिए हैं। अब यह उन पर है कि वे इन प्रावधानों का इस्तेमाल अपनी भलाई के लिए करें। यदि वे इन प्रावधानों का इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं, इसका मतलब है कि वे मेहनत नहीं करना चाहते।

अस्पृश्यता का मुद्दा

अस्पृश्यता पर बात करते हुए शिक्षिका ने मैला साफ करने की प्रथा का ज़िक्र किया। उसने कहा, “वे मानव-मल को खुले हाथों से साफ करते हैं। उन्हें कोई नहीं छूना चाहता। यह अस्वस्थ्यकर भी होता है। जाति की बात छोड़िए। हम जाति-वाति नहीं मानते, पर तुम्हें लगता है कि तुम उन हाथों से पीने का पानी लेना चाहोगे जिन्होंने पाखाना साफ किया हो? किसका मन करेगा पानी पीने का? कीटाणु हो सकते हैं। हम मानते हैं कि सभी लोग समान हैं, पर स्वास्थ्य एक अलग मुद्दा है। हाँ, अगर वे दस्ताने पहनकर टॉयलेट साफ करेंगे तो अलग बात है।”

यहाँ हम देख सकते हैं कि हालाँकि, शिक्षिका यह कहती है कि अस्पृश्यता बुरी बात है पर फिर वह खुद ही उन धारणाओं को मज़ूबत करने के लिए एक और तर्क देती है कि इन लोगों को नहीं छुआ जाना चाहिए। मैला साफ करने वालों के दृष्टिकोण से बात करने और ऐसी प्रथा को प्रतिबन्धित करने के लिए आवाज़ उठाने की बजाय उसने मौजूदा धारणाओं के पक्ष में तर्क दे दिए। वह यह भी कहती है कि यदि सफाई करने वाला व्यक्ति दस्ताने पहने तो बात अलग हो जाएगी। पर उन्हें दस्ताने क्यों नहीं दिए जाते? उन्हें दस्ताने मुहैया कराना किसकी ज़िम्मेदारी है? ऐसा क्यों है कि प्रतिबन्धित होने के बावजूद हाथों से मैला साफ करने की प्रथा अब भी जारी है? सरकार की भूमिका क्या है? क्या वे लोग बस कानून बनाने के लिए होते हैं? इन कानूनों का पालन करवाने की ज़िम्मेदारी किसकी है? वे कौन लोग हैं जो हाथ से मैला साफ करने के लिए लोगों की नियुक्ति करते हैं? और आखिर क्यों लोग हाथ से मैला साफ करने के लिए तैयार हो जाते हैं? ये ऐसे प्रश्न हैं जिन पर कक्षा में चर्चा और बहस हो सकती थी पर इन मुद्दों को छुआ तक नहीं गया। क्योंकि ऐसे मुद्दे संघर्ष की स्थिति पैदा करते हैं और स्कूली पाठ्यक्रम हमेशा इस तरह की संघर्षपूर्ण स्थिति पैदा करने से कतराते रहे हैं (कुमार, के, 1996; 7)। ऐसे संघर्षों के समाधान से ही अस्पृश्यता जैसे मुद्दों की गहरी समझ पैदा होती है; बस इतना कह देने से कोई समझ नहीं बनती कि हाथ से मैला साफ करना प्रतिबन्धित है।




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