धुनिक भारतीय आर्य भाषाओं की सामान्य विशेषताएँ:
1. आधुनिक भारतीय आर्य-भाषाएँ लगभग पूर्णतः अयोगात्मक हो गई हैं।
2. ध्वनियों में अनेक परिवर्तन हो गये हैं, फिर भी लिपि में परम्परा का पालन किया जा रहा है। उदाहरणार्थ, ष् का संस्कृत के समान मूर्द्धन्य स्थान से उच्चारण नहीं होता किन्तु लिखने में प्रयोग होता है। अॅ, क़, ख़, ग़, ज़, फ़ अनेक विदेशी ध्वनियों का भी भाषाओं में प्रवेश हो गया है। इनका प्रयोग शिक्षित वर्ग विशेष के द्वारा होता है। इनका आधुनिक भाषाओं में स्वनिमिक महत्व के मुद्दे पर विद्वानों में मतभेद है।
3. अपभ्रंश के समान द्वित्व व्यंजन के स्थान पर एक का लोप और पूर्ववर्ती अक्षर की दीर्घता यहां भी पायी जाती है। उदाहरणार्थ: कर्म > कम्म > काम /निद्रा > णिद्दा > नींद/ सप्तं > सत्त > सात / अद्य > अज्ज > आज
4. अपभ्रंश की अपेक्षा आ0भा0आ0भा0 में विभक्ति रूपों की संख्या में कमी आ गई है। कारकीय अर्थ के लिए संज्ञा विभक्तिरूपों के बाद परसर्गीय शब्द/ शब्दांशों का प्रयोग होता है। संज्ञा विभक्ति शब्दों के प्राय दो रूप पाये जाते हैं - अविकारी एवं विकारी ।
5. केवल मराठी और गुजराती में तीन लिंग हैं । शेष भाषाओं में दो ही लिंग हैं।
6. आधुनिक भारतीय आर्यभाषा काल की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि अंग्रेजी, अरबी और फारसी के बहुत सारे शब्द भारतीय भाषाओं में प्रविष्ट हो गये हैं। अपभ्रंश-काल तक शब्द भण्डार देशी था।
अपभ्रंश के विभिन्न रूपों से आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के विकास की परम्परगत मान्यताः
विद्वानों ने विचार किया है कि किस अपभ्रंश रूप से किस/किन आधुनिक भारतीय आर्य भाषा/भाषाओं का विकास हुआ है। यह स्थिति निम्न रूप में मानी जाती है -
(1) मागधी > बिहारी हिन्दी (मैथिली, मागधी, भोजपुरी) / बंगला, ओडि़या/ओडि़शा, असमिया
(2) अर्द्धमागधी > पूर्वी हिन्दी (अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी)
(3) शौरसेनी > पश्चिमी हिन्दी (ब्रजभाषा, खड़ी बोली, बांगरू, कन्नौजी, बुंदेली) / राजस्थानी हिन्दी (मेवाती, मारवाड़ी, मालवी, जयपुरी) / गुजराती
(4) महाराष्ट्री > मराठी, कोंकणी
(5) शौरसेनी प्रभावित टक्की > पूर्वी पंजाबी
(6) व्राचड़ > सिन्धी
(7) पैशाची > काश्मीरी
उपर्युक्त विवरण पूर्ण एवं वैज्ञानिक नहीं है। इन विवरणों में अपभ्रंश काल के लिखित साहित्यिक भाषा रूपों से आधुनिक काल के बोले जाने वाले विभिन्न भाषिक रूपों के विकास का लेखा-जोखा प्रस्तुत करने का अतार्किक प्रयास है। संक्षेप में हम यह दोहराना चाहेंगे कि ‘ भारतीय आर्य भाषाओं के क्षेत्र ’ में अपभ्रंश काल में भी विविध बोलचाल के रूपों का व्यवहार होता होगा। अपभ्रंश काल के इन्हीं विविध बोलचाल के रूपों से आधुनिक भारतीय भाषाओं के विविध बोलचाल के रूपों का उद्भव हुआ है। यह बात जरूर है कि अपभ्रंश काल के विविध बोलचाल के रूपों से सम्बन्धित सामग्री हमें आज उपलब्ध नहीं है। भाषाविज्ञान का प्रत्येक विद्यार्थी जानता है कि प्रत्येक ‘भाषा क्षेत्र’ में अनेक क्षेत्रगत भिन्नताएँ होती हैं। भाषा-क्षेत्र की इन क्षेत्रीय भिन्नताओं को उस भाषा की क्षेत्रीय बोलियों / क्षेत्रीय उपभाषाओं के नाम से जाना जाता है। इतना ज्ञान तो सामान्य व्यक्ति को भी होता है कि ‘चार कोस पर बदले पानी, आठ कोस पर बानी’। भाषाविज्ञान का प्रत्येक विद्यार्थी यह भी जानता है कि प्रत्येक ‘भाषा क्षेत्र’ में एक मानक भाषा रूप भी होता है जिसका उस भाषा क्षेत्र के सभी शिक्षित व्यक्ति औपचारिक अवसरों पर प्रयोग करते हैं। यही मानक भाषा रूप लिखित भाषा का भी आधार होता है तथा प्रायः यही मानक रूप उस भाषा की ‘साहित्यिक भाषा’ का भी आधार होता है।
(देखें - प्रोफेसर महावीर सरन जैन: भाषा एवं भाषाविज्ञान, पृष्ठ 54 - 70, लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 1985)
अपभ्रंश काल में भी विविध बोलचाल के रूप बोले जाते होंगे। इन बोलचाल के रूपों से ही आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं का जन्म हुआ है। अपभ्रंश काल के अप्राप्य बोलचाल के रूपों को आधुनिक काल के ज्ञात भाषिक रूपों से अज्ञात की ओर वैज्ञानिक विधि से उन्मुख होकर अनुपलब्ध भाषिक रूपों को पुनर्रचित किया जा सकता है। विद्वानों को यह कार्य भाषा-विज्ञान के पुनर्रचना सिद्धांतों के आलोक में करना चाहिए।
आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं का वर्गीकरण:
(1)डॉ. सर जार्ज ग्रियर्सन का वर्गीकरणः
डॉ. सर जार्ज ग्रियर्सन ने आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं का वर्गीकरण डॉ. हार्नले के सिद्धान्त का समर्थन करते हुए निम्न प्रकार से किया है -
(क) बाहरी उपशाखा
(अ) उत्तरी-पश्चिमी समुदाय
(1) लहँदा अथवा पश्चिमी पंजाबी
(2) सिन्धी
(आ) दक्षिणी-समुदाय
(3) मराठी
(इ) पूर्वी समुदाय
(4) ओडि़या/ओडि़शा
(5) बिहारी
(6) बंगला
(7) असमिया
(ख) मध्य उपशाखा
(ई) बीच का समुदाय
(8) पूर्वी-हिन्दी
(ग) भीतरी उपशाखा
(उ) केन्द्रीय अथवा भीतरी समुदाय
(9) पश्चिमी हिन्दी
(10) पंजाबी
(11) गुजराती
(12) भीली
(13) खानदेशी
(14) राजस्थानी
(ऊ) पहाड़ी समुदाय
(15) पूर्वी पहाड़ी अथवा नेपाली
(16) मध्य या केन्द्रीय पहाड़ी
(17) पश्चिमी-पहाड़ी
डॉ. ग्रियर्सन का यह विभाजन अब मान्य नही है। प्रसिद्ध भाषाशास्त्री डॉ. सुनीतिकुमार चैटर्जी ने डॉ. ग्रियर्सन के इस मत की आलोचना अपनी पुस्तक ‘ओरिजि़न एण्ड डेवलपमेण्ट ऑफ बेंगाली लैंग्वेज़’ के परिशिष्ट ‘ए’ के पृष्ठ 150 से 156 में की है। उन्होंने ध्वनि-विचार एवं पद-विचार दोनों ही दृष्टियों से इस वर्गीकरण से असहमति प्रगट की है। यहाँ दोनों विद्वानों के मतों और डॉ. सुनीतिकुमार चैटर्जी द्वारा डॉ. ग्रियर्सन के विभाजन की आलोचनाओं को प्रस्तुत करने का अवकाश नहीं है।
जो अध्येता इनके विचारों एवं मान्यताओं को पढ़ना चाहते हैं, वे इनके ग्रंथों का अध्ययन कर सकते हैं।
(क)
George Abraham Grierson, Linguistic Survey of India, 11 Vols. in 19 Parts. Delhi, Low Price Publ. (2005) ISBN 81-7536-361-4.
V. Indo-Aryan Languages, (Eastern Group)
Part I Bengali Assamese
Part II Bihari Oriya
VI Indo-Aryan Languages, Mediate Group (Eastern Hindi)
VII Indo-Aryan Languages, Southern Group (Marathi)
VIII Indo-Aryan Languages, North-Western Group
Part I Sindhi Lahnda
Part II Dardic or Pisacha Languages (including Kashmiri)
IX. Indo-Aryan Languages, Central Group
Part I Western Hindi Panjabi
Part II Rajasthani Gujarati
Part III Bhil Languages including Khandesi, Banjari or Labhani, Bahrupia Etc.
Part IV Pahari Languages Gujuri
(ख)
1. Suniti Kumar Chatterji : The Origin And Development Of The Bengali Language
(http://www.amazon.com.)
2. S.K.Chatterji: ` Indo-Aryan and Hindi , Firma K.L.Mukhopadhyaya, Calcutta-12 2nd ed. (1960)
3. डॉ. सुनीति कुमार चैटर्जी : भारतीय आर्य भाषा और हिन्दी
आगे डॉ. चैटर्जी का वर्गीकरण प्रस्तुत है। ऐतिहासिक विकास क्रम की दृष्टि से यह वर्गीकरण डॉ. ग्रियर्सन के वर्गीकरण की अपेक्षा अधिक मान्य है।
(2) डा0 सुनीतिकुमार चैटर्जी का वर्गीकरणः
(क) उदीच्य (उत्तरी)
(1) सिन्धी
(2) लहँदा
(3) पूर्वी-पंजाबी
(ख) प्रतीच्य (पश्चिमी)
(4) गुजराती
(5) राजस्थानी
(ग) मध्यदेशीय
(6) पश्चिमी हिन्दी
(घ) प्राच्य (पूर्वी)
(7) (अ) कोसली या पूर्वी हिन्दी
(आ) मागधी प्रसूत
(8) बिहारी
(9) उडिया (ओडि़या/ओडि़शा)
(10) बंगला
(11) असमी
(ङ) दक्षिणात्य
(12) मराठी
डॉ. सुनीति कुमार चैटर्जी का वर्गीकरण डॉ. ग्रियर्सन के वर्गीकरण की अपेक्षा संगत है।
(3) डॉ. धीरेन्द्र वर्मा का वर्गीकरणः
भारतीय आर्य भाषाओं के आधुनिक स्वरूप के परिप्रेक्ष्य में एककालिक दृष्टि से इस वर्गीकरण में भी संशोधन अपेक्षित है। डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी के वर्गीकरण में हिन्दी भाषा का भौगोलिक विस्तार सम्यक् रूप में नहीं दिखाया गया है। मध्य देशीय के अन्तर्गत केवल पश्चिमी हिन्दी को रखा गया है। हिन्दी भाषा - क्षेत्र के विस्तार की स्वीकृति एवं मान्यता केा ध्यान में रखते हुए डॉ. धीरेन्द्र वर्मा ने आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं का वर्गीकरण इस प्रकार प्रस्तुत किया हैः
(क)- उदीच्य (उत्तरी)
1- सिंधी
2- लहँदा
3- पंजाबी
(ख)- प्रतीच्य (पश्चिमी)
4- गुजराती
(ग)- मध्यदेशीय (बीच का)
5- राजस्थानी
6- पश्चिमी हिंदी
7- पूर्वी हिंदी
8- बिहारी
9- पहाड़ी
(घ)- प्राच्य (पूर्वी)
10- उडिया ( ओडि़या/ओडि़शा)
11- बंगाली
12- असमी
(ड़) दक्षिणात्य (दक्षिणी)
13- मराठी
पहाड़ी भाषाओं का मूलाधार चैटर्जी महोदय पैशाची, दरद या खस को मानते हैं। बाद को मध्यकाल में ये राजस्थान की प्राकृत तथा अपभ्रंश भाषाओं से बहुत अधिक प्रभावित हो गई थीं।
(डॉ. धीरेन्द्र वर्मा: हिन्दी भाषा का इतिहास, पृष्ठ 53)।
उपर्युक्त भाषाओं के अतिरिक्त कई अन्य भाषाएँ भी आधुनिक आर्यभाषाओं के अन्तर्गत परिगणित हैं। भारत के बाहर श्रीलंका की सिंहली एवं मालदीव की महल् / दिवॅही तथा भारत की 1991 की जनगणना के संदर्भ को ध्यान में रखते हुए डॉ. धीरेन्द्र वर्मा के वर्गीकरण में किंचित संशोधन /परिवर्द्धन करते हुए आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं का वर्गीकरण निम्न प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता हैः
Adhunik Bhartiye bhasaao ka sanchipt parichye dijiye
Adhunik bhartiye bhasao ka samniye parichey
Kitni bhartiye bhashy h.
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