खजुराहो, वहां स्थित मंदिर की दीवारों पर उकेरी गई मिथुन मूर्तियों के लिए विख्यात है। यह प्रश्न बार-बार उठता रहा है कि मंदिर भित्तियों पर ऐसी मूर्तियां क्यों उकेरी गईं ? पूजा-अर्चना स्थल पर ऐसी मूर्तियों का क्या औचित्य है ? मंदिर अथवा कोई भी उपासना स्थल वह स्थान होता है जहां पहुंच कर मनुष्य लौकिक से अलौकिक की ओर आकर्षित होता है, तो फिर काम-क्रीड़ा रूपी लौकिक क्रियाओं का सार्वजनिक प्रदर्शन क्यो ? इन सारे प्रश्नों का उत्तर आज भी पूर्णरूप से स्पष्ट नहीं हो सका है। खजुराहो की मिथुन मूर्तियों को ले कर विभिन्न विचार एवं मत प्रचलित हैं।
खजुराहो की भांति उड़ीसा तथा मध्य भारत के कुछ अन्य स्थानों पर भी मिथुन मूर्तियों का चित्रण है। कोणार्क के अतिरिक्त कर्नाटक के भत्कल मंदिर में, तमिलनाडु के कामाक्षी अम्बा मंदिर में, महाराष्ट्र एलोरा के कैलाश मंदिर में, आंध्र प्रदेश आलमपुर के ब्रह्मा मंदिर में मिथुन मूर्तियां मौजूद हैं। हिन्दू जीवन-व्यवस्थाओं में चार पुरुषार्थों-अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष में काम को भी अन्य तीन पुरुषार्थों के समकक्ष महत्वपूर्ण माना गया है। खजुराहो में प्रदर्शित मिथुन मूर्तियों सृजन हेतु काम को प्रदर्शित करती हैं जिससे इनके तन्त्र मार्ग से प्रभावित होने का भ्रम होने लगता है। मिथुन मूर्तियां में प्रदर्शित कामकला की विविध पद्धतियां एवं आसन यह प्रदर्शित करते है कि मनुष्य अपने जीवन से पूर्ण तृप्ति के बाद ही आध्यात्म की ओर प्रवृत हो सकता है तथा मोक्ष प्राप्त कर सकता है। खजुराहो में प्रदर्शित मिथुन मूर्तियों में जिन आसनों का अंकन है उनका उल्लेख प्राचीन ग्रंथ ‘कामसूत्र’ में मिलता है। जिनमें भुग्नक, व्यायत, अवलम्बितक, धेनुक, संघाटक, गोयूथिक तथा अघोरत आदि का अंकन शिल्प सौन्दर्य की दृष्टि से अनुपम है। इनकी अन्तक्रियाओं को भी शिल्पियों ने सहज भाव से प्रस्तुत किया है। उदाहरणार्थ, धेनुक की अन्तक्रियाए हारिणबन्ध, छागल, गर्दभाक्रान्त, मार्जारललिततक आदि का प्रदर्शन विविध मूर्तियों में है। लक्ष्मण मंदिर की बहिर्भित्तियों पर रतिक्रिया में लिप्त युगल, मुख मैथुन, गोयूथिक (सामूहिक रतिक्रिया) तथा पशु-संभोग का उत्खचन है। इसी प्रकार दूलादेव मंदिर में मुखमैथुन, देवी जगदम्बा मंदिर में पशु आसन तथा लक्ष्मण मंदिर में गोयूथिक चित्रण प्रदर्शित किया गया है। लक्ष्मण मंदिर की बर्हिभित्ति पर अधोरत युगल के निकट एक उन्मत्त गज का अंकन है जो अपनी सूंड में एक पुरुष की टांगों को लपेटे हुए है और अपने आगे के दायें पैर को उठाकर उस पुरुष के सिर को रौंदने को तत्पर है। इसी मंदिर में उत्कीर्ण एक अन्य प्रतिभा में व्यायत युगल की बायीं ओर एक नारी तथा दायीं ओर एक पुरुष अनुचर प्रदर्शित है। ये दोनों युगल की क्रीड़ा से प्रभावित हो आत्मरति में संलग्न हैं। नीचे एक अन्य सेविका बैठी हुई है। इस प्रतिमा में मानवीय संवेग के संचरण का व्यावहारिक प्रदर्शन है। इसी प्रकार लक्ष्मण मंदिर में ही गोयूथिक एवं पशु संभोग चित्रण में एक-एक अनुचरों को अपने हाथों से अपने दोनों नेत्र बंद किए हुए दिखाया गया है। संभवतः संवेग संचरण से बचने के लिए यह आचरण प्रदर्शित है क्योंकि अन्य अनुचर सहयोगी की भूमिका में हैं। मंदिरों की बहिर्भित्तियों पर इस प्रकार का प्रदर्शन आधुनिक समाज में आश्चर्य उत्पन्न करता है किन्तु मंदिरों और यौनाचार का पारस्परिक संबंध प्राचीनतम है। बेबीलोनिया के मिलित्ता मंदिर में प्रत्येक विवाहिता को एक बार जाकर विदेशी के साथ कुछ घंटे व्यतीत करने को होते थे। |
अफ्रोदीती मंदिर मूर्ति, ग्रीस |
इसी प्रकार ग्रीक अफ्रोदीती और रोमन वीनस के चारों ओर गणिकाओं के आवास होते थे। भारत के मंदिरों में देवदासी प्रथा भी चंदेलकाल से पुरातन है। कालिदास ने महाकाल की चरणधारिणी नर्त्तकियों का उल्लेख किया है। किन्तु, छठीं शताब्दी ईसवी में नग्न नारी मूर्तियों का उत्खचन तो किया जाता था लेकिन मिथुन चित्रण का अभाव था। वज्रयान उदय यानी छठीं शताब्दी के निकट तांत्रिक परिपाटी का विकास हुआ और साधना का केन्द्र नारी को बनाया गया। शाक्त धर्म में भी भोग द्वारा तंत्र सिद्ध करने की परिपाटी रही। विन्ध्याचल में नग्न कुमारी की पूजा प्रमुख अनुष्ठान था। औघड़, सहजिया, मरमिया आदि कापालिक पंथ तंत्र ज्ञान का प्रसार करते रहे। इस प्रकार की परिपाटियों ने मंदिर में मिथुनमूर्तियाँ के उत्खचन को सहज सार्वजनिक होने में मदद की होगी। मिथुन मूर्तियों को चाहे तंत्राचार का उदाहरण माना जाए अथवा काम-पुरुषार्थ द्वारा मोक्ष प्राप्ति के मार्ग की अभिव्यक्ति किन्तु तथ्य निर्विवाद सिद्ध है कि इनमें शिल्प सौंदर्य का इतना सुन्दर प्रदर्शन है कि ये मूर्तियां संवेगों से युक्त एवं जीवन्त प्रतीत होती हैं।