Kalyankari Rajya Ke Karya कल्याणकारी राज्य के कार्य

कल्याणकारी राज्य के कार्य



Pradeep Chawla on 21-10-2018

नि:संदेह राज्य’ राजनीतिक शब्दावली का सबसे लोकप्रिय शब्द रहा है। ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो मानव के सामाजिक जीवन के प्रारंभ से ही किसी न किसी रूप में इसका अस्तित्व रहा है। विधिक तौर पर समाज की अन्य समस्त संस्थाओं पर ‘राज्य’ को सर्वोच्चता प्राप्त है। तथापि राज्य का उचित कार्यक्षेत्र क्या है? अथवा क्या होना चाहिए? यह प्रश्न राजनीतिशास्त्र के अध्येताओं के लिए गंभीर बहस के विषय रहे हैं। एक तरफ नीत्शे, बोसांके, हीगल जैसे आदर्शवादी विचारक राज्य का ईश्वर के रूप में महिमामण्डन करते हैं तो दूसरी ओर अराजकतावादी विचारक ‘राज्य’ को एक अनावश्यक संस्‍था मानते हुए इसका उन्मूलन कर देना चाहते हैं। चिरसम्मत् उदारवादी ‘राज्य’ को एक ‘आवश्यक बुराई’ के रूप में स्वीकार तो करते हैं किन्तु उसका कार्यक्षेत्र एक ‘सुरक्षा प्रहरी’ की भांति मानते हैं। लोक कल्याणकारी राज्य के समर्थक राज्य से व्यापक आशाएं रखते है और यह उम्मीद करते हैं कि राज्य समाज के वंचित तबकों के उत्थान के लिए पर्याप्त कार्य करेगा। मार्क्सवादी एवम् नारीवादी लेखक ‘राज्य’ के शोषणकारी स्वरूप’ की आलोचना करते हैं। इसके विपरीत गांधीवादी दृष्टिकोण एक ऐसे स्वराज का खाका तैयार करता है जो कि ‘सर्वोदय’ के लक्ष्य पर केंद्रित होता हैं। ‘राज्य’ की संकल्पना की विवेचना के दौरान यह समीचीन होगा कि हम राज्य के कार्यक्षेत्र के संबंध में विभिन्न दृष्टिकोण का विश्लेषण करें।



1.5.1 उदारवादी-व्यक्तिवादी परिप्रेक्ष्य: राज्य के उदारवादी-व्यक्तिवादी परिप्रेक्ष्य का विकास सोलहवीं सत्रहवीं शताब्दियों में हुआ। हॉब्स, लॉक एवम् रूसो जैसे विचारकों ने ‘सामाजिक समझौता’ सिद्धान्त के माध्यम से यह स्थापित किया कि राज्य एक समझौते की उपज है अपने स्वरूप में यह एक साधन है जिसे व्यक्ति ने अपनी सुविधा के लिये बनाया है। एडम स्मिथ, रिकार्डो, स्पेंसर इत्यादि विद्वानों ने स्थापित किया कि वही सरकार सर्वोत्तम है जो कि सबसे कम शासन करती है’। उदारवादी-व्यक्तिवादी परिप्रेक्ष्य राज्य एवम् व्यक्ति के संबंध को संविदापरक दृष्टि से देखता है। इसमें तीन अंतर्निहित तत्व हैं-



राज्य ईश्वर द्वारा नहीं बनाया गया है, अपितु इसकी रचना मनुष्य ने की है

राज्य एक कृत्रिम संस्था है तथा

राज्य की आज्ञाकारिता का आधार व्यक्तियों की सहमति है।



संक्षेप में, पारंपरिक उदारवाद राज्य को नकारात्मक दृष्टि से देखता है एवम् उसके न्यूनतम स्वरुप का ही समर्थन करता है। इसके अनुसार राज्य का प्राथमिक कर्तव्य कानून व्यवस्था की देखरेख का है एवम् उसे इस तक ही सीमित भी रहना चाहिए। सामाजिक-आर्थिक क्षेत्र में राज्य का हस्तक्षेप न तो उचित है और न ही वांछित। थामस पेन के अनुसार – ‘किसी भी राज्य के अंतर्गत समाज एक वरदान होता है जबकि सरकार मात्र एक आवश्यक बुराई’।



1.5.2 सकारात्मक-उदारवादी परिप्रेक्ष्य: राज्य के संबंध में सकारात्मक उदारवादी परिप्रेक्ष्य की प्रेरणा सर्वप्रथम जे. एस. मिल, टी. एच. ग्रीन, डी. जी. रिची एवम् हाब्सन की रचनाओं से मिलती है। बीसवीं सदी में हॉब्सन, लिन्डसे, जी. डी. एच. कोल, बार्कर, लॉस्की, कीन्स, मैकाइवर तथा गैलब्रेथ जैसे विद्वानों ने इस परंपरा को समृद्ध किया तथा ‘कल्याणकारी राज्य’ की अवधारणा का मार्ग प्रशस्त किया। राज्य के सकारात्मक उदारवादी परिप्रेक्ष्य की विशेषताएं निम्नलिखित हैं-



व्यक्ति की स्वायत्तता, स्वतंत्रता और कतिपय अधिकार महत्वपूर्ण हैं किंतु इनकी व्याख्या तुच्छ व्यक्तिगत पहलुओं के स्थान पर संपूर्ण समाज के हित की दृष्टि से की जानी चाहिए।

स्वतंत्रता और समानता सदैव एक दूसरे के विरोधी नहीं होते। समानता के बगैर स्वतंत्रता की धारणा भ्रामक है। संपूर्ण समाज के कल्याण हेतु व्यक्ति की स्वतंत्रता में युक्तियुक्त प्रतिबंध लगाये जा सकते हैं।

राज्य का स्वरूप सकारात्मक है। इसकी तुलना ‘सुरक्षा प्रहरी’ से नहीं की जा सकती जिसका कार्य महज सुरक्षा व्यवस्था संभालना है। कानून व्यवस्था स्थापित रखने के अतिरिक्त शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक सुरक्षा इत्यादि की व्यवस्था करना भी राज्य का दायित्व है।

राज्य किसी वर्ग विशेष के हितों का पोषण करने वाली संस्था नहीं है। राज्य संपूर्ण समाज की एवम् शाश्वत् संस्था है। समाज के वंचित तबकों के हितों का संरक्षण राज्य का ही दायित्व है और इस दृष्टि से सकारात्मक भेदभाव’ की नीति अपनायी जा सकती है।

राजनीतिक दृष्टि से राज्य प्रजातांत्रिक और उत्तरदायी होना चाहिए। लिखित संविधान, नियमित अंतराल पर स्वतंत्र एवम् निष्‍पक्ष चुनाव, स्वतंत्रत न्यायपालिका, एक से अधिक राजनीतिक दल एवम् नागरिक समाज संगठनों का अस्तित्व ‘उदारवादी राज्य’ के अपरिहार्य अंग समझे जाते हैं।

आर्थिक रूप में सकारात्मक उदारवाद ‘मुक्त अर्थ व्यवस्था’ (Laissez fair economy) के स्थान पर नियंत्रित पूँजीवादी बाज़ार अर्थव्यवस्था’ की वकालत करता है। इसके तहत स्वतंत्र उद्यम की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन दिया जाता है किन्तु सम्पूर्ण समाज के हित में राज्य आवश्‍यकतानुसार अर्थव्यवस्था में हस्तक्षेप करने का अधिकार सुरक्षित रखता है।



1.5.3 समकालीन उदारवाद का स्वेच्छातंत्रवादी परिप्रेक्ष्य: उदारवादी परंपरा के अन्दर हम बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में नवीन पीढ़ी के विद्वानों के मध्य तर्क-वितर्क का एक लम्बा दौर देखते हैं। ये विद्वान अपने सिद्धान्तों में बहुत कुछ अपने पूर्ववर्ती लॉक, मिल, ग्रीन, लास्की, मैकाइवर इत्यादि से ग्रहण करते हैं फिर भी मौजूदा परिस्थतियों के परिप्रेक्ष्य में उदारवादी विचारों को तर्क-संगत बनाने के क्रम में व्यापक योगदान देते हैं। समकालीन उदारवादियों के अध्ययन के प्रधान विषय प्रायः व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा और राज्य की भूमिका रहे हैं।



कार्ल पापर ने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘ओपेन सोसाइटीज एण्ड इटस इनिमीज’ में जहाँ एक ओर राजनीतिक सिद्धान्त पर छाये ‘इतिहासवाद पर तीव्र प्रहार किया है एवम् वैज्ञानिक ज्ञान के प्रति आस्था प्रकट की है’ वहीं दूसरी और मानव समाज को सर्वाधिकारवाद के खतरों के प्रति आगाह किया है। आइजिया बर्लिन ने अपनी पुस्तक फोर एसेज आन लिबर्टी’ में नकरात्मक स्वतंत्रता एवम् सकारात्मक स्वतंत्रता भेद किया है। बर्लिन के अनुसार सकारात्मक स्वतंत्रता का दृष्टिकोण वस्तुतः राज्य के सर्वाधिकारवादी स्वरूप को बढ़ावा देता है। बर्लिन राजनीतिक स्वतंत्रता को नकारात्मक स्वतंत्रता मानते हैं और तर्क देते हैं कि राज्य के कार्यक्षेत्र को नकारात्मक स्वतंत्रता की रक्षा’ तक ही सीमित रखना चाहिए।



ए. एफ. हायक, मिल्टन, फ्रीडमैन और राबर्ट नाजिक जैसे विचारक चिरसम्मत् उदारवादियों की भांति ‘अहस्तक्षेप की नीति’ को उचित ठहराने की वकालत करते हैं। इन विद्वानों के अनुसार सामाजिक जीवन की अपरिहार्य शर्त स्वतंत्रता’ है और यदि कहीं भी ‘स्वतंत्रता’ एवम् ‘समानता’ के मध्य संघर्ष की स्थिति पैदा हो तो निश्चित तौर पर स्वतंत्रता को ही प्राथमिकता मिलनी चाहिए। हायक के अनुसार स्वतंत्रता समाज की भौतिक और सांस्कृतिक प्रगति के लिये आवश्यक है, न्याय के नाम पर स्वतंत्रता पर प्रहार न केवल प्रगति में रोड़े अटकायेगा बल्कि समाज में बेवजह के तनावों को भी जन्म देगा। मिल्टन फ्रीडमैन का तर्क है कि जो राज्य कल्याणकारी व्यवस्था के नाम पर अर्थव्यवस्था का नियमन करना प्रारम्भ कर देते हैं वह वस्तुतः ‘राजनीतिक स्वतंत्रता’ को नष्ट कर देते हैं। इसी प्रकार राबर्ट नाजिक अपनी कृति ‘एनार्की, स्टेट एण्ड यूटोपिया’ में ‘कल्याणकारी राज्य’ को औचित्यहीन मानते हैं। लॉक की समझौतावादी तर्क प्रणाली के अनुरूप नाजिक कुछ प्राकृतिक अधिकारों की कल्पना करते हैं जिनके संरक्षण के लिए राज्य अस्तित्व में आया। नाजिक के अनुसार राज्य की प्रकृति मूलतः एक सेवार्थी की है जिसका दायित्व है कि वह नागरिकों के धन-सम्पत्ति का संरक्षण करे, इनके पुनर्वितरण या हस्तांतरण के प्रयास राज्य की मौलिक प्रवृत्ति के विरोधी हैं।



उदारवाद की यह प्रवृत्ति स्वेच्छातंत्रवादी मानी जाती है जो कि ‘सकारात्मक उदारवाद’ के ‘लोक कल्याणकारी राज्य’ के विचार की प्रतिक्रिया के तौर पर उभरी




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Comments Pratima on 03-02-2023

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Kalyankari rajya ka karya on 12-09-2021

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