इस्लाम धर्म की नीवं पैगम्बर मुहम्मद साहब ने डाली थी। इस्लाम धर्म ने अपने अन्दर कर्इ धर्मिक और आध्यात्मिक आन्दोलनों का उदय देखा। ये आन्दोलन प्रमुख रूप से वुफरान की व्याख्या पर आधरित थे। इस्लाम वेफ अन्दर दो प्रमुख सम्प्रदायों का उदय हुआ कृ सुन्नी और शिया। हमारे देश में दोनों मत हैं लेकिन कर्इ अन्य देशों में जैसे र्इरान, र्इराक, पाकिस्तान आदि देशों में आप वेफवल एक ही मत वेफ अनुयाियों को देख पाएँगे।
सुन्नी संप्रदाय में इस्लामी कानून की चार प्रमुख विचारधराएँ हैं। ये वुफरान और हदीस (हजरत मुहम्मद साहब वेफ कार्य और कथन) पर आधरित हैं। इनमें से आठवीं शताब्दी की इनकी विचारधरा को पूर्वीतुर्कों ने अपनाया और यही तुर्वफ बाद में भारत में आए। पुरातनवंशी सुन्नी समुदाय को सबसे बड़ी चुनौती मुताजिला अर्थात तर्वफप्रधन दर्शन ने दी जो कठोर एवेफश्वरवाद का प्रतिपादक था। इस मत वेफ अनुसार र्इश्वर न्यायकारी है और मनुष्यों वेफ दुष्कर्मों से उसका कोर्इ लेना देना नहीं है। मनुष्यों वेफ पास अपनी स्वतन्त्रा इच्छा शक्ति है और वे स्वयं अपने कर्मों वेफ लिए उत्तरदायी हैं। मुताजिलों का विरोध् अशरी विचारधरा ने किया। अबुल हसन अशरी (873&935 र्इ.पू-) द्वारा स्थापित अशरी विचारधरा ने पुरातन पंथी सिद्धान्त वेफ समर्थन में अपने बुद्धिवादी दर्शन (कलाम) को विकसित किया। इस विचारधरा वेफ अनुसार र्इश्वर जानता है, देखता है और बात भी करता है। वुफरान शाश्वत है और स्वयंभू है। इस विचारधरा वेफ सबसे बड़े विचारक थे अबू हमीद अल गजाली (1058-1111) जिन्होंने रहस्यवाद और इस्लामी परम्परावाद वेफ बीच मेल कराने का प्रयत्न किया। वह एक महान धर्म विज्ञानी थे जिन्होंने 1095 में एक सूफी का जीवन व्यतीत करना प्रारम्भ किया। उन्हें परम्परावादी तत्वों और सूफी मतावलम्बियों दोनों वेफ द्वारा ही बहुत अध्कि सम्मानपूर्वक देखा जाता था। अल गजली ने सभी गैरपरम्परावादी सुन्नी विचारधराओं पर आव्रफमण किया। वे कहते थे सकारात्मक ज्ञान तर्वफ द्वारा नहीं प्राप्त किया जा सकता बल्कि आत्मानुभूति द्वारा ही देखा जा सकता है। सूफी भी उलेमाओं की भांति ही वुफरान पर निष्ठा रखते थे।
राज्य द्वारा स्थापित नर्इ शिक्षा प्रणाली वेफ कारण गजाली वेफ विचारों का प्रभाव बहुत अध्कि पड़ा। इसवेफ अन्तर्गत मदरसों की स्थापना हुर्इ जहां विद्वानों को अशरी विचारधरा से परिचित करवाया जाता था। उन्हें यहाँ पुरातनपन्थी सुन्नी विचारों वेफ अनुसार शासन चलाने की शिक्षा दी जाती थी। इन विद्वानों को उलेमा कहते थे। उलेमाओं ने मध्य भारत की राजनीति में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया।
सूफी
उलेमा वेफ ठीक विपरीत सूफी थे। सूफी रहस्यवादी थे। वे पवित्रा धर्मपरायण पुरुष थे, जो राजनैतिक व धर्मिक जीवन वेफ अध्:पतन पर दु:खी थे। उन्होंने सार्वजनिक जीवन में ध्न वेफ अभद्र प्रदर्शन व ‘धर्म भ्रष्ट शासकों’ की उलेमा द्वारा सेवा करने की तत्परता का विरोध् किया। कर्इ लोग एकान्त तपस्वी जीवन व्यतीत करने लगे एवं राज्य से उनका कोर्इ लेना-देना नहीं रहा। सूफी दर्शन भी उलेमा से भिन्न था। सूपिफयों ने स्वतंत्रा विचारों एवं उदार सोच पर बल दिया। वे धर्म में औपचारिक पूजन, कठोरता एवं कटरता वेफ विरुद्ध थे। सूपिफयों ने धर्मिक संतुष्टि वेफ लिए ध्यान पर जोर दिया। भक्ति संतों की तरह, सूफी भी धर्म को ‘र्इश्वर वेफ प्रेम’ एवं मानवता की सेवा वेफ रूप में परिभाषित करते थे। वुफछ समय में सूफी विभिन्न सिलसिलों (श्रेणियों) में विभाजित हो गए। प्रत्येक सिलसिले में स्वयं का एक पीर (मार्गदर्शक) था जिसे ख्वाजा या शेख भी कहा जाता था। पीर व उसवेफ चेले खानका (सेवागढ़) में रहते थे। प्रत्येक पीर अपने कार्य को चलाने के लिए उन चेलों में से किसी एक को वली अहद (उत्तरािध्कारी) नामित कर देता था। सूपिफयों ने रहस्यमय भावातिरेक जगाने वेफ लिए समां (पवित्रा गीतों का गायन) संगठित किए। र्इराक में बसरा सूफी गतिविधियों का केन्द्र बन गया। यह ध्यान देने की बात है कि सूफी संत एक नया धर्म स्थापित नहीं कर रहे थे अपितु इस्लामी ढांचे वेफ भीतर ही एक अध्कि उदार आन्दोलन प्रारम्भ कर रहे थे। वुफरान में उनकी निष्ठा उतनी ही थी जितनी उलेमाओं की।
भारत में सूफीमत
भारत में सूफी मत का आगमन 11वीं और 12वीं शताब्दी में माना जाता है। भारत में बसे श्रेष्ठ सूपिफयों में से एक थे कृ अल हुजवारी जिनका निध्न 1089 र्इ. में हो गया। उन्हें दाता गंजबख्श (असीमित खजाने वेफ वितरक) वेफ रूप में जाना जाता है। प्रारंभ में, सूपिफयों वेफ मुख्य वेफन्द्र मुल्तान व पंजाब थे। परंतु 13वीं व 14वीं सदी तक सूफी कश्मीर, बिहार, बंगाल एवं दक्षिण तक पैफल चुवेफ थे। यह उल्लेखनीय है कि भारत में आने से पूर्व ही सूफीवाद ने एक निश्चित रूप ले लिया था। उसवेफ मौलिक एवं नैतिक सिद्धांत, शिक्षण एवं आदेश प्रणाली, उपवास, प्रार्थना एवं खानकाह में रहने की परम्परा पहले से ही तय हो चुकी थी। सूफी अपनी इच्छा से अपफगानिस्तान वेफ माध्यम से भारत आए थे। उनवेफ शुद्ध जीवन, भक्तिप्रेम व मानवता वेफ लिए सेवा जैसे विचारों ने उन्हें लोकप्रिय बना दिया तथा भारतीय समाज में उन्हें आदर सम्मान भी दिलवाया।
अबुल पफजल ने ‘एआइने-ए-अकबरी’ में सूपिफयों वेफ 14 सिलसिलों का उल्लेख किया है। बहरहाल, इस पाठ में हम वुफछ महत्त्वपूर्ण सिलसिलों का ही उल्लेख करेंगे। ये सिलसिले दो प्रकार वेफ थे बेशरा और बाशरा। बाशरा वेफ अन्तर्गत वे सिलसिले थे जो शरा (इस्लामी कानून) को मानते थे और नमाज, रोजा आदि नियमों का पालन करते थे। इनमें प्रमुख थे चिश्ती, सुहरावर्दी, पिफरदौसी, कादिरी व नख्शबंदी सिलसिले थे। बे-शरा सिलसिलों में शरीयत वेफ नियमों को नहीं मानते थे। कलन्दर, पिफरदौसी, सिलसिल इसी समूह से संबंप्रित थे।
चिश्ती सिलसिला
यह सिलसिला ख्वाजा चिश्ती (हेरात वेफ निकट) नामक गाँव में स्थापित किया गया था। भारत में चिश्ती सिलसिला ख्वाजा मुर्इनुद्दीन चिश्ती (जन्म 1142 र्इ) द्वारा स्थापित किया गया था, जो 1192 र्इ. में भारत आए थे। उन्होंने अजमेर को अपनी शिक्षाओं का मुख्य वेफन्द्र बनाया। उनका मानना था कि भक्ति का सबसे अच्छा तरीका मनुष्य की सेवा है और इसीलिए उन्होंने दलितों वेफ बीच काम किया। उनकी मृत्यु 1236 र्इ में अजमेर में हुर्इ। मुगल काल वेफ दौरान अजमेर एक प्रमुख तीर्थ वेफन्द्र बन गया क्योंकि मुगल सम्राट नियमित रूप से शेखों की दरगाहों का दौरा किया करते थे। उनकी लोकप्रियता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि आज भी लाखों मुसलमान और हिन्दू अपनी इच्छा की पूर्ति वेफ लिए दरगाह का दौरा किया करते हैं। नागौर वेफ शेख हमीदुद्दीन और वुफतुबद्दीन बख्तियार काकी उनवेफ चेले थे। शेख हमीदुद्दीन एक गरीब किसान थे और उन्होंने इल्तुतमीश द्वारा गांवों वेफ दान लेने से इंकार कर दिया। वुफतुबद्दीन बख्तियार काकी की खानकाह का कर्इ क्षेत्रों वेफ लोगों ने दौरा किया। सुल्तान इल्तुतमीश ने वुफतुबमीनार को अजोध्न वेफ शेख पफरीदउद्दीन को सपर्पित किया। जिन्होंने चिश्ती सिलसिलों को आधुनिक हरियाणा और पंजाब में लोकप्रिय किया। उन्होंने सभी वेफ लिए प्यार एवं उदारता का दरवाजा खोला। बाबा पफरीद ;उन्हें इसी के नाम से जाना जाता थाद्ध का हिन्दुओं एवं मुसलमानों वेफ द्वारा सम्मान किया जाता था। पंजाबी में लिखे गए उनवेफ छन्दों को आदि ग्रंथ में उद्ध्त किया गया। बाबा पफरीद वेफ सबसे प्रसिद्ध शिष्य शेख निजामुद्दीन औलिया (1238-1325 र्इ.) ने दिल्ली को चिश्ती सिलसिले का महत्वपूर्ण वेफन्द्र बनाने का उत्तरदायित्व सम्भाला। वह 1259 र्इमें दिल्ली आये थे और दिल्ली में अपने 60 वर्षों वेफ दौरान उनहोंने 7 सुलतानों का शासन काल देखा उन्हें राज्य वेफ शासको और रर्इसों वेफ साथ से और राजकाज से दूर रहना पसंद था। उनवेफ लिए गरीबों को भोजन एवं कपड़ा वितरित करना ही त्याग था। उनवेफ अनुयायियों वेफ बीच विख्यात लेखक अमीर खुसरों भी थे। एक अन्य प्रसिद्ध चिश्ती संत शेख नसीरूद्दीन महमूद थे जो नसीरूद्दीन चिराग-ए-दिल्ली वेफ नाम से लोकप्रिय थे। उनकी मृत्यु 1356 र्इ में हुर्इ और उत्तरािध्कारियों वेफ अभाव वेफ कारण चिश्ती सिलसिले वेफ चेले पूर्वी और दक्षिणी भारत की ओर चले गए।
सुहरवर्दी सिलसिला
यह सिलसिला शेख शिहाबुद्दीन सुहरावर्दी द्वारा स्थापित किया गया था। यह भारत में शेख बहाउद्दीन जकारिया (1182-1262) द्वारा स्थापित किया गया था। उसने मुल्तान में एक अग्रणी खानख्वाह की व्यवस्था की जिसका शासक, उच्च सरकारी अिध्कारी एवं अमीर व्यापारी दौरा किया करते थे। शेख बहाउद्दीन जकारिया ने खुलकर कबाचा वेफ विरुद्ध इल्तुतमिश का पक्ष लिया एवं उससे शेख-उल-इस्लाम ;इस्लाम वेफ नेताद्ध की उपाध् िप्राप्त की। ध्यान दें कि चिश्ती संतों वेफ विपरीत, सुहरावर्दियों ने राज्य वेफ साथ निकट संपर्वफ बनाए रखा। उन्होंने उपहार, जागीरें और यहाँ तक की चर्च संबंध्ति विभाग में भी सरकारी नौकरियाँ स्वीकार कीं। सुहरावर्दी सिलसिला दृढ़ता से पंजाब और सिंध् में स्थापित हो गया था। इन दो सिलसिलों वेफ अतिरिक्त पिफरदौसी सिलसिला, शतारी सिलसिला, कादिरी सिलसिला एवं नख्शबंदी सिलसिला भी थे।
सूफी मत के सम्पद्राय
- चिश्ती सम्प्रदाय,
- सुहरावादियॉं सम्प्रदाय,
- कादरिया सम्प्रदाय,
- नक्शबदियॉं सम्प्रदाय,
- अन्य सम्प्रदाय (शत्तारी सम्प्रदाय) आदि ।
सूफी मत के सिद्धांत -
सूफी मत से भारत में हिन्दू मुस्लिम एकता स्थापित हो गयी । शासक एवं शासित वर्ग के प्रति जन कल्याण के कार्यों की प्रेरणा दी गयी । संतों ने मुस्लिम समाज को आध्यात्मिक एवं नैतिक रूप से संगठित किया गया ।
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