Railway Signal In Hindi रेलवे सिग्नल इन हिंदी

रेलवे सिग्नल इन हिंदी



GkExams on 03-02-2019


सेमाफोर संकेतक (जर्मनी) रंगीन-प्रकाश संकेतक
(यूके) प्रायः उपयोग किये जाने वाले दो प्रकार के संकेतक। दोनों प्रकार के संकेतकों में बायां संकेतक 'खतरा' दिखा रहा है। कुछ संकेतक अनेकों सूचनाएँ देने वाले होते हैं। यह जर्मनी की रेल प्रणाली का संकेतक है जो दिखा रहा है कि गाड़ी आगे जाय (हरे रंग का संकेत)। इसके साथ यह भी संकेत दे रहा है कि इस संकेतक के आगे गाड़ी की चाल 60 किमी प्रति घण्टे से कम होनी चाहिये। यह भी कि आगे जाकर गति 30 किमी प्रति घण्टे कर दी जाय। यह संकेतक यह भी बता रहा है कि आगे इस लाइन का अन्त आ रहा है।

रेलवे संकेतक प्रणाली (Railway signal system) का व्यवहार के चालकों को रेलपथ की आगे की दशा की सूचना देने के लिए किया जाता है। सिगनल प्रणाली ही आज गाड़ियों के सुरक्षित तथा तीव्र गति संचालन की कुंजी है। रेलवे सिगनल साधारणतः रेलपथ पर लगे हुए उन स्थावर संकेतकों को कहते हैं जिनसे रेल चालक को रेलपथ के अगले खंड की दशा का ज्ञान हो सके।


    ऐतिहासिक प्रगति[]

    प्रारंभ में ऐसे सिगनलों की व्यवस्था नहीं थी तथा डारलिंगटन से स्टाकटन जाने वाली पहली रेलगाड़ी के आगे कुछ घुड़सवार संत्री रास्ता साफ करने के लिए चले थे। उसके बाद इस काम को निश्चित दूरियों पर संत्रियों को खड़ा करके किया जाने लगा। समय की प्रगति के साथ इन संत्रियों के स्थान पर स्थावर सिंगनल लगाए जाने लगे। संसार का पहला सिगनल इंग्लैंड के हाट्लपूल स्टेशन के स्टेशन मास्टर की मेज पर मोमबत्ती लगाकर बनाया गया था। इसके बाद ही तश्तरी जैसे गोल सिगनल चालू हुए। अमेरिका में सन् 1832 में जब वाष्पचालित इंजनों द्वारा गाड़ियों का परिवहन प्रचलित किया गया, तब न्यूकैसिल तथा फ्रेंच टाउन के बीच 17 मील की दूलरी से गेंदनूमा सिगनलों की प्रणाली प्रयोग में लाई गई। इस प्रणाली में तीन-तीन मील पर लगभग 30 फुट ऊँचे खंभे लगाए गए। जैसे ही एक गाड़ी एक ओर से चलाई जाती, वहाँ का झंडी वाला एक सफेद गेंद खंभे की पूरी ऊँचाई पर चढ़ा देता। अगले खंभे के पास का झंडीवाला इस गेंद को अपनी दूरबीन द्वारा देखकर इसी प्रकार की एक सफेद गेंद अपने खंभे पर चोटी से कुछ नीचे तक चढ़ा देता। हर अगले खंभेवाला इसी प्रकार पिछले खंभे को देखकर अपनी-अपनी गेंद चढ़ा देता। इस प्रकार कुछ ही मिनटों में दूसरी ओर से स्टेशन को गाड़ी के चलने का पता चल जाता और वे सतर्क हो जाते। यदि गाड़ी अपने समय पर नहीं चल पाती, तो सफेद गेंद के स्थान पर काली गेंद चढ़ा दी जाती। इस प्रकार तार द्वारा सूचना देने का आविष्कार होने से पहले यह प्रणाली गाड़ी चलाने में बड़ी सहायक सिद्ध हुई।


    पर उस समय सिगनल का काँटे और पारपथ में कोई अंतःपाशन (Interlocking) नहीं होता था और काँटे पारपथ की प्रतिकूल दशा में होते हुए भी संकेतक 'अनुकूल' अवस्था में किया जा सकता था। इस कारण पूरी सुरक्षा नहीं होती थी तथा किसी भी मानवीय त्रुटि के कारण दुर्घटना की संभावना हो जाती थी। इसको दूर करने के लिए संकेतक तथा काँटे पारपथ (क्रासिंग) का अंतःपाशन किया गया जिससे यदि काँटे क्रासिंग हों तो संकेतक को 'अनुकूल' नहीं किया जा सकता था। आरंभ में यह अंतःपाशन यांत्रिक होता था। पर विज्ञान की प्रगति तथा रिले (Relay) के आविष्कार से अब विद्युत अंतःपाशन होता है।


    यांत्रिक अंतःपाशन का प्रयोग इंग्लैंड में सर्वप्रथम ब्रिकेलयर-आर्म जंक्शन पर सन् 1843 में हुआ था। अमेरिका में इसका प्रयोग सन् 1874 में प्रारंभ हुआ तथा भारत में सन् 1912 में।


    सन् 1871 में ट्रैक सरकिट का आविष्कार हो जाने से स्वचालित सिगनल प्रणाली का प्रयोग भी संभव हो गया। इसकी सहायता से गाड़ियों के आने-जाने के साथ ही अपने आप बिना किसी बाह्य सहायता के विद्युत द्वारा संकेतक अगले खंड की दशा के अनुसार अनुकूल 'सतर्कता' अथवा 'संकट' अवस्था में पहुँच जाते हैं।


    ट्रैक सरकिट तथा रिले की सहायता से यातायात नियंत्रण के लिए संकेतक व्यवस्था की प्रगति आशातीत हुई है। अब तो एक दूरवर्ती केंद्रीय स्थान से यातायात का सुगमतापूर्वक संचालन किया जा सकता है। ऐसे संचालन को केंद्रीकृत यातायात नियंत्रण (centralised traffic control) कहते हैं।

    भारत की रेलवे संकेतक प्रणाली[]

    आरंभ के संकेतक[]

    भारत में जिस समय रेल परिवहन प्रारंभ हुआ उस समय घूमने वाले तश्तरीनुमा या अलग-अलग रंग के शीशों की हाथ-रोशनी वाले संकेतक प्रयोग में लाए गए। तश्तरीनुमा गोल संकेतक यदि लाइन से समकोण बनाता तो आगे 'संकट' का सूचक होता कि आगे रास्ता 'अनुकूल' है और गाड़ी जा सकती है।


    उसके बाद स्टेशनों पर एक ही खंभे पर दोनों दिशा के लिए संकेतक लगाए गए। इनमें हर दिशा के लिए एक अलग-अलग ऊपर नीचे गिरने वाला भुजा संकेतक होता था और स्टेशन मास्टर जिस ओर की गाड़ी को आने की आज्ञा देना चाहता था उसी ओर के संकेतक को गिरा देता था। ऐसे संकेतकों का तो 25 साल पहले तक भी कुछ भागों में व्यवहार होता रहा है।

    लिस्ट और मोर्स प्रणाली[]

    सन् 1892 तक भारत में कोई व्यवस्थित सिगनल प्रणाली नहीं थी। इस साल नार्थ-वेस्टर्न रेलवे पर श्री जी.एच. लिस्टन ने क्रासिंग स्टेशनों पर एक विशेष यंत्र लगाकर सिगनलों का तथा कांटे क्रासिंग के अंतःपाशन की व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण कार्य किया। इस यंत्र की सहायता से इस बात का आश्वासन हो जाता था कि यदि संकेतक 'अनुकूल' है तो काँटे क्रासिंग अवश्य ही अनुकूल होंगे और इसीलिए गाड़ी की गति धीमी करने की आवश्यकता नहीं है जो बिना इस प्रणाली के अत्यावश्यक थी। सन् 1894 में श्री ए. मोर्स के सहयोग से अपने यंत्र में आवश्यक संशोधन करके लिस्ट और मोर्स प्रणाली को प्रचलित किया। इस प्रणाली के कारण ही लिस्ट और मोर्स को भारत की सिगनल प्रणाली का 'जनक' कहा जाता है।

    हेपर ट्रांसमिटर[]

    सन् 1904 तक सिगनल तथा काँटे क्रासिंग के अंतःपाशन की चाभी स्टेशन मास्टर के पास वाहक द्वारा भेजी जाती थी जिसे देखकर वह संकेतक को 'अनुकूल' कर देता था, पर इससे चाभी ले जाने और लाने में व्यर्थ समय नष्ट होता था और यातायात की गति में रुकावट पड़ती थी। इसको दूर करने के लिए मेजर लालेस हेपर ने (जिनको बाद में 'सर' की उपाधि भी मिली), जो नार्थ वेस्टर्न रेलवे के सिगनल इंजीनियर थे और आगे चलकर जी.आई.पी. रेलवे के जनरल मैनेजर भी बने, बिजली द्वारा इस चाभी को स्टेशन मास्टर के पास पहुँचाने का प्रबंध किया। ऐसी चाभियों को 'हेपर ट्रांसमिटर' (Heppers key transmitter) कहते हैं और इस आविष्कार से यातायात की गति को बड़ी सहायता मिली।

    केबिन अंतःपाशन (Cabin Interlocking)[]

    केबिन अंतःपाशन का आविष्कार जान सैक्सबी ने किया था और आरंभ में इसका प्रयोग ब्रिटिश रेलों में हुआ था। बीसवीं शताब्दी के शुरू में भारतीय रेलों में भी इसका प्रचलन शुरू हुआ। इसकी कुछ योजनाएँ तो मेसर्स सेक्स्बी और फार्मर (इंडिया) फर्म ने सन् 1893 में ही तैयार कर ली थीं पर इसकी गाड़ियों की चाल तथा यातायात बढ़ने पर, उसे सुरक्षितश् रखने के लिए अंतःपाशन की आवश्यकता प्रतीत होने पर ही अपनाया गया। सबसे पहले जी.आई.पी. रेलवे पर बंबई और दिल्ली के मार्ग में ही केबिन अंतःपाशन का बहुत बड़े पैमाने पर प्रयोग हुआ। यह अवस्था सन् 1912 में पूरी होकर चालू की गई। इसी प्रकार बाद में अन्य रेलों के मुख्य मार्गों पर भी इन्हें चालू किया गया।

    दोहरे तार की संकेतक प्रणाली[]

    यांत्रिक संकेत प्रणाली में दोहरे तार के संकेतकों का प्रमुख स्थान हो गया है। इसमें केबिन से काँटे, पाशदंडों (Lock-Bars) परिचायकों (Detectors) तथा संकेतकों के परिचालन के लिए दो तारों का प्रयोग किया जाता है।


    यह प्रणाली अब भारतीय रेलों पर विस्तृत रूप से प्रचलित हो गई है तथा दूसरी यांत्रिक संकेत प्रणालियों से (जिनमें सामान्य रूप से प्रचलित प्रणाली में इकहरे तार द्वारा संकेत का प्रचालन, तथा छड़ों द्वारा पारपथों का संचालन करके दोनों का एक ढाँचे में अंतःपाशन किया जाता है) अधिक उत्तम मानी जाती है।


    दोहरे तार की संकेतक प्रणाली में सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि इसके द्वारा अधिक लंबी नपी हुई चाल प्राप्त की जा सकती है और इस कारण अधिक दूरी तक बिना कठिनाई के संकेतकों पर नियंत्रण किया जा सकता है। छड़ों द्वारा 500 गज की जगह इस प्रणाली द्वारा काँटे क्रासिंगों का 800 गज तक दक्षता से संचालन किया जा सकता है तथा संकेतक तो 1500 गज की दूरी तक कार्य कर सकता है। इस प्रणाली में संकेतकों के 'संकट' स्थिति में वापस लाने के लिए प्रतिभार (Counter-weight) जैसे अविश्वसनीय तरीके को अपनाने की भी आवश्यकता नहीं रहती है और संकेतक को पूर्व दशा में लाने के लिए लिवर को सक्रिय रूप में खींचना होता है। इस कारण दोहरे तार की संकेतक प्रणाली में अनधिकृत संचालन असंभव हो जाता है। साथ ही स्वचालित प्रतिपूरकों (automatic compensators) के प्रयोग द्वारा संकेतकों की चाल में ताप परिवर्तन का भी कोई प्रभाव नहीं पड़ता।


    इस प्रणाली का उपयोग आर्थिक दृष्टि से भी लाभदायक है क्योंकि इसमें आसानी से 1000 गज लंबी या इससे अधिक तक की लूप लाइन के स्टेशनों का केंद्रीय केबिन से ही संचालन किया जा सकता है जिसके कारण एक केबिन तथा उसके संचालन के व्यय की बचत हो जाती है।


    लिवर ढाँचा (Lever Frame) दोहरी तार प्रणाली के लिए लिवर ढाँचा दो 10 इंच-3 इंच की चैनलों को जोड़कर उसके बीच में लिवर लगाकर बनाया जाता है। ये चैनलें केबिन की शहतीरों में बोल्ट द्वारा जुड़ी रहती है। लिवर एक ढोल के आकार का होता है जिसमें उपयुक्त माप का एक हैंडिल लगा रहता है जिसके द्वारा ढोल को 180 अंश तक घुमाया जा सकता है और इस प्रकार इच्छित निर्दिष्ट मात्रा में घुमाने से संकेतक की दशा बदली जा सकती है। हर लिवर अलग-अलग जुड़ा होने के कारण उनमें से किसी को भी आसानी से बदला जा सकता है।


    संकेत चालक यंत्र (Signal Mechanism) संकेत यंत्र का प्रयोग संकेतक के संचालन के लिए किया जाता है। इसके द्वारा संकेतक को 0 अंश, 45 अंश, या 90 अंश कोण पर किसी भी दशा में लाया जा सकता है। इनका परिकल्पन इस प्रकार होता है कि इसमें संकेतक के किसी और कोण या दशा में रह सकने की संभावना नहीं रहती तथा तार टूटने की दशा में संकेतक फौरन 'संकट' सूचक दशा में पहुँच जाता है।


    काँटा चालक यंत्र (Point Mechanism) -काँटे की चाल के लिए एक दाँतदार छड़ यंत्रचक्र के साथ फँसा रहता है। यह छड़ काँटे को चाल देता है तथा पाशन छड़ को भी चलाता है जिसके कारण काँटा अपने स्थान पर पहुँचने के साथ ही पाशित हो जाता है। साथ ही ऐसा प्रबंध भी होता है कि तार के टूट जाने पर काँटा अपने स्थान पर ही स्थित रहता है और उसमें कोई गति नहीं की जा सकती।


    परिचालक (Detector) -दोहरे तार की संकेत प्रणाली में एक और अत्यंत उपयोगी साधन जो काम में लाया जाता है 'परिचायक' है। इसका कार्य पारपथ के काँटे के ठीक जगह पर पहुँचने की जाँच करना है। परिवहन सुरक्षा में इस जाँच का महत्वपूर्ण स्थान है। इस जाँच के साथ ही परिचायक तार टूट जाने पर काँटे को अपने स्थान पर जकड़ भी देता है। परिचायक काँटे के पास ही लगाया हुआ एक चक्र होता है जो संकेत प्रणाली के तारों के साथ जुड़ा रहता है और उनकी चाल के साथ ही घूमता है। इस पहिए के बाहरी हिस्से में खाँचे कटे हुए होते हैं जो काँटों की चाल के साथ चलने वाली लोहे की रोकों में अटक जाते हैं। इस प्रकार यदि काँटा 'प्रतिकूल' दशा में है, तो संकेतक का 'अनुकूल' दिशा में किया जा सकना असंभव हो जाता है।


    स्वचालित सिगनल प्रणाली (Automatic Stock Bignalling)-बीसवीं शताब्दी के आरंभ में रेल लाइन को बिजली द्वारा सिगनल से संबंधित करने की प्रथा ट्रैक सरकिटिंग, (Track circuiting) निकली और क्रमशः भारत के बड़े-बड़े स्टेशनों पर चालू की गईं। ट्रैक सरकिटिंग से बिजली द्वारा यह ज्ञात हो जाता है कि आगे की राह पर कोई गाड़ी या किसी और किस्म की कोई रुकावट तो नहीं है।


    ट्रैक सरकिटिंग के द्वारा स्वचालित सिगनल प्रणाली भी संभव हो सकी है। इससे दोहरी लाइनों पर एक के पीछे एक गाड़ियों को कुछ मिनटों के अंतर पर चलाना संभव हो गया है। जैसे ही गाड़ी किसी खंड में पदार्पण करती है, उस खंड के प्रारंभ वाला संकेतक 'संकट' दशा का प्रदर्शन करने लगता है तथा उससे पहले खंड के प्रारंभ का संकेतक 'सतर्कता' सूचना देता है। जैसे ही गाड़ी खंड से बाहर निकल जाती है, संकेतक फिर अपने आप 'अनुकूल' दशा में आ जाता है। इस प्रकार गाड़ी के चालक को पता रहता है कि अगले खंडों में कोई गाड़ी या रुकावट तो नहीं है। यदि होती है तो वह सतर्कता से काम लेता है और गाड़ी रोक देता है।

    संकेतकों के प्रकार[]

    यातायात के लिए प्रयोग किए जाने वाले संकेतक मुख्यतः पाँच प्रकार के होते हैं:


    (1) सीमाफोर (Semaphore) भुजा संकेतक


    (2) रंगीन प्रकाश (Colour light) संकेतक


    (3) प्रकाश स्थिति (Position light) संकेतक


    (4) रंगीन प्रकाश (Colour position light) संकेतक


    (5) चालक कोष्ठ संकेतक (Cab signal)

    सीमाफोर[]

    खंभे पर भुजा की दशा से विभिन्न संकेत देने वाले संकेतक को सीमाफोर संकेतक कहते हैं।


    भुजा की चाल नीचे की ओर निचले वृत्त पाद (lower quad rant) या ऊपर की ओर ऊपरी वृत्त पाद (Upper quadrant) हो सकती है। नीचे की ओर चाल वाले संकेतक दो ही दशाओं के द्योतक होते हैं। भुजा की अनुप्रस्थ दशा 'संकट' सूचक होती है तथा 45 अंश का कोण बनाती हुई दशा 'सुरक्षा' सूचक होती है।


    इसके विपरीत ऊपरी चाल वाले संकेतक तीन दशाओं के द्योतक होते हैं। इनमें भी भुजा की अनुप्रस्थ दशा संकट सूचक होती है। दूसरी दशा में भुजा ऊपर की ओर 45 अंश का कोण बनाती है। यह 'सतर्कता' सूचक होती है। तीसरी दशा में भुजा एकदम ऊपर को सीधी हो जाती है और 'अनुकूल' होती है जिससे यह पता चलता है कि रास्ता एकदम साफ है तथा चालक पूरे वेग से जा सकता है। ऊपरी चाल में तीन दशाओं की सूचना हो सकने के कारण चालक को 'संकट' से पहले रोक सकने के लिए पर्याप्त समय मिल जाता है और इसलिए यदि संकेतक की भुजा सुरक्षा दशा में हैं, तो वह बिना हिचक पूरी गति पर चल सकता है।


    भुजा संकेतक रात्रि के समय कार्य में नहीं लाए जा सकते। इस कारण रात्रि में उनके स्थान पर रंगीन रोशनी द्वारा संकेत किया जाता है। 'संकट' की सूचना के लिए लाल रोशनी का संकेत होता है। 'सतर्कता' के लिए पीली तथा 'अनुकूल पथ' के लिए हरी रोशनी का प्रयोग करते हैं।

    रंगीन प्रकाश संकेतक[]

    विद्युत तथा लेंसों (Lens) की सहायता से संकेतक की रोशनी इतनी तेजी कर दी जाती है कि रोशनी द्वारा दिन में भी रंगीन प्रकाश द्वारा संकेत दिए जा सकें। इस प्रकार आधुनिक संकेतक दिन रात में एक ही तरह का संकेत देते हैं तथा बहुत दूर से दिखाई दे सकते हैं।

    प्रकाश स्थिति संकेतक[]

    इस प्रकार के संकेतक बहुत कम स्थानों में प्रयुक्त होते हैं। इनमें दो या अधिक प्रकाशों की स्थिति द्वारा संकेत दिया जाता है तथा पीले रंग की बत्ती काम में लाई जाती है।

    रंगीन प्रकाश स्थिति[]

    अमरीका में एक रेल प्रशासन पर इसका प्रयोग होता है। लाल बत्तियाँ अनुप्रस्थ दशा में संकट की सूचना देती हैं। 45 अंश कोण पर पीली बत्तियाँ सतर्कता सूचक होती हैं तथा सीधी खड़ी अवस्था में हरी बत्ती 'अनुकूल' की द्योतक होती हैं।

    कोष्ठ संकेतक[]

    चालक के सामने कोष्ठ में स्थित संकेतक को कोष्ठ संकेतक कहते हैं और अगले खंड की अवस्था के अनुसार कोष्ठ में लगातार संकेत मिलता रहता है। यह कोष्ठ संकेत ट्रैक सरकिट के आविष्कार द्वारा ही संभव हो पाया है तथा इसकी सहायता से चालक को बराबर यह पता रहता है कि कितनी दूर तक आगे लाइन साफ है और इस प्रकार वह उसी के अनुसार अपनी गाड़ी की गति पर नियंत्रण रख सकता है।

    अंतःपाशन[]

    रेलवे परिभाषा में अंतःपाशन का अर्थ सिगनल तथा काँटे और पारपथों की चाल पर इस प्रकार नियंत्रण करना होता है कि वे एक-दूसरे के प्रतिकूल कार्य न कर सकें। ऐतिहासिक प्रगति का वर्णन करते हुए बताया जा चुका है कि आरंभ में अंतःपाशन यांत्रिक होता था पर विज्ञान की प्रगति के साथ अंतःपाशन में भी विद्युत तथा रिले द्वारा अत्यधिक प्रगति हुई तथा अब कहीं-कहीं अंतःपाशन की ऐसी व्यवस्था हो गई है कि एक राह स्थापित करके उसके संकेतक अनुकूल होते ही अन्य संकेतक तथा काँटे पारपथ अपने आप इस प्रकार फंस जाते हैं कि काँटे वाले की गलती से भी किसी विरोधाभासी संचालन की संभावना नहीं रह जाती।


    मुख्यतः दो प्रकार के अंतःपाशन होते हैं (1) यांत्रिक अंतःपाशन तथा (2) विद्युत अंतःपाशन। यांत्रिक अंतःपाशन में लिवर की चाल से ही अन्य लिवरों के खाँचों में इस प्रकार यांत्रिक फँसाव कर दिया जाता है कि विरोधाभासी लिवरों की चाल रुक जाती है। विद्युत अंतःपाशन में लिवरों की चाल से विद्युत प्रवाह में इस प्रकार की रुकावट पैदा कर दी जाती है कि विरोधाभासी लिवर न चल सके। विद्युत अंतःपाशन की प्रगति में निम्नलिखित प्रणालियाँ उल्लेखनीय हैं तथा विभिन्न स्थानों पर कार्य में लाई जा रही हैं।

    अंतःपाशन तथा ब्लाक प्रणाली (Lock and block System)[]

    इस प्रणाली में संकेतक इस प्रकार ब्लाक यंत्र से अंतःपाशित रहता है कि जब तक गाड़ी खंड को पार करके उसके बाहर नहीं हो जाती, दूसरी गाड़ी के लिए लाइन क्लीयर नहीं दिया जा सकता तथा संबंधित संकेतक भी 'अनुकूल' नहीं किया जा सकता।

    विद्युयांत्रिक अंतःपाशन (Elactro-mechanical Interlocking)[]

    विद्युत शक्ति संचालित संकेतकों के प्रयोग के बाद ही विद्युयांत्रिक अंतःपाशन का उपयोग प्रारंभ हुआ। इसका यंत्र यांत्रिक अंतःपाशन के यंत्र की ही भाँति होता है जिसके ऊपर विद्युत नियंत्रक अथवा लिवर लगे होते हैं जो कि एक लिवर की चाल के बाद दूसरे विरोधाभासी यंत्रों की चाल रोक देते हैं। काँटे पारपथों तथा पाशों का यांत्रिक लिवरों द्वारा पाइप तथा लौहदंड की सहायता से परिचालन किया जाता है। विद्युत संकेतकों का नियंत्रण बिजली के लिवर की सहायता से करते हैं।

    विद्युत वायुदाबी अंतःपाशन (Electro-pneumatic Interlocking)[]

    इस प्रकार के अंतःपाशन के काँटों के संचालन का कार्य दाबित वायु द्वारा किया जाता है तथा दाबित वायु के सिलिंडरों के वाल्ब इ. का नियंत्रण विद्युत द्वारा होता है। इसके लिए 12 वोल्ट की बिजली इस्तेमाल होती है। काँटों के संचालन के लिए 75 पाउंड प्रति वर्ग इंच के दबाव की वायु प्रयोग में लाई जाती है। इस प्रकार के यंत्र का प्रयोग ऐसे स्थानों में होता है जहाँ काँटों का संचालन शीघ्रता से करना होता है।

    विद्युत अंतःपाशन (Electric Interlocking)[]

    इस प्रकार के अंतःपाशन में काँटों की चाल तथा संकेतकों का सब कार्य विद्युत से किया जाता है। काँटों के संचालन के लिए बिजली के मोटर लगाए जाते हैं। इस यंत्र का संचालन अधिकतर 110 वोल्ट दिष्ट धारा द्वारा होता है पर कहीं-कहीं 119 वोल्ट प्रत्यावर्ती धारा भी काम में लाते हैं।


    इस अंतःपाशन में काँटा जब तक अपनी पूरी चाल प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक संकेतक अनुकूल दशा नहीं दिखा सकता और इस तरह कांटे की चाल के बीच में अटकने पर भी गाड़ी के लाईन से उतर जाने की दुर्घटना असंभव हो जाती है। विद्युत संघनित्र अंतःपाशता में भी यह व्यवस्था रहती है।


    इस प्रकार के अंतःपाशन का प्रयोग दिल्ली के पास सब्जी मंडी स्टेशन पर किया गया था।


    विद्युत अंतःपाशन का व्यवहार ऐसे स्थानों पर नहीं किया जा सकता जहाँ बरसात में बाढ़ आकर विद्युत मोटरों के डूबने का खतरा रहता हो।

    रिले अंतःपाशन[]

    यांत्रिक अंतःपाशन के स्थान पर अब रिले अंतःपाशन का पर्याप्त प्रयोग होने लगा है। रिले द्वारा विद्युत सरकिट इस प्रकार नियंत्रित किए जाते हैं कि यदि एक सरकिट कार्य कर रहा है तो दूसरा सरकिट जिसमें विरोधी संकेतक या काँटों की चाल होती है कार्य न कर पाए। रिले के आविष्कार से अंतःपाशन का कार्य काफी सुविधा से होने लगा है और बड़े-बड़े स्टेशनों का कार्य थोड़े से स्थान में अल्प जनसंख्या से किया जा सकता है।

    पथ रिले अंतःपाशन[]

    रिले अंतःपाशन के बाद नवीनतम प्रगति अंतःपाशन की हुई है। इसके द्वारा संचालक यदि एक पथ किसी गाड़ी के लिए निर्धारित करके स्थापित कर देता है, तो सारे विरोधी पथ, जिनसे किसी और गाड़ी के उस पथ पर आने की संभावना हो, अंतःपाशित हो जाते हैं और स्थापित नहीं किए जा सकते। इस प्रकार के पथ, स्थापित करने में विविध संकेतकों तथा काँटों की चालों के बटनों को दबाना पड़ता है। इसके स्थान पर अब ऐसी व्यवस्था भी होने लगी है कि विविध बटनों के स्थान पर एक पथ के स्थापन के लिए केवल एक बटन दबाते ही सारा पथ स्थापित हो जाता है और उसके संकेत अनुकूल दशा में आ जाते हैं। साथ ही सब विरोधी पथ अंतःपाशित हो जाते हैं जिससे वे स्थापित न हो सकें। किसी भी स्थापित पथ को रद्द भी किया जा सकता है, यदि किसी समय उस पथ के स्थान पर दूसरे पथ को स्थापित करने की आवश्यकता हो। इसके लिए हर पथ के लिए रद्द करने वाले बटन लगे रहते हैं। एक बटन से पथ स्थापन की व्यवस्था को एक नियंत्रण-स्विच-व्यवस्था कहते हैं तथा इसके द्वारा यातायात बहुत घना होने पर भी अति सुगमता से हो सकता है।


    पथ रिले अंतःपाशन तथा एक नियंत्रण-स्विच-व्यवस्थाओं में संचालक के सामने सारे यार्ड का नक्शा रहता है जिसकी लाइनों में वल्बों द्वारा रोशनी हो सकती है। एक पथ के स्थापित होते ही उसमें रोशनी हो जाती है तथा जैसे ही उस पथ पर गाड़ी आ जाती है वहाँ सफेद के स्थान पर लाल रोशनी हो जाती है। गाड़ी के पथ खाली कर देते ही रोशनी बुझ जाती है और दूसरा पथ स्थापित किया जा सकता है। इस प्रकार संचालक तेजी से एक के बाद दूसरा पथ भिन्न दिशाओं से आने वाली गाड़ियों के लिए सथापित करता चला जाता है।


    भारत में रिले अंतःपाशन तो बहुत से स्थानों पर प्रयोग में लाया जाता रहा है, पर मद्रास, बंबई, दिल्ली के कई स्टेशनों पर पथ अंतःपाशन भी प्रयुक्त हा था। बंबई के पास कुर्ला स्टेशन पर जहाँ यातायात का घनत्व बहुत अधिक था, नियंत्रण स्विच व्यवस्था प्रयोग में लाई गई थी। इस व्यवस्था के द्वारा कुर्ला में एक ही केबिन से 125 भिन्न पथ स्थापित किए जा सकते थे, तथा 50 संकेतकों और 94 काँटों का संचालन विद्युतीय दाबित वायु अंतःपाशन प्रणाली से होता था। यह सब कार्य जुलाई, 1959 (जब वह व्यवस्था शुरू की गई) से पहले 6 केबिनों में 272 लिवरों द्वारा किया जाता था।

    केंद्रीकृत परिवहन नियंत्रण प्रणाली (Centralised Traffic Control Systems)[]

    इस प्रणाली में हर स्टेशन पर मास्टर के रखने की आवश्यकता नहीं होती बल्कि एक केंद्रीय स्थान से ही गाड़ियों का नियंत्रण किया जाता है। सुदूर यंत्रों द्वारा वहीं से बटन दबाकर पारपथों तथा संकेतकों का संचालन किया जाता है।

    स्वचालित गाड़ी नियंत्रण (automatic train Controls)[]

    ऐसी व्यवस्था की जाती है कि यदि चालक किसी गलती के कारण संकेतक को 'संकट' दशा में पार कर जाए तो पहले तो ड्राइवर को सावधान करने के लिए एक घंटी या हूटर बजता है, पर यदि गाड़ी फिर भी न रोकी जाए तो अपने आप ही ब्रेक लगाकर गाड़ी रुक जाती है। इस प्रकार ड्राइवर की गफलत, बेहोशी, कोहरे के कारण सिगनल देख पाने या किसी अन्य कारण 'संकट' सिगनल पर गाड़ी न रोकी जाने पर भी सुरक्षा हो जाती है।


    इस व्यवस्था को स्वचालित गाड़ी रोक या स्वचालित गाड़ी सतर्कता व्यवस्था भी कहते हैं। इसका यंत्र दो भागों में होता है। एक भाग तो रेलपथ में लगा होता है तथा संकेतक के साथ जुड़ा रहता है तथा दूसरा भाग इंजन में लगा होता है और संकेतक यदि 'अनुकूल' दशा में है तब रेलपथ का भाग भी अनुकूल ही रहता है और इंजनवाले भाग पर कोई असर नहीं पड़ता। पर यदि संकेतक 'संकट' अथवा प्रतिकूल अवस्था में है, तो रेलपथ वाला भाग क्रियात्मक रहता है और इंजन वाले भाग को भी क्रियात्मक कर देता है।


    इस व्यवस्था के अंत या तो यांत्रिक युक्ति के होते हैं या विद्युत-चुंबकीय युक्ति के। यांत्रिक युक्ति में इंजन वाला भाग रेल पथ के भाग से टकरा कर अपने स्थान से हट जाता है जिसके घंटी बजने तथा ब्रेक लगने कि क्रिया आरंभ हो जाती है। विद्युत चुंबकीय यंत्रों में इन दोनों भागों के टकराने की आवश्यकता नहीं रहती तथा एक भाग के दूसरे भाग के ऊपर से चले जाते समय ही चुंबकीय प्रभाव से क्रिया शुरू हो जाती है। यांत्रिक युक्ति में आपसी टकराव के कारण इन भागों में टूटने फूटने का काफी खतरा रहता है। अन्य प्रगतिशील देशों में तो यह व्यवस्था काफी काम में लाई जा रही है।


    सन् 1944 में एक स्वचालित गाड़ी नियंत्रण समिति बनी थी जिसने जी.आई.पी. रेलवे तथा बी.बी.सी.आई. रेलवे पर इस संबंध में प्रयोग किए तथा इस निष्कर्ष पर पहुँची कि रेलपथ पर लगाए हुए समानों की पूरी सुरक्षा नहीं हो सकती है और उसके चोरी हो जाने से यह व्यवस्था असफल हो जाती है। इसकी सफलता के लिए यह आवश्यक है कि किसी समय भी धोखा न हो। अभी उपयुक्त समय नहीं आया है कि भारत में इसका प्रयोग हो सके। जब या तो इस बात की समुचित व्यवस्था हो जाएगी कि रेलपथ पर लगे हुए यंत्रों के साथ कोई छेड़छाड़ न करे या फिर ऐसे यंत्र बनने लगें कि उनके साथ छेड़छाड़ हो ही न सके, तभी इस व्यवस्था का प्रयोग भारत में किया जा सकेगा।




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