Bharat Me Nagarikarann Ki Aadhunik Pravritiyon भारत में नगरीकरण की आधुनिक प्रवृत्तियों

भारत में नगरीकरण की आधुनिक प्रवृत्तियों



Pradeep Chawla on 21-10-2018

वर्ष 1991 की जनगणना के अनुसार भारत में कुल जनसंख्या की 26 प्रतिशत आबादी अर्थात 21.70 करोड़ जनसंख्या नगरों में निवास करती है। अगर हम सिर्फ पिछले 40 वर्षों की स्थिति पर गौर करें तो पाते हैं कि उस समय कुल जनसंख्या के 12 प्रतिशत लोग ही शहरों में निवास करते थे। लेकिन स्वतन्त्रता के बाद जैसे-जैसे आर्थिक एवं औद्योगिक विकास की गति तीव्र हुई, वैसे-वैसे नगरों की संख्या तथा उनमें निवास करने वाली जनसंख्या दोनों में वृद्धि हुई, जो सारणी-1 से स्पष्ट है।

जहाँ तक भारत में नगरीय जनसंख्या के प्रतिशत का प्रश्न है, यह निश्चित रूप से माना जा सकता है कि यह विकसित देशों की तुलना में काफी कम है, लेकिन अगर नगरों में निवास करने वाली कुल जनसंख्या पर दृष्टिपात करें तो हम पाते हैं कि यह संख्या कई विकसित देशों की कुल जनसंख्या से भी अधिक है।

नगरीकरण की प्रवृत्ति


भारतीय जनगणना विभाग द्वारा भारतीय नगरों को जनसंख्या के आधार पर छह भागों में विभाजित किया गया है:

प्रथम वर्ग

- 1 लाख से अधिक जनसंख्या

द्वितीय वर्ग

- 50,000-99,999

तृतीय वर्ग

- 20,000-49,999

चतुर्थ वर्ग

- 10,000-19,999

पंचम वर्ग

- 5,000-9,999

षष्ठम वर्ग

- 5,000 से कम


अगर अम भारत में नगरीकरण की प्रवृत्ति (सारणी-2) पर गौर करें तो पाते हैं कि प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय वर्ग के नगरों की संख्या में वृद्धि काफी तीव्र गति से हुई है। चतुर्थ श्रेणी के नगरों में भी वृद्धि हुई है। लेकिन पंचम श्रेणी के नगरों में 1901 की तुलना में कमी आई। 1951 तक इस श्रेणी में वृद्धि हुई। उसके बाद घटते-घटते 1971 तक यह 623 तक पहुँच गई। 1981 में इसमें पुनः वृद्धि दृष्टिगोचर हुई, लेकिन 1991 में इसमें पुनः कमी आई। इसी तरह छठे वर्ग के कस्बों की संख्या में 1921 तथा 1981 को छोड़कर लगातर ह्रास की प्रवृत्ति जारी रही है।

कस्बों की संख्या में कमी का कारण व्यापक पैमाने पर बड़े नगरों की तरफ जनसंख्या का झुकाव एवं जनगणना विभाग द्वारा नगरों की परिभाषा में परिवर्तन करना है। भारतीय जनगणना विभाग द्वारा नगरों की परिभाषा में किए गए परिवर्तन के फलस्वरूप 1951-61 के दशक में पांचवें वर्ग में 405 कस्बों तथा छठे वर्ग में 399 कस्बों को पुनः अवर्गीकृत कर ग्रामीण क्षेत्रों में परिवर्तित कर दिया गया।

बड़े नगरों में जनसंख्या वृद्धि तथा उनकी संख्या में वृद्धि की प्रवृत्ति 1991 तक जारी रही। वर्तमान समय में प्रथम वर्ग के नगरों में कुल नगरीय जनसंख्या का 65.20 प्रतिशत भाग निवास करता है (असम एवं जम्मू-कश्मीर को छोड़कर)। दूसरी तरफ चतुर्थ श्रेणी के कस्बों में मात्र 7.77 प्रतिशत एवं पांचवीं श्रेणी के कस्बों में 31.45 प्रतिशत नगरीय जनसंख्या निवास करती है।

यही प्रवृत्ति महानगरों के सम्बन्ध में भी देखने को मिलती है। 1901 में भारत में सिर्फ एक महानगरा (कलकत्ता) था। 1911 से 1941 तक यह संख्या 2 तक सीमित रही। 1951 में यह संख्या बढ़कर 5, 1961 में 7, 1971 में 9, 1981 में 12 तथा 1991 में 23 हो गई। 1981 से 1991 के दशक में इसमें लगभग दुगुनी वृद्धि हुई।

नगरीय जनसंख्या में वृद्धि के कई कारण हैं जिनमें मुख्य है- गाँवों से नगरों की ओर जनसंख्या का स्थानांतरण। एक अन्य कारण नगरीय जनसंख्या की प्राकृतिक वृद्धि का है। बड़े नगरों या नगरीय समूह के चारों तरफ कालांतर में रेलवे कालोनी, विश्वविद्यालय परिसर, पत्तन क्षेत्र, सैनिक छावनी इत्यादि विकसित हो जाते हैं। इनमें कई बार तो ऐसी स्थिति भी देखने को मिलती है कि कुछ क्षेत्र नगरपालिका/नगर निगम के क्षेत्र से बाहर विकसित हो जाते हैं तथा गाँवों के राजस्व क्षेत्र में आते हैं। ऐसे क्षेत्र को जनगणना विभाग द्वारा बाह्य विकसित (आउट ग्रोथ) क्षेत्र के रूप में मान्यता दे दी जाती है तथा इसकी गणना भी कस्बों के साथ-साथ की जाती है।

ग्रामीण क्षेत्रों से नगरीय क्षेत्रों/शहरों में स्थानांतरण का कारण रोजगार का अभाव, कृषि भूमि पर अधिक दबाव, उत्पादकता में गिरावट, निम्न रहन-सहन इत्यादि है। इसी तरह नगरों में रोजगार के अधिक अवसर, मजदूरी की अधिक दरें, शहरों का चकाचौंधपूर्ण जीवन, शिक्षा प्राप्ति के अधिक अवसर इत्यादि कारक ग्रामीण जनसंख्या को अपनी ओर आकर्षित करते हैं।

इस तरह नगरीय जनसंख्या में वृद्धि के कारण कई तरह की समस्याएँ जन्म ले चुकी हैं जो धीरे-धीरे वीभत्स रूप धारण करती जा रही हैं। नगरों में उत्पन्न समस्याओं को निम्नांकित भागों में बाँटा जा सकता है:

1. पर्यावरणीय समस्या
2. आवास की समस्या
3. रोजगार की समस्या
4. अन्य सामाजिक समस्याएँ

1. पर्यावरणीय समस्याः नगरीय केन्द्रों में जनसंख्या के लगातार बढ़ते रहने एवं औद्योगीकरण के फलस्वरूप पर्यावरण प्रदूषण तथा अवनयन की कई समस्याएँ उत्पन्न हो गई हैं। सबसे ज्यादा प्रदूषण वायु तथा जल में देखने को मिलता है।

महानगरों में प्रदूषण का मुख्य कारण वाहनों एवं औद्योगिक संस्थानों द्वारा निस्सृत विषैले रसायन हैं। जिनमें मुख्य है: सल्फर डाईऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड, सीसा एवं नाइट्रस ऑक्साइड। एक सर्वेक्षण (नेशनल इन्वायरनमेंटल इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टीच्यूट, नागपुर) के अनुसार 1990 में उद्योगों से निकलने वाले सल्फर डाईऑक्साइड की मात्रा 45,000 टन प्रति वर्ष थी, जो बढ़कर सन 2000 से 48,000 टन प्रतिवर्ष हो जाने की आशा है।

इसी तरह कार्बन मोनोऑक्साइड की मात्रा 1980 में 1,40,000 टन प्रतिवर्ष से बढ़कर 1990 में 2,65,000 प्रतिवर्ष हो गई थी तथा आशंका है कि सन 2000 तक यह मात्रा 4,00,000 टन प्रतिवर्ष हो जाएगी।

इसी तरह औद्योगिक नगरों में जाड़े के मौसम में तापीय प्रतिलोमन के समय कारखानों की चिमनियों से निस्सृत धूम्र एवं सल्फर के स्थिर वायु के साथ मिश्रण के कारण जानलेवा नगरीय धूम्र कोहरे की उत्पत्ति होती है।

वाहनों से निकलने वाले धूम्र के साथ सीसा नामक तत्व भी निकलता है जिसका बुरा प्रभाव हमारे श्वसन-तंत्र पर पड़ता है। सल्फर डाईऑक्साइड गैस वर्षा के जल के साथ संयोग करके सल्फ्यूरिक अम्ल में परिणत हो जाती है। यह अम्ल वर्षा के रूप में पृथ्वी पर पहुँचता है जिसके फलस्वरूप त्वचा कर्कटाबुर्द (कैंसर) की आवृत्ति में वृद्धि होती है।

सारणी-1

वर्ष

नगरों की कुल संख्या

नगरीय जनसंख्या

1951

2795

61,629,646

1961

2270

77,562,000

1971

2476

106,966,534

1981

3245

156,419,768

1991

3609

212,867,337

स्रोतः भारतीय जनगणना, 1991, सीरीज-1 असम एवं जम्मू-कश्मीर को इसमें सम्मिलित नहीं किया गया है।


सारणी-2
भारत में विभिन्न श्रेणी के नगरों की संख्या

जनगणना

श्रेणी

वर्ष

1

2

3

4

5

6

1901

24

43

130

390

744

479

1911

23

40

135

364

707

485

1921

29

45

145

370

734

571

1931

35

56

183

434

800

509

1941

49

74

242

498

920

407

1951

76

91

327

608

1124

569

1961

102

129

427

719

711

172

1971

148

173

558

827

623

147

1981

215

270

738

1053

739

229

1991

296

341

927

1135

725

185

स्रोतः भारतीय जनगणना, 1991, सीरीज-1


इसी तरह बढ़ती नगरीकरण की प्रवृत्ति ने जल को भी काफी हद तक प्रभावित किया है। दिनों-दिन नगरों में पक्के आवासों की संख्या बढ़ती जा रही है जिससे वर्षा का जल रिसकर अंदर नहीं जा पाता है। फलस्वरूप धरातलीय जल-स्तर में कमी आ रही है।

महानगरों में स्थित कल-कारखानों द्वारा निष्कासित कचरे मुख्य रूप से नदी-नालों में प्रवाहित कर दिए जाते हैं। इसके कारण नदियों का पानी भी पीने लायक नहीं रह गया है। दिल्ली के पास यमुना नदी मात्र एक नाला बनकर रह गई है। इसी तरह कानपुर में स्थित चमड़े के कारखानों के कारण गंगा नदी किसी कार्य के लिए भी उपयोगी नहीं रह गई है।

महानगरों में ध्वनि प्रदूषण का स्तर भी काफी ऊँचा हो गया है। इनमें अबाध गति से जनसंख्या में वृद्धि के कारण स्वचालित वाहनों तथा अन्य ध्वनि प्रदूषकों में तेजी से वृद्धि हुई है। भारत के अधिकांश महानगरों में ध्वनि का स्तर 70-80 डेसीबेल तक पहुँच गया है जिससे श्रवण-सम्बन्धी समस्याएँ उत्पन्न हो गई हैं।

2. आवास की समस्या: पर्यावरण के बाद सबसे महत्त्वपूर्ण समस्या आवास की है। यह समस्या आवास की गुणवत्ता एंव मात्रा दोनों में देखने को मिलती है। वर्तमान समय में भारत में 3 करोड़ 10 लाख आवासीय इकाइयों की कमी है जिसमें 206 लाख आवास की कमी ग्रामीण क्षेत्र में तथा 104 लाख शहरी क्षेत्र में है। इसके अतिरिक्त सम्पूर्ण सुविधायुक्त मकानों की मात्रा भी काफी कम है तथा सन 2000 तक लगभग 7 मिलियन आवासों की कमी की सम्भावना है। नवीनतम अनुमानों के अनुसार कुल नगरीय आबादी का 14.68 प्रतिशत झुग्गी-झोपड़ियों में निवास करता है। भारत के विभिन्न महानगरों की कुल नगरीय आबादी का एक बड़ा भाग झुग्गी-झोपड़ियों में निवास करता है जो नीचे की तालिका से स्पष्ट है:

महानगर

कुल जनसंख्या का प्रतिशत

मुंबई

38.30

कलकत्ता

35.35

दिल्ली

30.19

चेन्नई

31.87

अहमदाबाद

26.16

बंगलौर

10.02

कानपुर

40.31

लखनऊ

38.83

स्रोतः हैण्डबुक आफ हाउसिंग स्टेटिसटिक्स-1981, नेशनल बिल्डिंग आर्गनाइजेशन, नई दिल्ली।


3. रोजगार की समस्या: जिस अनुपात में नगरों में जनसंख्या की वृद्धि हो रही है, उसी अनुपात में रोजगार में वृद्धि नहीं हो रही है। गाँवों से शहरों में आने वाले लोगों की अधिक संख्या के कारण उन्हें शहरों में कम मजदूरी पर कार्य करना पड़ता है जिससे सामाजिक अव्यवस्था बढ़ती चली जाती है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में ग्रामीण-शहरी स्थानांतरण में कमी आई है। इसका कारण ग्रामीण क्षेत्रों में सरकार द्वारा चलाए गए कार्यक्रमों की सफलता मानी जाती है।

अन्य सामाजिक समस्याएँ: इन उपरोक्त मुख्य समस्याओं के अतिरिक्त भी कई समस्याएँ हैं। चूँकि ग्रामीण क्षेत्रों से आने वाले लोग अधिकतर गरीब होते हैं, अतः पैसे की कमी के कारण वे अमीर लोगों की बस्तियों के किनारे झोपड़ी बनाकर रहने लगते हैं। इन गरीब वर्ग के लोगों का शैक्षणिक स्तर भी निम्न होता है तथा नगरों की साफ-सफाई की व्यवस्था का बोध नहीं होने के कारण शहरी वातावरण उनके लिए संकटमय हो जाता है। यह संकट कभी-कभी विकराल रूप धारण कर लेता है। उदाहरण के तौर पर जनवरी, 1995 में दिल्ली की एक मध्यमवर्गीय कालोनी में गरीब लोगों के समूह ने वहाँ स्थित पार्क का उपयोग शौचालय के रूप में करना शुरू कर दिया। फलस्वरूप उत्पन्न हुए झगड़े में चार लोगों की मृत्यु हो गई तथा जान-माल का काफी नुकसान हुआ। यहाँ पर स्व. श्रीमती इंदिरा गाँधी की यह उक्ति कि ‘गरीबी ही सबसे बड़ा प्रदूषण है’, काफी प्रासंगिक होती है। इसके अतिरिक्त गरीबी एवं अमीरी की बढ़ती हुई खाई के कारण गरीब लोगों में अधिकाधिक पैसे की प्राप्ति के लिए आपराधिक भावना भी पनप उठती है जिससे शहरी जीवन तनावग्रस्त हो जाता है।

इस तरह हम देखते हैं कि भारत में बढ़ते नगरीकरण के कारण कई समस्याओं का जन्म हो चुका है। इन समस्याओं के पीछे मुख्य कारण है बढ़ती हुई जनसंख्या। अतः हमें सबसे पहले बढ़ती जनसंख्या को काबू में करना होगा तथा ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों में स्थानांतरण रोकने के लिए कुछ ठोस कदम उठाने होंगे। इसके लिए सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के कई अवसर- जैसे नेहरू रोजगार योजना, ट्राइसेम, आर.एल.ई.जी.पी. इत्यादि प्रदान किए हैं। इसके साथ-साथ नगरीय बाह्य क्षेत्र में विकास ध्रुव केन्द्र की स्थापना करनी होगी। नगरीय क्षेत्रों में स्थित औद्योगिक प्रतिष्ठानों को भी बाह्य क्षेत्रों में स्थानान्तरित कर दिया जाना चाहिए। इससे दो फायदे होंगे।

1. नगरीय क्षेत्रों में जनसंख्या का दबाव कम होगा।
2. प्रदूषण स्तर में काफी कमी आएगी।

इन उपायों को सफलतापूर्वक कार्यान्वित करके ही हम इन समस्याओं से मुक्ति पा सकते हैं।




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