Maidani Bhag Ki Visheshta मैदानी भाग की विशेषता

मैदानी भाग की विशेषता



Pradeep Chawla on 13-10-2018

भारत का विशाल मैदान विश्व का सबसे अधिक उपजाऊ और घनी आबादी वाला भू-भाग कहलाता है। यह मैदान प्रायद्वीपीय भारत को बाह्य-प्रायद्वीपीय भारत से बिल्कुल अलग करता है। हिमालय के निर्माण के बाद बना यह एक नवीनतम भूखंड है, जो सिन्धु-गंगा-ब्रह्मपुत्र का प्रमुख भाग (भौगोलिक दृष्टि से एक खण्ड) था, जिसे भारत-पाकिस्तान विभाजन के पश्चात् अलग कर दिया गया। पश्चिम में सिंधु नदी के मैदान का अधिकांश भाग और पूरब में गंगा-ब्रह्मपुत्र डेल्टा का अधिकांश भाग वर्तमान भारत से अलग हो गया है। यही कारण है कि शेष मैदान को भारत के विशाल मैदान के नाम से संबोधित किया जाता है, जिसमें सतलज व व्यास का मैदानी भाग, हैं। कई भारतीय विद्वानों द्वारा इस मैदान को विशाल मैदान के नाम से भी संबोधित किया गया है।


इस विशाल मैदान का क्षेत्रफल 7 लाख वर्ग किलोमीटर है। पूरब से पश्चिम दिशा में इसकी लंबाई लगभग 2,400 किलोमीटर है। चौड़ाई में यह पश्चिम से पूरब की ओर कम होती जाती है। इसकी चौड़ाई पश्चिम में 500 किलोमीटर है तथा पूरब में क्रमशः कम होती हुई घटकर 145 किलोमीटर रह जाती है। सामान्य तौर पर इस मैदान का ढाल एकदम समतल है। इसका अधिकांश भाग समुद्र तल से लगभग 150 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। इस मैदान का राजनीतिक विस्तार दिल्ली, उत्तरी राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, उत्तरी विहार, उत्तर-प्रदेश, असम, बंगाल राज्यों में है। इसकी पश्चिमी सीमा राजस्थान मरुभूमि में विलीन हो गयी है।


इस विशाल मैदान का निर्माण नदियों द्वारा बहाकर लाए गए निक्षेपों से हुआ है। यह निक्षेप बहुत मोटा है। इसकी मोटाई के बारे में अभी तक कोई निश्चित मत नहीं प्रकट किया गया है। कुछ विद्वानों ने प्रयोग के आधार पर यह कहा है कि इसकी औसत मोटाई लगभग 1,300 से 1,400 मीटर तक है। इसकी मोटाई चाहे जितनी भी हो, पर मैदान के संबंध में यह जानकारी अक्षरशः सत्य है कि विशाल मैदान कांप निक्षेपों से निर्मित है, परंतु यह निक्षेप कितनी गहराई रखते हैं, इस बारे में विद्वानों में मतैक्यता नहीं है। सर्वाधिक कांप की गहराई दिल्ली व राजमहल की पहाड़ियों के बीच पाई गई है। राजस्थान व मेघालय पठार के बीच यह कम गहरी है, जो एक-दूसरे से कम गहराई पर मिले हुए हैं। इन तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि मैदान के नीचे की सतह न तो समतल है और न ही एकसार, अपितु यह असमान व ऊंची-नीची हैं। इस मैदान के गर्त में आर्कियन चट्टानों के मौजूद होने के प्रमाण मिलते हैं। यथा-अरावली पहाड़ियों का उत्तरी प्रक्षेप (जो दिल्ली से लेकर हरिद्वार तक है) और पश्चिम में मेघालय का पठार-ये आर्कियन चट्टानों की उपस्थिति को प्रदर्शित करता है। इनके बीच के भाग भी अब कांप निक्षेपों से आवरित हो गए हैं।


विशाल मैदान का वर्गीकरण


इस मैदान का वर्गीकरण करना अत्यंत दुष्कर कार्य है। मिट्टी की विशेषता और ढाल के आधार पर इसका वर्गीकरण इस प्रकार किया जा सकता है-

  1. भाभर
  2. तराई
  3. बांगर
  4. खादर
  5. रेह
  6. भूड़
  7. डेल्टाई मिट्टी क्षेत्र

भाभर प्रदेश: विशाल मैदान की उत्तरी सीमा पर महीन मलबे और मोटे ककड़ों के मिश्रण से बने मैदान हैं। इन्हें भाभर प्रदेश कहा जाता है।


भाभर प्रदेश गंगा मैदान की उत्तरी सीमा बनाता है। यह हिमालय के पथरीले ढाल हैं जो एक छोर से दूसरे छोर तक 10 किलोमीटर से लेकर 15 किलोमीटर की चौड़ाई तक फैले हैं। इस भू-भाग में छोटी नदियों का जल सामान्यतः कंकड़-पत्थर के ढेर के नीचे से ही प्रवाहित होता है, जबकि बड़ी नदियों का जल धरातल पर ही प्रवाहित होता है।


तराई प्रदेश: इस प्रदेश का निर्माण बारीक ककड़, पत्थर, रेत तथा चिकनी मिट्टी से हुआ है। यह भाभर प्रदेश के दक्षिण का दलदली क्षेत्र है। जहां भाभर प्रदेश में धरातल के नीचे से जल प्रवाहित होता है वहीं तराई क्षेत्र में यह पुनः धीरे-धीरे धरातल पर प्रवाहित होता है। तराई प्रदेश में ढाल की कमी के कारण पानी यत्र-तत्र बहता रहता है जिससे इस क्षेत्र की भूमि सदैव नम रहती है।


खादर प्रदेश: जिस भू-भाग में नदियों की बाढ़ का पानी प्रत्येक वर्ष पहुंचता है, उसे खादर प्रदेश कहते हैं। इसे नदियों के बाढ़ का मैदान या कछारी प्रदेश भी कहते हैं। बिहार, उत्तर प्रदेश व राजस्थान में खादर भूमि की प्रधानता पायी जाती है। इस प्रदेश का निर्माण काल उप-प्लीस्टोसीन से प्रारंभ होता है तथा यह प्रक्रिया वर्तमान में भी जारी है। बालू एवं कंकड़ उपलब्ध होने के कारण यह भूमिगत जल का उत्तम संग्राहक है।


बांगर प्रदेश: यह उच्च भू-भाग है जहां नदियों का पानी नहीं पहुंच पाता है। इस क्षेत्र में चूना युक्त कंकड़ीली मिट्टी पाई जाती है। इस क्षेत्र की ऊंचाई एक समान नहीं होती तथा कहीं पर यह 25-30 मीटर की ऊंचाई पर भी पाये जाते हैं। बांगर भूमि प्रायः पंजाब व उत्तर प्रदेश में पायी जाती है।


रेह: बांगर प्रदेश के सिंचाई कार्यों की अधिकता वाले क्षेत्रों में कहीं-कहीं भूमि पर एक नमकीन सफेद परत बिछी हुई पाई जाती है, इसी परत वाली मिट्टी को रेह या कल्लर के नाम से जाना जाता है। रेह का विस्तार शुष्क भागों में सबसे ज्यादा है। उत्तर प्रदेश और हरियाणा का शुष्क भाग इसके विशिष्ट उदाहरण हैं।


भूड़: बांगर भूमि पर पाये जाने वाले बालू के ढेर भूड़ कहलाते हैं। इसका जमाव प्रायः गंगा और रामगंगा नदियों के प्रवाह क्षेत्र में अधिक होता है।


डेल्टाई प्रदेश: गंगा व ब्रह्मपुत्र नदियां विशाल डेल्टा का निर्माण करती हैं। इनका डेल्टा भारत व बांग्लादेश में फैला हुआ है। उल्लेखनीय है कि डेल्टाई प्रदेश खादर प्रदेश का विस्तार मात्र है। परंतु इसकी दक्षिणी सीमा को सोन व चम्बल नदियों के बीच की नदियों द्वारा बुरी तरह से काट-छांट दिया गया है, इसलिए प्रायः इसे बुरा स्थल भी कहा जाता है।


उत्तरी मैदान का धरातलीय वर्गीकरण


भारत के उत्तरी मैदान को धरातलीय विशेषताओं के आधार पर निम्नानुसार विभाजित किया जा सकता है:


सिंधु मैदान: यह मैदान सिंधु नदी के पश्चिम में विस्तृत है। यह मुख्यतः बांगर से बना है। इस मैदान का उत्तरी भाग चीका मरुस्थल है, जबकि दक्षिणी भाग में रेत और दोमट मिट्टी पायी जाती है। पूर्वी भाग डेल्टाई प्रकार का है, जो कच्छ के रन की दलदली मिट्टी में विलय होता जा रहा है। इस भाग में नवीन जलोढ़ निक्षेपों की सतह पर पूर्व नदी प्रवाहों के अवशेष (लंबे एवं संकरे गतों के रूप में) पाये जाते हैं, जो धोरो कहलाते हैं। धांध सूखे प्रवाहों के निकट पायी जाने वाली क्षारीय झीलें होती हैं, जैसे-पूर्वी नारा।


पंजाब का मैदान: इस मैदान का सबसे विशिष्ट लक्षण पंज-दोआब हैं। लंबे समय से कार्य कर रही निक्षेपात्मक शक्तियों ने इन दोआबों को एक समरूप भू-आकृतिक स्थल बना दिया है। आयों के प्रथम प्रवास के समय से इन दोआबों की पहचान कायम है। बेट पंजाब मैदान के खादर क्षेत्र हैं जो बाढ़ प्रभावित होने के बावजूद कृषि के लिए अत्यंत उपयोगी हैं। ढैय्या 3 मीटर या अधिक ऊंचाई वाले अवनालिकायुक्त वप्र हैं, जो खादर मैदानों के पार्श्वों पर पाये जाते हैं। ये जलोढ़ लक्षण पाकिस्तानी पंजाब से भारतीय पंजाब तक उल्लेखनीय नियमितता दर्शाते हैं। शिवालिक से जुड़े उत्तरी भाग में संकरी धाराओं का एक जाल तीव्र अपरदन क्रियाओं को जन्म देता है, जिसके फलस्वरूप बड़ी-बड़ी अवनालिकाओं का निर्माण होता है। ये जल धाराएं छोस (Chos) कहलाती हैं। छोस द्वारा निक्षेपित बालू प्रत्येक बाढ़ के बाद व्यवस्थित और अव्यवस्थित होती रहती है। धाराओं के किनारे बहुत ही अस्थिर होते हैं, जिससे इनके संस्तर लगातार विस्थापित होते रहते हैं। पंजाब के होशियारपुर जिले में बहुतायत में छोस धाराएं पायी जाती हैं।


गंगा के मैदान: ये मैदान तीन विशिष्ट सांस्कृतिक-भौगोलिक विभागों में बांटे जा सकते हैं- गंगा-यमुना दोआब, अवध का मैदान तथा मिथिला का मैदान। यमुना एवं चंबल के प्रवाह मागों से जुड़े बांगर उच्च भूभाग खड्डों एवं अवनालिकाओं में खंडित हो चुके हैं। इस कारण इस क्षेत्र में खड्डों, अवनालिकाओं या उत्खात भूमि का एक जटिल चक्रव्यूह निर्मित हो गया है, जिसे सामान्यतः बीहड़ कहा जाता है। भाबर व तराई मैदान तथा भूड़ निक्षेप इस भाग के अन्य प्रमुख भूलक्षण हैं। खोल पुरानी बांगर उच्च भूमि के बीच स्थित मध्यवर्ती ढाल हैं।


बिहार में स्थित संक्रमण क्षेत्र: इस क्षेत्र में शंकु एवं अंतर्शकुओं का बाहुल्य है। इस क्षेत्र में गंगा की प्रवणता अत्यंत कम हो जाती है जिसके कारण यह क्षेत्र भयंकर बाढ़ों से ग्रस्त रहता है।


बंगाल डेल्टा: इसमें प्राचीन एवं नवीन पंक तथा दलदली भूमि पायी जाती है। यह डेल्टा वास्तव में एक अपरदी मैदान है जो निक्षेपित क्षेत्र के रूप में पहचाना जाता है।


पार-डेल्टा एक मैदान है, जो संक्षारण क्रियाओं का परिणाम है। उत्तर में यह गंगा-ब्रह्मपुत्र का दोआब निर्मित करता है तथा पश्चिम में हुगली एवं प्रायद्वीपीय खंड के मध्य एवं समप्राय मैदान बनाता है। पूर्व की ओर यह सूरमा घाटी एवं मेघना के मैदान में विलीन हो जाता है।


असम का मैदान: यह मैदान धुबरी से सादिया तक 640 किमी. लंबाई तथा 100 किमी. की चौड़ाई में विस्तृत है। यह मैदान मुख्यतः ब्रह्मपुत्र एवं उसकी सहायक नदियों की अपरदी वेदिकाओं के रूप में निर्मित हुआ है।


पश्चिमी मैदान: ये मैदान मुख्यतः राजस्थान के मरुस्थल तथा कच्छ के रण में फैले हुए हैं। यहां पानी की अपेक्षा वायुगत क्रियाएं अधिक प्रभावशाली होती हैं। यह क्षेत्र पूर्व-कार्बोनीफेरस युग से प्लीस्टोसीन युग तक समुद्र के नीचे था। इस क्षेत्र के प्रमुख भौगोलिक लक्षणों में धरियां (सचल बालुका टिब्बे), रन (प्लाया झीलें) तथा रोही (अरावली के पश्चिम में स्थित उपजाऊ मैदान) शामिल हैं। इस क्षेत्र में सांभर, डीडवाना, कुचामान, देगाना, पचपद्र तथा लूँकरसर तल जैसी नामक की झीलें पाई जाती हैं।


उत्तरी मैदान का महत्व Importance of Northern Plains of India


इस क्षेत्र का आर्थिक महत्त्व अधिक है। उपजाऊ मिट्टियाँ, बारहमासी जल स्रोतों तथा अनुकूल जलवायु ने इस क्षेत्र को कृषि के लिए आदर्श क्षेत्र बना दिया है।


कृषि उत्पादकता के अलावा इस क्षेत्र की स्थलाकृति संचार माध्यमों के प्रसार की दृष्टि से काफी उपयुक्त है। इसी कारण इन क्षेत्रों में जनसंख्या का गहन जमाव पाया जाता है। यद्यपि ये मैदान देश के कुल क्षेत्रफल का 1/3 भाग है, किंतु यहां देश की 40 प्रतिशत जनसंख्या निवास करती है। ये विश्व के सर्वाधिक जनसंख्या घनत्व वाले क्षेत्रों में से एक है।


उत्तरी मैदान राजनीतिक एवं सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण हैं। ये मैदान सिंधु आंदोलन तक- सभी प्रमुख ऐतिहासिक घटनाक्रमों का रंगमंच रहे हैं। इतिहास के विभिन्न कालों में पटना, कलकत्ता, आगरा तथा दिल्ली ने देश की राजधानियों के रूप में कार्य किया है। नदियों के प्रति सम्मान व्यक्त करने वाले परंपरागत भारतीयों के लिए यह क्षेत्र अत्यधिक सामाजिक-धार्मिक महत्व रखता है। इस क्षेत्र में हरिद्वार, मथुरा, प्रयाग, वाराणसी, सारनाथ, अयोध्या जैसे तीर्थस्थल मैाजूद हैं।






सम्बन्धित प्रश्न



Comments SALMAN ABBASI on 16-12-2022

MAIDANI BHAG KI VISESTA

Nitu Gontiya on 13-12-2021

उत्तर भारत के मैदान को हिमालय का वरदान कहा जाता है क्यों?

SAKAL on 28-07-2021

VHJC


राजबहादुर on 15-11-2020

हिमालय हिमालय गिरी पद पर स्थित विशाल मैदान की तीन विशेषताएं





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