Nyoontam Samarthan Moolya 1965 न्यूनतम समर्थन मूल्य 1965

न्यूनतम समर्थन मूल्य 1965



GkExams on 06-12-2018

भारत में कृषि उपज की लागत का सही-सही निर्धारण होता है? जवाब है – बिलकुल नहीं! भारत में कृषि उत्पादों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य का निर्धारण कृषि लागत एवं मूल्य आयोग के द्वारा किया जाता है.


जनवरी 1965 में जब इसकी स्थापना हुई थी, तब इसे कृषि मूल्य आयोग के नाम से जाना जाता था. वर्ष 1985 में इसमें लागत निर्धारण का हिस्सा जुड़ा और इसे तभी से इसे कृषि लागत एवं मूल्य आयोग कहा जाता है.


वर्ष 2009 से न्यूनतम समर्थन मूल्य के निर्धारण में उत्पादन की लागत, मांग और आपूर्ति की स्थिति, आदान मूल्यों में परिवर्तन, मंडी मूल्यों का रुख, जीवन निर्वाह लागत पर प्रभाव और अन्तराष्ट्रीय बाज़ार के मूल्य को ध्यान में रखा जाता है.


हमें यह जिज्ञासा होना चाहिए कि न्यूनतम समर्थन मूल्यों के निर्धारण में किसान और खेतिहर मजदूर का क्या स्थान होता है?


कृषि एवं किसान मंत्रालय ने राज्य सभा में यह वक्तव्य दिया है कि खेती के उत्पादन की लागत के निर्धारण में केवल नकद या जिंस से सम्बंधित खर्चे ही शामिल नहीं होते हैं, बल्कि इसमें भूमि और परिवार के श्रम के साथ-साथ स्वयं की संपत्तियों का अध्यारोपित मूल्य भी शामिल होता है. क्या सचमुच?


मसला यह है कि भारत में खेती के क्षेत्र में जबरदस्त विविधता होती है. जलवायु, भौगोलिक स्थिति, मिट्टी का प्रकार और सांस्कृतिक व्यवहार. ये सब कृषि के तौर तरीकों को गहरे तक प्रभावित करते हैं लेकिन जब भारत सरकार कृषि लागत एवं मूल्य आयोग की अनुशंसा पर न्यूनतम समर्थन मूल्य का निर्धारण करती है, तब वह मूल्य पूरे देश के लिए एक जैसा ही होता है.


आयोग पूरे देश की विविधता को इकठ्ठा करके एक औसत निकाल लेता है और न्यूनतम समर्थन मूल्य तय कर देता है. आयोग के अपने खुद के ही आंकलन बताते हैं कि देश में उत्पादन की परिचालन लागत (इसमें श्रम, बीज, उर्वरक, मशीन, सिंचाई, कीटनाशी, बीज, ब्याज और अन्य खर्चे शामिल हैं) और खर्चे भिन्न-भिन्न होते हैं, फिर भी न्यूनतम समर्थन मूल्य एक जैसा क्यों?


इसमें मानव श्रम के हिस्से को खास नज़रिए से देखने की जरूरत है क्योंकि कृषि की लागत कम करने के लिए सरकार की नीति है कि खेती से मानव श्रम को बाहर निकाला जाए.


पिछले ढाई दशकों में इस नीति ने खेती को बहुत कमज़ोर किया है. इन सालों में लगभग 11.1 प्रतिशत लोग खेती से बाहर तो हुए हैं, किन्तु उनके रोज़गार कहीं दूसरे क्षेत्र में भी सुनिश्चित हो पा रहे हों, यह दिखाई नहीं देता.


न्यूनतम समर्थन मूल्य और उत्पादन की परिचालन लागत को मानव श्रम के नज़रिए से देखना जरूरी है. कृषि लागत और मूल्य आयोग ने ही वर्ष 2014-15 के सन्दर्भ में रबी और खरीफ की फसलों की परिचालन लागत का अध्ययन किया, इससे पता चलता है कि कई कारकों के चलते अलग-अलग राज्यों में उत्पादन की बुनियादी लागत में बहुत ज्यादा अंतर आता है.


हम कुछ उदाहरण देखते हैं –


चना – बिहार में एक हेक्टेयर में चने की खेती में 18,584 रुपये की परिचालन लागत आती है, जबकि आंध्रप्रदेश में 30,266 रुपये, हरियाणा में 17,867 रुपये, महाराष्ट्र में 25,655 रुपये और कर्नाटक में 20,686 रुपये लागत आती है.


इस लागत में अंतर आने एक बड़ा कारण मजदूरी पर होने वाला खर्च शामिल है. हमें यह ध्यान रखना होगा कि खेती से सिर्फ किसान ही नहीं कृषि मजदूर भी जुड़ा होता है.


बिहार में कुल परिचालन लागत में 44.3 प्रतिशत (8,234.6 रुपये), आंध्रप्रदेश में 44.2 प्रतिशत (13,381.3 रुपये) हरियाणा में 65.6 प्रतिशत (11,722 रुपये), मध्यप्रदेश में 33.4 प्रतिशत (6,966 रुपये), राजस्थान में 48 प्रतिशत (7,896 रुपये) हिस्सा मजदूरी व्यय का होता है.


चने की प्रति हेक्टेयर परिचालन लागत अलग-अलग राज्यों में 16,444 रुपये से लेकर 30,166 रुपये के बीच आ रही है.


गेहूं – यह एक महत्वपूर्ण उत्पाद है. इसके अध्ययन से पता चलता है कि खेती के मशीनीकरण के आखिर कहां असर किया है? पंजाब गेहूं के उत्पादन में अग्रणी राज्य है. वहां गेहूं उत्पादन की परिचालन लागत 23,717 रुपये प्रति हेक्टेयर है, इसमें से वह केवल 23 प्रतिशत (5,437 रुपये) ही मानव श्रम पर व्यय करता है, वह मानव श्रम से ज्यादा मशीनी श्रम पर खर्च करता है.


जबकि हिमाचल प्रदेश में परिचालन लागत 22,091 रुपये है, जिसमें से 50 प्रतिशत हिस्सा (10,956 रुपये) मानव श्रम का है. इसी तरह राजस्थान में गेहूं उत्पादन की परिचालन लागत पंजाब और हिमाचल प्रदेश की तुलना लगभग डेढ़ गुना ज्यादा है. और वहां लागत का 48 प्रतिशत (16,929 रुपये) हिस्सा मानव श्रम पर व्यय होता है.


इसी तरह मध्य प्रदेश 25,625 रुपये में से 33 प्रतिशत (8,469 रुपये), पश्चिम बंगाल 39,977 रुपये की परिचालन लागत में से 50 प्रतिशत (19,806 रुपये), बिहार 26,817 रुपये में से 36 प्रतिशत (9,562 रुपये) मानव श्रम पर व्यय करते हैं.


गेहूं की बुनियादी लागत 20,147 रुपये से 39,977 रुपये प्रति हेक्टेयर के बीच आई थी.


धान – अनाजों के समूह में चावल महत्वपूर्ण स्थान रखता है, इसलिए धान की फसल को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता है. हिमाचल प्रदेश में धान के उत्पादन की परिचालन लागत 26,323 रुपये प्रति हेक्टेयर है. इसमें से 72 प्रतिशत (19,048 रुपये) मानव श्रम पर व्यय होते हैं.


बिहार में 26,307 रुपये में से 58 प्रतिशत (15,281 रुपये), गुजरात में 41,447 रुपये में से 47 प्रतिशत (19,507 रुपये), पंजाब में 34,041 रुपये में से 43 प्रतिशत (14,718 रुपये), झारखंड में 23,875 में से 56 प्रतिशत (13342 रुपये), मध्य प्रदेश में 28,415 रुपये में से 44 प्रतिशत (12,449 रुपये) मानव श्रम पर व्यय होते हैं.


वर्ष 2014-15 में धान की परिचालन लागत अलग अलग राज्यों में 23,875 रुपये (झारखंड) से 54,417 रुपये (महाराष्ट्र) के अंतर तक पंहुचती है.


मक्का – अनाजों के परिवार में मक्का का बहुत महत्व है. ओड़ीसा में मक्का उत्पादन की परिचालन लागत 39,245 रुपये प्रति हेक्टेयर है, इसमें से 59 प्रतिशत हिस्सा (23,154 रुपये) मानव श्रम पर व्यय होता है.


हिमाचल प्रदेश में 21,913 रुपये में से 62 प्रतिशत, गुजरात में 35,581 रुपये में से 57 प्रतिशत, महाराष्ट्र 58,654 रुपये प्रति हेक्टेयर की लागत आती है, इसमें से 26,928 रुपये (58 प्रतिशत) और राजस्थान में 33,067 रुपये में से 58 प्रतिशत और मध्यप्रदेश में 24,518 रुपये में से 47 प्रतिशत खर्च मानव श्रम पर होता है.


मक्का की परिचालन लागत उत्तर प्रदेश में 19,648 रुपये प्रति हेक्टेयर से तमिलनाडु में 59,864 रुपये प्रति हेक्टेयर के बीच बतायी गयी.


गेहूं, धान, चना और मक्का की उत्पादन परिचालन लागत में इतनी विभिन्नता होने के बावजूद, सभी राज्यों के न्यूनतम समर्थन मूल्य एक समान ही तय किया गया, इससे किसानों को अपनी उपज का सही मूल्य नहीं मिल पाया.


संविधान के मुताबिक कृषि राज्य सरकार के दायरे का विषय है, किन्तु वास्तविकता यह है कि विश्व व्यापार संगठन से लेकर न्यूनतम समर्थन मूल्य और कृषि व्यापार नीतियों तक को तय करने का अनाधिकृत काम केंद्र सरकार करती है, इससे राज्य सरकारों को कृषि की बेहतरी के काम करने से स्वतंत्र अवसर नहीं मिल पाये.


बड़े बदलाव तो हम छोड़ दें, विशेषज्ञ और अर्थशास्त्री यह भी नहीं समझ पाये कि देश और समाज को खाद्य सुरक्षा प्रदान करने में किसान और खेती की ही भूमिका होती है, बड़े धनपशुओं की नहीं!






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Comments Wheat MSP of year 1978 on 16-11-2023

Wheat MSP of Year 1978

madhududan on 30-09-2023

Map of wheat 1976 1977 inn

Ch heera singh on 16-04-2023

किसानों का शोषण सभी सरकारें करते आए हैं क्यों 1977 में एक रुपए लीटर डीजल और 1 किलो गेहूं एक रुपए में था और मजदूरी ₹5 की जिसकी 5 किलो गेहूं आता था और आज से देखा जाए तो ₹81 लीटर डीजल और मजदूरी ₹400 प्रतिदिन हो गई है इस हिसाब से 5 किलो गेहूं ₹100 के होते हैं तो मजदूरी 4 गुना हो गई है और डीजल के दाम 81 गुने हो गए इस हिसाब से किसान को लागत का मूल्य कई गुना बढ़ गया है अगर किसान के बारे में सोचा जाए तो हम लागत का मूल्य बढ़ रहा है उससे परेशान नहीं है केवल परेशानी है तो किसान की फसल का उचित मूल्य मिलना हम यह नहीं कहते के जिस रेशा से मजदूरी और अन्य रेट बड़े हैं उस हिसाब से किसान को कोई भी सरकार पैसा नहीं दे सकती बशर्ते किसान को कम से कम मजदूरी के आधे रेट का समर्थन मूल्य मिलना चाहिए और डीजल की तो हम बात ही क्या करें डीजल के भी आधे रेट का समर्थन मूल्य किसान को देना चाहिए क्योंकि किसान एक मेहनती होता है और सारा जीवन अपने मिट्टी की तरह अपने कपड़े रखता है खानपान रखता है उसमें कभी भी मजदूरों जैसी चमक नहीं बनती मैंने अच्छी तरह से देखा है 1978 1980 तक किसी की टीचर की सैलरी ₹200 के लगभग थी और आर्मी के जवान या पुलिस के जवान की सैलरी ₹175 थी गेहूं का रेट लगभग एक रुपए किलो था जिसमें किसी टीचर या जवान की सैलरी 2 कुंटल गेहूं के बराबर की आज उनके सैलरी 50000 से लेकर 11 लाख तक हो गई है इस हिसाब से देखा जाए तो किसान बिल्कुल दलदल में चला गया है 2 कुंटल गेहूं प्राप्त करने वाले लोग की सैलरी आज 30 कुंटल गेहूं प्राप्त कर रहे हैं उस हिसाब से देखा जाए तो किसान कहीं का भी नहीं है एक जमाना था देश के अंदर किसान की पहचान थी और कहावत थी उत्तम खेती मध्यम बान निश्चित चाकरी भीख निदान जब यह व्यवस्था थी भारत देश विश्व में प्रथम श्रेणी का था इसकी पहचान सोने की चिड़िया के रूप में होती थी अगर आज सरकारें किसान को आगे बढ़ाने का काम करें और किसान की उपज का भरपूर मूल्य दें तो देश आज भी सोने की चिड़िया बन सकता है क्यों एहसान एक ईमानदार होता है उसकी ईमानदारी का कहीं कोई तोड़ नहीं देश को भ्रष्टाचारियों ने धृष्टता ने दलदल में खड़ा कर दिया है यह व्यवस्था अगर कुछ मोदी जी से उम्मीदें थी लेकिन सारी व्यवस्थाएं धरी की धरी रह गई ऐसी उम्मीद अब किसी से नहीं की जा सकती 60 साल के लुटेरों ने देश को लूटा लेकिन अब जो समय आ गया है इस देश के ईमानदार किसान तो आगे आने का है इस देश की रखवाली किसान का बेटा जवान ही करता है अगर जवान और किसान की व्यवस्था को जो सरकार आगे बढ़ाएगी उसी सरकार को भारत में सरकार चलाने का अधिकार मिलेगा 1980 तक किसी जीम टीचर की सैलरी ₹200 के लगभग थी और आरवी के जवान या पुलिस के जवान इसलिए क्षेत्र रुपए थी जय हुआ रे लगभग रुपलो था जिसमें इसी टीचर का जवान की सैलरी दो कुंतल के साथी आज उनके सैलरी 50,000 से लेकर 11 क्लास तक हो गई हिसाब से देख रहा था नौकरी 440 दिन की सरकार थी


Arjun Singh Patel on 28-10-2020

MSP of wheat per quintal 1967
Per quintal price of sariya
Primary school teachers salary 196 in U.P.





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