Pracheen Shiksha Pranali Ke Gunn Aur Dosh प्राचीन शिक्षा प्रणाली के गुण और दोष

प्राचीन शिक्षा प्रणाली के गुण और दोष



Pradeep Chawla on 04-09-2018


जीवन के उच्च आदर्शों के मामले में भारत की ख्याति अतिप्राचीन काल से रही है । प्राचीन काल में भारत के विद्यार्थियों ने ऊँचे आदर्शों की प्राप्ति के लिए अपनी जान की बाजी तक लगा दी ।



उन दिनों मानव-जीवन को चार आश्रमों में बांट दिया गया था और हर रस आश्रम के लिए विशिष्ट कर्त्तव्य और नियम निश्चिता थे । जीवन का सबसे पहला और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आश्रम ब्रह्मचर्य आश्रम अथवा विद्यार्थी जीवनकाल कहलाता था ।

प्राचीन काल में विद्यार्थी:



बालकों का विद्यार्थी जीवन लगभग 5 वर्ष की आयु से प्रारम्भ होता था । इसका शुभारम्भ पड़ी-पूजन समारोह के साथ होता था । उस समय बच्चे लकड़ी की एक तख्ती लिखना सीखते थे, जिसे पट्‌टी कहते हैं । लगभग सभी प्रमुख गांवों और शहरो के नजदीक सुविख्यात, विद्वान ओर चरित्रवान अध्यापक रहते थे । वे अपने-अपने स्कूल चलाते थे, जिन्हें आश्रम कहा जाता था ।



लगभग 9 वर्ष की आयु होते ही बालकों को इन अध्यापकों के आश्रम में शिक्षा पाने के लिए योज दिया जाता था । अध्यापकों को गुरु कहा जाता था । प्रत्येक गुरु के आश्रम में एक सीमित संख्या में उन विद्यार्थियों को प्रवेश दिया जाता था, जो अपने गुरु की आज्ञा पर जान तक न्याछावर करने को तैयार हो जाते थे ।



आश्रमों में उन्हें कठिन अनुशासनपूर्ण जीवन बिताना पड़ता था । सभी विद्यार्थियों के साथ एक समान व्यवहार किया जाता था । राजा के पुत्रों तथा सामान्य निर्धन बालकों के बीच गुरु किसी प्रकार का भेदभाव नहीं बरतते थे । विद्यार्थियों को हर प्रकार के ऐशो-आराम से दूर रहकर संयमपूर्ण जीवन बिताना पड़ता था ।

कड़ा अनुशासन:



प्राचीन काल में भारत के विद्यार्थी इन आश्रमों में रहकर विचारों, शब्दों और कार्यों मे ईमानदारी और सच्चाई का व्यवहार करते थे । इस प्रकार अध्ययन करते हुए और अपने गुरु की सेवा करते हुए वे लगभग 16 वर्ष इन आश्रमों में बिताते थे ।



इस समय तक उनकी आयु 25 वर्ष हो जाती थी । विद्यार्थी जीवन समाप्त करने के बाद उन्हें गुरुओं से प्रमाण-पत्र मिलता था और उन्हें गुरु-दक्षिणा देनी पड़ती थी । आश्रम से निकल कर वे चाहे तो शादी करके गृहस्थ जीवन में प्रवेश करते थे अथवा यदि चाहे तो सन्यासी बन सकते थे ।

आधुनिक युग में विद्याथी जीवन:



आज का विद्यार्थी जीवन प्राचीनकाल के विद्यार्थी जीवन से एकदम भिन्न है । आजकल साधारणतौर पर स्कूलों और कॉलेजो में शिक्षा दी जाती है । अध्यापकों को एक निश्चित धनराशि वेतन के रूप में सरकार अथवा स्कूल के प्रबन्धकों की ओर से मिलती है । यदि आवश्यकता पड़े, तो विद्यार्थियों को छात्रावास में भेजा जाता है न कि गुरुओं के आश्रमों में ।




आज का विद्यार्थी प्राचीनकाल के आदर्श आइघपालन और बडे अनुशासन की बात भूल चुका है, जिन गुणो ने प्राचीन भारत को इतना गौरव प्रदान किया था । आजकल ब्रह्मचर्य का पालन भी नहीं किया जाता । स्कूलों और कॉलेजो में धार्मिक और नैतिक शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं की जाती, जिनके सहारे ही विद्यार्थियों के चरित्र को उज्जल बनाया जा सकता है ।



परिणामरचरूप आज के विद्यार्थियो का चरित्र कमजोर और अस्थिर होता है । इस पतन के लिए विद्यार्थियों तथा अध्यापकों को दोष देने के बजाय वर्तमान शिक्षा प्रणाली को दोष देना पड़ेगा । इन परिस्थितियों में विद्यार्थियों की आवश्यकता के अनुकूल उचित शिक्षा नहीं दी जा सकती ।

विद्यार्थि जीवन के आनन्द:



आज की शिक्षा प्रणाली का परिणाम जो भी हो, विद्यार्थी जीवन के आनन्द बड़े विशाल और अनोखे हैं हमे कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं दीखता, जिसे अपने विद्यार्थी काल के चिंतामुक्त और उल्लासमय जीवन की मधुर याद जीवनभर न आती रहे ।



लेकिन स्कूल और कॉलेज छोड़ने के बाद ही हमे इस आनन्द का महत्त्व समझ में आता है । हमारे विद्यार्थी जीवन के छोटे-छोटे सुखद अवसर और स्वार्थहीन मित्रता निश्चय ही हमारे जीवन में अमिट छाप छोड़ जाते है । विद्यार्थी जीवन की मधुर स्मृतियाँ, हमारे समूचे जीवन की अनमोल धरोहर होती हैं




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