Chol Prashasan Ka Varnnan kijiye चोल प्रशासन का वर्णन कीजिये

चोल प्रशासन का वर्णन कीजिये



Pradeep Chawla on 18-10-2018

चोल शासकों ने भारी भरकम उपाधि लेनी शुरू की जैसे- चक्रवर्तीगल। चोल वंश में मृत राजाओं की प्रतिमाएं पूजी जाती थीं। इससे इस बात का संकेत मिलता है कि चोल शासक राज्य की उत्पत्ति के दैवी सिद्धान्त में विश्वास थे। चोलों से पूर्व भारतीय इतिहास में कुषाण राजाओं के बीच यह प्रचलित थी। चोल शासकों का राज्याभिषेक निम्नलिखित स्थानों पर होता था- तंजौर, गंगइकोंडचोलपुरम्, चिदम्बरम् और कांचीपुरम्, जबकि चालुक्य शासकों का राज्याभिषेक पत्तादकल में होता था। इस अवधि में पुरोहित का कार्य एवं पद महत्त्वपूर्ण हो गया। पुरोहित न केवल राजगुरु वरन् समस्त धार्मिक एवं आध्यात्मिक बातों में परामर्श देने के अतिरिक्त राजा का विश्वासपात्र एवं पापमोचक था।


चोल प्रशासन- चोल प्रशासन व्यवस्था एक जटिल नौकरशाही पर आधारित थी। राजा प्रशासन का प्रमुख था। चोल राजाओं के अनेक अभिलेख उस समय की प्रशासन-व्यवस्था पर भी प्रकाश डालते हैं। चोल साम्राज्य के विस्तार के साथ राजा की शक्ति और सम्मान में भी वृद्धि हो गई थी। राजा को असीमित शक्तियां प्राप्त थीं, फिर भी राजा प्रशासन में विभागों के प्रमुख से परामर्श लिया करता था। कुछ चोल राजाओं की मूर्तियां भी मन्दिर में स्थापित की गई और कुछ विशेष मन्दिरों का नाम राजा के नाम पर पड़ा, जैसे तंजौर का राजराजेश्वर मन्दिर।


चोल साम्राज्य में उत्तराधिकार का नियम निश्चित था। राजा अपने जीवन-काल में ही अपना उत्तराधिकारी घोषित कर देता था जिसे युवराज कहते थे। युवराज को प्रशासन का अनुभव कराया जाता था और शासन-कार्य में वह अपने पिता की सहायता करता था। चोल प्रशासन में हम मन्त्रिमण्डल का उल्लेख नहीं पाते। अभिलेखों से पता चलता है कि सिविल सर्विस का संगठन सुव्यवस्थित था और विभागाध्यक्ष अपने विभाग का कार्य नहीं देखता था। अधिकारियों का उच्च वर्ग पेरुन्द्नम एवं निम्न वर्ग सेरुन्द्नम कहलाता था। अधिकारियों को भू राजस्व में दिया जाने वाला वेतन जीविका कहलाता था। एक विशेष अधिकारी ओलइकुट्टम राजा द्वारा जारी आदेशों को क्रियान्वयन होता देखता था। किसी विशेष क्षेत्र की सुरक्षा के लिए शक्तिशाली अधिकारियों को सुरक्षाकर पाडिकावलकूली देना पड़ता था।


आय के साधन- राजा की आय का प्रमुख साधन भूमि-कर था। भूमि-कर को एकत्र करने का कार्य ग्रामसभाएं करती थीं। किसानों को इस बात की सुविधा थी कि वे भूमिकर चाहे नकद दे अथवा अनाज के रूप में। भूमिकर उपज का 1/3 भाग था। विशेष स्थिति, जैसे अकाल पड़ने पर भूमिकर माफ कर दिया जाता था।


राजा की आय के अन्य स्रोत थे- व्यवसाय कर, आयत कर, चुंगी कर, वनों और कारखानों से आय इत्यादि। व्य्व्व की प्रमुख मदें थीं- राजा, राजपरिवार और उसका दरबार, नागरिक प्रशासन, सेना, मंदिर और सार्वजानिक निर्माण तथा धार्मिक अनुदान इत्यादि। भू-राजस्व को कदमईकहा जाता था। राजस्व कर-आयम, सुपारी कर-कडमई, व्यापारिक प्रतिष्ठानों पर कर-कढ़ैइरै, द्वारकर-वाशल्पिरम्, आजीवकों पर कर-आजीवक्काशु, नर-पशुधन कर-किडाक्काशु, वृक्षकर-मरमज्जाडि, गृहकर-मनैइरै, ग्राम सुरक्षा कर-पडिकावल, व्यवसाय कर-मगनमै, तेलघानी कर-पेविर।


सैनिक प्रशासन- चोल राजाओं ने एक विशाल सेना का संगठन किया। सेना के प्रमुख अंग थे- पैदल, घुड़सवार, हाथी और नौसेना। सेना में अनुशासन पर बड़ा जोर दिया जाता था। सेना को नियमित रूप से ट्रेनिंग दी जाती थी और विशेष सैनिक शिविर (कडगम) भी लगाये जाते थे। अश्व सेना के लिये बहुमूल्य अरबी घोड़ों को खरीदा जाता था। इनमें अधिकांश घोडे दक्षिण भारत की जलवायु के कारण मर जाते थे और इस प्रकार राज्य का बहुमूल्य धन विदेशों को चला जाता था।


चोल सेना की एक विशेषता जहाजी बेडे का संगठन था। इस शक्तिशाली जहाजी बेड़े के कारण ही चोल राजाओं ने समुद्र पार अनेक द्वीपों को विजय किया था। बंगाल की खाड़ी एक चोल झील बन गई थी। वर्तमान समय की तरह, उस समय भी सेना में अनेक पद (रैंक) होते थे जैसे नायक, महादण्डनायक इत्यादि। विशेष वीरता दिखाने पर परमवीरचक्र की तरह क्षत्रिय शिखामणि की उपाधि दी जाती थी। यद्यपि सेना में अनुशासन पर जोर दिया जाता था, फिर भी चोल सैनिकों का विजित शत्रुओं के प्रति व्यवहार बहुत बर्बर होता था। स्त्रियों और बच्चों पर भी अमानुषिक अत्याचार किये जाते थे। सेना में अलग-अलग हिस्सों के अलग-अलग नाम थे। राजा की व्यक्तिगत सुरक्षा में पैदल सेना- बडेपेर्रकैक्कोलस, गजारोही दल-कुजिरमल्लर, अश्वारोही दल-कुच्चैबगर, धनुर्धारी दल-बल्लिगढ़, पैदल सेना में सर्वाधिक शक्तिशाली- कैककोलर, भाला प्रहार करने वाला दल- सैंगुन्दर, राजा का अति विश्वसनीय अंगरक्षक- वलैक्कार कहलाते थे। सेना गुल्म एवं छावनियों (कड़गम) में रहती थी। सेना की टुकड़ी का नेतृत्व करने वाला नायक तथा सेनाध्यक्ष महादंडनायक कहलाता था।


प्रादेशिक प्रशासन- चोल साम्राज्य प्रान्तों में विभाजित था जिन्हें मण्डलम् कहा जाता था। चोल साम्राज्य में 8 मंडल थे। मण्डल का प्रशासन करने के लिए किसी राजकुमार या उच्च अधिकारी की नियुक्ति की जाती थी जो राजा के वाइसराय के रूप में कार्य करता था। प्रत्येक मंडल कोट्टम में बंटा हुआ था। कोट्टम नादुओं में विभाजित थे। नादु सम्भवत: आधुनिक जिले के समान था। कई ग्रामों के समूह को कुर्रम कहते थे।


स्थानीय स्वशासन- चोल प्रशासन की प्रमुख विशेषता उसका स्थानीय स्वशासन था। ग्राम स्वशासन की पूर्ण इकाई थे और ग्राम का प्रशासन ग्रामवासी स्वयं करते थे। चोल शासकों से इस अभिलेखों से इस व्यवस्था पर विस्तृत प्रकाश पड़ता है।


व्यवस्था- आर्थिक दंड सामाजिक अपमान पर आधारित होते थे। आर्थिक दंड में काशु लिया जाता था जो संभवत: सोने की मुद्रा थी।


अभिलेखों से प्राप्त जानकारी के अनुसार ग्राम को 30 भागों में विभाजित कर दिया जाता था। निश्चित योग्यता रखने वाले एक व्यक्ति को चुना जाता था। निम्नलिखित योग्यता आवश्यक थी- (1) वह उस ग्राम का निवासी हो। (2) उसकी आयु 35 और 70 वर्ष के बीच हो। (3) एक-चौथाई वेलि (लगभग डेढ़ एकड़) से अधिक भूमि का स्वामी हो। (4) अपनी ही भूमि पर बनाये मकान में रहता हो। (5) वैदिक मन्त्रों और ब्राह्मण ग्रन्थों का सम्यक ज्ञान हो।


निम्नलिखित बातें सदस्यता के अयोग्य घोषित करती थीं-

  1. जो पिछले तीन वर्षों से किसी समिति का सदस्य रहा हो।
  2. जिसने सदस्य के रूप में आय-व्यय का लेखा-जोखा अपने विभाग को न दिया हो।
  3. भयंकर अपराधों में अपराधी घोषित हो।

इस प्रकार की योग्यता रखने वाले 30 भागों में से प्रत्येक में एक व्यक्ति को घड़े में से निकाले हुए पर्चे के आधार पर चुन लिया जाता था। नाम के ये पर्चे किसी बालक द्वारा निकलवा लिए जाते थे। इन सदस्यों का कार्यकाल 1 वर्ष था। इन सदस्यों में 12 स्थायी समिति के, 12 उपवन समिति के और 7 तालाब समिति के लिए चुने जाते थे। समिति को वारियम कहते थे और यह ग्राम सभा के कार्यों का संचालन करती थी। ग्राम सभा के कार्यों के लिए कई समितियां होती थीं।


ग्राम सभा के अनेक कार्य थे। यह भूमिकर एकत्र करके सरकारी खजाने में जमा करती थी। तालाबों और सिंचाई के साधनों का प्रबन्ध करती थी। ग्राम के मन्दिरों और सार्वजनिक स्थानों की देखभाल, ग्रामवासियों के मुकदमों का फैसला करना, ग्राम की सड़कों को बनवाना, ग्राम में औषधालय खोलना, ग्राम के बाजारों और पेठों का प्रबन्ध करना, इत्यादि ग्राम सभा के कार्य थे।


ग्राम सभा के अधिवेशन मन्दिरों में होते थे। केन्द्रीय सरकार गांव के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करती थी। इस प्रकार ग्राम स्थानीय स्वशासन की एक महत्त्वपूर्ण इकाई था।


व्यापारियों से संबंधित हितों की देखभाल हेतु-मणिग्रामम्, वलंजियार, नानादेशी जैसे समूह थे। धार्मिक हित समूहों में मूलपेरूदियार था। यह मंदिरों की व्यवस्था की निगरानी करता था। संपूर्ण साम्राज्य मंडलों (प्रान्तों) में बंटा हुआ था। प्रान्तों का विभाजन वलनाडु या नाडु में होता था। उसके नीचे गांव का समूह कुर्रम या कोट्टम कहलाता था। सबसे नीचे गांव था। ग्राम की स्थिति पट्टे के अनुसार भिन्न प्रकार की होती थी। गांवों की तीन श्रेणियाँ थीं- ऐसे ग्राम सबसे ज्यादा होते थे जिनमें अंतर्जातीय आबादी होती थी एवं जो भू-राजस्व थे। सबसे कम संख्या में ऐसे ग्राम होते थे जो ब्रह्मदेय कहलाते थे एवं इनमें पूरा ग्राम या ग्राम की भूमि किसी एक ब्राह्मण समूह को दी गई होती थी। ब्रह्मदेय से संबंधित अग्रहार अनुदान होता था जिसमें ग्राम ब्राह्मण बस्ती होता था एवं भूमि अनुदान में दी गई होती थी। ये भी कर मुक्त थे, किन्तु ब्राह्मण अपनी इच्छा से नि:शुल्क शिक्षा की व्यवस्था कर सकते थे।


देवदान- ऐसे गांव देवदान कहलाते थे जो मदिरों को दान में दिए गए होते थे। ऐसे गांवों में भू-राजस्व वसूला जाता था किन्तु उसकी वसूली सरकारी अधिकारियों के बजाए मंदिर के अधिकारी करते थे। ग्राम स्तर पर 3 प्रकार की संस्थाएं थीं। साधारण गांव में उर नामक संस्था थी जबकि ब्रह्मदेव या अग्रहार गांव में सभा और ऐसी बस्ती जिनमें व्यापारी निवास करते थे, वहां नगरम नामक संस्था गठित होती थी। वैसे गांव जिनमे ब्राह्मणों एवं गैर ब्राह्मण जनसँख्या निवास करती थी – सभा एवं उर दोनों गठित की जाती थी। परान्तक प्रथम के समय के उत्तरमेरु अभिलेख (919-929) से सभा की कार्यवाही पर प्रकाश पड़ता है। सबसे प्राचीन उत्तरमेरू अभिलेख पल्लव शासक दन्तिवर्मन् के काल का है। सभा एक औपचारिक संस्था थी जो ग्रामीणों की एक गैर औपचारिक संस्था उरार के साथ मिलकर काम करती थी। सभा अपनी समितियों के माध्यम से कार्य करती थी। यह वारियम कहलाती थी। समिति में 30 सदस्य चुने जाते थे। इन 30 सदस्यों में से 12 ज्ञानी व्यक्तियों की एक वार्षिक समिति गठित की जाती थी जो समवत्सर वारियम कहलाती थी। तोट्टावारियम (उपवन समिति), एनवारियम (सिंचाई समिति), पंचभार (पंच बनकर झगड़ों का निपटारा), पोनवारियम (स्वर्ण समिति)। सभा को पेरूगुरी कहा गया है। इसके सदस्यों को पेरूमक्कल कहा जाता था। सन्यासियों एवं विदेशियों की समिति को उदासिकवारियम कहा जाता था। उर की कार्यकारिणी समिति को उलुंगनाट्टार कहा जाता था। प्राय: सभी बैठकें मंदिर के अहाते में होती थीं। ढोल बजाकर लोगों को एकत्रित किया जाता था।






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Comments Kamla on 29-12-2023

Chol rajya ki pramukh visheshtaon ka samalochnatmak vishleshan kijiye

Manisha on 25-12-2023

Chol prashasan ki visheshtaon ka varnan Karen

A on 06-09-2023

Dakshin bhartiye itihas me chelo ke yogdan ko rekhankit kre


Jwab dijiye on 16-04-2023

Chol wansh ke. Chol vansh ke prashasnik pranali ka varnan Karen

sagar on 15-04-2023

kho kho

Birju Kumar Ram on 28-10-2022

Chol ka prashasan ka varnan Karen

Rohit Kumar on 23-08-2022

Chholo ki prasaasnik vyvastha ka vivran dijiye


Ishu Anant on 31-05-2022

चोल कालीन ग्राम प्रशासन व्यवस्था पर प्रकाश डालिए



rashid on 16-05-2020

YouTube owner

Nitin khatik on 23-09-2020

Cholo ke Adhin sthaniye prasasan ka vardab krw

Manisha agri on 10-12-2020

Hamen samajh mein Nahin a raha hai is answer ko thoda chhota Karke bataiye please

Khushi on 17-01-2021

chalVansh ki Sanskriti per sankshipt tippani likhiye


Hi on 06-02-2021

Hi

Pavan Kya he on 08-05-2021

Chol prashanik vavtha ka vanarn kijaa

Dinesh pawar on 28-06-2021

Delhi saltanat ke patan ke Karan ka varnan kijiye

Akriti on 02-08-2021

चोल प्रशासन की विशेषताओं का वर्णन करो

K on 10-11-2021

भारत में 1947 में भारतीय स्थानान्तरण

rashid on 06-12-2021

chol prashasan




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