Nagrikta Ke Sidhhant नागरिकता के सिद्धांत

नागरिकता के सिद्धांत



GkExams on 17-11-2018

प्रस्तुत पाठ के विवेच्य विषय निम्नलिखित हंै:


1. नागरिकता की अवधारणा


2. नागरिक समाज-संबंधी विचार


3. असिमता क्या है?


जब हम अपने को भारतीय अथवा अन्य किसी राष्ट्र के अंग होने का दावा करते हैं तो हमारा आशय क्या होता है? सामान्यत: इसका अर्थ होता है कि हम उसके 'नागरिक' हैं अथवा उस राष्ट्र की जनता से निर्मित नागरिक समाज के अंग है और हमारी असिमता उस राष्ट्र अथवा समाज से जुड़ी हुर्इ है।


नागरिकता की अवधारणा


प्रश्न है, हम किस आधार पर अपने को नागरिक कहते हैं अथवा किस आधार पर किसी राज्य की सदस्यता मानी जानी चाहिए? क्या इसे कतिपय विशिष्ट सिद्धान्तों पर आधारित होना चाहिए और यदि 'हां' तो वे सिद्धान्त क्या हैं? ये सारे प्रश्न नागरिकता के स्वरूप और राज्य को संघटित करने वालों के आपसी संबंधों की प्रकृति के बारे में जांच-पड़ताल का तकाजा रखते हैं। यथार्थत:, किसी राज्य में नागरिकता का मूल स्वरूप उस राज्य और समाज के साथ व्यकित के सामाजिक और राजनीतिक संबंधों के स्वरूप द्वारा निर्धारित होता है। व्यकित को अपने सामाजिक और राजनीतिक अधिकारों, कत्र्तव्यों और दायित्वों का बोध होता है और यही बोध उसे उस राज्य की नागरिकता का अहसास कराता है। ग्रीसवासियों के समय से लेकर पिछले 2500 वर्षों में राजनीतिक और दार्शनिक साहित्य में नागरिकता की अवधारणा परिवर्तित और विकसित होती रही है। अरस्तु ने बहुत पहले कहा था कि नागरिकता का स्वरूप एक ऐसा प्रश्न है जिस पर प्राय: विवाद उठते रहे हैं और किसी एक परिभाषा पर आम सहमति नहीं रही है। ब्लैकवेल विश्वकोश ने इसे 'राज्य की पूर्ण और उत्तरदायी सदस्यता' की संज्ञा दी है। आमतौर पर नागरिकता का सरल अर्थ है राज्य के राजनीतिक समुदाय में भरपूर सहभागिता। आधुनिक राष्ट्र-राज्यों में सहभागिता का अर्थ वैधिक सदस्यता मात्र नहीं है (उदाहरणार्थ, ऐसी सदस्यता जो विदेशी यात्रा के लिए परिपत्र द्वारा धोतित होती है) बलिक सार्वभौम वयस्क मताधिकार के तहत चुनावों में भाग लेने और वैधिक शासन के अधीन रहने से भी है। आधुनिक काल में नागरिकता की अवधारणा सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समता की अवधारणाओं और सामाजिक कल्याण तथा व्यकितगत स्वतंत्रता से जुड़ी हुर्इ है। हीटर के अनुसार, नागरिकता की अवधारणा प्राचीन यूनान में व्यकितयों की हैसियत में विभेदीकरण के साधन के रूप में पनपी, जबकि आधुनिक काल में यह उनकी हैसियत में समानता लाने का साधन है। उसका यह भी कहना है कि 'आधुनिक नागरिकता के मूल तत्त्व राजनीतिक सहभागिता, सामाजिक एवं कल्याणकारी अधिकार, सांप्रदायिक असिमता और नागरिक दायित्व हैं।


नागरिकता का ग्रीक सिद्धान्त


नागरिकता के विचार का अभ्युदय ग्रीसवासियों के साथ हुआ। उनकी दृषिट में समुदाय के राजनीतिक जीवन में सहभागिता मनुष्य के बौद्धिक एवं आध्यातिमक विकास का एक निर्णायक तत्त्व है। अरस्तु ने अपनी पुस्तक 'पालिटिक्स' में कहा है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और उसे अपने व्यकितत्व के विकास के लिए राजनीतिक मामलों में भाग लेना आवश्यक है। उसकी राय में नागरिक वह व्यकित है जिसे विमर्शी और न्यायिक कार्य में भाग लेने का अधिकार प्राप्त है। लेकिन उसने यह भी निर्धारित किया कि प्रत्येक व्यकित में नागरिक बनने की अपेक्षित योग्यता नहीं होती, अत: विमर्शी और न्यायिक मामलों में भाग लेने के लिए उसमें कुछ विशेष अर्हताएं होनी चाहिए। शेष लोगों का चाहिए कि वे शासित होकर संतुष्ट रहें। कुछ लोग अपने पेशे के कारण सदगुण भरा जीवन नहीं जी सकते। इसलिए, प्रत्येक व्यकित को नागरिक नहीं माना जा सकता। ग्रीक प्रणाली में एक नागरिक को कुछ विशेष कृत्यों का निष्पादन करना पड़ता था जिनमें एक था कार्यकारी प्राधिकार के उपयोग में सहभागिता। नागरिकों की संख्या सीमित थी और महिलाएं विदेशी, ग्रामीण क्षेत्रों के कृषक इत्यादि इससे बाहर थे। साथ ही, सिर्फ नागरिक ही पूर्ण स्वामित्व वाली संपत्ति रखने के अधिकारी थे और राजनेताओं, प्रशासकों, न्यायाधीशों, जूरी-सदस्यों और सैनिकों के पेशे अपना सकते थे।


नागरिकता के संबध में रोमन अवधारणा


रोमवासियों ने नागरिकता की अवधारणा तो अवश्य विकसित की और इसे अधिक समतामूलक भी बनाया, लेकिन भेदभाव का अंत नहीं कर सके। उदाहरणस्वरूप, विशेषाधिकारों से वंचित विदेशी, जो रोम के अधिवासी थे, व्यापारी और वणिक वर्ग को निम्नस्तरीय नागरिकता प्राप्त थी और उन्हें पिलबीअन (निम्नवर्गीय) कहा जाता था। इन पिलबीअनों के द्वारा विरोध के बाद टवेल्व टेबल्स (विधि संहिता) तैयार किए गए जो कर्इ सदियों तक नागरिकों के अधिकारों और दायित्वों के आधार बने रहे। नागरिकों के विशेषाधिकार निम्नलिखित थे:


(1) सेना में सेवा का अधिकार


(2) विधि निर्माण सभा में मतदान का अधिकार


(3) सार्वजनिक पदों के लिए अर्हता


(4) कार्यवाही और अभ्यर्थना का वैधिक अधिकार और


(5) रोम के अन्य नागरिकों के साथ लेन-देन का अधिकार


इस प्रकार, नागरिकों को नियोजन और कारोबार के अधिकार प्राप्त थे, जबकि गैर-नागरिक इससे वंचित थे। चौथी सदी में रोमवासियों ने अपने सारे विजीत प्रदेशों के सभी गैर-गुलाम पुरूषों को रोमन नागरिकता प्रदान कर दी। रोमन नागरिकता कानून के समक्ष समान नागरिकता प्रदान करती थी। इससे उन्हें पराजित लेागों की वफादारी हासिल हो जाती थी तथा नागरिकता और उसके फलस्वरूप कानून की दृषिट में समानता देकर उन्हें (पराजित लोगों को) प्रजाति, धर्म, आर्थिक सिथति आदि के आधार पर किए जाने वाले भेद-भाव से मुक्त कर देते थे।


आगे चलकर रोमन सभ्यता पतनोन्मुखी हो गर्इ और नागरिकता की संवैधानिक गारंटी क्षीण होने लगी तथा वर्ग चेतना बलवती हो गर्इ जिसके फलस्वरूप अधिक संपन्न वर्ग अपने साधन और सत्ता का इस्तेमाल कर कानून का प्रत्यक्ष रूप से उल्लंघन करने लगे। भूमिपति और सैनिक वर्ग काफी ताकतवर बन गए।


पुनर्जागरण काल में नागरिकता


रोमन साम्राज्य के पतन के बाद रोमनकाल में पनपी लोकतांत्रिक नागरिकता की परंपरा शताबिदयों तक लुप्त रही। अंतत: पुनर्जागरण में यानी तेरहवीं और चौदहवीं सदी में यूरोप में मैकियावली और बोदां जैसे विचारकों ने लोकतांत्रिक राज्य और नागरिकता के विचार को पुनर्जीवित किया। मैकियावली का मानना था कि सरकार का सर्वोत्तम रूप गणतंत्र है जिसमें राज्य सीधे तौर पर जनता द्वारा निर्देशित होता है। निश्चय ही उसने इसके लिए जनता में सदगुण का एक न्यूनतम स्तर निर्धारित किया। उसके अनुसार ये सदगुण निम्नलिखित हंै:


(1) राज्य के आंतरिक और बाहय अव्यवस्था से बचाने के लिए आवश्यक पुरूषोचित एवं सामरिक गुण और,


(2) देशभकित, सार्वजनिक र्इमानदारी और स्वच्छता के गुण।


उसने यह भी कहा कि नागरिकों को चाहिए कि वे राज्य को निरंकुश शासक की अधीनता से बचा कर रखें। फ्रेंच दार्शनिक बोदाँ ने नागरिकता के लिए किसी प्रकार की अर्हता के विचार को ठुकरा दिया। उसके अनुसार, 'प्रजा और संप्रभु के बीच पारस्परिक दायित्व -बोध ही व्यकित को नागरिक बनाता है क्योंकि इसी के कारण व्यकित की आस्था और आज्ञाकारिता के बदले में संप्रभु उसे परामर्श, सहायता, प्रोत्साहन और संरक्षण प्रदान करता हैं। इस तरह, बोदाँ ने उस युग में नागरिकता के संबध में एक नर्इ अवधारणा प्रस्तुत की जिसमें सभी नागरिक संपत्ति, शिक्षा, जाति, लिंग इत्यादि आधार पर बगैर किसी भेद-भाव के एकल वैधिक प्रणाली के अधीन जीवन-यापन करते हों।


नागरिकता का उदारवादी सिद्धान्त


इसमें संदेह नहीं कि आधुनिक नागरिकता की नींव पाश्चात्य उदारवादी परंपरा में रखी गर्इ और जैसे-जैसे राजतंत्रीय सामंतवादी नियंत्रण के स्थान पर मौलिक अधिकारों, स्वतंत्रताओं और एक संप्रभु राज्य की धारणा बलवती होती गर्इ वैसे-वैसे आधुनिक नागरिकता की नींव सुदृढ़ होती गर्इ। अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी में अनेक कारकों ने आधुनिक नागरिकता के सुदृढ़ीकरण में महत्त्वपूर्ण योगदान किया। ऐसे कारकों में प्रमुख हंै, राष्ट्रवाद का अभ्युदय, राष्ट्र-राज्यों का सुदृढ़ीकरण, औधोगीकरण और पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का प्रसार, शहरी श्रमिक वर्गों में अधिकार-बोध और उनके आंदोलन, समाजवादी सिद्धान्तों का प्रतिपादन और आंदोलनों का संचालन, इत्यादि। उपयोगितावादियों, उदारवादी आदर्शवादियों और सामाजिक लोकतंत्रवादियों ने भी इसमें महत्त्वपूर्ण योगदान किए। बेंथम और मिल जैसे उपयोगितावादियों ने अपनी नागरिकता संबंधी अवधारणा में तीन मानदंडों पर बल दिया- वैयकितक स्वतंत्रता, राजनीतिक सहभागिता और संपत्ति का न्यायोचित संविभाजन। 'अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख' के अपने उपयोगितावादी सिद्धान्त को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने दावा किया कि उपयोगिता का अधिकतमीकरण सिर्फ नागरिकों के मताधिकार पर आधारित लोकतांत्रिक प्रणाली में ही संभव है। उनके मतानुसार, जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि नागरिकों के हित में सर्वोत्तम निर्णय लेगें। यधपि जे. एस. मिल दार्शनिक दृषिट से लोकतांत्रिक नागरिक के प्रतिबंधों और कर्तव्यों के साथ व्यकितगत स्वतंत्रता के संभावित टकराव के प्रति आशंकित था और उसे यह भी चिंता थी कि नागरिकों के प्रतिनिधिमूलक लोकतंत्र में निम्नस्तरीय बहुसंख्यक समुदाय विवेकशील और बुद्धिमान लोगों पर भारी पड़ सकता है। उसका विश्वास था कि जनता का विशाल भाग स्वार्थी, नागरिक दायित्व-बोध से रहित और संपूर्ण समाज के लिए सोचने में असमर्थ होता है। ऐसी सिथति में अगर नेताओं का चुनाव बहुमत से होता है तो आवश्यक नहीं कि सर्वोत्तम लोग ही चुने जाएंं इससे वैयकितक स्वतंत्रता के उल्लंघन और निरंकुशता का खतरा बना रहता है। इसलिए वह अनेक प्रतिबंधों के साथ मताधिकार पर आधारित लोकतांत्रिक नागरिक के पक्ष में था और मध्यवर्ग, जिसे वह बौद्धिक दृषिट से श्रेष्ठ मानता था, का प्रभाव बढ़ाना चाहता था। उसने संपत्ति के अधिक न्यायोचित वितरण और श्रमिकों की सहभागिता की भी हिमायत की।


आगे चलकर टी. एच. ग्रीन जैसे उदारवादी विचारक ने सभी नागरिकों को अच्छा जीवन सुलभ कराने हेतु सामाजिक कल्याण के बुनियादी न्यूनतम सुविधाएं उपलब्ध कराने पर जोर दिया और इसे नागरिकता का सारतत्त्व माना। राज्य का उíेश्य नागरिकों के बेहतर जीवन-स्तर के अनुकूल वातावरण बनाना है। वह मानता था कि आधारभूत न्यूनतम जीवनस्तर के अभाव और गरीबी में व्यकित के लिए नागरिकता का कोर्इ अर्थ नहीं रह जातां लेकिन उसने यह भी चेतावनी दी कि राज्य को इतना अधिक हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए जिससे पूंजीवादी और संपत्ति-आधारित व्यवस्था निष्फल हो जाए अथवा व्यकित की स्वतंत्रता में बाधा पड़ने लगे। इस प्रकार, बेंथम और मिल और आरंभिक उदारवादियों से लेकर बीसवीं सदी के उदारवादियों और कल्याणकारी राज्य के समर्थकों तक आते-आते नागरिकता का काफी अर्थ विस्तार हुआ और अंतत: इस सिद्धान्त को मान्यता मिली कि आधारभूत भरण-पोषण की सुविधा के बगैर नागरिकता की अवधारणा निरर्थक है। इसके साथ ही प्रत्येक नागरिक के अपने राष्ट्र-राज्य के प्रति दायित्वों को पूर्णत: राष्ट्रवादी परिप्रेक्ष्य में विकसित किया गया तथा स्वतंत्रता तथा नागरिकता के आरंभिक आत्म-केनिद्रत उदारवादी विचार को त्याग दिया गया। बीसवीं सदी में उदारवादी सिद्धान्त ने नागरिकता को समतामूलक दर्शनशास्त्र से जोड़ते हुए महिलाओं समेत सबों के लिए संपत्ति का स्वामित्व और सार्वभौम वयस्क मताधिकार को उसकी मुख्य विशेषताओं में शामिल कर लिया। नागरिकता की आर्थिक और सामाजिक अवधारणाओं की इंग्लैंड और अमेरिका जैसे अनेक देशों में स्वीकृति प्रदान की गर्इ।


नागरिकता की माक्र्सवादी अवधारणा


उदारवादी परंपरा ने इस बात पर तो चिंता जरूर जाहिर की कि यदि किसी व्यकित की बुनियादी जरूरतें पूरी नहीं हो पाती तो उसके लिए नागरिकता बेमानी है, मगर माक्र्सवादी विश्लेषण के अनुसार उसने वास्तविक नागरिकता का अनुभव करने की क्षमता की कमी के मूल कारण पर ध्यान केनिद्रत नहीं किया और वह मूल कारण है वर्गों की विधमानता माक्र्सवाद के अनुसार उदारवादी प्रणाली में सभी चाहें जितने भी प्रयास किए जाएं, सच्ची नागरिकता तब तक संभव नहीं है जब तक समाज में वर्ग-विभेद विधमान है। माक्र्सवादियों का दावा है कि उदारवादी लोकतंत्र में नागरिकता उच्चतर वर्गों द्वारा अपनी विशिष्ट हैसियत बनाए रखने के औजार के सिवा और कुछ नहीं है और मूलत: यह सर्वहारावर्ग के हितों के विरुद्ध है। माक्र्स ने उदारवादी लोकतांत्रिक नागरिकता को 'बुजर्ुआ नागरिकता' कहा था। उसका मानना था कि लोकतांत्रिक राज्य चाहे जितना दावा कर ले कि वह जन्म, पद, शिक्षा और व्यवसाय के आधार पर भेद-भाव का उन्मूलन करता है क्योंकि कानून की दृषिट में सभी बराबर हैं और सार्वभौम वयस्क मताधिकार के कारण सभी को मतदान का अधिकार प्राप्त होता है, लेकिन हकीकत यही है कि उदारवादी लोकतांत्रिक राज्य गरीबी तथा शिक्षा और आय में असमानता को कायम रखता है और इन असमान सिथतियों के फलस्वरूप यह वास्तविक नागरिकता को प्रश्रय देने में असमर्थ रहता है क्योंकि बुनियादी आवश्यकताओं के पूरा नहीं होने और अवसरों के समान रूप से उपलब्ध नहीं होने की सिथति में सच्ची नागरिकता बेमानी हो जाती है। इसीलिए माक्र्स ने एक ऐसी सामाजिक क्रांति की हिमायत की जो वर्ग-विभाजन का उन्मूलन कर उदारवादी लोकतांत्रिक राज्य में पैदा हुर्इ विषमताओं को दूर देगी। उसके अनुसार वर्ग-विभाजन के उन्मूलन के साथ नागरिक होने की सिथति ही आवश्यक हो जाएगी क्योंकि तब ऐसी कोर्इ राजनीतिक अथवा वैधानिक संस्था नहीं रह जाएगी जिसके साथ व्यकित को हमेशा समझौता करना पड़े अथवा उसके अधीन रहना पड़े।


मार्शल का नागरिक-संबंधी सिद्धान्त


टी. एच. मार्शल ने इस संबंध में एक रोचक सिद्धान्त प्रस्तुत करते हुए कहा है कि नागरिकता की अवधारणा स्थैतिक न होकर उदारवादी पूंजीवादी समाज में लगातार विकसित होती रही है। अपनी पुस्तक 'सिटिजनशिप एेंड सोशल क्लास' (नागरिकता और सामाजिक वर्ग) में उसने एक पूंजीवादी कल्याणकारी राज्य में नागरिकता की अवधारणा की खोज की और दावा किया कि ऐतिहासिक विकास-क्रम में उदारवादी पूंजीवाद का एक सामाजिक प्रणाली का रूप धारण कर लेने और सामाजिक संरचना के विकसित होने के साथ नागरिकता की अवधारणा में भी बदलाव आया है। आरंभ में यदि पूंजीवाद अधिकारों की व्यवस्था के तहत बाजार की अर्थ-व्यवस्था और संपन्न वर्ग का हिमायती था तो आगे चलकर इसने ऐसी व्यवस्था की वकालत की जो बाजार- आधारित अर्थव्यवस्था का विरोधी होने के साथ ही संपत्तिहीनवर्ग का समर्थक भी था। चूंकि नागरिकता और वर्गीय विषमता की अवधारणाएं समय पाकर परस्पर असंगत हो गर्इ, इसलिए उनमें सामंजस्य लाने के प्रयास जारी रहे। जैसे-जैसे नागरिकता की अवधारणा से जुड़े अधिकारों और कानून की नजर में समानता का दायरा बढ़ता गया, उच्चतर वर्ग द्वारा संचालित और शासित समाज में श्रमिक वर्ग का अलगाव और वर्ग-संघर्ष की तीव्रता में कमी आती गर्इ। मार्शल के विश्लेषण के अनुसार एक सिद्धान्त के रूप में नागरिकता सामंतवादी राजतंत्रीय प्रणाली के पूंजीवादी प्रणाली में रूपांतरण के साथ विकसित हुर्इ। इस प्रणाली में नए सौदागरों और उधोगपतियों के बुजर्ुआ वर्ग भूमिपतियों, राजाओं और राजकुमारों की तुलना में अधिक शकितशाली हो गए। वे राजतंत्रीय और भूमिपति वर्ग के साथ सामाजिक हैसियत और राजनीतिक सत्ता में समानता की मांग करने लगे और इसी समानता की तलाश में उन्होंने लोकतांत्रिक नागरिकता के विचार ओर इससे जुड़ी समानता की भावना को जोरदार समर्थन किया। इस प्रकार यूरोप में नए उदारवादी लोकतंत्र में नागरिकता का अर्थ संपत्ति के अधिकार और वैयकितक स्वतंत्रता, जो यूरोप में नए बुजर्ुआ वर्ग के मुख्य मुíे थे, के मामलों में सबको कानून की नजर में एक जैसा संरक्षण प्रदान करना हो गया। नागरिकता के संबंध में विकसित भावना ने जहां एक ओर सामंती वर्ग और उनके हितों को कमजोर किया वहीं दूसरी ओर इसने नए बुजर्ुआ वर्ग को संरक्षण भी प्रदान किया क्योंकि नव पूंजीपति वर्ग ऐसे नागरिक अधिकारों से लैस होना चाहता था जो मुक्त बाजार-आधारित अर्थव्यवस्था को प्रश्रय दे ताकि वे अपने धन में अधिकतम वृद्धि कर सकें। उन्नीसवीं सदी में समाजवादी आन्दोलन समेत अनेक कारकों के परिणामस्वरूप शहरी श्रमिक वर्ग को कुछ राजनीतिक अधिकार, जिनमें चुनावों में मतदान का अधिकार भी शामिल था, प्रदान किए गए और उनके लिए कुछ विशेष नियम भी लागू किए गए। चूंकि उन्हें मताधिकार के उपयोग के द्वारा अपनी दशा में सुधार लाने का अनुभव नहीं था, इसलिए श्रमिक वर्ग ने अपने संगठन बनाए और उन संगठनों के माध्यम से अपनी आर्थिक और सामाजिक हैसियत के लिए अनेक अधिकार प्राप्त किए। इन्हीं श्रम-संगठनों के माध्यम से आन्दोलन का मार्ग अपना कर श्रमिक वर्ग ने अपना यह दावा सुदृढ़ किया कि नागरिक के रूप में वे कतिपय सामाजिक अधिकारों के हकदार हैं।


बीसवीं सदी में नागरिकता की अवधारणा में सामाजिक अधिकारों को समाहित किए जाने के फलस्वरूप पूंजीवादी विचारधारा के साथ इसकी सीधी टक्कर हो गर्इ, क्योंकि सामाजिक अधिकार के उदगम-स्रोत समानता की अवधारणाएं है जबकि मुक्त बाजार वाली पूंजीवादी अर्थव्यवस्था असमानता और असितत्व के लिए संघर्ष में विजेताओं के प्रभुत्व स्थापन पर। सामाजिक नागरिकता के उदभव का अर्थ यह था कि पाश्चात्य देशों में बुनियादी आवश्यकताओं -विशेष रूप से शिक्षा और स्वास्थ्य- समेत न्यूनतम पारिश्रमिक, काम के न्यूनतम घंटो, न्यूनतम कार्यदशाएं, व्यावसायिक सुरक्षा और कार्यस्थल पर दुर्घटना होने पर मुआवजे के लिए आवश्यक वैधानिक प्रावधान किए गए।


पूंजीपति वर्ग की मंशा थी कि वह अधिक से अधिक मुनाफा कमाए और कर बहुत कम अथवा बिल्कुल नहीं दे। दूसरी ओर सामाजिक नागरिकता से जुड़े कार्यों के लिए सरकार को भारी रकम की जरूरत थी और यह उच्चतम दर पर कराधान की अपेक्षा रखता था। इसलिए, सकारात्मक उदारवादियों द्वारा समर्थित पूंजीवादी कल्याणकारी राज्य में इन दो परस्पर विरोधी हितों में संतुलन कायम करना राज्य के लिए कठिन कार्य था, लेकिन उन्होनें यत्नपूर्वक श्रमिक वर्ग के अलगाव और असंतोष जिसके बारे में माक्र्स ने भविष्यवाणी की थी कि यह क्रांति को जन्म देगा और उसकी परिणति वर्ग-विभेद के उन्मूलन में होगी, को कम किया। इस तरह, सामाजिक अधिकारों को तरजीह देने वाली नागरिकता की नर्इ अवधारणा ने वर्ग प्रणाली द्वारा निर्मित विषमताओं को दूर नहीं किया बलिक उसमें एक नए प्रकार की प्रणाली जोड़ दी जो एक ओर नागरिकता से जुड़े अधिकारों की समतामूलक प्रणाली को प्रोत्साहन देती है तो दूसरी ओर वर्ग और सत्ता को भी बनाए रखती है।


एंटोनी गिंडेस नामक विचारक की राय में नागरिकता की अवधारणा का विकास शासक राज्य और शासित नागरिकों के बीच आदान-प्रदान के संबंध के फलस्वरूप हुआ है। उसके अनुसार नागरिकता की भूमिका के विस्तार में वर्ग-संघर्ष ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभार्इ है। ऐतिहासिक दृषिट से प्रथम संघर्ष बुजर्ुआ और सामंत वर्ग के बीच हुआ और दूसरा बुजर्ुआ वर्ग के विरुद्ध श्रमिक वर्ग का। बुजर्ुआ और सामंती प्रणाली के बीच संघर्ष के फलस्वरूप राज्य अर्थव्यवस्था से अलग हो गया, नागरिक एवं राजनीतिक अधिकार प्रतिषिठत हुए और स्वतंत्रता तथा समानता को सुनिशिचत करने हेतु लोकतंत्र की उत्पत्ति हुर्इ। बुजर्ुआ वर्ग के विरुद्ध श्रमिक वर्ग के अभ्युदय के फलस्वरूप श्रमिकों को बुनियादी आर्थिक अधिकार हासिल हुए और कल्याणकारी राज्य की स्थापना हुर्इ। गिडेंस का यह भी मानना था कि श्रमिकों द्वारा हासिल किए गए सामाजिक और आर्थिक अधिकार महज नागरिक और राजनीतिक अधिकारों के विस्तार नहीं थे, अपितु श्रमिकों द्वारा अपनी दयनीय दशाओं में सुधार लाने के लिए अपने को शकित संपन्न बनाने के प्रयास भी थे।


नागरिक समाज संबंधी विचार


नागरिक समाज की धारणा वस्तुत: काफी पुरानी है,लेकिन पिछले दशक में इसके पुन: लोकप्रिय होने के कारण है विश्व स्तर पर हो रहे राजनीतिक घटनाक्रम, खासकर पूर्वी यूरोप में पूर्व के साम्यवादी देशों के पतन के बाद के घटनाक्रम। इसका एक अन्य कारक भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। हाल के वर्षों में राज्येतर तत्त्व, खासकर स्वैचिछक संगठन और आन्दोलन, सार्वजनिक नीतियों के निर्माण और कार्यान्वयन में प्रभावशाली भूमिका निभाने लगे हैंं। यथार्थ में, आमतौर नागरिक समाज से अनेक ऐसी सामाजिक और राजनीतिक शकितयों का बोध होता है जो राज्य के सीधे नियंत्रण से बाहर है। ऐसी शकितयां आर्थिक, सांस्कृतिक, पर्यावरणीय तथा ऐसे ही अन्य क्षेत्रों से संबद्ध होती हंै। कहा जा सकता है कि नागरिक समाज के तीन प्रमुख स्रोत हंै- अर्थव्यवस्था, समाज और संस्कृति। पाश्चात्य जगत में निम्नलिखित मत नागरिक समाज पर काफी प्रभावशाली रहे हंै:


(1) जान लाक का मत,


(2) वाणिजियक समाज के संबंध में स्काटलैंड के सिद्धान्तकारों के विचार, और


(3) नागरिक समाज के संबंध में हीगेल का मत।


अन्य महत्त्वपूर्ण मतों में कार्ल माक्र्स की नागरिक समाज की समीक्षा और माक्र्सवादी विचारक ग्रास्की द्वारा उसके परिष्कार उल्लेखनीय हैं।


जान लाक - नागरिक और प्राकृतिक समाज


अपने सामाजिक संविदा के सिद्धान्त का अनुसरण करते हुए जान लाक व्यवसिथत राजनीतिक समाज को नागरिक समाज मानता था। उसके अनुसार, व्यकितयों के पास प्राकृतिक अधिकारों के होने की सिथति में तीन बातें होती हंै:


(1) कानून बनाने वाला कोर्इ प्राधिकारी नहीं होता,


(2) उन्हें लागू करने वाला और


(3) अपराधियों को दंड देने वाला कोर्इ प्राधिकारी नहीं होता। लेकिन, जब व्यकित सामूहिक तौर पर अपने प्राकृतिक अधिकारों को राज्य अथवा समुदाय को इसलिए समर्पित कर देतें हंै ताकि उसके द्वारा उनके जीवन, स्वतंत्रता और संपत्ति के बुनियादी अधिकार संरक्षित रह सके तो कहा जा सकता है कि उन्होंने एक नागरिक समाज का निर्माण कर लिया है। इस नागरिक समाज के कार्य हंै, कानून बनाना, उन्हें लागू करना और उनका उल्लंघन करनेवालों को दंडित करना। इस प्रकार, लाक के अनुसार, नागरिक समाज प्राकृतिक अवस्था के विरुद्ध होता है, क्योंकि यह स्थायी कानूनों, न्यायाधीशों और प्रभावी बाध्यकारी सत्ता वाला व्यवसिथत समुदाय होता है। मानव प्राणी सभ्य, शिष्ट और अनुशासित रहें, इसके लिए नागरिक समाज का होना आवश्यक है। इसके अलावा कुछ अन्य न्यूनतम शर्तों का पालन भी आवश्यक है, यथा- प्रतिनिधिमूलक सरकार, संपत्ति का अधिकार तथा धार्मिक अधिकारों के प्रति सहिष्णुता। लेकिन लाक की स्पष्ट मान्यता है कि नागरिक समाज और राज्य एक दूसरे से भिन्न हैं। उसके अनुसार, राज्य एक न्यासी सत्ता है जो नागरिक समाज के न्यास पर निर्भर करता है। यदि राज्य निरंकुश अथवा गैरजवाबदेह ढंग से काम करने लगे और व्यकितयों के अधिकार में कटौती करने लगे तो नागरिक समाज को चाहिए कि उसके सीमोल्लंघन पर रोक लगाए। इस प्रकार, लाक दो प्रकार के अनुबंधों का उल्लेख करता है: एक, नागरिक समाज के सदस्यों के बीच तथा दूसरा, सरकार के निर्माण के लिए। एक अनुबंध- राज्य के लिए - के विघटन का अर्थ दूसरे अनुबंध- नागरिक समाज के सदस्यों के बीच- का विघटन नहीं है। लाक ने राज्य की सत्ता को सीमित रखने के दो उपाय सुझाए:


(1) राज्य के पास ऐसे भौतिक संसाधन होने चाहिए जिनके जरिए वह समाज के अन्य संवर्गों को आतंकित कर सके और (2) कतिपय नैतिक नियमों को, जो राज्य और अन्य नागरिक निकायों के कृत्य का निर्धारण करते हैं, संवैधानिक आधार पर प्रदान करना। अन्य सामाजिक निकाय इसलिए आवश्यक है, क्योंकि सामाजिक जीवन के लिए अनेक प्रकार के क्रिया कलाप अपेक्षित हैं और राज्य मानव प्राणी के सारे लक्ष्यों की पूर्ति का उपयुक्त संगठन नहीं है। इस तरह, राज्य के साथ-साथ अन्य सामाजिक निकायों और संघों का होना आवश्यक है और ये अन्य समूह ही नागरिक समाज के घटक हैं। नागरिक समाज के ये समूह राज्य पर नियंत्रण रखते हैं ताकि वह व्यकित के क्षेत्र में अतिक्रमण नहीं कर सके।


वाणिजियक समाज के संबंध में स्काटलैंड के सिद्धान्तकारों का विचार


अठारहवीं सदी में हचिसन, एडम फग्र्यसन, एडम सिमथ जैसे विचारकों, जो स्काटिश सिद्धान्तकार के रूप में जाने जाते हैं, ने यूरोप और इंग्लैण्ड में विकसित होते नव पूंजीवाद की व्याख्या करने और उसे उचित ठहराने के लिए नागरिक समाज के संबंध में अपने विचार व्यक्त किए। उनका कहना था कि मुनाफा, धन और द्रव्य कमाने का लक्ष्य इतना तर्कसंगत और विवेकपूर्ण है कि उस पर राज्य द्वारा वैधिक न्याय व्यवस्था के तहत किसी प्रकार का हस्तक्षेप अथवा रोक अनुचित है। उनकी दृषिट में ऐसा नागरिक समाज जो वाणिजियक गतिविधियों पर ध्यान केंदि्रत करता है, एक उच्चतर समाज है और सभ्यता का उच्चतर स्वरूप है। इसका कारण यह है कि यह सैनिक विजय को अपना लक्ष्य नहीं बनाता, क्योंकि ऐसे अभियान की परिणति विध्वंस में होती है। इस तरह का नागरिक समाज कला और विज्ञान को भी प्रोत्साहित करता है।


इसके अतिरिक्त, इसने भौतिक सुख-सुविधा के सामानों के उत्पादन की वृद्धि में सहायता की और आत्म नियंत्रण एवं शिष्ट आचरण पर आधारित व्यवसिथत एक समाज का निर्माण आसान हो गया। उन्होनें नागरिक समाज को राज्य का सहगामी ही नहीं एक सभ्य समाज के रूप में भी देखा।


स्काटिश सिद्धान्तकारों ने वाणिजियक ढांचे को नागरिकों के अधिकतम हित-साधन के रूप में तो देखा ही, उन्होनें यह भी स्वीकार किया कि वाणिजियक व्यवहार उच्चतर कोटि का है और लोगों के व्यवहार के तरीकों का स्वाभाविक परिणाम होता है समुदाय का लाभ। उनके अनुसार सामाजिक आचरण और संस्थाएं लोगों के भावनात्मक सामाजिक और मैत्रीपूर्ण प्रत्युत्तर के भी धोतक हंै। बाजार प्रणाली ने सिर्फ पारस्परिक हित के लिए निजी सामाजिक संबंधों को अधिक परिपक्व आधार प्रदान किया है।


इस तरह वाणिजियक सिद्धान्तकारों के अनुसार नागरिक समाज किसी खास राज्य का नहीं बलिक ऐसी राज्य प्रणाली का सहगामी है जो विधि के नियम, सीमित सरकार, अहस्तक्षेप की नीति, वाणिजियक क्रियाकलाप, बाजार और वाणिजियक अनुबंधों एवं स्वतंत्रता का समर्थक है।


परिवार, नागरिक समाज और राज्य के संबंध में हीगेल के विचार


जर्मन विचारक हीगेल के पूर्व पाश्चात्य चिंतन में नागरिक समाज और राज्य अलग-अलग माने जाते थे। हीगेल ने इसको और आगे बढ़ाते हुए समाज के तीन पहलुओं में विभेद किया- परिवार, नागरिक समाज और राज्य उसने परिवार को निजी और नागरिक समाज तथा राज्य को सार्वजनिक क्षेत्र में रखा। उसने परिवारवाद को, नागरिक समाज को प्रतिवाद और राज्य को संवाद की संज्ञा दी और नागरिक समाज को मनुष्य और समाज के सर्वोच्च नैतिक उत्थान की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम माना और इसे राज्य के माध्यम से ही संभव बताया।


हीगेल के अनुसार, परिवार सामाजिक संगठन का वह प्रथम स्वरूप है जिसका निर्माण मानवीय चेतना ने स्वतंत्रता की ओर कदम बढ़ाने के लिए किया। परिवार मुनष्य की इंदि्रयग्राहय आवश्यकताओं को तो पूरा करता ही है, उससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि परिवार ही प्रथम स्थान है जहां पारस्परिक प्रेम और विश्वास के विवेकपूणर् भाव पैदा और विकसित होते हैं और फिर राज्य और समाज के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसीलिए हीगेल परिवार को 'वाद' की संज्ञा देता है। लेकिन अपने छोटे आकार और दायरे के कारण परिवार व्यकित की सारी आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर सकता। यह आधुनिक राज्य द्वारा बड़े पैमाने पर अपेक्षित अवैयकितक कृत्यों और आर्थिक एवं सामाजिक जीवन की गतिविधियों के लिए सर्वथा अपर्याप्त है। इसीलिए हीगेल नागरिक समाज को, जो आधुनिक औधोगिक पूंजीवादी समाज की सामाजिक, आर्थिक और नैतिक व्यवस्थाओं के लिए आवश्यक है, 'प्रतिवाद' कहता है। नागरिक समाज आधुनिक पूंजीवाद की भौतिकवादी सभ्यता के लिए विशिष्टीकरण और परिष्करण का मार्ग प्रशस्त करता है। इसके लिए भी एक ऐसे विश्वास को विकसित करने की आवश्यकता है होती है जो परिवार में बने विश्वास से भिन्न होता है। फिर एक बात यह भी है कि समुदाय का सामाजिक जीवन मुक्त बाजार वाली प्रतियोगी अर्थव्यवस्था से बाधित होता है। ऐसी सिथति में समाज में यह समस्या पैदा हो जाती है कि प्रतियोगी हिताें और स्वार्थों से कैसे निपटा जाए। तात्पर्य यह कि आधुनिक पूंजीवादी प्रणाली में नागरिक प्रणाली में नागरिक समाज स्वार्थ-परायण, घोर प्रतियोगी और धनलोलुप हो जाता है। ऐसी सिथति में कानून और राजनीतिक संस्थाओं का नैतिक अपेक्षाओं की चिंता नहीं रह जाती। हीगेल के अनुसार, यह सिथति और इसके फलस्वरूप, समाज के विघटन की आशंका पैदा हो जाती है, चारों तरफ अनैतिकता का बोलबाला हो जाता है और नागरिक समाज कृत्रिम और निषेधात्मक संस्था बन जाता है।


ऐसे हालात में सारे संघर्षों और विभाजनों से ऊपर उठकर संपूर्ण समुदाय के श्रेष्ठ हितों को साधने के लिए राज्य की आवश्यकता होती है। हीगेल की दृषिट में नागरिक समाज उपभोक्ताओं की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए भौतिक उत्पादकता के निर्माण और संचालन के लिए आर्थिक प्रेरणा तो प्रदान करता है, किन्तु, इसके फलस्वरूप एक छोटे से समुदाय का भातृत्व और सामाजिक सौहार्द नष्ट हो जाता हैं इसी सिथति में वाद (परिवार) और प्रतिवाद (नागरिक समाज) का मिलन होता है और उसकी परिणति संवाद (राज्य) में होती है। परिवार और नागरिक जीवन में जो कुछ सर्वोत्तम है उसे राज्य कायम रखता है और एकता तथा सामंजस्य की स्थापना करता है।


नागरिक समाज के संबंध में माक्र्सवादी विचार


माक्र्स ने अपने इतिहास, समाज और नागरिक जीवन के विश्लेषण की शुरूआत हीगेल के नागरिक संबंधी विचार से की वह हीगेल की राज्य संबंधी अवधारणा से सहमत नहंी था और मानता था कि राज्य संवाद के परिणामस्वरूप निर्मित सर्व-समावेशी राजनीतिक समुदाय न होकर नागरिक समाज की परस्पर संघर्षरत शकितयों का कृत्य है और उनके अधीन ही कार्य करता है। उसके अनुसार, नागरिक समाज पूंजीवादी प्रणाली की बाजार-आधारित प्रणाली में उत्पादन और विनिमय की आर्थिक व्यवस्था, जो श्रम-विभाजन और वर्गों में विभाजित समाज पर टिकी होती है, के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। मनुष्य का इतिहास सिर्फ नागरिक समाज का इतिहास भर है और नागरिक समाज आर्थिक संबंधों का ढांचा मात्र है जिसमें राज्य की सिथति अपेक्षाकृत महत्त्वहीन रहती है। माक्र्स ने इस विचार से अवश्य सहमति जतार्इ कि नागरिक समाज का उदभव पश्च-सामंती काल में निजी आर्थिक उत्पादन से राज्य के अलगाव से हुआ है। उसने तो यहां तक कहा कि नागरिक समाज बुजर्ुआ के साथ ही विकसित होता हैं। उसकी दृषिट में मुक्त बाजारवादी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में नागरिक समाज बुनियादी तौर पर एक गैर-सामाजिक निष्ठुर व्यवस्था है क्योंकि इसमें आर्थिक वर्गों के बीच तीव्र प्रतियोगिता और संघर्ष की सिथति बनी रहती है। इस प्रकार, पूंजीवादी व्यवस्था में नागरिक समाज मनुष्य के द्वारा मनुष्य का धनी व्यापारी वर्ग या बुजर्ुआ के द्वारा निर्धन श्रमिक वर्ग का शोषण मात्र है। इस शोषण का अंत तभी होता है जब वर्ग-संघर्ष शुरू होता है और सर्वहारा वर्ग क्रांति के द्वारा वर्गविहीन और राज्यविहीन स्वतंत्र सहकारी उत्पादकों के समुदाय की स्थापना के लिए बुजर्ुआ द्वारा नियंत्रित राज्य को खत्म कर देता है।


इस प्रकार माक्र्स की दृषिट में पूंजीवादी समाज में नागरिक समाज एक ऐसी वाणिजियक और औधोगिक जीवन पद्धति का अंग होता है जो मानवप्राणी को अर्जनशील तथा स्वार्थी बनाता है और उनके बीच सिर्फ आर्थिक संबंध बनाने की प्रवृत्ति पैदा करता है।


माक्र्सवादी चिंतक ग्राम्सी ने हीगेल और माक्र्स के विश्लेषणों को संयुक्त कर माक्र्स के मत को किंचित रूपांतरित कर दिया। उसने दावा किया कि नागरिक समाज न तो प्राकृतिक सिथति और न औधोगिक समाज का परिणाम। यह एक ऐसे 'आधिपत्य' का कार्य है जो राजनीतिक और सांस्कृतिक दोनों हो सकता है। उसने इस बात की समीक्षा की कि साम्यवाद में संक्रमण की सिथतियां मौजूद होेने के बावजूद पूंजीवाद क्यों जिंदा है। उसने समाज की अधिरचना को दो भागों में बांटा है- नागरिक समाज और राजनीतिक समाज। समाज के प्रभावशाली वर्ग इसी अधिरचना के दोनों अवयवों के माध्यम से दमनकारी और विचारधारात्मक दोनों तरीकों से अपने आधिपत्य का इस्तेमाल करते हैं। ग्राम्सी के अनुसार नागरिक समाज में भौतिक के साथ-साथ विचारधारात्मक और सांस्कृतिक संबंध भी बनते हैं, अर्थात इसमें जीवन के वाणिजियक और औधोगिक संबंधों के साथ-साथ आध्यातिमक और बौद्धिक पहलू भी शामिल होते हैं। इसमें चर्च, राजनीतिक दल, श्रमिक संगठन, और यहां तक कि स्वैचिछक और गैर-सरकारी संगठन भी शामिल हैं। इनमें सारे के सारे बड़े सुक्ष्म तरीके से प्रभावशाली वर्ग की विचारधारा को समर्थन एवं प्रोत्साहन देने में संलग्न रहते हंै। ये प्रभावशाली वर्ग हमेशा अपनी सांस्कृतिक एवं आध्यातिमक सर्वोच्चता को सुनिशिचत करने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं और उनके अधीनस्थ वर्ग भी उन्हे अपनी स्वीकृति प्रदान कर देते हैं। ग्राम्सी का विश्वास था कि राज्य को अपनी दमनकारी शकित का उपयोग करने की आवश्यकता तभी पड़ती है जब विचारधारा की चतुरयोजना काम नहीं करती। उसने पूंजीवादी प्रणाली में नागरिक समाज की भूमिका की तुलना युद्ध में सुरक्षा की दूसरी पंकित से की है। नागरिक समाज की सुक्ष्म किंतु प्रभावशाली कार्यशैली का इस्तेमाल पूंजीवादी प्रणाली द्वारा शोषित श्रमिक वर्ग की क्रांति या विद्रोह के विरुद्ध सुरक्षा की दूसरी पंकित के रूप में किया जा जाता है। लेकिन उसने यह भी स्वीकार किया कि नागरिक समाज श्रमिक वर्ग को आधिपत्य कायम करने के अवसर प्रदान करता है और अंतिम क्रांतिकारी संघर्ष की पृष्ठभूमि तैयार करता है। उसका यह भी मानना था कि सारे देशों में रूस जैसी क्रांति नहीं हो सकती, विशेषकर ऐसे देशों में जहां अधीनस्थ वर्ग मसितष्क-प्रक्षालन अथवा छल योजना से शासित होता है।


नागरिक समाज के संबंध में उदारवादी व्यकितपरक मत


पाश्चात्य चिंतन की उदारवादी परंपरा में नागरिक समाज को अंतत: लोकतंत्र के निर्विघ्न संचालन की शर्त माना जाने लगा। अलेक्सी डी टाकिवले के अनुसार राज्य को अनिवार्य रूप से नागरिक समाज का नियामक नहीं माना जाना चाहिए। नागरिक संघों, समतामूलक संस्थाओं और राजनीतिक संगठनों में लोगों की सहभागिता के बगैर सामाजिक और राजनीतिक संस्थाओं के लोकतांत्रिक स्वरूप को अक्षुण्ण नहीं रखा जा सकता, क्योंकि एक बहुलवादी और स्वशासी नागरिक समाज, जो राज्य से स्वतंत्र हो, लोकतंत्र की बुनियादी शर्त है। उदारवादी योजना में नागरिक समाज के संघों के अंतर्गत पड़ोसी के कल्याण संघ से लेकर सांस्कृतिक संघ और श्रमिक संगठन तक कुछ भी हो सकते हैं, और लोग उनमें स्वेच्छा एवं व्यकितगत स्वतंत्रता के साथ उत्तदायित्व-भावना से भाग ले सकते हैं। राज्य अपनी भूमिका में दमनात्मक सत्ता का उपयोग करता है, जबकि नागरिक समाज व्यकित को अपनी नियति संवारने की स्वतंत्रता प्रदान करता है। चूंकि उदारवादी परंपरा में अधिकतम स्वतंत्रता की प्रतिबद्धता होती है, इसीलिए पुरातन उदारवादी विचारकों ने राज्य पर नागरिक समाज को तरजीह दी और सार्वजनिक प्राधिकार की सत्ता को न्यूनतम करने का प्रयास किया।


उदारवादी चिंतक हेना आरेंत के अनुसार, स्वतंत्र रूप से निर्मित और संचालित नागरिक समाज वाले संघ सर्वसत्तावाद की संभावनाओं के प्रतिभार के रूप में कार्य करते हैं, क्योंकि वे राज्य और व्यकित के बीच का स्थान लेते हैं। जब लोग व्यकितगत रूप से आत्म-केनिद्रत हो जाते हैं और अपने ख्यालों में ही खोए रहते हैं तो वे सर्वसत्तावाद के किसी भी प्रयास के आसानी से शिकार हो जाते हैं।


एक अन्य प्रमुख विचारक हैबर मास का कहना है कि नागरिक समाज लोकनीति के सफल कार्यान्वयन के लिए अत्यंत आवश्यक है व्यकितगत तौर पर लोग मौन होते हैं, लेकिन जब वे एक साथ होते हैं तो सहभागिता की बदौलत लोकनीति के निर्धारण और सफल क्रियान्वयन के लिए राज्य और नागरिक समाज की साझेदारी बहुत जरूरी है।


नैंसी रोजेनब्लम ने तो यहां तक कहा है कि यदि कुछ विशेष नागरिक समाज संगठन लोकतांत्रिक उदारवाद के मूल्यों के विरुद्ध भी हैं तो भी उन्हें प्रोत्साहित करने और सहभागी बनाने का अवसर दिया जाना चाहिए क्योंकि वे उदारवाद विरोधी भावनाओं को विस्फोटक बनने से रोककर उनसे शांति से निपटा सकते हैं।


डायमंड नामक चिंतक ने उदारवादी लोकतंत्र के सुदृढ़ीकरण के लिए नागरिक समाज द्वारा किए जाने वाले निम्नलिखित कार्यों का उल्लेख किया है:


(1) राज्य-सत्ता को निष्प्रभावी करने वाली शकित के रूप में कार्य करना,


(2) जनता के बीच राजनीतिक सहभागिता का भाव जगाना और लोकतांत्रिक कुशलता को प्रश्रय देना ताकि एक लोकतांत्रिक राजनीतिक संस्कृति विकसित हो सके


(3) यह विभिन्न हितों को, जिनमें अनेक मुख्यधारा के राजनैतिक दलों के माध्यम से प्रतिनिधित्व नहीं प्राप्त कर सकतें हों, प्रतिनिधित्व प्रदान करने में मदद करता है


(4) यह विभिन्न हितों और समूहों के बीच अन्योन्य संबंध स्थापित करने में मदद करता है


(5) यह भावी राजनेताओं के लिए प्रशिक्षण का आधार तैयार करता है,


(6) यह नीतिगत युकितयों के बारे में सूचना का विकीर्णन करता है और लोकनीतियों के क्रियान्वयन में अनुश्रवणसमूह (निगरानी रखने वाला समूह) का काम करता है


(7) यह परस्पर विरोधी संकल्पों के बीच मध्यस्थता का कार्य करता है।


नागरिक समाज और पूर्वी यूरोप


इसमें संदेह नहीं कि नागरिक समाज की शकित का खुलासा इतिहास में पिछले दशकों में विशेष रूप से पूर्वी यूरोप के पूर्व के साम्यवादी राज्यों में हुआ है। इन साम्यवादी राज्यों में जो रूपान्तरण हुआ है वह मुख्य रूप से कोलकोवास्की, वाकलाव हैवेल, वाज्दा और अन्य नागरिक समाज के नेताओं और बुद्धिजीवियों के कारण ही हुआ है। साम्यवादी काल में अधिकतर मामलों में जो प्रच्छन्न नागरिक समाज के समूह थे उन्होनें रूस में ग्लासनास्त (पारदर्शिता) और पेरेस्त्रोइका के काल में शुरू हुए परिवर्तनों की प्रक्रिया में अग्रगामी राजनीतिक संगठनों और आंदोलनों की भूमिका निभार्इ। इस एतिहासिक परिवर्तन के पश्चात नागरिक समाज आन्दोलनों की भूमिका निभार्इ। इस ऐतिहासिक परिवर्तन के पश्चात नागरिक समाज के संगठन स्वतंत्रता, बहुलवाद और सहभागिता की दशाओं से जुड़े रहे हैं। पूर्वी यूरोप में नागरिक समाज के आन्दोलन ने साम्यवादी शासन के दरम्यान प्रसुप्त राष्ट्रीय, संजातीय और धार्मिक असिमताओं को पुनर्जीवित करने के लिए राजनीतिक दलों, गिरजाघरों, सूूचना-तंत्र के सदनों, प्रकाशन संस्थानों और व्यापारी संघों जैसे अनेक संघों का पुनर्निर्माण किया है।


असिमता क्या है?


पिछले कुछ दशकों में ऐसा देखा गया है कि लोकतंत्र की अवधारणा जहां एक ओर सुदृढ़ हुर्इ है वहीं दूसरी ओर नस्ल, जाति तथा अन्य आधारों पर संघर्ष भी पैदा हुए हैं। परिणामस्वरूप, राजनीतिक चिंतक एक महत्त्वपूर्ण राजनीतिक अवधारणा के रूप में असिमता पर अधिक ध्यान देने लगे हैं। असिमता के सिद्धान्तकारों की सबसे महत्त्वपूर्ण प्रतिज्ञपित यह रही है कि उत्पीडि़त असिमता वाले समूहों को लोकतांत्रिक राज्य में अपने दावों को प्रस्तुत करने और अपनी शिकायतों को दर्ज कराने के विशेष अवसर मिलने चाहिए। असिमता-समूह प्राय: वे होते हंै जिनके विशिष्ट दावों को बहुमत के आधार पर शासन वाली लोकतांत्रिक प्रणाली में उपेक्षित किया जाता रहा है अथवा जिनमके द्वारा झेली गर्इ ऐतिहासिक नाइंसाफियों की क्षतिपूर्ति नहीं हो पार्इ है। उदाहरणस्वरूप, भारत में निम्न जातियों को शैक्षिक संस्थाओं में आरक्षण के जरिए मदद की जरूरत है, लेकिन यदि अन्य सारी जातियां ऐसे उपायों के विरुद्ध लामबंद होकर मतदान करती हैं तो बहुमत के प्रभाव के फलस्वरूप हजारों साल से चला आ रहा दलित-उत्पीड़न समाप्त नहीं हो पाएगा और ऐसी सिथति में निम्न जातियों के लिए लोकतंत्र अर्थहीन सिद्ध होगा।


इस प्रकार, राजनीति को समझने के आधुनिक तरीकों में असिमता की अवधारणा अति महत्वपूर्ण हो गर्इ है और दावा किया जाता है कि अनेक राजनीतिक घटनाक्रम के विश्लेषण में वैयकितक हित साधने का उदारवादी सिद्धान्त और वर्ग हित की व्याख्या करने वाला माक्र्सवादी सिद्धान्त दोनों निष्प्रभावी सिद्ध हुए हैं और उनका विश्लेषण असिमता की राजनीति के संदर्भ में ही किया जा सकता है।


सर्वप्रथम हम यह देखें की असिमता का अर्थ क्या है। जब हम सामान्यत: दूसरों, विशेषकर अपरिचितों से बातचीत करने के सिलसिले में अपना परिचय देते हैं तो अपना नाम बतलाने के बाद हम यह कहते हैं कि हमारा पेशा क्या है, हम किसी जाति, समुदाय अथवा क्षेत्र के हंै और कभी-कभी यह भी कि अन्य व्यकितयों अथवा समूहों से हमारा क्या संबंध है, हमारी क्या प्रतिबद्धताएं है। असिमता के साथ तीन तत्त्व जुडे़ होते हैं: सक्षमता, समुदाय और प्रतिबद्धता। सक्षमता की अभिव्यकित हमारी योग्यताओं के प्रमाणित होने और उसके अनुकूल सामाजिक स्वीकृति द्वारा होती है। जब हम समुदाय के साथ जुड़े होने की बात कहते हैं तो हम वास्तव में यह बतलाते हैं कि हमारी सामाजिक अवसिथति क्या है। दूसरे शब्दों में देश के किसी क्षेत्र में हम रहते हैं, हमारे धार्मिक सरोकार क्या हैं और हमारा जातिगत आधार क्या है।

जब व्यकितयों, समूहों, संघों और वर्गों को अपने को दूसरों से भिन्न बताने के लिए कहा जाता है और वे शब्दों, संकेतों अथवा व्यवहारों से दूसरों को परिचित करना चाहते हैं तो अपनी असिमता की भावना को राजनीतिक संदर्भ में प्रस्तुत करने की सिथति में होते हैं। बीसवीं सदी में असिमता की खोज विश्व स्तर पर विभिन्न राष्ट्रीयताओं और नृजातीय समूहों का प्रमुख कार्य रहा है। असिमता की राजनीति में संलग्न समूहों ने वैसे संगठनों को अंतर्विष्ट कर लिया है जो प्रजाति, नस्ल राष्ट्रीयता, धर्म, अपंगता, लिंग, पर्यावरण आदि आधार पर एकजुट होते रहे हैं।




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Comments Ss jadiya on 11-11-2023

Ss jadiya

Renuka Joshina khess on 25-11-2022

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Laxmi on 14-01-2022

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